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Friday, January 27, 2017

उत्तराखण्ड के चुनाव में मुद्दों का अकाल
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड  की जनता आगामी 15 फरबरी को अपनी चौथी निर्वाचित सरकार को इस उम्मीद से चुनने जा रही है कि कम से कम इस बार तो ऐसे लोग पक्ष और विपक्ष में आयें जो कि अपने और अपने परिवार के साथ ही अपने गिरोहों के बारे में कम और प्रदेशवासियों के लिये ज्यादा सोचें। लेकिन अब तक के चुना अभियान पर अगर आप नजर डालें तो अतीत से सबक लेकर और भविष्य की संभावनाओं को देखते हुये वर्तमान को संवारने की सोच और नीयत कहीं नजर नहीं रही है। इस चुनाव में असली मुद्दे गायब नजर रहे हैं। सत्ता पक्ष को नीचा दिखाने के लिये विपक्ष तो नेगेटिव प्रचार का सहारा ले ही रहा है मगर सत्ता पक्ष भी राज्य के चहुंमुखी विकास के लिये अपना विजन प्रस्तुत करने के बजाय विपक्ष की कमजोर नसों को दबाये जा रहा है।

उत्तराखण्ड के चुनाव अभियान पर गौर करें तो लगता है कि यहां केवल भ्रष्टाचार ही होता है और असली राज शराब, खनन और वन माफिया का ही चलता है। हैरानी का विषय तो यह है कि कुछ समय पहले तक जिन पर घोटालों के आरोप लगते थे वे ही गला फाड़-फाड़ कर भष्टाचार के खिलाफ नारे लगा रहे हैं। देखा जाये तो भ्रष्टाचार उत्तराखण्ड के चुनावों में स्थाई मुद्दा बन गया है। भाजपा और कांग्रेस की अब तक की ऐसी कोई सरकार नहीं जिस पर घोटालों के आरोप लगे हों। पिछली बार जब राज्य में भाजपा की सरकार थी तो उसके कथित घोटालों की जांच सीबीआइ से कराने की मांग करने वाले और विधानसभा के गेट पर सारंगी बजाने वाले इस समय भाजपा में ही हैं। हकीकयह है कि अगर कोई दल ईमान्दारी का तमगा लटका कर घूम रहा है तो इससे बड़ा भ्ज्ञ्रष्टाचार और कुछ नहीं हो सकता।

देखा जाय तो उत्तराखण्ड में सबसे बड़ा मुद्दा राजनीतिक अस्थिरता का है। राज्य का भविष्य उन लोगों के हाथों में होता है जिनको यह पता नहीं होता कि उनकी कुर्सी दूसरी सुबह तक सलामत रहेगी भी या नहीं। यह नया राज्य अभी बाल्यकाल में है और इसके भविष्य के लिये इसकी जन्मपत्री बनायी जानी है। उम्मीद की जा रही थी कि प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व प्रदेश के विकास की अगले सौ सालों की रूप रेखा तय करेगा। लेकिन प्रदेश की जनता की यह आशा राजनीतिक अस्थिरता की भेंट चढ़ गयी। जिन नेताओं को अपने कल का भरोसा हो उनसे राज्य के कल को संवारने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। पिछले 16 सालों में प्रदेश में प्रदेश में 8 सरकारें चुकी हैं। नौकरशाही के समक्ष लोकशाही का तमाशा बन रहा है। सरकारों को विपक्ष के बजाय अपने ही लोगों से खतरा उत्पन्न हो रहा है। अवसरवादिता और पदलोलुपता के चलते राजनीतिक अस्थिरता के इस दौर में विश्वास का संकट खड़ा हो गया है। समाज के अधिकतमर रहनुमा गिरगिट की तरह रंग बदल रहे हैं। वे एक सांस में नरेन्द्र मोदी के जयकारे लगाते हैं तो दूसरी सांस में राहुल गांधी का यशोगान करने लगते हैं। राजनीतिक नेता पलक झपकते ही अपनी राजनीतिक निष्ठायें और बफादारियां बदल रहे हैं। लेकिन इस गंभीर मुद्दे पर किसी का ध्यान नहीं है। नित्यानन्द स्वामी से लेकर अब तक के मुख्यमंत्रियों में से नारायण दत्त तिवारी मुश्किल से कार्यकाल पूरा कर पाये और हरीश रावत अदालत के हस्तक्षेप के बाद अपनी सरकार बचा पाये जबकि बाकी अन्य मुख्यमंत्रियों की सरकारों की अकाल मृत्यु हो गयी।
राज्य गठन से पहलीे इस पहाड़ी राज्य में पलायन की जो गंभीर समस्या थी वह जस की तस है। गांव खाली हो रहे हैं और मैदानी शहरों में पलायन कर पहुंची आबादी का अत्यधिक बोझ सीमित नागरिक सुविधाओं पर पड़ रहा है। शहरों की धारक क्षमता समाप्त होने के साथ ही नगरों का विकास अस्तव्यस्त हो गया है। जबकि पहाड़ी गाव खाली होते जा रहे हैं। हालत यह है कि किसी वृद्ध के मरने पर शव को शमशान तक ले जाने के लिये चार युवा कन्धे नहीं मिल पा रहे हैं। आदमियों की जगह वीरान गावों में वन्यजीव अपना डेरा जमा रहे हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत ने इस दिशा में मंडुवा-झंगोरा जैसी ग्रामीण उपज को बाजार उपलब्ध करा कर ग्रामीण आर्थिकी को मजबूत करने का प्रयास अवश्य किया मगर यह ऊंट के मंुह में जीरा साबित हुआ है।
 शाह टाइम्स के २८ जनवरी २०१७ के संपादकीय पृष्ठ में छपा लेख 
नवम्बर 2000 को और उससे पहले उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों के स्कूलों में मास्टर होने और अस्पतालों में डाक्टर होने की समस्या थी, जो कि आज भी बरकरार है। पहाड़ों से पलायन का एक प्रमुख कारण वहां शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का घोर अभाव माना जाता रहा है। ये दानों ही जिम्मेदारियां पूरी तरह सरकार पर निर्भर हैं और अब तक की सरकारें यह समस्या का सही समाधान नहीं निकाल पायी। निशंक के जमाने में यहां 108 जैसी आपातकालीन सेवा अवश्य ही शुरू की गयी तथा इन 16 सालों में अस्पतालों का उच्चीकरण भी हुआ। वहां नये अस्पताल भी खुले मगर डाक्टर फिर भी नहीं पहुंचे। दुर्घटनाओं के मामले में अति संवेदनशील इस पहाड़ी राज्य में ट्रॉमा सेंटर तो खोले गये मगर वहां डाक्टर और अन्य साजोसामान नहीं भेजा गया। निशंक और हरीश रावत सरकार के प्रयासों से गंभीर घायलों को हैलीकाप्टर से देहरादून लाने की व्यवस्था तो हुयी मगर शेष गंभीर बीमारों के जीवन की रक्षा अब भी भगवान भरोसे है।
मौसम परिवर्तन के कारण पहाड़ों में जीवन असुरक्षित होता जा रहा है। कभी उत्तरकाशी और चमोली के जैसे भूकम्प तो कभी मालपा और केदारनाथ की जैसी त्वरित बाढ़ तथा ऊपर से बादल फटने और भूसखलन की आपदाओं ने पहाड़वासियों को बेचैन कर रखा है। आपदाओं की दृष्टि से 3 सौ से अधिक गांव संवेदनशील घोषित किये गये हैं मगर उनके पुनर्वास पर किसी का ध्यान नहीं है। मौत के मुहाने पर खड़े ये हजारों परिवार किसी भी दल के ऐजेण्डे में नहीं हैं। सन् 2013 में केदार घाटी में हजारों लोगों की मौत का सबक कोई भी सीखने का तैयार नहीं है। उच्च हिमालयी क्षेत्र केदारनाथ के ऊपर बाढ़ का आना एक विचित्र बात थी। इस मुद्दे पर गहन चिन्तन मनन होना था। क्योंकि यह भविष्य के लिये भी मानव जीवन के लिये खतरे की घंटी है। लेकिन सत्ता की उठापटक में लीन प्रदेश के कर्णधारों के पास इतना सोचने की फुर्सत कहा है? पर्यावरण की बात करना ही राजनीतिक दलों के लिये विकास विरोधी होना है। जबकि मौसम परिवर्तन का सबसे अधिक दुष्प्रभाव उत्तराखण्ड जैसे हिमालयी राज्यो पर पड़ रहा है।
उत्तराखण्डवासियों को अपना भाग्य तय करने के लिये अपना राज्य तो मिल गया मगर 16 साल बाद भी अपने राज्य की स्थाई राजधानी नहीं मिली। भारतीय जनता पार्टी राज्य बनाने का श्रेय तो लेन चाहती है मगर राज्य की राजधानी का मसला लटकाने का अपयश अपने सिर लेने को तैयार नहीं है। चमोली जिले के गैरसैण में तीसरी बार विधानसभा का सत्र आहूत हो गया। वहां भराड़ीसैण में एक भव्य विधानसभा भवन और सचिवालय भवन तैयार हो गये फिर भी कोई भराड़ीसैण को स्थाई या ग्रीष्मकालीन राजधानी कहने को तैयार नहीं है। एक ओर गैरसैण में राजधानी का जैसा आधारभूत ढांचा खड़ा किया जा रहा है दूसरी ओर देहरादून के रायपुर में भी विधानभवन के निर्माण की तैयारियां चल रही हैं। जब तक पहाड़ की राजधानी पहाड़ में नहीं बनती तब तक उत्तराखण्ड की पलायन जैसी कई समस्याओं का निदान नहीं हो सकता।
सन् 2012 के विधानसभा चुनावों के समय भाजपा ने प्रदेश में चार नये जिले बना कर जिलों की संख्या 17 तक पहुंचाने की घोषणा की थी। कांग्रेस ने भी नये जिलों के गठन का वायदा किया था। लेकिन 5 साल गुजरने के बाद भी नये जिलों का कहीं नामोनिशान नहीं है। इस बारे में भी राजनीतिक दल खामोश हैं। आय की तुलना में खर्च कई गुना अधिक होने के कारण राज्य पर कर्ज 46 हजार करोड़ तक पहुंच गया है। ब्याज ही हजारों करोड़ में देना पड़ रहा है। कर्मचारियों का वेतन देने के लिये भी उधार लेना पड़ रहा है। राज्य की आर्थिक हालत भी राजनीतिक दलों के मुद्दों में शामिल नहीं हो पा रही है। उत्तराखण्ड में जितनी अधिक भौगोलिक परिस्थितियां हैं उतनी ही अधिक लोगों की विकास की जरूरतें तथा समस्याएं भी हैं। लोगों की इन विविध अपेक्षाओं को दरकिनार कर राजनीतिक दल सत्ता हथियाने के लिये केवल नेगेटिव मुद्दे लेकर आगे बढ़ रहे हैं। भाजपा ने कांग्रेस सरकार के भष्टाचार को मुद्दा बना रखा है तो कांग्रेस पलटवार कर जवाब देती है कि भाजपा ने जिन-जिन मंत्रियों और नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे वे सभी आज भाजपा में ही हैं। यही नहीं कांग्रेेस हरीश रावत सरकार को गिरा कर राष्ट्रपति शासन लगाने तथा राज्य के बजट को महीनों तक दबा कर रखने को भी मुद्दा बना रही है।

-जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
देहरादून।
09412324999
jaysinghrawat@hotmail.com




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