अब उत्तराखण्ड पहुंचेगी किसानों के गुस्से की आग
-जयसिंह रावत-
भूमि को लेकर किसानों के गुस्से की आग नन्दीग्राम और सिंगूर होते हुये देश की राजधानी दिल्ली की नाक के नीचे भट्टा परसौल तक पहंच गयी और भारत की सरकार हड़बड़ा भी गयी मगर उत्तराखण्ड की सरकार इस तरह चैन की बंसी बजा रही है जैसे कि उसका इससे कोई लेना देना ही न हो जबकि यह समस्या अकेले मनमोहन सिंह या मायावती की न होकर समूचे राष्ट्र की है और खास कर उत्तराखण्ड जैसे राज्य जहां भूमाफियाओं की ही तरह सरकार और राजीतिक नेता व्यवहार कर रहे हों, वहां स्थिति और भी गम्भीर है।
सन् 1946 में जब आन्ध्र के तेलंगाना क्षेत्र के नालगौण्डा क्षेत्र में उठी किसान विद्रोह की चिंगारी दावानल की तरह वारांगल और विदार जिलों के 4000 फैली तो उस समय भी किसी को यह आशंका नहीं थी कि यह आग पश्चिम बंगाल के उत्तरी हिस्से के नक्सलवाड़ी तक पहुंच जायेगी। 25 मई 1967 को जब बंगई जोत में किसानों पर गोलीबारी हुये तो तब जा कर लोकतांत्रिक सरकार को अहसास हुआ कि धुर बामपन्थ किसानों के इस गुस्से को लपकने के लिये किस तरह आतुर है। वही स्थितियां आज देश के विभिन्न कोनों से उपजती नजर आने लगी हैं।
नये राज्य उत्तराखण्ड में बिजली प्रोजेक्टों के नाम से दुर्लभ जमीनों की लूट खसोट तो दशकों से जारी थी। उससे पहले तराई में थारू और बोक्सा जनजातियों की जमीनें बाहरी दबंग धनबल और बाहुबल के अलावा छलबल सवे हड़प चुके थे और तराई के मूल निवासियों का अपने ही पुश्तैनी खेतों पर खेतिहर मजदूर बना चुके थे। बाद में औद्येगिक विकास के नाम पर किसानों को भूमिहीन किया जाने लगा। इसी दौरान नौकरशाह और थैलीशाह औने पौने दामों पर महत्वपूर्ण जगहों पर जमीनें हड़पने लगे। हाल ही में उत्तरकाशी जिले में गोविन्द वन्यजीव विहार के सौड़ गांव में एक आइएएस द्वारा खरीदी गयी नाप खेत की जमीन के अलावा बड़े पैमाने पर सरकारी जमीन भी हड़पने और मकान बनाने के लिये सेकड़ों पेड़ काटने का इसका ताजा नमूना सामने आया है। इससे पहले भी उसी इलाके में नौकरशाह अपने पद का दुरुपयोग कर बड़े पैमाने पर स्थानीय किसानों के साथ ही सरकारी जमीनें हथिया चुके हैं। अब उत्तराखण्ड राज्य के गठन के बाद राजनीतिक नेताओं ने जमीनें हड़पने का काम शुरू कर दिया। देखा जाय तो जो काम भूमाफिया करते थे वही काम अब सत्ता में बैठे राजनीतिक लोग कर रहे हैं। जहां जिसका बस चल रहा है वह वहीं पर कब्जा कर रहा है।यहां कोई बेटी के नाम तो कोई बीबी के नाम जमीन हथिया रहा है। यहां तक कि कुछ ने अपनी गर्ल फ्रेण्ड के नाम भी जमीनें हथिया ली। जमीन मिटटी का टीला नहीं बल्कि धरती का हिस्सा है। धरती पर जमीन ही जीवन का सबसे बड़ा आधार है। जमीन के बगैर आप कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसीलिये जमीन और आधार या बुनियाद को पर्यायवाची माना जाता है। जमीन धरती का हिस्सा है और धरती जीवन की जननी है। हम इसी धरती में पैदा होते हैं और इसी धरती में विलीन हो जाते हैं।
मौजूदा समस्या के परिपेक्ष्य में महाभारत का दृष्टान्त देना अप्रासंगिक न होगा। उस महायुद्ध से पहले जब कृष्ण दुर्योधन के पास समझौते का अन्तिम प्रस्ताव लेकर गये थे तो दुर्योधन ने कहा था कि वह सुई की नोक के बराबर भी पाण्डवों को जमीन देने को तैयार नहीं हैं। जाहिर है कि अगर दुर्योधन एक छोटा सा भूभाग पाण्डवों को दे देता तो महाभारत युद्ध नहीं होता और उतना महाविनाश भी नहीं होता। महाभारत ही क्यों दुनियां के बड़े बड़े युद्धों का कारण जर जोरू और जमीन ही रहे हैं। भारत और पाकिस्तान या चीन के बीच टकराव का कारण जमीन का हिस्सा नही ंतो और क्या है। भारत के कई राज्यों में नक्सलवादी या माओवादी सक्रिय हो गये हैं और सरकार द्वारा पूरी ताकत झोंके जाने के बाद भी उनका प्रभाव बढ़ता ही जा रहा है। अगर हालात यही रहे तो फिर देश का चप्पा चप्पा नक्सलवाड़ी बन सकता है।
इतने महत्वपूर्ण संसाधन के लिये अगर किसी देश के पास कोई सुविचारित नीति और प्रबन्धन का
व्यवहारिक नजरिया नहीं ह,ै तो समझो कि उसके पास कुछ भी नहीं है। भूमि प्रबन्धन के आधार पर दुनियां की सभ्यताऐं बनती और बिगड़ती रही हैं। धरती माता के टुकड़े कर उसकी खरीद फरोख्त या दलाली करने वाले आज समानान्तर व्यवस्था चला रहे हैं और धरती पुत्र किसान गरीबी से तंग आकर आत्महत्याऐं कर रहा है।एक किसान के पास उसकी जो जमीन होती है वह कई पीढ़ियों की धरोहर होती है और यह धरोहर आगे की कई पीढ़ियों तक चलती है। अतः हमें समझ लेना चाहिये कि अगर आप किसी किसान की जमीन खरीद या हड़प रहे हैं तो उसकी भावी पीढ़ियों के जीने का सहारा छीन रहे हैं।भूमि वह संसाधन है जो कि बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसे आप खींच तान कर लम्बी या चौड़ी नहीं कर सकते।
संविधान में भूमि को राज्य सूची में रखा गया है। इसलिये अपनी परिस्थितियों के अनुकूल भूप्रबन्धन या भू उपयोग नीति बनाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। यह प्रावधान भारत की विविधताओं के कारण रखा गया था। इसका उदाहरण उत्तराखण्ड भी रहा है जहां पहाड़ी इलाके के लिये कूजा ऐक्ट, देहरादून हरिद्वार आदि मैदानी इलाके के लिये उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार ऐक्ट, टिहरी के लिये तत्कालीन राजा द्वारा संचालित ऐक्ट और जौनसार बाबर के लिये अलग ऐक्ट चलता था। उत्तराखण्ड के तराई इलाके में 9 प्रकार की खाम लैण्ड होती थी जिनके लिये अलग -अलग प्रावधान थे। इसलिये भारत में एक जैसे भूसुधार या प्रबन्धन कानून नहीं बनेे।
भूराजस्व वसूली के लिये भूप्रबन्धन की शुरूआत अकबर बादशाह के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल ने की थी। मुगलों के बाद अग्रेज और उनके अधीन रहे नबाब और रियासती राजा भी राजस्व वसूली के लिये ही भूमि रिकार्ड रखते थे। लेकिन आजादी के बाद हमारी सरकारें राजस्व खातों के कम्प्यूटरीकरण की बातें तो करती हैं, मगर सही रिकार्ड नहीं बनाती। उत्तराखण्ड में 1962 के बाद भूमिबन्दोबस्त नहीं हुआ। हालत यह है कि जिसके कब्जे में जमीन है रिकार्ड में उसके नाम पर जमीन नहीं है। तराई में हालत सबसे बदतर है।जब आपके पास आधारभूत आंकड़े तक नहीं हैं तो फिर आप भूमिसुधार कैसे कर सकते हैं? उत्तराखण्ड में एक विशेष बात यह है कि यहां 90 प्रतिशत जमीन सरकारी है और 10 प्रतिशत जमीन निजी है। यह 10 प्रतिशत भी भूक्षरण के कारण डिग्रेडेड है। इसमें से भी आधा जमीन पलायन के कारण बंजर पड़ गयी है। जो जमीन बच्र हुयी है उसमें बंदर और सुअर आदि जंगली जानवरों के कारण खेती करना आसान नहीं रह गया है। देखा जाय तो उत्तराखण्ड में जो बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है उसकी जड़ में भी जमीन ही है। वह इसलिये कि बिखरे और डिग्रेडेड छोटे खेतों में खेती नहीं हो पा रही है और लोग आजीविका के लिये मैदानों की ओर भाग रहे हैं। ताजा जनगणना के आंकड़े इस पलायन के गवाह है। सारी दुनियां में आबादी बढ़ रही है और जनगणना के आंकड़े पौड़ी तथा अल्मोड़ा में घटी हुई आबादी बता रहे हैं। जहां आबादी घटी नहीं वहां महिलाओं की संख्या अधिक है। अगर उत्तराखण्ड सरकार भूप्रबन्धन पर ध्यान नहीं देती है तो यह देश की सुरक्षा के प्रति भी खिलवाड़ होगा, क्योंकि पिथौरागढ़ और चमोली जैसे सीमान्त जिलों के सीमान्त इलाकों से बड़े पैमाने पर लोग पलायन कर सीमा क्षेत्र खली कर रहे हैं।
प्रख्यात पर्यावरणविद् चण्डी प्रसाद भट्ट तीन बार लगातार तीन मुख्य सचिवों को हरियाणा की पुनर्वास और भूमि अधिग्रहणनीति की प्रतियां थमा गये। एक बार एक मुख्य सचिव ने भट्ट जी के साथ इस बारे में आला नौकरशाहों की बैठक भी कराई दो बार चण्डी प्रसाद भट्ट ने मेरे हाथों भी हरियाणा की नीति का दस्तावेज मुख्यमंत्री को भिजवाया। मगर किसी के कानों में जूं तक नहीं रेंगी। भट्टा परसौल काण्ड के बाद जमीन अधिग्रहण को लेकर हरियाणा सरकार के फार्मूले को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाने की मांग जोर पकड़ने पर अब भारत सरकार अपना कानून बनाने के लिये हरियाणा की उसी नीति के प्रावधानों को चाट रही है। पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट ने भट्टा परसौल काण्ड से पहले प्रधानमंत्री डा0 मनमोहन सिंह को आगाह कर दिया था कि किसानों की जमीन को कमोडिटी के बजाय जीवन का आधार माना जाय और अगर किसी की जमीन लेना राष्ट्रहित में जरूरी है तो उसे हरियाणा की नीति के अनुसार मुआवजा और पेंशन दी जाय।
इस फार्मूले के तहत औद्योगिक या बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए जो जमीन ली जाती है उसके लिए बाजार भाव पर मुआवजा दिया जाता है। किसानों को पूरी राशि एक बार में नहीं दी जाती, बल्कि हर वर्ष उन्हें रायल्टी दी जाती है। इसके साथ ही रोजगार की गारंटी मिलती है। हिमाचल प्रदेश ने जो अपना लैण्ड टेनेंसी और भूसुधार कानून बनाया था उसे असरदार लोगों ने संशोधन करा कर बेअसर बना दिया। उत्तराखण्ड सरकार ने हिमाचल की नकल करने की कोशिश की तो यहां भी स्वार्थी तत्वों और भूमाफिया ने मिलीभगत कर कानून का उद्ेश्य विफल कर दिया।
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