उत्तराखण्ड में फिर छली गयी आधी आबादी
जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड राज्य के लिये चले आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाली महिलाऐं सत्ता की भागीदारी में एक बार फिर हासिये में धकेल दी गयी हैं। उनके लिये एक तिहाई आरक्षण की वकालत करने वाली राजनीतिक पार्टियों उनके लिये लगभग 10 प्रतिशत सीटें ही छोड़ी हैं। उनमें से भी कितनी जीत कर आयेंगी, यह सवाल भी मुंह बायें खड़ा हो गया है।
संसद में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण की पुरजोर वकालत कर रही कांग्रेस और भाजपा की मुहिम उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों में फिसड्डी साबित हो गयी है। प्रदेश के निर्माण में निर्णायक भूमिका अदा करने वाली प्रदेश की महिलाओं में से कांग्रेस ने 8 और भाजपा ने केवल 7 महिलाओं को चुनाव मैदान में उतारा है। दोनों ने ही वर्ष 2007 में महिलाओं को इससे कम टिकट दिये थे। तब भाजपा ने सिर्फ 5 टिकट महिलाओं को दिये थे। प्रदेश में अपनी दमदार उपस्थिति रखने वाली मायावती की बसपा की स्थिति और भी खराब है। उसने केवल एक महिला को दंगल में उतारा है। कमोवेश समाजवादी पार्टी ने भी एक महिला को टिकट देकर आधी आबादी के प्रति अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर दी है। जबकि प्रदेश की 70 विधानसभा सीटों में से कम से कम 12 सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से अधिक होने के कारण उनके मत ही निर्णयक हैं, जो कि अगली सरकार के गठन में भी निर्णायक हो सकते हैं। जिन सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या अधिक है उनमें केदारनाथ, रुद्रप्रयाग, घनसाली, देवप्रयाग, श्रीनगर, चौबटाखल, धारचुला, पिथौरागढ़, डीलडीहाट, कफकोट, सल्ट और द्वाराहाट शामिल हैं। जिलामें रुद्रप्रयाग, पौड़ और पिथौरागढ़ की सीटों पर महिलायें निर्णायक होने जा रही हैं।
महिला समाज सेवियों का यह भी मानना है कि महिलाओं को कम से कम एक-एक दल से लगभग 18 टिकट दिये जाने चाहिये थे। यद्यपि बड़े दल महिलाओं को कम टिकट देने के मामले में सीट जीतने का तर्क दे रहे हैं। लेकिन महिला कार्यकर्ताओं का मानना है कि जब त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में महिलायें पुरुषों को भी हरा कर कोटे से अधिक सीटें जीत सकती हैं तो वे विधानसभा चुनाव में पुरुष प्रत्याशियों को क्यों नहीं हरा सकती। रूरल लिटिगेशन एण्ड एण्टाइटिलमेंट (रुलक) कर दामिनी भारद्वाज के अनुसार प्रदेश में ग्राम प्रधानों के 7239 पदों में से महिल6ाओं ने 3817 पद और क्षेत्र पंचायत के 3075 में सम 1622 पद जीते हैं जो कि 53 प्रतिशत से अधिक हैं। इसी प्रकार महिलाओं ने जिला पंचायत के 371 में 203 पद जीते हैं जो कि 55 प्रतिशत से अधिक हैं। जाहिर है कि महिलाओं ने 50 प्रतिशत से अतिरिक्त पद पुरुषों को हरा कर जीते हैं। महिला समाज सेवियों का कहना है कि पहली निर्वाचित सरकार में कांग्रेस ने इंदिरा हृदयेश जैसी दबंग नेत्री को महत्वपूर्ण स्थान देने के साथ ही एक अन्य महिला अमृता रावत को भी राज्यमंत्री का दर्जा दिया मगर अगली बार भाजपा का शासन आते ही सरकार में महिलाओं का हिस्सा घट गया। उस सरकार में केवल बीना महराना को राज्यमंत्री का दर्जा मिला तो मुख्यमंत्री बदलते ही उन्हें हटा दिया गया और उनकी जगह विजया बड़थ्वाल को राज्यमंत्री बनाया गया। बाद में श्रीमती बड़थ्वाल की किस्मत खुली तो उनको कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया गया।
भले ही राजनीतिक दल महिलाओं को जिताऊ या सरकार चलाने के काबिल न समझें मगर ताजा जनगणना के नतीजे कहते हैं कि प्रदेश के 16 प्रतिशत परिवार की मुखिया महिलायें ही हैं। यही नहीं प्रदेश के लगभग एक लाख लोग तीनों सेनाओं के अलावा अर्धसैन्य बलों में हैं। उनके अलावा बड़े पैमाने पर पुरुष नौकरियों के लिये मैदानी इलाकों में रहते हैं और गांव में इन सबके परिवार इनकी पत्नियां चलाती हैं। उत्तराखंड में महिला-पुरुष लिंगानुपात 2001 की जनगणना के मुकाबले एक अंक ऊपर चढ कर 962 से 963 हो गया है। लिंगानुपात में अल्मोड़ा जिला पूरे देश में सबसे उपर आ गया है। यहां पर प्रति एक हजार पुरुषों पर 1142 महिलाएं हैं। साक्षरता दर में जहां महिलाओं का अनुपात पहले 60 फीसदी से भी कम था, वहीं अब यह आंकड़ा 70 फीसदी पार कर गया है।
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