राज उत्तराखण्ड का और कानून उत्तर प्रदेश के
- जयसिंह रावत-
कोई भी शासन तंत्र बिना कायदे कानूनों के नहीं चल सकता है। बिना कानूनों के समाज में सुव्यवस्था की कल्पना भी नहीं की जाती है। लेकिन भारतीय गणतंत्र के 27 वें राज्य उत्तराखण्ड में एक दशक बाद भी पूर्ववर्ती राज्य उत्तर प्रदेश के ही कानून चल रहे हैं। इन दस सालों में इस नये राज्य ने 6 मुख्यमंत्री, दर्जनों मंत्री, सेकड़ों विधायक और मंत्रियों के जैसे ठाटबाट वाले सेकड़ों नेताओं को देख लिया। मगर शासन व्यवस्था के मूल आधार अपने कायदे कानूनों की यह राज्य अब भी बाट जोह रहा है। राज्य में अब भी 300 से अधिक अधिनियम उत्तर प्रदेश के ही चल रहे हैं। हैरानी की बात तो यह है कि इन 6 मुख्यमंत्रियों की सरकारों ने कानून अपने प्रदेश की परिस्थितियों के अनुकूल बनाना तो रहा दूर उनके नाम तक बदलना जरूरी नहीं समझा। जबकि राज्य गठन के समय अपेक्षा की गयी थी कि नया राज्य दो साल के अन्दर अपने कानून बना लेगा।
उत्तराखण्ड राज्य के जन्म लेने के एक दशक बाद भी जब वही कार्य संस्कृति और वही कानून चलने हैं तो फिर अलग राज्य के गठन के कोई औचित्य पर सवाल उठना लाजिमी ही है। हमारे देश के संघीय प्रजातंात्रिक ढांचे में कुछ संघीय विषयों को छोड़ कर राज्यों को कानून बनाने का अधिकार भारत विविधताओं को देख कर ही दिया गया है। यहां नस्लों से लेकर मिट्टी पानी सहित हर चीज में विविधता है। इसलिये सारे देश में एक जैसे कानून नहीं चल सकते। राज्य सूची के अलावा भी संविधान राज्यों को समवर्ती सूची के विषयों में भी केन्द्र के साथ ही अपने कायदे कानून बनाने की अनुमति देता है। यही नहीं जब संविधान का 73 वां संशोधन लागू किया गया तो उसमें भी जनजाति बाहुल्य के अनुसूची 6 के उत्तरपूर्वी राज्यों को इसलिये रखा गया ताकि वहां के लोग अपने पसंद की अपनी पंचायत व्यवस्था में ही अपना विकास कर सकें। देश के अन्य हिस्सों पर भी केन्द्रीय कानून नहीं थोपा गया। संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन में सभी राज्यों को एक फ्रेम के तहत अपनी परिस्थितियों के अनुरूप पंचायती राज का अधिनियम बनाने को कहा गया। यह बात दीगर है कि उत्तर प्रदेश ने अपने लिये जो पंचायती राज ऐक्ट बनाया था वही उत्तराखण्ड में अब भी चल रहा है। पिछले 11 सालों से राज्य के पंचायती राज एक्ट का मजमून तैयार करने के लिये जितनी भी सरकारें आयीं उतनी ही समितियां बनी और उन समितियों ने देशभर के सैर सपाटों पर करोड़ों रुपये खर्च भी कर लिये, मगर आज तक राज्य का एक अदद पंचायती राज एक्ट नहीं बन पाया। यही नहीं कुछ लोग पंचायती राज सीखने के लिये थाइलैण्ड तक चले गये।
विषम भौगोलिक परिस्थितियों और सांस्कृतिक विविधताओं के कारण इस भूभाग के लिये अलग प्रदेश की मांग इसलिये उठी थी क्योंकि इस भूभाग के लोगों का मानना था कि लखनऊ में बैठे शासक इस पहाड़ी क्षेत्र की विशेष परिस्थितियों को नहीं समझते हैं, और इस क्षेत्र पर अनचाहे कायदे कानून थोप देते हैं। कानून थोपने की इस प्रवृत्ति को लखनऊ के शासकों की तानाशाही प्रवृत्ति माना गया और अन्ततः 1994 में जनता का आक्रोश उत्तराखण्ड आन्दोलन के रूप में फूट ही पड़ा। उस आक्रोश के पीछे भौगोलिक विषमता और अलग सांस्कृतिक पहचान की लालसा के साथ ही 1980 का वन संरक्षण अधिनियम और फिर उसके बाद ओ.बी.सी. आरक्षण का कानून थोपना भी था। उत्तराखण्ड जैसे इलाकों की अलग-अलग परिस्थियों को अंग्रेज तो समझे थे मगर उत्तराखण्ड की अपनी सरकारें नहीं समझ पा रही हैं। यहां की अलग परिस्थियों को दखते हुये ही अग्रेजों ने इस भूभाग को उत्तर प्रदेश से अलग शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट ऐक्ट 1878 के तहत अलग से प्रशासित किया था। वह ऐक्ट उत्तर पूर्व के उन जनजाति बाहुल्य क्षेत्रों के लिये बना था जहां लोग अपनी परम्परानुसार अपनी सामाजिक व्यवस्था चाहते थे। सन् 1950 में जब देश का पहला भूमि सुधार कानून उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार अधिनियम बना तो वह देश के अन्य राज्यों के लिये नजीर तो बना मगर वह अपने ही प्रदेश के उत्तराखण्ड वाले हिस्से पर फिट नहीं बैठ सका। नतीजतन उत्तर प्रदेश सरकार को कुमायूं उत्तराखण्ड जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार ऐक्ट 1960 (कूजा ऐक्ट)बना कर इस भूभाग के लिये अलग कानूनी व्यवस्था करनी पड़ी। यही नही ंतब तक पूर्व टिहरी रियासत और देहरादून के जौनसार- बाबर के लिये अलग-अलग भूमि कानून मौजूद थे। उत्तराखण्ड में भी इतनी विविधतायें हैं कि आप सारे नियम पूरे प्रदेश के लिये एक जैसे नहीं बना सकते हैं। जैसे संविधान के 74 वें संशोधन के अनुसार प्रत्येक नगरपालिका का कार्यकाल 5 साल होता है और इसी अवधि में नयी पालिका का चुनाव भी अनिवार्य होता है। लेकिन बद्रीनाथ,केदारनाथ और गंगोत्री की ऐसी नगरपालिकाऐं हैं जहां कभी चुनाव नहीं होते। वहां चुनाव हो भी नहीं सकते हैं,क्योंकि वहां स्थाई आबादी नहीं है और साल में 6 माह तक ये नगरपालिका क्षेत्र निर्जन रहतेे हैं। वहां जो आबादी होती भी है वह देशभर से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी आती है, जिसे यात्राकाल में नागरिक सुविधाओं की जरूरत पड़ती है। क्षेत्रीय असमानताओं या विविधताओं के कारण कई बार सरकार को अलग-अलग क्षेत्रों की कुछ व्यवस्था विशेष के लिये अलग नियम बनाने पड़ते हैं। प्रत्येक नगरपालिका और अधिसूचित क्षेत्र के अपने नियम और उपनियम होते हैं। उत्तराखण्ड में अब भी उत्तर प्रदेश के कुछ ऐसे नियम लागू हैं जो कि अब निरर्थक हो गये हैं। जैसे यू.पी. ला ऐक्ट 1950 के तहत देहरादून के परगना जौनसार बाबर और मिर्जापुर के कैमूर रेंज जो कि अब सोनभद्र है, के लिये कानूनों को लागू किया गया था जिनकी प्रासंगिकता समाप्त हो गयी है। यही नहीं उत्तराखण्ड में स्पेशल पावर ऐक्ट 1932, बंगाल रेगुलेशन आफ एग्रीकल्चर क्रेडिट ऐक्ट 1938, रामपुर ऐक्ट 1950 और अवध तालुकदार रिलीफ ऐक्ट 1870 जैसे कानून भी चलाये जा रहे हैं।
राज्य गठन के 11 साल बाद भी उत्तराखण्ड में पूर्ववर्ती राज्य के ही कायदे कानून चलना यह दर्शाता है कि इस नये राज्य के शासक इसकी मूलभूत अवश्यकताओं के प्रति कितने संवेदनशील हैं। कानून ही क्यों राज्य सरकार की कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर अब तक अपनी नीतियां भी नहीं हैं। शासन व्यवस्था में पहले शासक बहुत दूर की सोच कर अपने विवेक से नीतियां बनाते हैं और फिर उन नीतियों को व्यवहारिक धरातल पर उतारने के लिये कानून बनाये जाते हैं। कानून बनने के बाद सरकार की मशीनरी या नौकरशाही उन कानूनों को लागू कराती है। लेकिन उत्तराखण्ड में गंगा सागर से गंगोत्री की ओर गंगा बहाई जा रही है। यहां पहले कृयान्वयन होता है और फिर जब कभी शासकों को याद आ जाती है तो फिर नियम बनाये जाते हैं और नीतियां बनाने की बात सोची जाती है।
राज्य गठन के बाद उत्तराखण्ड में नये नियम या अधिनियम तो बने हैं मगर उनसे राजनीतिक और नौकरशाहों की बिरादरियों को ही लाभ हुआ।विधायकों ने इन दस सालों में अपने वेतन और भत्तों में बढ़ोत्तरी के लिये 5 बार कानून में संशोधन कर दिये। आयोगों, सरकारी समितियों, बोर्डों और विभिन्न परिषदों के अध्यक्षों और उपाध्यक्षों को मंत्री की श्रेणी से तो बाहर निकाल लिया गया मगर उन्हें वरिष्ठ आइ.ए.एस. प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारियों के समान सुख सुविधायें देकर उन पर करोड़ों रुपये प्रतिवर्ष खर्च किये जा रहे हैं। मगर प्रदेश की विधानसभा ने इन कई इर्जन पदों को लाभ की श्रेणी से अलग कर दिया, ताकि कानून बनाने वाले विधायकों की सदस्यता पर आंच न आ सके। ऐसा नहीं कि उत्तराखण्ड के राजनेता कानूनों और संविधान के बारे में अनविज्ञ हों। जब वे कानून पढ़ते हैं तो तब ही उनका तोड़ भी निकालते हैं। संविधान के 91 वें संशोधन से अनुच्छेद 164 में राज्यों के लिये और 75 में केन्द्रीय मंत्रिमण्डल के लिये नयी धाराएं (1 क)और(1ख) जोड़ कर यह व्यवस्था की गयी थी कि अब लोक सभा या विधानसभा की संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक और कुल 12 से कम मंत्री नहीं हो सकेंगेे। मगर राजनीतिक दलों ने अपने चहेतों को पिछले दरवाजे से सत्ता में पहुंचाने के लिये संसदीय सचिव या सभा सचिव बनाने का एक और नायाब तरीका निकाल लिया। संविधान के प्रावधानों की बंदिशों के कारण मंत्रियों की संख्या तो मात्र 12 है मगर राज्य सरकार ने 7 विधायकों को संसदीय सचिव या सभा सचिव बना दिया। इनके अलावा विधायकों समेत लगभग 100 नेताओं को मंत्रियों के जैसे महत्वपूर्ण पद दे दिये। दरअसल कानून बनाने से वोट तो मिलते नहीं, इसलिये सरकारें केवल वही काम करती रही जिनसे कोई राजनीतिक लाभ हो।
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