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Thursday, March 5, 2020

दंगाई भी क्या राष्ट्रभक्त हो सकते हैं?


दंगाई भी क्या राष्ट्रभक्त हो सकते हैं?

-जयसिंह रावत
कहीं भी दंगा फसाद होना गंभीर बात होती है, लेकिन जब सरकार की नाक के नीचे देश की राजधानी ही साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जल उठे तो स्थिति की गंभीरता कई गुना बढ़ जाती है। अगर कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी किसी राज्य सरकार पर नहीं बल्कि सर्व शक्तिमान और सर्व संसाधनों से सुसज्जित भारत सरकार पर हो तो स्थिति की गंभीरता का स्वयं ही आंकलन किया जा सकता है। दिल्ली की इस हिंसा से सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या सरकार दिल्ली में बढ़ती जा रही अराजकता से वास्तव में अनजान थी?हालांकि ठीक अमरीकी राष्ट्रपति के आगमन पर हिंसा की टाइमिंग भी कई सवाल उठाती है। अगर इसके पीछे कोई बड़ी साजिश थी और सरकार की इंटेलिजेंस ऐजेंसियां बेखबर थीं तो ऊंगली फिर भी भारत सरकार पर ही उठती है, क्योंकि दिल्ली में कानून व्यवस्था और लोगों के जानोमाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी सीधे भारत सरकार की ही है।
भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत कानून एवं व्यवस्था या पब्लिक ऑर्डर राज्य के विषय हैं, इसलिए, अपराधों को रोकना, उनका पता लगाना, पंजीकरण करना, जांच करना और अपराधियों पर मुकदमा चलाना राज्य सरकारों का प्राथमिक कर्तव्य है। लेकिन दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं बल्कि पार्ट सी राज्य या विशेष श्रेणी का संघ शासित राज्य है। इसलिये संविधान के अनुच्छेद 239 एए के तहत शांति व्यवस्था, पुलिस और भूमि केन्द्र सरकार के नियंत्रण में आते हैं और इन विषयों पर कानून बनाने का अधिकार भी संघ सरकार को ही है। वर्तमान में पुलिस विभाग भी किसी अन्य के पास नहीं बल्कि प्रधानमंत्री मोदी के बाद सबसे शक्तिशाली नेता अमित शाह के मजबूत हाथों में है। इसलिये दिल्ली की इस अराजकता और खून खराबे के लिये सीधे सवाल का जबाब अमित शाह से ही बनता है। उनके पास केवल 80 हजार से अधिक नफरी वाली आधुनिक दिल्ली पुलिस है, बल्कि आइबी जैसी खुफिया ऐजेंसियां, 246 बटालियनों में लगभग 3 लाख की संख्या वाली सीआरपीएफ, 2.57 लाख संख्या वाली बीएसएफ, 1.48 लाख संख्या वाली सीआइएसएफ, असम रायफल्स, एसएसबी, आइटीबीपी और एनएसजी केन्द्रीय सशस्त्र बल भी हैं। गृह मंत्रालय के पास सीआरपीए्फ की ही रैपिड एक्शन फोर्स की 15 बटालियनें भी हैं जो कि खास कर दंगा नियंत्रण या भीड़ नियंत्रण में माहिर मानी जाती हैं और देश के किसी भी कोने में स्थिति बिगड़ने पर तत्काल तैनात की जाती हैं। आखिर इतना बड़ा तामझाम होते हुे भी दिल्ली के मौजपुर, जाफराबाद, सीलमपुर, गौतमपुरी, भजनपुरा, चांद बाग, मुस्तफाबाद, वजीराबाद, खजूरी खास और शिव विहार जैसे क्षेत्रों को तीन दिनों तक साम्प्रदायिक हिंसा में जलने क्यों दिया गया।
सीआरपीएफ या रैपिड एक्शन फोर्स तो तब आती है जबकि हालात स्थानीय पुलिस के बूते से बाहर हो जांय। अपनी तुलना लंदन, पेरिस और न्यूयार्क मेट्रो पोलिस से करने वाली दिल्ली पुलिस जब स्वयं ही अपनी सुरक्षा की याचना सरकार और न्यायपालिका से कर रही हो तो तो उससे आम नागरिकों की रक्षा की ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। यह आकार में वास्तव में विश्व की सबसे बड़ी मेट्रो पुलिस है, जो कि आधुनिक सुविधाओं और पर्याप्त नफरी के बावजूद अपने नीति वाक्य ‘‘शांति सेवा और न्याय‘‘ का अनुसरण नहीं कर पा रही है। उसके सामने ही हथियारबंद नकाबपोश गुण्डे दर्जनों की संख्या में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में घुस कर छात्रों की हड्डी पसलियां तोड़ कर और महिला शिक्षकों को तक लहू लुहान कर डालते हैं। लेकिन पुलिस उन्हें पकड़ने के बजाय उन्हें ‘‘सेफ पैसेज’’ दे कर सुरक्षित भाग निकलने का अवसर दे देती है। पुलिस के सामने ही जामिया मिलिया में सभा कर रहे छात्र-छात्राओं पर एक सिरफिरा गोली चला देता है, मगर पुलिस उसे गोली चलाने के बाद पकड़ती है। इसी प्रकार शाहीनबाग में भी घटना घटती है और पुलिस तमाशबीन बनी रहती है। जेएनयू की हिंसा सारे विश्व ने देखी, मगर दिल्ली पुलिस ने राजधानी में इतनी बड़ी गुण्डई करने वाले इतने बड़े गैंग पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं जुटाई। आखिर शांति, सेवा और न्याय के संकल्प की याद दिल्ली पुलिस को कौन दिलायेगा?
अपने पद तथा संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ केवल मंत्रियों, राष्ट्रपति एवं राज्यपाल या फिर न्यायाधीशों के लिये ही नहीं बल्कि हर एक जनसेवक के लिये भी जरूरी होती है। लेकिन व्यवहार में देखा जाय तो हमारे जनसेवक राष्ट्र और संविधान के प्रति निष्ठावान रहने के बजाय सत्ताधारी राजनीतिक दल के प्रति निष्ठावान रहते हैं। पुलिस बल में साम्प्रदायिक निष्ठा भी संविधान का अनादर ही है। उनका कर्तव्य विधि द्वारा स्थापित व्यवस्था के बजाय अपने राजनीतिक मालिकों की हर जायज और नाजायज अपेक्षाओं के प्रति होता है। अगर ऐसा नही ंतो जेएनयू में हुये इतने बड़े गुण्डई काण्ड में शामिल नकाबपोशों को कानून के हवाले क्यों नहीं किया गया। अगर ऐसा नही ंतो फिर दिल्ली की हिंसा के मामले में 26 फरबरी को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस एस. के. कौल और जस्टिस के.एम. जोसेफ की खण्डपीठ ने दिल्ली पुलिस की स्वायत्तता और उसके पेशेवर रवैये पर सवाल क्यों उठाये? अदालत को ब्रिटेन की पुलिस का हवाला क्यों देना पड़ा? इसी तरह दिल्ली हाइकोर्ट के जस्टिस एस. मुरलीधर और जस्टिस तलवन्त सिंह की खण्डपीठ को सरकार के सॉलिसीटर जनरल से यह सवाल क्यों पूछना पड़ा कि दिल्ली जल रही है और भड़काऊ बयानबाजी करने वाले कपिल मिश्रा, सांसद परवेश वर्मा और केन्द्रीय राज्य मंत्री अनुराग ठाकुर के खिलाफ मुकदमा दर्ज कब होगा। हाइकोर्ट को कपिल मिश्रा का वह जहरीला बयान वीडियो अदालत में क्यों चलवाना पड़ा और कहना पड़ा कि जब कपिल मिश्रा कानून अपने हाथ में लेने की धमकी दे रहा था तो वहां मौजूद पुलिस अधिकारी क्यों चुपचाप सुन रहा था। भड़काऊ बयान देने वालों का मामला तो लम्बा लटक गया मगर जस्टिस मुरलीधर का रातोंरात तबादला अवश्य हो गया।
यह सही है कि देश के प्रत्येक नागरिक को अपनी बात कहने और और विरोध प्रकट करने का संवैधानिक अधिकार तो है मगर अनिश्चित काल तक रास्ता रोक कर अन्य नागरिकों को असुविधा में डालने का अधिकार नहीं है। इसलिये सुप्रीम कोर्ट ने सीएए का विरोध कर रहे आन्दोलनकारियों से वार्ता के लिये वार्ताकार शाहीनबाग भेजे थे। यही नहीं अदालत ने चेतावनी भी दी थी कि अगर 24 फरबरी तक रास्ता खोलने का रास्ता नहीं निकला तो अदालत अधिकारियों को अपने तरीके से अवरुद्ध रास्ता खोलने की छूट दे देगी। लेकिन इससे पहले ही सीएए समर्थक स्वयं रास्ता खुलवाने या आन्दोलनकारियों को भगाने क्यों चल पड़े? पुलिस और प्रशासन का काम सीएए समर्थकों ने अपने हाथ में क्यों ले लिया? ऐसी हरकतें जेएनयू और जामिया में भी हो चुकी थीं। अगर इसी तरह अनियंत्रित भीड़ को कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेती रही और सरकार तथा पुलिस मौन रहती रही तो फिर पुलिस या अदालत की जरूरत ही कहां रह जायगी? सीएए समर्थकों को भी विरोधियों की तरह अभिव्यक्ति की उतनी आजादी है। लेकिन उन्हें पुलिस और अदालत की भूमिका अदा करने की आजादी कतई नहीं है और अगर कोई सीएए के समर्थन के नाम पर कानून हाथ में लेता है तो केवल दंगाई है और उसे राष्ट्रभक्त कहना राष्ट्रभक्ति का अपमान करना है।
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