भाजपा को भुगतना पड़ेगा ग्रीष्मकालीन राजधानी की कोरी घोषणा का खामियाजा
-जयसिंह रावत
उत्तराखण्ड
में नेतृत्व परिवर्तन
की चर्चाओं के
बीच मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र
रावत सरकार ने
बिना मंत्रिमण्डल और
पार्टी नेतृत्व को विश्वास
में लिये आखिरकार
भराड़ीसैण में ग्रीष्मकालीन
राजधानी की घोषणा
तो कर दी,
मगर यह घोषणा
हकीकत में कैसे
बदलेगी, इस पर
सरकार को अब
विचार करना है।
स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र
का कहना है
कि इस घोषणा
को व्यवहार में
बदलने और नये
ढांचे के लिये
वित्तीय प्रबंध के लिये
अब विशेषज्ञों से
विचार विमर्श किया
जायेगा। वर्तमान में वैसे
ही प्रदेश की
न्यायिक राजधानी नैनीताल में
है और अब
तीसरी राजधानी की
भी घोषणा हो
चुकी है। कर्ज
चका ब्याज चुकाने
के लिये भी
कर्ज लेने वाले
इस प्रदेश की
माली हालत भी
तीन-तीन राजधानियों
को ढोने लायक
नहीं है, और
अगर ग्रीष्मकालीन राजधानी
के नाम पर
भराड़ीसैण में केवल
कुछ दिन के
लिये विधानसभा सत्र
चलाना है तो
यह पहाड़ के
लोगों के साथ
धोखा ही होगा।
क्योंकि पहाड़ की
जनता गैरसैण या
भराड़ीसैण में सरकार
और उसका सचिवालय
देखना चाहती है
न कि मात्र
विधानसभा का सत्र।
वर्तमान में महाराष्ट्र,
जम्मू-कश्मीर, आन्ध्र
पदेश और हिमाचल
प्रदेश की परिस्थितियां
उत्तराखण्ड से बिल्कुल
ही भिन्न हैं।
सचिवालय को भराड़ीसैण
पहुंचाये
बिना
काम
नहीं
चलेगा
पहाड़ों में एक
कहावत है कि
छोटी पूजा के
लिये भी पांच
वर्तन और बड़ी
पूजा के लिये
भी पांच ही
वर्तनों की जरूरत
होती है। अगर
भराड़ीसैण में सचमुच
ग्रीष्मकालीन राजधानी चलाने की
सरकार की मंशा
है तो उसे
ग्रीष्मकाल में भराड़ीसैण
से प्रदेश का
शासन विधान चलाने
के लिये देहरादून
का समूचा सचिवालय
फाइलों समेत भराड़ीसैण
ले जाना होगा।
इसलिये ग्रीष्मकालीन राजधानी के लिये
भराड़ीसैण में भी
भवन आदि उतने
ही बड़े ढांचे
की जरूरत होगी
जितनी कि देहरादून
में उपलब्ध है।
इसमें कम्प्यूटर आपरेटर
और समीक्षा अधिकारी
से लेकर मुख्यसचिव
तक के आला
आइएएस अफसरों के
कार्यालय और आवासीय
भवन गैरसैण या
भराड़ीसैण में उपलब्ध
कराने होंगे। यही
नहीं वहां चपरासी
और बाबू से
लेकर अधिकांश विभागों
के दफ्तर भी
बनाने होंगे। अगर
ऐसा नहीं होता
है और ग्रीष्मकालीन
राजधानी का अभिप्राय
केवल विधानसभा के
ग्रीष्मकालीन सत्र से
है तो यह
पहाड़ की जनता
के साथ धोखा
और प्रदेश के
बेहद सीमित संसाधनों
का दुरुपयोग होगा।
फिलहाल तो मुख्यमंत्री
के बयानों से
यही लगता है
कि उन्होंने नेतृत्व
परिवर्तन की चर्चाओं
के बीच विरोधियों
और मुख्यमंत्री पद
के दावेदारों को
चित्त करने के
लिये जल्दबाजी में
घोषणा कर डाली।
अगर भाजपा सरकार
शेष दो सालों
में वायदा पूरा
नहीं कर पायी,
जिसकी पूरी संभावना
है, तो यह
घोषणा पार्टी के
लिये गले की
फांस बन सकती
है।
कमिश्नरी को ही
आबाद
नहीं
कर
पायी
सरकार
मुख्यमंत्री
त्रिवेन्द्र रावत ने
29 जून 2019 को गढ़वाल
कमिश्नरी के स्वर्णजयन्ती
समारोह के अवसर
पर कमिश्नरी मुख्यालय
पौड़ी में कमिश्नरी
स्तर के सभी
अधिकारियों की तैनाती
सुनिश्चित करने वायदा
किया था, वहां
कमिश्नरी का कमिश्नर
और डीआइजी को
बिठाना तो रहा
दूर उस कृषि
विभाग को वापस
पौड़ी नहीं भेजा
जा सका जो
कि पौड़ी से
खिसक कर देहरादून
आ गया था।
अगर गैरसैण में
सचमुच ग्रीष्मकालीन राजधानी
बनायी जाती है
तो वहां से
ग्रीष्मकाल में सरकारी
कामकाज चलाने के लिये
समूचा सचिवालय जम्मू-कश्मीर की तरह
देहरादून से गैरसैण
पहुंचाना होगा ताकि
प्रदेश का शासन
कुछ महीनों तक
देहरादून की जगह
वहीं से चल
सके और पिथौरागढ़
या जोशीमठ के
लोगों का शासन
सम्बन्धी काम देहरादून
के बजाय भराड़ीसैण
में ही हो
सके। अगर ऐसा
नहीं होता तो
यह इस पहाड़ी
राज्य के लोगों
के साथ महज
एक धोखा ही
होगा। त्रिवेन्द्र सरकार
इससे पहले रिस्पना
को ऋषिपर्णा बनाने,
पहाड़ पर चकबंदी
कराने, कोटद्वार से कार्बेट
नेशनल पार्क के
बीचों बीच रामनगर
तक कण्डी मार्ग
बनाने, श्रीनगर मेडिकल कालेज
को सेना को
सौंपने, 100 दिन में
लोकायुक्त का गठन
करने और सवा
लाख करोड़ निवेश
के उद्योग लगवाने
जैसी कई घोषणाएं
कर चुकी है
जो कि धरातल
पर नहीं उतर
सकीं।
उपराजधानियों की
धारणा
ही
अव्यवहारिक
वर्तमान में तीन
राज्यों और एक
केन्द्र शासित प्रदेश की
दो-दो राजधानियां
हैं। इनमें महाराष्ट्र
की राजधानी मुम्बई
के अलावा नागपुर
में भी है
जहां केवल विधानसभा
का शीतकालीन सत्र
चलता है। नगापुर
की भराड़ीसैण जैसी
विकट भौगोलिक परिस्थितियां
भी नहीं है।
वह देश का
13वां सबसे बड़ा
शहर है जहां
मुम्बई हाइकोर्ट की बेंच
और आरएसएस का
मुख्यालय भी है।
वह एक ऐतिहासिक
शहर है जो
कि भारत का
तेरहवां सबसे बड़ा
शहर है और
वह मध्य प्रान्त
तथा बेरार की
राजधानीरह चुका है।
फिर भी महाराष्ट्र
का शासन मुम्बई
से ही चलता
है। आन्ध्र प्रदेश
की जगनमोहन रेड्डी
सरकार ने 22 जनवरी
2020 को विधानसभा में कानून
पास करा कर
पूर्व की चन्द्रबाबू
सरकार द्वारा अमरावती
में स्थापित राजधानी
को हटा कर
विशाखापत्तनम शिफ्ट करा दिया।
अब अमरावती में
केवल विधानसभा और
कुर्नूल में न्यायिक
राजधानी याने कि
हाइकोर्ट होगा। तीसरे पूर्ण
राज्य हिमाचल प्रदेश
की शीतकालीन राजधानी
धर्मशाला के तपोवन
में अवश्य है
जहां सत्र चलते
रहते हैं। लेकिन
विधानसभा सत्र के
अलावा वहां भी
सरकार नहीं बैठती।
जबकि वहां मिनी
सचिवालय समेत अन्य
सुविधायें मौजूद हैं और
धर्मशाला एक प्रसिद्ध
नगर होने के
साथ ही कांगड़ा
जिले का मुख्यालय
भी है, जहां
डीसी समेत जिले
के सभी आला
अधिकारी रहते हैं।
धर्मशाला की जनसंख्या
2011 की जनजगणना के अनुसार
30,764 है। देखा जाय
तो भारत में
असली दो राजधानियां
जम्मू-कश्मीर में
हैं लेकिन वह
अब पूर्ण राज्य
न हो कर
केन्द्र शासित प्रदेश ही
रह गया है।
वहां शीतकाल में
शासन प्रशासन का
पूरा झामताम फाइलों
समेत श्रीनगर से
जम्मू आ जाता
है। इसलिये इन
उपराजधानियों की तुलना
भराड़ीसैंण से नहीं
की जा सकती
है। भराड़ीसैण में
पहाड़ की जनता
पूरी सरकार को
देखना चाहती है
न कि केवल
विधानसभा का कुछ
दिन का सत्र।
भराड़ीसैण की तुलना
नागपुर
से
नहीं
हो
सकती
उत्तराखण्ड
की सरकार अगर
भराड़ीसैण की तुलना
नागपुर, जम्मू और धर्मशाला
से कर रही
है तो वह
बहुत बड़ी गलतफहमी
में है या
फिर जनमा को
गफलत में डाल
रही है। भराड़ीसैण में अब
तक जितना निर्माण
हुआ है उसी
पर एनजीटी को
ऐतराज है। वर्तमान
में भराड़ीसैण में
चल रहे विधानसभा
के बजट सत्र
के लिये कर्मचारियों
और अधिकारियों के
लिये बिस्तर और
कुर्सियां तक देहरादून
से गये। कुछ
दिन पहले वहां
एक प्लास्टिक की
कुर्सी तक नहीं
थी। देहरादून से
वहां सामान ढोने
में और कुछ
दिन के लिये
राजनीतिक बारात ले जाने
में सरकार को
करोड़ों रुपये खर्च करने
पड़ रहे हैं
और नतीजा ढाक
के तीन पात
में है। वहां
जाने के लिये
सड़कें इतनी तंग
हैं कि दो
कारें भी हर
जगह क्रास नहीं
हो पाती। मुख्यमंत्री
रावत स्वयं 6 फरबरी
को बर्फबारी से
पहले विधायकों और
सरकार को बर्फ
में सिकुड़ते छोड़
कर भराड़ीसैण से
खिसक कर देहरादून
आ गये।
राजनीतिक संकीर्णताओं के
कारण
नहीं
बनी
स्थाई
राजधानी
राज्य गठन के
बीस साल से
राजधानी के बारे
में अनिर्णय और
असमंजस के लिये
कोई और नहीं
बल्कि स्वयं उत्तराखण्ड
का राजनीतिक नेतृत्व
जिम्मेदार रहा है
जो कि इस
गंभीर मुद्दे पर
न केवल सहूलियत
की राजनीति करता
रहा अपितु क्षेत्रवाद
की संकीर्ण भावना
से ग्रस्त रहा
है। 1 अगस्त 2000 को
राष्ट्रपति की मंजूरी
के बाद उत्तर
प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम बना
और उत्तरांचल राज्य
के गठन की
संवैधानिक प्रकृया पूरी हुयी
तो उस समय
केन्द्र और राज्य
में भाजपा की
सरकारें होने के
साथ ही उत्तराखण्ड
क्षेत्र से भाजपा
के 30 विधानसभा और
विधान परिषद सदस्यों
में से 23 सदस्य
और लोकसभा के
5 में से 4 सदस्य
थे। अधिनियम बनने
के बाद तत्कालीन
कैबिनेट सेक्रेटरी कमल पाण्डे
ने उत्तर प्रदेश
के मुख्य सचिव
योगेन्द्र नारायण को पत्र
लिख कर उनसे
पूछा था कि
नये राज्य की
राजधानी कहां और
कैसे बनायी जा
रही है। पाण्डे
के पत्र पर
तत्कालीन मुख्यमंत्री रामप्रकाश गुप्त
ने 9 सितम्बर 2000 को
सभी विधायकों एवं
सांसदों की बैठक
लखनऊ में बुलाई
थी जिसमें गैरसैण
का नाम तो
किसी ने नहीं
लिया मगर अपने-अपने क्षेत्रों
में या निकट
राजधानी बनाने पर जोर
देने लगे जिससे
कोई निर्णय न
हो सका।
दीक्षित आयोग ने
खोली
राजनीतिक
नेताओं
की
पोल
राज्य बनने के
बाद लखनऊ से
सरकार देहरादून पहुंची
तो स्थाई राजधानी
के चयन की
जिम्मेदारी एक बार
फिर नये राज्य
के राजनीतिक नेतृत्व
पर आ गयी
थी। नेता अपनी
ढपली अपना राग
अलापने लगे तो
राजधानी चयन के
लिये पहले मुख्यमंत्री
नित्यानन्द स्वामी ने दीक्षित
आयोग का गठन
कर अपने सिर
की बला आयोग
पर डाल दी।
राजनीतिक नेता गैरसैण
के बारे में
कितने ईमान्दार हैं,
वह दीक्षित आयोग
की रिपोर्ट से
ही पता चल
जाता है। आयोग
ने अखबारों में
विज्ञापन देकर स्थाई
राजधानी के लिये
जब सुझाव मांगे
तो 70 विधायकों, 5 लोकसभा
और 3 राज्यसभा सदस्यों
के अलावा कई
दर्जन नगर निकायों
में से केवल
एक तत्कालीन सांसद
एवं एक मंत्री
तथा नेता प्रतिपक्ष
सहित 5 विधायकों ने स्थायी
राजधानी स्थल के
लियेे आयोग को
अपने सुझाव दिये
थे।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
No comments:
Post a Comment