कोरोना का खौफ: देश में इमरजेंसी के आसार
-जयसिंह रावत
दुनियां के सामने
आज बिल्कुल वही
स्थिति खड़ी है
जैसी कि 1918 में
करोड़ों लोगों की जानें
लेने वाली इतिहास
की अब तक
की सबसे बड़ी
महामारी स्पेनिश फ्लू के
समय खड़ी हुयी
थी। 5 करोड़ से
अधिक लोगों की
जानें लेने वाली
उस महामारी के
बारे में न
तो डाक्टरों को
कोई जानकारी थी
और ना ही
उसके इलाज के
लिये कोई दवा
थी। सौ साल
बाद विज्ञान और
प्रोद्योगिकी के इस
युग में भी
आज कोविड-19 की
इस महामारी के
संकट में भी
बिल्कुल वही स्थिति
है। इस बेहद
खतरनाक दुश्मन से लोगों
को बचाने के
लिये उन्हें फिलहाल
घरों में बंद
करने के सिवा
दूसरा उपाय नजर
नहीं आता है
और सरकार पिछले
अनुभव को ध्यान
में रखते हुये
इस दिशा में
प्रयास तो कर
रही है मगर
अफवाहों और अवैज्ञानिक
तर्कों की चेन
तोड़ने पर ध्यान
नहीं दिया जा
रहा है, जबकि
सोशियल मीडिया के इस
दौर में अफवाहें
कोरोना जैसे अदृष्य
दुश्मन के लिये
ही मददगार साबित
हो सकती हैं।
इन असाधारण परिस्थितियों
से निपटने के
लिये भारत सरकार
कोई भी असाधारण
निर्णय लेने को
विवश लग रही
है।
भारत में इमरजेंसी के आसार
भारत के संविधान
के अनुच्छेद 352, 356 और
360 के प्रावधानों के अनुसार,
भारत के राष्ट्रपति
को देश में
किसी भी खतरे
को पूरा करने
के लिए आपातकाल
घोषित करने की
असाधारण शक्ति दी गई
है। भारत में
असाधारण परिस्थितियों को देखते
हुये इनमेंसे किसी
भी तरह की
इमरजेंसी लग सकती
है। 25 जून
1975 से 21 मार्च 1977 तक का
21 महीने की अवधि
में भारत में
आपातकाल घोषित था। तत्कालीन
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद
ने तत्कालीन भारतीय
प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के
कहने पर भारतीय
संविधान की धारा
352 के अधीन आपातकाल
की घोषणा कर
दी। स्वतंत्र भारत
के इतिहास में
यह सबसे विवादास्पद
और लोकतांत्रिक अधिकारों
के हनन का
काल था। आपातकाल
में चुनाव स्थगित
हो गए तथा
नागरिक अधिकारों को समाप्त
किये गये। हालांकि
इस बार उतनी
सख्ती की संभावना
तो कम ही
है।
5 करोड़ से ज्यादा मरे 1918 की महामारी में
माना जाता है
कि ज्ञान अगर
वृक्ष है तो
अनुभव उसकी छाया
है और छाया
सदैव वृ़क्ष से
बड़ी होती है।
अनुभव से ही
ज्ञान का लाभ
प्राप्त किया जाता
है। सितम्बर 1896 में
जब बम्बई में
प्लेग की बीमारी
फैली तो वहां
लाखों लोग बीमारी
के ग्रास बन
गये। वर्ष 1891 में
बम्बई की जो
जनसंख्या 8.20 लाख थी
वह 1901 में 7.80 लाख रह
गयी। आखिरकार वायसराय
ने हालात भांपते
हुए 4 फरवरी, 1897 को
‘एपिडैमिक डिजीज ऐक्ट’ लागू कर
दिया। इससे प्रशासन
को किसी भी
स्टीमर या जहाज
की जांच कराने,
यात्रियों और जहाजों
को रुकवानेे का
अधिकार मिल गया
था। अधिनियम के
तहत सार्वजनिक स्वच्छता
के उपाय, मेलों,
त्योहारों धार्मिक यात्राओं पर
रोक के साथ
ही रेलवे यात्रियों
की तलाशी, घरों
की तलाशी और
संदिग्धों को जबरन
अस्पताल भेजने की व्यवस्था
थी। उस समय
संक्रमित सम्पत्ति को जलाया
या नष्ट भी
किया गया। नागरिकों
के व्यक्तिगत जीवन
में पहली बार
इतना हस्तक्षेप हुआ
तो लोग भड़क
उठे और यूरोपीय
डाक्टरों और चिकित्सा
कर्मियों पर हमले
तक हुये। 22 जून
को क्वीन विक्टोरिया
की डायमंड जुबली
के अवसर पर
गवर्नर हाउस से
डिनर करके बाहर
निकलते प्लेग कमिश्नर को
कुछ लोगों ने
‘बदला लेने के
लिए’ गोली मार
दी। सन् 1857 की
गदर का कटु
अनुभव चख चुकी
ब्रिटिश सरकार को दूसरी
गदर की आशंका
से अपने कठोर
उपाय वापस लेने
पड़े और केवल
स्वेच्छिक प्रतिबन्धों पर निर्भर
रहना पड़ा जिस
कारण महामारी को
रोकने में बहुत
लम्बा समय लगने
से मौतें जारी
रहीं। इस बार
भी लोग एहतियात
बरतने और स्वअनुशासन
से परहेज कर
रहे हैं, इसलिये
मजबूरन सरकार को इमरजेंसी
जैसे कठोर निर्ण
लेने पड़ सकते
हैं।
महायुद्ध से लौटे सैनिक साथ लाये थे महामारी
सन् 1896 से फैला
प्लेग एशिया से
यूरोप की ओर
गया था, जबकि
1918 का एनफ्लुएंजा यूरोप से
एशिया की ओर
आया था। ‘स्पेनिश
फ्लू’ के नाम
से कुख्यात 1918 की
बीमारी को इतिहासकारों
ने अब तक
की सबसे बड़ी
महामारी माना है,
जिसमें वैश्विक स्तर पर
5 से लेकर 10 करोड़
तक लोगों के
मारे जाने का
अनुमान है। इसके
6 महीनों के अन्दर
ही 2.5 करोड़ लोग
मारे गये थे।
अकेले भारत में
उस समय लगभग
1.2 करोड़ लोगों के मारे
जाने की बात
कही गयी। वह
महामारी महायुद्ध में शामिल
सैन्य शिविरों में
फैली थी और
जब जीवित बचे
सैनिक अपने-अपने
देशों को लौटे
तो महामारी का
वैक्टीरिया भी साथ
ले आये। उस
महायुद्ध में भी
लगभग 2 करोड़ सैनिक
और असैनिक मारे
गये थे। उस
समय भी महामारी
रोकने के लिये
बिटिश साम्राज्य ही
नहीं बल्कि सम्पूर्ण
विश्व में सामाजिक
दूरी बनाने जैसे
उपायों को ही
आजमाया गया था।
स्पेनिश फ्लू से
लेकर आज तक
परिवहन सेवाओं में क्रांतिकारी
विस्तार होने के
साथ ही महामारी
के उतनी ही
तेजी से फैलने
की संभावनाएं भी
उतनी ही तेजी
से बढ़ गयी
हैं। इसलिये संचार
के इन साधनों
पर सरकार का
ध्यान जाना स्वाभाविक
ही है।
अफवाहें और अन्धभक्तों के अवैज्ञानिक उपदेश
सौ सालों में दुनिया
काफी बदल चुकी
है मगर लोगों
की प्रतिकृया और
मनोदशा में खास
परिवर्तन नहीं आया
है। किसी अनहोनी
के लिये लोग
ऐसे कारकों को
भी जिम्मेदार मान
लेते हैं जिनका
कोई वैज्ञानिक आधार
नहीं होता है।
बम्बई प्लेग महामारी
में अफवाह फैली
थी कि अंग्रेज
शासकों ने भारत
में कुओं में
जहर मिला कर
तथा लोगों को
इंजेक्शन लगा कर
महामारी फैलाई ताकि अवांछित
जनसंख्या कम की
जा सके। उस
समय विश्वयुद्ध में
फ्रांस में प्रयुक्त
गैस के बम्बई
पहुंचने की अफवाह
भी फैली थी।
अब पूरे 102 साल
बाद कोविड-19 के
दौर में एक
अफवाह यह भी
उड़ी कि चीन
के वुहान की
एक प्रयोगशाला में
जैविक हथियार के
निर्माण के दौरान
सामग्री के लीक
होने से वहां
महामारी फैल गयी।
इन कोरी अफवाहों
के कारण महामारी
रोकने के प्रयासों
में व्यवधान आता
है। ताजा महामारी
के मामले में
बाबा रामदेव तो
केवल गोमूत्र पीने
और परम्परागत उपाय
करने की सलाह
तो दे ही
रहे हैं। लेकिन
ऐसे भी जिम्मेदार
संासद और विधायक
हैं जो कहते
हैं कि 33 करोड़
देवताओं के इस
देश में कोरोना
फैल ही नहीं
सकता है। ऐसे
भी मुख्यमंत्री हैं
जो कहते हैं
कि गाय धरती
पर अकेला ऐसा
प्राणी है जो
कि वृक्षों की
तरह वातावरण में
केवल ऑक्सीजन छोड़ता
है। कुछ अन्धभक्त
गोबर में नहा
रहे हैं तो
कुछ गोमूत्र पीने
और गोबर खाने
की सलाह दे
रहे हैं। जबकि
कुछ इसे विदेशियों
और अन्य धर्मावलम्बियों
की साजिश बता
रहे हैं। यही
नहीं कुछ लोग
इस बीमारी को
शराब के सेवन
और मांसाहर का
नतीजा बता रहे
हैं। इन अवैज्ञानिक
तर्कों से समाज
में गलतफहमियां फैलाने
को भी अफवाह
की श्रेणी मे
रख कर इन
लोगों के खिलाफ
भी कठोर कानूनी
कार्यवाही की जानी
चाहिये।
सरकार पर भरोसा रखना जरूरी
संकट की इस
घड़ी में सरकार
द्वारा किये जो
रहे प्रयासों पर
पूरा भरोसा किया
जाना चाहिये। लेकिन
सरकार को भी
जनता को जरूर
विश्वास में लेना
चाहिये। इटली जैसा
विकसित और अत्याधुनिक
संसाधनों से लैस
देश जब कोविड-19
के आगे हाथ
खड़े कर सकता
है तो भारत
में अभी उतने
संसाधन भी नहीं
हैं। इसलिये जरूरी
है कि भारत
की अपार जनशक्ति
का उपयोग कोरोना
के खिलाफ किया
जाय। बम्बई की
महामारी के समय
रामकृष्ण मिशन और
बम्बई सोशियल सर्विस
लीग जैसे संगठनों
ने उल्लेखनीय कार्य
किया था। अब
तो स्वेच्छिक संगठनों
की बाढ़ ही
आ गयी है।
इन संगठनों को
भी महामारी के
मोर्चे पर झोंका
जा सकता है।
अगर 1918 की जैसी
स्थिति आयी तो
फिर राजनीति भी
कैसे होगी? इसलिये
राजनीतिक संगठनों की भी
सामाजिक और स्वेच्छिक
संगठनों की तरह
भूमिका सुनिश्चित की जा
सकती है। लेकिन
यह तभी संभव
है जब स्वयं
सत्ताधारी संगठन महामारी का
उपयोग भी अपनी
चमत्कारिक छवि बनाने
में न करे।
यद्यपि इस बार
की महामारी गरीबों
और उनकी बस्तियों
से नहीं बल्कि
देश-विदेश सैर
सपाटा करने तथा
नौकरियां करने वालों
के माध्यम से
और वह भी
बसों-ट्रकों से
नहीं बल्कि सीधे
हवाई यात्राओं से
ज्यादा फैल रही
है। लेकिन बीमारियां
सदैव जड़ जमाने
के लिये सामाजिक,
आर्थिक और राजनीतिक
कमजोरियां तलाशती हैं। भारत
की घनी गरीब
बस्तियां इस मामले
में सबसे अधिक
संवेदनशील हैं। उत्तराखण्ड
जैसे कुछ राज्यों
में बदहवास सरकारें
सुबह कुछ निर्णय
लेती हैं तो
शाम को उनके
कुछ और ही
निर्णय आ जाते
हैं। इसलिये संकट
की इस घड़ी
में दृढ़ संकल्पी
और सूझबूझ वाले
राजनीतिक नेतृत्व की भी
महती जरूरत है।
क्या है महामारी अधिनियम 1897
कोरोना से निपटने
के लिये दवा
तो उपलब्ध नहीं
है मगर अंग्रेजों
द्वारा बनाया गया एपिडेमिक
डिजीज एक्ट या
महामारी रोग अधिनियम
1897 ही उपलब्ध है, जिसका
प्रयोग केन्द्र सरकार की
एडवाइजरी पर राज्य
सरकारों ने शुरू
कर दिया है।
इसलिये इस कानून
को भी जानना
जरूरी ही है
। इस एक्ट
की धारा-2 में
कहा गया है
कि,-
‘‘जब
राज्य सरकार को
किसी समय ऐसा
लगे कि उसके
किसी भाग में
किसी खतरनाक महामारी
का प्रकोप हो
गया है या
होने की आशंका
है, तब अगर
वो (राज्य सरकार)
ये समझती है
कि उस समय
मौजूद कानून इस
महामारी को रोकने
के लिए काफी
नहीं हैं, तो
कुछ उपाय कर
सकती है। ऐसे
उपाय, जिससे लोगों
को सार्वजनिक सूचना
के जरिए रोग
के प्रकोप या
प्रसार की रोकथाम
हो सके।’’
इस एक्ट की
धारा-2 की उपधारा-
2 में कहा गया
है कि ‘‘जब
केंद्रीय सरकार को ऐसा
लगे कि भारत
या उसके अधीन
किसी भाग में
महामारी फैल चुकी
है या फैलने
का खतरा है,
तो रेल या
बंदरगाह या अन्य
तरीके से यात्रा
करने वालों को,
जिनके बारे में
ये शंका हो
कि वो महामारी
से ग्रस्त हैं,
उन्हें किसी अस्पताल
या अस्थायी आवास
में रखने का
अधिकार होगा।’’
महामारी अधिनियम 1897 की धारा-3
में जुर्माने के
बारे में कहा
गया है कि
‘‘महामारी के संबंध
में सरकारी आदेश
न मानना अपराध
होगा। इस अपराध
के लिए भारतीय
दंड संहिता की
धारा 188 के तहत
सजा मिल सकती
है। इस ऐक्ट
की धरा-4 कानूनी
सुरक्षा के बारे
में है, जो
अधिकारी इस ऐक्ट
को लागू कराते
हैं, उनकी कानूनी
सुरक्षा भी यही
ऐक्ट सुनिश्चित करता
है। यह धारा
सरकारी अधिकारी को लीगल
सिक्योरिटी दिलाती है कि
अगर ऐक्ट लागू
करने में अगर
कुछ अप्रिय हो
गया तो उसके
लिये अधिकारी जिम्मेदार
नहीं होगा।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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