उत्तरासखण्ड में प्रचण्ड बहुमत फिर भी सरकार पर खतरा
-जयसिंह रावतइस साल फरबरी में हुये उत्तराखण्ड विधानसभा के चौथे चुनाव में जब पहली बार किसी एक दल को 70 में 57 सीटों का प्रचण्ड बहुमत मिला तो लगा कि इस बार तो इस नवोदित राज्य में पिछले 17 सालों से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता और कुर्सी की छीना झपटी के खेल से मुक्ति मिल ही जायेगी और अब प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार ऐसे साहसिक और विवेकपूर्ण निर्णय लेगी जिन से पलायन, गरीबी, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का अभाव जैसी समस्याओं से निजात मिलने के साथ ही प्रदेश के विकास की गाड़ी सरपट दौड़ने लगेगी। लेकिन सत्ताधारी दल और सरकार के अन्दर से उठ रही असन्तोष की आवाजों पर गौर करें तो इस बार भी प्रदेशवासियों की स्थिर सरकार का सपना दूर की कौड़ी नजर आ रही है।

त्रिवेन्द्र सरकार को जिन वरिष्ठ और अनुभवी मंत्रियों से संबल मिलना था उनको ही इस सरकार की स्थिरता के लिये खतरा माना जा रहा है। दरअसल सरकार के हैवीवेट मंत्री स्वयं को ज्यादा काबिल और मुख्यमंत्री को नोसिखिया साबित करने पर तुले हुये हैं। इन हैवीवेट मंत्रियों के समर्थक खुले आम यह कहते हुये सुने जा सकते हैं कि त्रिवेन्द्रशाही अब ज्यादा दिन की मेहमान नहीं है। भले ही ज्यादातर स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक त्रिवेन्द्र सरकार की स्थिरता का आधार 2019 के लोकसभा चुनाव में आने वाले नतीजों को मानते हों मगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के समर्थक सरकार की उम्र एक साल से अधिक मानने को तैयार नहीं हैं। मन के लड्डू खाने की वजह साफ है। त्रिवेन्द्र कुर्सी खाली करेंगे तो तब जा कर बाकी को मौका मिलेगा। छींका टूटने के लिये अपने भाग के भरोसे बैठे भाजपाइयों का मानना है कि त्रिवेन्द्र रावत उत्तरप्रदेश के योगी की तरह जनता को लुभाने वाला कोई मजबूत संदेश नहीं दे पा रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन के लिये 2019 के चुनाव नतीजों का इंतजार करने से काफी देर हो जायेगी। परिवर्तनकामी भाजपाई त्रिवेन्द्र के नेतृत्व में आने वाले लोकसभा चुनाव में जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। देखा जाय तो वास्तव में त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कदम-कदम पर अग्नि परीक्षाएं देनी हैं। लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने पंचायत चुनावों में और फिर नगर निकाय चुनावों में पार्टी की नैया पार लगानी है और जब इन चुनावों में पार्टी की हार होगी तभी मुख्यमंत्री पद के बाकी दावेदारों की लाटरी खुलेगी।
उत्तराखण्ड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार को सत्ता में आये हुये अभी केवल दो माह ही हुये हैं। इसलिये इस सरकार को सफल या विफल बताना बेहद जल्दबाजी होगी। त्रिवेन्द्र रावत का इस प्रदेश और अपनी पार्टी के प्रति समर्पण असंदिग्ध है। वह कृषि मंत्री के रूप में अपनी योग्यता 2007 से लेकर 2012 तक दिखा चुके हैं। लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमजोरी उनका सीधा और सपाट व्यक्तित्व है। वह अन्य नेताओं की तरह मीठी गोली नहीं देते हैं। हालांकि उन्होंने अपनी वाणी में काफी सुधार कर दिया है फिर भी चेहरे पर बनावटी मुस्कराहट लाने और हर किसी को पुचकारने में सिद्धहस्त नहीं हो पाये हैं। मीडिया से भी उनकी दूरी कम नहीं हुयी है। संभवतः इसीलिये उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का लोकप्रियता का ग्राफ भी त्रिवेन्द्र रावत के लिये चुनौती बन गया है। एक साथ सत्ता संभालने वाले वाले ये दोनों ही युवा मुख्यमंत्री (योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट और त्रिवेन्द्र सिंह रावत) एक ही पार्टी के होने के साथ ही दोनों ही पौड़ी गढ़वाल के मूल निवासी भी हैं और दोनों के ही मूल गावों का फासला काफी कम है। पहाड़ों में इतने करीब के दो ठाकुरों में दूर या नजदीक की रिश्तेदारी भी निकल ही आती है। इसलिये भी त्रिवेन्द्र की तुलना बार-बार योगी से की जा रही है। भाजपाई भी यह कहते हुये नहीं थक रहे हैं कि जिस तरह योगी ने अपने मजबूत इरादों और कठोर प्रशासन का संदेश दिया है वैसा संदेश त्रिवेन्द्र नहीं दे पाये। जबकि दोनों ही प्रदेशों की परिस्थितियां और दोनों ही नेताओं के टेम्परामेंट भिन्न हैं। फिर भी उत्तराखण्ड की जो राजनीतिक संस्कृति और पिछला इतिहास रहा है उस पर गौर करें तो स्वयं अमित शाह या नरेन्द्र मोदी भी इस सरकार के स्थायित्व की भविष्यवाणी नहीं कर सकते। इस सरकार को स्थिरता के लिये पंचायत, नगर निकाय और लोकसभा चुनावों की परीक्षाओं के अलावा भी कई अन्य परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा और अगर पिछले 17 सालों या उससे पहले का इतिहास पढ़ें तो इन परीक्षाओं को पार करना उत्तराखण्ड में नामुमकिन नहीं तो बेहद कठिन अवश्य ही है। राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी 11 महीने 20 दिन ही सत्ता में रहे। उसके बाद ऐसा राजनीतिक चक्र चला कि नारायणदत्त तिवारी ही 5 साल 5 दिन तक शासन चला पाये बाकी भुवन चन्द्र खण्डूड़ी 2 बार में 2 साल 9 महीने 21 दिन, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ 2 साल 2 महीने और 14 दिन, विजय बहुगुणा 1 साल 10 महीने 18 दिन और हरीश रावत सुप्रीम कोर्ट से जीवन दान मिलने के बावजूद दो-तीन झटकों में 3 साल 1 महीना और 4 दिन ही अपनी हुकूमत चला पाये।
-जयसिंह रावत
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