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Wednesday, May 31, 2017
RELIGIOUS ENCROACHMENT ON TRIBAL HRITAGE
“उत्तराखंड
की जनजातियों का इतिहास”
जनजातीय संस्कृति पर धर्मांतरण
का साया
आदिवासियों के धर्मांतरण
के लिये देशभर में इसाई मिशनरियां ही ज्यादा बदनाम रही हैं, मगर उत्तराखंड में शायद
ही कोई ऐसा धर्म हो जो कि आदिवासियों या जनजातियों को उनकी धार्मिक आस्थाओं से विचलित
न कर रहा हो। उत्तराखंड के बौद्ध धर्म के अनुयायी जाड भोटिया जहां लोसर को होली की
तरह मनाने लगे हैं, वहीं तराई में बड़ी संख्या में थारू और बोक्सा अमृत छक कर सिख बन
गये हैं। जबकि मिशनरियां उत्तरकाशी की बंगाण पट्टी से लेकर तराई के उधमसिंहनगर तक लोगों
को ललचा रही हैं। यहां तक कि कुछ भोटिया परिवारों द्वारा इस्लाम कबूले जाने की पुष्टि
जनगणना रिपोर्टों से हो रही है। अगर यह सिलसिला इसी तरह अनवरत जारी रहा तो उत्तराखंड
की जनजातीय संस्कृति की विलक्षणता और विविधता मानव विज्ञान और समाजशास्त्र की पुस्तकों
तक ही सिमट कर रह जायेगी।
हिस्से में आ गयीं थीं। नये राज्य को उस समय न केवल जनजातीय विविधता मिली बल्कि विरासत में एक अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर भी मिली। लेकिन विभिन्न धर्मों की विस्तारवादी मनोवृत्तियां धर्मांतरण के लिये जिस तरह उत्तराखण्ड की पाचों जनजातियों को ललचा रही हैं, उससे प्रदेश की इस विलक्षण सांस्कृतिक विविधता के लिये संकट खड़ा हो गया है। पूर्वोत्तर में इसाई मिशनरियों ने आदिवासियों का धर्म तो बदला है मगर उनकी संस्कृति से छेड़छाड़ नहीं की, लेकिन उत्तराखंड में जनजातीय रीति रिवाजों के साथ धर्मांतरण हो रहा है।



पुस्तक में कहा गया है कि
खटीमा ब्लाक में ही जोगीठेर नगला के लक्ष्मण सिंह की पत्नी 1998 में बीमार हुई। शुरू
में लक्ष्मण ने तांत्रिकों और देवी देवताओं के खूब चक्कर लगाये मगर बीमारी बढ़ती गई।
इसी दौरान उसका सम्पर्क पादरी दानसिंह से हुआ जो कि स्वयं पूर्व में हिन्दू थारू था।
फादर दानसिंह ने कहा कि धर्म बदलो तो औरत का इलाज हो जाएगा। लक्ष्मण ने धर्म बदल लिया
और फिर पादरी की सिफारिश पर लक्ष्मण अपनी पत्नी को पौलीगंज स्थित सेण्ट पेट्रिक अस्पताल
ले गया। वहां पता चला कि रोगिणी को कैंसर है। लक्ष्मण के अनुरोध पर डाक्टरों ने उसकी
पत्नी का आपरेशन किया लेकिन वह फिर भी न बच सकी। कैंसर का इतना महंगा इलाज निशुल्क
हुआ था। लक्ष्मण ने बताया कि वह पुनः हिन्दू बन गया है। लेकिन लेखक जब उसके घर के अन्दर
गया तो पवित्र क्रास का निशान एवं सफेद कपड़े वहां तब भी भी मौजूद थे। ईसाई बनने पर
उसके भाईयों ने उसका बहिष्कार कर दिया था। घर के आंगन में बाकी भाइयों के संयुक्त परिवार
का एक ही चूल्हा जलता था इसलिये एक विधुर के लिये संयुक्त जानजातीय परिवार से अलग चूल्हा
जलाना व्यवहारिक नहीं था, इसलिए संभव है कि
वह पजिनों को खुश रखने के लिए पुनः पूर्व धर्म में लौटने की बात कर रहा हो। किसी की
उपासना के तरीके में किसी की कोई दखल नहीं होनी चाहिए। परन्तु महत्वपूर्ण सवाल यह है
कि अपनी संस्कृति और परंपराओं के प्रति इतने मजबूत लगाव वाले अन्धविश्वासी थारुओं को
क्यों धर्म बदलना पड़ रहा है?
तराई क्षेत्र ही नहीं बल्कि
जनजाति क्षेत्र जौनसार बावर पर भी मिशनरियों की नजर टिकी हुयी है। खास कर कोल्टा और
अन्य दलित वर्ग के लोग मिशनरियों के साफ्ट टारगेट माने जाते हैं। सन् 1866 में जब ब्रिटिश
सेना की 55 वीं रेजिमेंण्ट के कर्नल ह्यूम और उनके सहयोगी अधिकारियों ने सेनिकों के
लिये समर कैम्प के रूप में चकराता छावनी क्षेत्र स्थापित किया तो उसी समय अंग्रेज सैनिकों
और अफसरों के लिये तीन चर्च भी स्थापित किये गये थे। आजादी के बाद अंग्रेज तो चले गये
मगर चकराता में चर्च छूट गये। हालांकि अति संवेदनशील सैन्य क्षेत्र में होने के कारण
फिलहाल वहां तीनों ही चर्च सेना के कब्जे में हैं, मगर मिशनरियों ने स्थानीय लोगों
का धर्म परिवर्तन करा कर उनके ही माध्यम से चर्चों को सेना के नियंत्रण से मुक्त करने
की मुहिम शुरू कर रखी है। चकराता के इन तीन चर्चों में से एक में पादरी सुन्दर सिंह
चौहान और उनका परिवार रहता है। चौहान स्थानीय जौनसारी ही हैं और चर्च मुक्ति अभियान
चला रहे हैं।
इसाई मिशनरियों ने पहले
तराई की जनजातियों में अपना नेटवर्क बढ़ाया और अब वे सीमांत उत्तरकाशी जिले की सुदूर
रवांईं घाटी में भी सक्रिय होने लगी हैं। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल से सटी
उत्तरकाशी जिले की बंगाण पट्टी के कलीच गांव में रोहडू (हिमाचल) से आए कुछ लोग ग्रामीणों
को धर्मांतरण के लिये प्रेरित कर रहे हैं। कलीच के ग्राम प्रधान जगमोहन सिंह रावत के
अनुसार एक वर्ष से कलीच, आराकोट, ईशाली, जागटा, मैंजणी, थुनारा, भुटाणु, गोकुल, माकुडी,
देलन, मोरा, भंकवाड़, बरनाली, डगोली एवं पावली आदि दर्जनों गांवों में हिमाचल से आए
कुछ लोग सभाएं कर और पैसे का लालच देकर धर्म परिवर्तन करा रहे हैं। अकेले कलीच गांव
में चार साल के भीतर ही अनुसूचित जाति के 17 परिवार धर्म परिवर्तन कर ईसाई बन चुके
हैं। धर्मान्तरण को लेकर क्षेत्र में विवाद के बाद दोनों पक्षों ने एक दूसरे के खिलाफ
तहसील मोरी में मुकदमा तक दर्ज करवा है। ग्राम प्रधान जगमोहन सिंह की शिकायत पर भी
मुन्नू सहित 16 लोगों के खिलाफ भादंसं की धारा 323, 147, 296 एवं 298 के तहत मुकदमा
दर्ज किया गया। वास्तविकता यह है कि कोल्टा और अन्य अनुसूचित जाति के लोग मिशनरियों
द्वारा सम्मान की जिन्दगी देने और अस्पृस्यता से मुक्ति दिलाने के वायदे से काफी प्रभावित
हो रहे हैं। अस्पृस्यता वास्तव में बहुत बड़ा सामाजिक कलंक है, और इस दाग से मुक्ति
पाये बिना मिशनरियों का विरोध बेमानी है।
सन् 2011 की पूरी जनगणना
विश्लेषण की रिपोर्ट अभी प्रतीक्षित है। लेकिन 2001 की रिपोर्ट को अगर देखें तो उसमें
उत्तराखंड की जनजातियों के लोगों की गणना हिन्दू, इस्लाम, सिख, इसाई, बौद्ध एवं जैन
धर्म में भी की गयी है। जबकि प्रदेश की सभी जनजातियों का हजारों सालों का इतिहास चाहे
जो भी हो मगर वे वर्तमान में हिन्दू ही हैं। भोटिया जनजाति के कुछ लोग सिक्किम में
इस्लाम के अनुयायी जरूर हैं, मगर उत्तराखंड में मुसलमान भोटिया होना एक नयी बात ही
है। अब तक पंजाब से आये हुये लोगों द्वारा तराई में थारुओं और बोक्सों की जमीनें हड़पने
की बातें आम रही हैं, मगर अब तो उनकी आस्था की पुरातन पद्धति को भी हड़पने की बात जनगणना
रिपोर्ट से सामने आ रही है। यही नहीं उत्तरकाशी के बोद्ध भोटिया समुदाय का हिन्दू बन
जाना भी कोई साधारण बात नहीं है। दरअसल यह एक तरह से जनजातियों का अपनी संस्कृति से
विचलित होना ही है। अगर वे इसी तरह अपनी विशिष्ठ संस्कृति को हीन भावना से देखते रहे
तो उत्तराखंड जल्दी ही अपनी इस अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर से वंचित हो सकता है।
संविधान (उत्तर प्रदेश)
अनुसूचित जाति आदेश 1967 के तहत उत्तर प्रदेश की भोटिया, जौनसारी, थारू, बोक्सा और
राजी को अनुसूचित जनजाति घोषित किया गया था, लेकिन उत्तर प्रदेश के विभाजन के साथ ही
पांचों जनजातियां उत्तराखण्ड के हिस्से में आ गयीं। सन् 1974 में भारत सरकार ने राजी
और बोक्सा सहित देश की 75 जनजातियों को आदिम जाति की सूची में शामिल कर दिया। बिरासत
में मिली इन जनजातियों के गुलदस्ते ने छोटे से इस नवोदित प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता
पर चार चांद लगा दिये। भारत में जनजातीय आसबादी का प्रतिशत 8.2 है तो उत्तराखंड में
भी जनजातियों की आबादी लगभग तीन प्रतिशत तक है।
पुस्तक- “उत्तराखंड की जनजातियों का इतिहास”
लेखक-जयसिंह रावत
प्रकाशक- कीर्ति नवानी, विन्सर पब्लिसिंग कंपनी, 8, प्रथम तल, के.सी. सिटी सेंटर, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून। मोबाइल: 9456372442 एवं 7055585559 and 9412324999
आइएसबीएन- 978-81-86844-83-0
मूल्य-रु0 395-00
Monday, May 29, 2017
Saturday, May 27, 2017
POLITICAL STABILTY A DISTANT DREAM IN UTTARAKHAND
उत्तरासखण्ड में प्रचण्ड बहुमत फिर भी सरकार पर खतरा
-जयसिंह रावतइस साल फरबरी में हुये उत्तराखण्ड विधानसभा के चौथे चुनाव में जब पहली बार किसी एक दल को 70 में 57 सीटों का प्रचण्ड बहुमत मिला तो लगा कि इस बार तो इस नवोदित राज्य में पिछले 17 सालों से चली आ रही राजनीतिक अस्थिरता और कुर्सी की छीना झपटी के खेल से मुक्ति मिल ही जायेगी और अब प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार ऐसे साहसिक और विवेकपूर्ण निर्णय लेगी जिन से पलायन, गरीबी, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का अभाव जैसी समस्याओं से निजात मिलने के साथ ही प्रदेश के विकास की गाड़ी सरपट दौड़ने लगेगी। लेकिन सत्ताधारी दल और सरकार के अन्दर से उठ रही असन्तोष की आवाजों पर गौर करें तो इस बार भी प्रदेशवासियों की स्थिर सरकार का सपना दूर की कौड़ी नजर आ रही है।

त्रिवेन्द्र सरकार को जिन वरिष्ठ और अनुभवी मंत्रियों से संबल मिलना था उनको ही इस सरकार की स्थिरता के लिये खतरा माना जा रहा है। दरअसल सरकार के हैवीवेट मंत्री स्वयं को ज्यादा काबिल और मुख्यमंत्री को नोसिखिया साबित करने पर तुले हुये हैं। इन हैवीवेट मंत्रियों के समर्थक खुले आम यह कहते हुये सुने जा सकते हैं कि त्रिवेन्द्रशाही अब ज्यादा दिन की मेहमान नहीं है। भले ही ज्यादातर स्वतंत्र राजनीतिक विश्लेषक त्रिवेन्द्र सरकार की स्थिरता का आधार 2019 के लोकसभा चुनाव में आने वाले नतीजों को मानते हों मगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के समर्थक सरकार की उम्र एक साल से अधिक मानने को तैयार नहीं हैं। मन के लड्डू खाने की वजह साफ है। त्रिवेन्द्र कुर्सी खाली करेंगे तो तब जा कर बाकी को मौका मिलेगा। छींका टूटने के लिये अपने भाग के भरोसे बैठे भाजपाइयों का मानना है कि त्रिवेन्द्र रावत उत्तरप्रदेश के योगी की तरह जनता को लुभाने वाला कोई मजबूत संदेश नहीं दे पा रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन के लिये 2019 के चुनाव नतीजों का इंतजार करने से काफी देर हो जायेगी। परिवर्तनकामी भाजपाई त्रिवेन्द्र के नेतृत्व में आने वाले लोकसभा चुनाव में जीत के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। देखा जाय तो वास्तव में त्रिवेन्द्र सिंह रावत को कदम-कदम पर अग्नि परीक्षाएं देनी हैं। लोकसभा चुनाव से पहले उन्होंने पंचायत चुनावों में और फिर नगर निकाय चुनावों में पार्टी की नैया पार लगानी है और जब इन चुनावों में पार्टी की हार होगी तभी मुख्यमंत्री पद के बाकी दावेदारों की लाटरी खुलेगी।
उत्तराखण्ड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार को सत्ता में आये हुये अभी केवल दो माह ही हुये हैं। इसलिये इस सरकार को सफल या विफल बताना बेहद जल्दबाजी होगी। त्रिवेन्द्र रावत का इस प्रदेश और अपनी पार्टी के प्रति समर्पण असंदिग्ध है। वह कृषि मंत्री के रूप में अपनी योग्यता 2007 से लेकर 2012 तक दिखा चुके हैं। लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमजोरी उनका सीधा और सपाट व्यक्तित्व है। वह अन्य नेताओं की तरह मीठी गोली नहीं देते हैं। हालांकि उन्होंने अपनी वाणी में काफी सुधार कर दिया है फिर भी चेहरे पर बनावटी मुस्कराहट लाने और हर किसी को पुचकारने में सिद्धहस्त नहीं हो पाये हैं। मीडिया से भी उनकी दूरी कम नहीं हुयी है। संभवतः इसीलिये उनकी नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ का लोकप्रियता का ग्राफ भी त्रिवेन्द्र रावत के लिये चुनौती बन गया है। एक साथ सत्ता संभालने वाले वाले ये दोनों ही युवा मुख्यमंत्री (योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट और त्रिवेन्द्र सिंह रावत) एक ही पार्टी के होने के साथ ही दोनों ही पौड़ी गढ़वाल के मूल निवासी भी हैं और दोनों के ही मूल गावों का फासला काफी कम है। पहाड़ों में इतने करीब के दो ठाकुरों में दूर या नजदीक की रिश्तेदारी भी निकल ही आती है। इसलिये भी त्रिवेन्द्र की तुलना बार-बार योगी से की जा रही है। भाजपाई भी यह कहते हुये नहीं थक रहे हैं कि जिस तरह योगी ने अपने मजबूत इरादों और कठोर प्रशासन का संदेश दिया है वैसा संदेश त्रिवेन्द्र नहीं दे पाये। जबकि दोनों ही प्रदेशों की परिस्थितियां और दोनों ही नेताओं के टेम्परामेंट भिन्न हैं। फिर भी उत्तराखण्ड की जो राजनीतिक संस्कृति और पिछला इतिहास रहा है उस पर गौर करें तो स्वयं अमित शाह या नरेन्द्र मोदी भी इस सरकार के स्थायित्व की भविष्यवाणी नहीं कर सकते। इस सरकार को स्थिरता के लिये पंचायत, नगर निकाय और लोकसभा चुनावों की परीक्षाओं के अलावा भी कई अन्य परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा और अगर पिछले 17 सालों या उससे पहले का इतिहास पढ़ें तो इन परीक्षाओं को पार करना उत्तराखण्ड में नामुमकिन नहीं तो बेहद कठिन अवश्य ही है। राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी 11 महीने 20 दिन ही सत्ता में रहे। उसके बाद ऐसा राजनीतिक चक्र चला कि नारायणदत्त तिवारी ही 5 साल 5 दिन तक शासन चला पाये बाकी भुवन चन्द्र खण्डूड़ी 2 बार में 2 साल 9 महीने 21 दिन, रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ 2 साल 2 महीने और 14 दिन, विजय बहुगुणा 1 साल 10 महीने 18 दिन और हरीश रावत सुप्रीम कोर्ट से जीवन दान मिलने के बावजूद दो-तीन झटकों में 3 साल 1 महीना और 4 दिन ही अपनी हुकूमत चला पाये।
-जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोडए देहरादून।
मोबाइल- 9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
jaysinghrawat@hotmail.com
Thursday, May 25, 2017
Friday, May 19, 2017
Wednesday, May 10, 2017
गंगा प्रबंधन बोर्ड का गठन शीघ्र
गंगा प्रबंधन बोर्ड का
गठन शीघ्र
जल संसाधनों के प्रबंधन
और विकास के बारे में दूसरी बैठक

बैठक में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के प्रतिनिधियों ने जल संसाधन परिसंपत्तियों और ढांचे के वितरण के बारे में बताया कि उत्तर प्रदेश द्वारा 37 नहरें (28 हरिद्वार जिले में और 9 उधम सिंह नगर जिले में) उत्तराखंड को सौंपी जा चुकी हैं। उत्तराखंड सरकार के नियंत्रण में मुरादाबाद जिले में स्थित 8 नहरें राज्य सरकार द्वारा उत्तरप्रदेश सरकार को हस्तांतरित की जा चुकी हैं।
गंगा प्रबंधन बोर्ड के गठन के बारे में बैठक में हुई व्यापक सहमति के बाद तत्संबधी अधिसूचना का मसौदा दोनों राज्यों को पहले ही भेजा जा चुका है। इस बारे में बैठक में व्यापक विचार-विमर्श किया गया और दोनों राज्यों से कहा गया कि वे अपनी औपचारिक प्रतिक्रियाएं भेजें ताकि बोर्ड का शीघ्र गठन किया जा सके।
Tuesday, May 9, 2017
STATUE OF MAHARANA PRATAP UNVEILED IN ISBT DEHRADUN
बस अड्डा देहरादून में महाराणा प्रताप की मूर्ति का अनावरण
देहरादून में रह रहे लगभग 100 गड़िया लौहार (बागड़ी) परिवारों के लिये स्थायी आवास उपलब्ध कराये जाएंगे।
आई.एस.बी.टी. देहरादून में स्थापित महाराणा की प्रतिमा के रखरखाव व साफ-सफाई की व्यवस्था मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण द्वारा की जाएगी।

मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र सिंह रावत वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप की जयन्ती के अवसर पर 478वीं जयन्ती के अवसर पर महाराणा प्रताप अंतर्राज्जीय बस अड्डा देहरादून में उनकी मूर्ति का अनावरण किया। कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए मुख्यमंत्री श्री रावत ने कहा कि ये मेरा सौभाग्य है कि महाराणा प्रताप की मूर्ति का अनावरण का अवसर प्राप्त हुआ।
मुख्यमंत्री श्री रावत ने कहा कि शायद ही ऐसा कोई हो जिसने महाराणा प्रताप का नाम न सुना हो। उन्होंने अस्पृश्यता जैसे अभिशाप को समाप्त करने का भी संदेश दिया। वीर शिरोमणी महाराणा प्रताप ने वन में रहकर,घासफूस खाकर भी चित्तौड़ के सम्मान की रक्षा की। महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का स्मरण करते हुए मुख्यमंत्री श्री रावत ने कहा कि चेतक के बिना महाराणा प्रताप का जिक्र अधूरा है। वह चैतन्य एवं बुद्धिमत्ता का प्रतीक है।
इस अवसर पर सांसद श्री रमेश पोखरियाल निशंक, कैबिनेट मंत्री श्री सतपाल महाराज, विधायक श्री विनोद चमोली व महाराणा प्रताप विचार मंच के रतन सिंह चैहान उपस्थित थे।
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