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Tuesday, April 7, 2020

कुम्भ का हैजा बद्रीनाथ-माणा  तक फैलता था 

चारधाम यात्रा और कुंभ पर भी कोरोना की काली छाया

-जयसिंह रावत
दुनियाभर में त्राहिमाम-त्राहिमाम मचाने वाली कोरोना महामारी ने इस वर्ष की हिमालयी तीर्थों की चारधाम यात्रा को तो संकट में डाल ही दिया मगर इसकी छाया आगामी हरिद्वार महाकंुभ पर भी पड़ती नजर आ रही है। बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री की यात्रा अप्रैल महीने के अंतिम सप्ताह से प्रस्तावित है, जिसमें देश विदेश से 30 लाख से अधिक तीर्थयात्रियों के आने की संभावना है। जबकि हरिद्वार महाकुंभ का पहला स्नान 14 जनवरी 2021 को होना है जिसकी तैयारियों इस साल बरसात समाप्त होते ही शुरू हो जानी है और इस महापर्व के लिये रमते पंच सहित अखाड़ों का आगमन इसी साल शुरू हो जायेगा। जब लोगों के घरों से निकलने की पाबंदी हो और मंदिर मस्जिद सभी बंद हों तो फिर चारधाम यात्रा की संभावनाएं स्वतः ही क्षीण हो जाती हैं।
Jay Singh Rawat journalist & author
इस बार बदरी-केदार के दर्शन मुश्किल
कोरोना की विश्वव्यापी महामारी के महाखौफ से काफी पहले ही बसन्त पंचमी के अवसर पर बदरीनाथ के कपाट खोलने की तिथि 30 अप्रैल को और महाशिरात्रि के अवसर पर केदारनाथ के कपाट खोलने की तिथि 29 अप्रैल को प्राचीन परम्परानुसार घोषित हो चुकी है। गंगोत्री एवं यमुनोत्री के कपाट सदैव अक्षय तृतीया पर खुलते हैं जो कि इस साल 26 अपै्रल को आ रही है। इस तरह देखा जाय तो इन हिमालयी तीर्थों के दर्शनों की शुरुआत 26 अप्रैल से होनी है, जिसके लिये कम से कम दो दिन पहले ऋषिकेश से इस वर्ष की यात्रा का श्रीगणेश होना है। जब कोरोना के खौफ से देश के सारे मंदिर और मस्जिद श्रद्धालुओं के लिये बंद कर दिये गये हैं तो हिमालय के पवित्र धाम बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में श्रद्धालुओं का स्वागत होगा, ऐसा संभव नहीं लगता है। वैसे भी इतिहास गवाह है कि गढ़वाल में हैजा और चेचक जैसी महामारियां तीर्थ यात्रियों के माध्यम से आती थीं और यात्रियों से संक्रमित डण्डी-कण्डी वाले पोर्टरों के माध्यम से पहाड़ के गावों तक पहुंचती थीं।
यात्रा को लेकर सरकार भी असमंजस में
इस वर्ष की यात्रा के लिये धार्मिक औपचारिकताएं शुरू हो गयी हैं मगर कोरोना संकट खौफजदा उत्तराखण्ड सरकार को इस बारे में कुछ भी नहीं सूझ रहा है। प्रदेश के पर्यटन एवं धर्मस्व मंत्री सतपाल महाराज भी यात्रा के बारे में कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। उनका कहना है कि 15 अपै्रल को लॉकडाउन को आगे बढ़ाने या स्थगित करने के निर्णय के बाद ही केन्द्र सरकार से जो भी निर्देश आयेंगे, उसी हिसाब से राज्य सरकार आगे बढ़ेगी। राज्य सरकार वैसे ही संसाधनों के साथ ही अनुभव की कमी से जूझ रही है। अगर इसके बाद लॉकडाउन खुल भी गया तो भी कम से कम मई के महीने तक मंदिरों में यात्रियों को प्रवेश मिलने की संभावना काफी क्षीण ही है। और जून के दूसरे पखवाड़े से मानसून शुरू हो जाता है। वैसे भी 15 अप्रैल के बाद यात्रा के लिये केवल 10 दिन बचते हैं और इतने कम समय में लाखों लोगों के आगमन के लिये परिवहन, सफाई, पेयजल, आवास, चिकित्सा और भोजन आदि के साथ ही मंदिर में टनों के हिसाब से भोग और पूजा सामग्री की व्यवस्था करना आसान नहीं है। बदरीनाथ में चंदन की लकड़ी भी कर्नाटक से मंगाई जाती है। राज्य सरकार वैसे ही मंदिर समिति को समाप्त कर नये चारधाम देवस्थानम् बोर्ड का गठन कर चुकी है जिसमें नौकरशाहों की भरमार है जिन्हें यात्रा का संचालन करने का अनुभव नहीं है। उत्तराखण्ड की आर्थिकी काफी हद तक चारधाम यात्रा पर निर्भर है और अगर यात्रा नहीं चली तो भुखमरी की नौबत आ सकती है।
मंदिर तो खुलेंगे मगर यात्रियों के लिये नहीं
आदि गुरू शंकराचार्य के आगमन के बाद लगभग ढाइ हजार सालों में ऐसा कभी नहीं हुआ जबकि बदरीनाथ या केदारनाथ के कपाट निश्चित मुहूर्त पर न खुले हों। प्राचीन परम्परानुसार कपाट खुलने से पहले ज्योतिर्पीठ से शंकराचार्य की गद्दी और पाण्डुकेश्वर से उद्धव और कुबेर की भोगमूर्ति बदरीनाथ जाती है। इनके साथ ही शंकराचार्य, वेदपाठी, धर्माधिकारी और पण्डे भी बदरीनाथ पहुंच जाते हैं। इसी प्रकार ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ से केदारनाथ की पंचमुखी भोग मूर्ति केदारनाथ रवाना होती है तो मुखवा और खरसाली से भी गंगोत्री और यमुनोत्री की मूर्तियां अपने धाम जाती हैं। परम्परानुसार इस बार इन मंदिरों के कपाट तो अवश्य ही खुलेंगे मगर मंदिरों में बिना श्रद्धालुओं के ही धार्मिक औपचारिकताएं पूरी होंगी। यद्यपि बरसात में सड़क टूटने से यात्रा कुछ समय के लिये अवरुद्ध अवश्य होती है, मगर सड़क खुलते ही यात्रा फिर शुरू हो जाती है। केवल 2013 की केदारनाथ आपदा के समय यात्रा रोकी गयी थी। यातायात के साधनों के विकास के साथ ही इन विश्वविख्यात धर्मस्थलों पर यात्रियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है। राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार गत वर्ष बदरीनाथ में 11.74 लाख, केदारनाथ में 10 लाख, यमुनोत्री में 4.66 लाख तथा गंगोत्री में 5.31 लाख श्रद्धालुओं ने दर्शन किये थे। इनके अलावा हेमकुण्ड साहिब में 2.41 लाख सिख यात्रियों ने अरदास की। इतने लोगों का जमवाड़ा महामारी के लिहाज से बेहद खतरनाक साबित हो सकता है।
कुंभ से ही फैलता था हैजा महामारी का प्रकोप
महामारी का संकट तो साल की चारधाम यात्रा पर नजर आ ही रहा है, लेकिन इसकी काली छाया आगामी महाकुंभ पर भी अभी से नजर आने लगी है। अगर इस साल के अंत तक विश्व कोरोना के खतरे से पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ तो शायद ही भारत सरकार इतिहास से सबक लेकर 2021 के महाकुंभ के आयोजन की अनुमति देगी। इतिहास गवाह है कि हरिद्वार कुंभ के दौरान जब भी हैजा फैला उसका विस्तार देश के अन्य हिस्सों में होने के साथ ही गढ़वाल के लिये बेहद मारक साबित हुआ। गढ़वाल में सन् 1857, 1867 एवं 1879 की हैजे की महामारियां हरिद्वार कुंभ के बाद ही फैलीं थीं। सन् 1857 एवं 1879 का हैजा हरिद्वार से लेकर भारत के अंतिम गांव माणा तक फैल गया था। हरिद्वार कुंभ के बाद शुरू हुयी तीर्थयात्रा में संक्रमित तीर्थयात्रियों से वह महामारी फैली थी। सन् 1897में महामारी रोकथाम अधिनियम के अस्तित्व में आने के बाद 1882 के हैजे के दौरान तत्कालीन असिस्टेंट कमिश्नर गढ़वाल ने भी लॉकडाउन लागू करते हुये एक संक्रमण वाले जिले के लोगों के दूसरे जिले में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
हैजा फैलने पर लोग गांव छोड़ भाग जाते थे
हिमालयन गजेटियर वॉल्यूम 3 में ई.टी. एटकिन्सन ने कहा है कि हैजे के दौरान गढ़वाल के चारधाम यात्रा मार्ग पर अगर कोई हैजा पीड़ित मर जाता था तो उसके सहयात्री उसके शव को वहीं सड़क पर छोड़ कर आगे बढ़ जाते थे। इसी प्रकार संक्रमित यात्रियों के बोझा ढोने या उण्डी कण्डी वाले गढ़वाली पोर्टर जब अपने गांव जाते थे तो वे भी संक्रमण फैला देते थे। उस समय स्वच्छता पर लोग इतना ध्यान नहीं देते थे। गांव में हैजा फैलने पर गांव वाले बीमार को बिना इलाज के जानरों की तरह मरने के लिये अकेला छोड़ कर जंगल भाग जाते थे। मृतकों को जलाया तक नहीं जाता था। इसलिये विषाणु नदी नालों, हवा वर्षा से फैल जाते थे। उन दिनों कुंभ के अलावा भी चारधाम यात्रियों में कई दिनों का पकाया हुआ भोजन खाने और प्रदूषित जल पीने से भी हैजा जैसी महामारियां फैल जातीं थीं। गजेटियर के अनुसार हैजे से गढ़वाल में वर्ष 1903 में 4017, 1904 में 188, 1906 में 3429, 1908 में 2924, 1909 में 1736, 1910 में 782 और 1911 में 76 लोग मारे गये थे।
पहले भी महामारी में होता था लॉकडाउन
हरिद्वार कुंभ में भी हैजा फैलने पर सहयात्री बीमार और मृतक को छोड़ कर भाग जाते थे। सन् 1879 में जब गढ़वाल के असिस्टेंट कमिश्नर को यह सूचना मिली तो उसने अपने कर्मचारियों को सड़कों पर पड़े शवों को जलाने के आदेश देने के साथ ही कुंभ गये गढ़वाली यात्रियों को जहां के तहां रुकने का आदेश दिया। उस समय प्रशासन ने गावों में दवाइयों और अफीम के साथ मेडिकल टीमें भेज दीं थीं। उस समय के लॉकडाउन में भी एक गांव से दूसरे गांव जाने पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया गया था। उत्तराखण्ड में राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी के कारण समुचित ढंग से कोरोना संकट का सामना नहीं हो पा रहा है। सरकार स्वयं ही भ्रम और असमंजस की स्थिति में है छोटी से बात के लिये भी केन्द्र सरकार का मुंह ताक रही है। राज्य सरकार के पास आने वाली इस चुनौती से निपटने के लिये कोई प्लान तो रहा दूर कोई सोच तक नहीं है।   

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