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Tuesday, April 7, 2020

अंग्रेजों की व्यवस्था ही काम आ रही है इस संकट में 


अंग्रेज तो गये मगर संकट मोचक अवश्य छोड़ गये
-जयसिंह रावत
अंग्रेज चले गये और औलाद छोड़ गये, जैसी कहावतों से हम आज भी 190 साल पहले भारत छोड़ कर चले गये अंग्रेजों की उलाहना कर दते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि अंग्रेज हमारे लिये कई ऐसी चीजें और व्यवस्थाएं भी छोड़ गये थे जो कि आज भी हमारे काम रही हैं। उनमें से एक 1897 का महामारी रोकथाम कानून भी है जो कि संकट की इस घड़ी में हमारे काम रहा है। यही नहीं अत्याधुनिक विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के इस युग में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य का जो विशालतंत्र हमारे सामने खड़ा है उसकी बुनियाद भी वहीं अंग्रेज छोड़ कर चले गये थे।
कोरोना महामारी में अंग्रेजों का कानून ही संकटमोचक
Jay Singh Rawat author and journalist
कोविड-19 की तरह जब 1918 में स्पेनिश फ्लू की महामारी ने दुनियां में हाहाकार मचाया था तो उस समय भी आज की तरह चिकित्सा विज्ञान किंर्तव्यविमूढ़ था। इसलिये उस समय भी अंग्रेजों का बुबोनिक प्लेग से निपटने के लिये बनाया गया महामारी रोग कानून 1897 ही काम आया। उसके बाद भी भारत में जब भी हैजा, प्लेग, चेचक, मलेरिया एवं 1898 के असम के कालाजार एवं बेरीबेरी जैसी बीमारियां फैलीं तो यही ब्रिटिश कालीन कानून याद आया, जैसा कि कोविड-19 की महामारी फैलने पर भारत सरकार को इस बार याद आया। अंग्रेजों के जाने के बाद स्वतंत्र भारत में भी वर्ष 2018 में गुजरात में हैजा रोकने, 2015 में डेंगू के नियंत्रण के लिये चण्डीगढ़ में, 2009 में स्वाइन फ्लू रोकने के लिये पुणे में और आज देशभर में कोरोना वायरस की महामारी रोकने के लिये एकमात्र विकल्प के तौर पर इस कानून का प्रयोग किया जा रहा है। भले ही सप्तम् अनुसूची के तहत कानून व्यवस्था राज्य सरकार का दायित्व है, फिर भी भारत सरकार ने इसी कानून का डण्डा सारे देश पर घुमा रखा है। भारत ही क्यों ? आज सारे संसार में महामारी से बचने के लिये सोशियल डिस्टेंसिंग की जा रही है, जो कि एपिडेमिक डिजीज एक्ट 1897 का ही एक सबक है।
अंग्रेजों के साथ ही पाश्चात्य चिकित्सा का प्रवेश
सन् 1757 में प्लासी के युद्ध के बाद जब ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अंग्रेजी हुकूमत की नींव रखी तो उस समय देश में घोर गरीबी के साथ ही आम जनता में बीमारियों और स्वच्छता के प्रति जागरूकता में कमी के कारण हैजा, प्लेग एवं चेचक जैसी बीमारियां आम थी, जिनसे लाखों लोगों की जानें जातीं थी। उस समय भारत में बीमारियों के इलाज के लिये आज की जैसी पाश्चात्य चिकित्सा व्यवस्था हो कर लोग परम्परागत नीम हकीम एवं वैद्यों पर निर्भर थे। सन् 1600 के आसपास जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के पहले फ्लीट के साथ पाश्चात्य दवाओं के साथ डाक्टरों की टीम भी पहुंची थी। कम्पनी द्वारा प्लासी के युद्ध के बाद भारत में अपनी प्रशासनिक एवं मिलिट्री सेवाएं शुरू किये जाने के साथ ही सबसे पहले कम्पनी के कर्मचारियों और सैनिकों की चिकित्सा और स्वास्थ्य के लिये 1764 में बंगाल में मेडिकल विभाग खोला गया, जिसमें 4 प्रमुख सर्जन, 8 सहायक सर्जन तथा 28 सर्जनों के सहयोगी तैनात किये गये। सन् 1775 में रॉयल इंडियन आर्मी से सम्बद्ध सर्जन जनरल और फिजिशियन जर्नल सहित हास्पीटल बोर्ड का गठन किया गया, जिसका काम यूरोपीय अस्पतालों का प्रशासन था। सन् 1785 में कम्पनी ने बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसियों में 234 सर्जन वाले एक चिकित्सा विभाग का गठन किया, जिसमें सिविल और मिलिट्री दोनों ही सेवाएं उपलब्ध थीं। सन् 1796 में हास्पीटल बोर्ड का नाम बदल कर मेडिकल बोर्ड कर दिया गया, जिसे नागर सेवाओं की जिम्मेदारी दी गयी।
ब्रिटिश साम्राज्ञी के शासन में चिकित्सा व्यवस्था
सन् 1857 की गदर के बाद भारत का प्रशासन ब्रिटिश साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया द्वारा अपने हाथ में लिये जाने के बाद भारत में सिविल सर्विसेज या नागर सेवाओं के लिये नये विभाग खोलने के साथ ही बंगाल में 1868 में एक अलग चिकित्सा विभाग खोला गया। इससे पहले 1864 में मिलिट्री मेडिकल आफिसर के अधीन सैनिट्री पुलिस फेर्स का भी गठन किया गया। सन् 1870 से लेकर 1879 तक प्रत्येक प्रेसिडेंसी में सनैनिट्री विभाग खोले गये। उससे पहले सभी प्रान्तों में सैनिट्री बोर्ड गठित किये गये। सैनिट्री इंस्पेक्टर जनरल के पद को बाद में सैनिट्री कमिश्नर के रूप में बदला गया। गवर्ननर जनरल के आदेश पर 1880 में सभी प्रान्तों में सैनिट्री इंजिनीयरों की नियुक्ति की गयी। इससे पहले सन् 1802 में चेचक के टीके की खोज होने के बाद वैक्सीनेशन के लिये सुप्रींटेंडेंट जनरल ऑफ वैक्सीनेशन की नियुक्ति हो गयी थी। सन् 1827 में भारत में भारतीय सहायक वैक्सीनेटरों के साथ 4 यूरोपीय वैक्सीनेशन सुप्रींटेंडेंट नियुक्त किये गये। सन् 1870 में टीकाकरण का कार्य सैनिट्री कमिश्नर की देखरेख में सौंपा गया।
इंडियन मेडिकल सर्विस का गठन
सन् 1869 भारत सरकार के अधीन एक सार्वजनिक स्वास्थ्य आयुक्त और एक संाख्यकी अधिकारी की नियुक्ति की गयी। उसी वर्ष प्रेसिडेंसी प्रशासनिक व्यवस्था समाप्त करने के साथ ही तीनों प्रेसिडेंसियों के चिकित्सा विभागों का विलय कर इंडियन मेडिकल सर्विस (आइएमएस) का गठन किया गया। आइएमएस के गठन के बाद सेना के लिये पृथक रॉयल मेडिकल कोर (आरएएमसी) का गठन किया गया जो कि 1919 तक भारत सरकार के अधीन रही। उसी वर्ष मोन्टगोमरी-चेम्सफोर्ड संवैधानिक सुधारों के लागू होने के बाद सर्वाजनिक स्वास्थ्य स्वच्छता और सांख्यकी प्रान्तीय सरकारों को हस्तांतरित कर दिये गये। सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कदम आगे बढ़ाते हुये 1920-21 में म्युनिस्पैलिटी एवं लोकल बोर्ड एक्ट पास होने के साथ ही इन स्थानीय निकायों को लोक स्वास्थ्य की जिम्मेदारी भी सौंप दी गयी। भारत सरकार अधिनियम 1935 के तहत प्रान्तीय सरकारों को अधिक स्वायत्तता दिये जाने के साथ ही सभी चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं को संघीय, संघीय एवं प्रान्तीय तथा प्रान्तीय, की तीन श्रेणियों में बांट दिया गया। सन् 1939 में पब्लिक हेल्थ एक्ट पास हुआ जो कि भारत में अपने तरह का पहला एक्ट था। सन् 1946 में भारत सरकार द्वारा देश में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सेवाओं की स्थिति का सर्वे एवं सुधार हेतु सुझाव देने के लिये हेल्थ सर्वे एवं डेवेलपमेंट कमेटी (भोरे कमेटी)  का गठन किया गया। कमेटी के सुझाव पर देश की स्वास्थ्य सेवाओं की समीक्षा, मेडिकल रिलीफ, मेडिकल शिक्षा, मेडिकल रिसर्च और अन्तर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य पर काम शुरू हुआ। आजादी के बाद सर्जन जनरल के स्थान पर डाइरेक्टर जनरल ऑफ इंडियन मेडिकल सर्विसेज बना दिया गया।
भारत का पहला एलोपैथिक अस्पताल
मद्रास जनरल हास्पीटल भारत का पहला अस्पताल था जिसकी स्थापना 1679 में की गयी। उसके बाद 1796 में कलकत्ता में प्रेसिडेंसी जनरल हास्पीटल नाम से दूसरा अस्पताल खुला। सन् 1800 से 1820 तक तक मद्रास में 4 अस्पताल खुल गये थे। डाक्टरों की कमी पूरी करने के लिये सन् 1835 में कलकत्ता में मेडिकल कालेज की स्थापना की गयी, जो कि एशिया का पाश्चात्य दवाओं पर आधारित पहला कालेज था। उसके बाद 1860 में लाहौर में मेडिकल स्कूल खुला। सन् 1854 में भारत सरकार छोटे अस्पतालों तक दवाएं एवं मेडिकल उपकरणों की सप्लाइ के लिये सहमत हुयी और इसके लिये कलकत्ता, मद्रास, बम्बई, मियां मीर और रंगून में सरकारी डिपो और स्टोर खोले गये। सन् 1918 में दिल्ली में लेडी रीडिंग हेल्थ स्कूल की स्थापना हुयी। कलकत्ता में सन् 1930 में ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हाइजीन एण्ड पब्लिक हेल्थ की स्थापना हुयी और उसके बाद 1939 में कलकत्ता के पास सिंगूर में रूरल हेल्थ ट्रेनिंग सेंटर की स्थापना हुयी। सन् 1880 तक ब्रिटिश शासनाधीन भारत में लगभग 1200 छोटे बड़े अस्पताल थे जो कि 1902 तक बढ़ कर 2500 तक पहुंच गये। सन् 1902 तक भारत में प्रत्येक 330 वर्गमील पर एक अस्पताल बन गया था। सन् 1880 में अस्पतालों में मरीजों की संख्या 74 लाख थी जो कि 1902 तक 2.2 करोड़ तक पहुंच गयी थी।
प्लेग से लाखों लोग मरे
सन् 1896 में जब बम्बई में प्लेग प्रकट हुआ तो उसके साथ ही इस बीमारी की बम्बई के बाद सूचनाएं अन्य बदंरगाह शहर, पुणे, कलकत्ता एवं करांची से आने लगीं। पहले साल तो महामारी बम्बई तथा उसके आसपास तक ही सीमित थी लेकिन दूसरे साल महामारी बंगाल, मद्रास, संयुक्त प्रान्त, मध्य प्रान्त, पंजाब, मैसूर, हैदराबाद और कश्मीर तक फैल गयी जिसमें सरकारी रिकार्ड के अनुसार 20 लाख तक लोग मारे गये। लेकिन गैर सरकारी अनुमानों ने कहीं अधिक मौतों के संकेत दिये। यह अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्ग होने के कारण ब्रिटिश सरकार पर इसे रोकने के लिये भारी दबाव था। वैसे भी उसे अपने अधिकारियों और सैनिकों की रक्षा की भी चिन्ता थी। इस बीमारी पर नियंत्रण के लिये ब्रिटिश सरकार ने 1896 में प्लेग आयोग का गठन किया जिसकी राय थी कि इस अत्यन्त संक्रामक रोग के फैलने का मुख्य कारण लोगों का एक दूसरे से सम्पर्क है, जिसे तोड़ कर संक्रमण की चेन तोड़ी जा सकती है। इस प्रकार देश को 1897 को महामारी कानून मिला जिसका प्रयोग हर बीमारी के संकट में होता रहता है।
महामारी में मरते रहे लाखों लोग
इंपीरियल गजट ऑफ इंडिया के अनुसार वर्ष 1881-90 के बीच भारत की जनसंख्या 20,37,78,338 थी जबकि इस अवधि मंे हैजा, चेचक, ज्वर, अतिसार एवं अन्य बीमारियों से देश के विभिन्न हिस्सों में 49,86,950 लोग मारे जिनमें हैजा से मरने वालों की संख्या 3,06,518 एवं चेचक से मरने वालों की संख्या 1,22,772 थी। उस दौरान सबसे ज्यादा 33,59,927 लोग अकेले ज्वर से मरे थे। इसी प्रकार 1891-1900 के बीच 65,71,397 लोग विभिन्न व्याधियों से मरे जबकि उस दौरान देश की जनसंख्या 21,77,00,151 ही थी। उस दौरान हैजा से 4,50,502, चेचक से 82,588 ज्वर से 43,63,055 अतिसार या दस्त से 2,78,298 एवं अन्य रोगों से 13,96,936 लोग मरे। उस समय इन बीमारियों का असली कारण मालाबार, सूरत, कोचीन, कलकत्ता, मद्रास और बम्बई बंदरगाह शहरों के विकास एवं औद्योगीकरण से जनसंख्या का कुछ ही शहरों में बेतरतीव जमाव था। पलायन के कारण यही नौबत अब पुनः रही है।

जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून
उत्तराखण्ड।
Mobile-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com

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