अंग्रेज तो गये मगर संकट मोचक अवश्य छोड़ गये
-जयसिंह
रावत
अंग्रेज चले गये
और औलाद छोड़
गये, जैसी कहावतों
से हम आज
भी 190 साल पहले
भारत छोड़ कर
चले गये अंग्रेजों
की उलाहना कर
दते हैं। लेकिन
हम भूल जाते
हैं कि अंग्रेज
हमारे लिये कई
ऐसी चीजें और
व्यवस्थाएं भी छोड़
गये थे जो
कि आज भी
हमारे काम आ
रही हैं। उनमें
से एक 1897 का
महामारी रोकथाम कानून भी
है जो कि
संकट की इस
घड़ी में हमारे
काम आ रहा
है। यही नहीं
अत्याधुनिक विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी
के इस युग
में चिकित्सा एवं
स्वास्थ्य का जो
विशालतंत्र हमारे सामने खड़ा
है उसकी बुनियाद
भी वहीं अंग्रेज
छोड़ कर चले
गये थे।
कोरोना
महामारी में अंग्रेजों का कानून ही संकटमोचक
Jay Singh Rawat author and journalist |
कोविड-19 की तरह
जब 1918 में स्पेनिश
फ्लू की महामारी
ने दुनियां में
हाहाकार मचाया था तो
उस समय भी
आज की तरह
चिकित्सा विज्ञान किंर्तव्यविमूढ़ था।
इसलिये उस समय
भी अंग्रेजों का
बुबोनिक प्लेग से निपटने
के लिये बनाया
गया महामारी रोग
कानून 1897 ही काम
आया। उसके बाद
भी भारत में
जब भी हैजा,
प्लेग, चेचक, मलेरिया एवं
1898 के असम के
कालाजार एवं बेरीबेरी
जैसी बीमारियां फैलीं
तो यही ब्रिटिश
कालीन कानून याद
आया, जैसा कि
कोविड-19 की महामारी
फैलने पर भारत
सरकार को इस
बार याद आया।
अंग्रेजों के जाने
के बाद स्वतंत्र
भारत में भी
वर्ष 2018 में गुजरात
में हैजा रोकने,
2015 में डेंगू के नियंत्रण
के लिये चण्डीगढ़
में, 2009 में स्वाइन
फ्लू रोकने के
लिये पुणे में
और आज देशभर
में कोरोना वायरस
की महामारी रोकने
के लिये एकमात्र
विकल्प के तौर
पर इस कानून
का प्रयोग किया
जा रहा है।
भले ही सप्तम्
अनुसूची के तहत
कानून व्यवस्था राज्य
सरकार का दायित्व
है, फिर भी
भारत सरकार ने
इसी कानून का
डण्डा सारे देश
पर घुमा रखा
है। भारत ही
क्यों ? आज सारे
संसार में महामारी
से बचने के
लिये सोशियल डिस्टेंसिंग
की जा रही
है, जो कि
एपिडेमिक डिजीज एक्ट 1897 का
ही एक सबक
है।
अंग्रेजों के साथ ही पाश्चात्य चिकित्सा का प्रवेश
सन् 1757 में प्लासी
के युद्ध के
बाद जब ईस्ट
इंडिया कम्पनी ने भारत
में अंग्रेजी हुकूमत
की नींव रखी
तो उस समय
देश में घोर
गरीबी के साथ
ही आम जनता
में बीमारियों और
स्वच्छता के प्रति
जागरूकता में कमी
के कारण हैजा,
प्लेग एवं चेचक
जैसी बीमारियां आम
थी, जिनसे लाखों
लोगों की जानें
जातीं थी। उस
समय भारत में
बीमारियों के इलाज
के लिये आज
की जैसी पाश्चात्य
चिकित्सा व्यवस्था न हो
कर लोग परम्परागत
नीम हकीम एवं
वैद्यों पर निर्भर
थे। सन् 1600 के
आसपास जब ईस्ट
इंडिया कम्पनी के पहले
फ्लीट के साथ
पाश्चात्य दवाओं के साथ
डाक्टरों की टीम
भी पहुंची थी।
कम्पनी द्वारा प्लासी के
युद्ध के बाद
भारत में अपनी
प्रशासनिक एवं मिलिट्री
सेवाएं शुरू किये
जाने के साथ
ही सबसे पहले
कम्पनी के कर्मचारियों
और सैनिकों की
चिकित्सा और स्वास्थ्य
के लिये 1764 में
बंगाल में मेडिकल
विभाग खोला गया,
जिसमें 4 प्रमुख सर्जन, 8 सहायक
सर्जन तथा 28 सर्जनों
के सहयोगी तैनात
किये गये। सन्
1775 में रॉयल इंडियन
आर्मी से सम्बद्ध
सर्जन जनरल और
फिजिशियन जर्नल सहित हास्पीटल
बोर्ड का गठन
किया गया, जिसका
काम यूरोपीय अस्पतालों
का प्रशासन था।
सन् 1785 में कम्पनी
ने बंगाल, मद्रास
और बम्बई प्रेसिडेंसियों
में 234 सर्जन वाले एक
चिकित्सा विभाग का गठन
किया, जिसमें सिविल
और मिलिट्री दोनों
ही सेवाएं उपलब्ध
थीं। सन् 1796 में
हास्पीटल बोर्ड का नाम
बदल कर मेडिकल
बोर्ड कर दिया
गया, जिसे नागर
सेवाओं की जिम्मेदारी
दी गयी।
ब्रिटिश साम्राज्ञी के शासन में चिकित्सा व्यवस्था
सन् 1857 की गदर
के बाद भारत
का प्रशासन ब्रिटिश
साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया द्वारा
अपने हाथ में
लिये जाने के
बाद भारत में
सिविल सर्विसेज या
नागर सेवाओं के
लिये नये विभाग
खोलने के साथ
ही बंगाल में
1868 में एक अलग
चिकित्सा विभाग खोला गया।
इससे पहले 1864 में
मिलिट्री मेडिकल आफिसर के
अधीन सैनिट्री पुलिस
फेर्स का भी
गठन किया गया।
सन् 1870 से लेकर
1879 तक प्रत्येक प्रेसिडेंसी में
सनैनिट्री विभाग खोले गये।
उससे पहले सभी
प्रान्तों में सैनिट्री
बोर्ड गठित किये
गये। सैनिट्री इंस्पेक्टर
जनरल के पद
को बाद में
सैनिट्री कमिश्नर के रूप
में बदला गया।
गवर्ननर जनरल के
आदेश पर 1880 में
सभी प्रान्तों में
सैनिट्री इंजिनीयरों की नियुक्ति
की गयी। इससे
पहले सन् 1802 में
चेचक के टीके
की खोज होने
के बाद वैक्सीनेशन
के लिये सुप्रींटेंडेंट
जनरल ऑफ वैक्सीनेशन
की नियुक्ति हो
गयी थी। सन्
1827 में भारत में
भारतीय सहायक वैक्सीनेटरों के
साथ 4 यूरोपीय वैक्सीनेशन
सुप्रींटेंडेंट नियुक्त किये गये।
सन् 1870 में टीकाकरण
का कार्य सैनिट्री
कमिश्नर की देखरेख
में सौंपा गया।
इंडियन मेडिकल सर्विस का गठन
सन् 1869 भारत सरकार
के अधीन एक
सार्वजनिक स्वास्थ्य आयुक्त और
एक संाख्यकी अधिकारी
की नियुक्ति की
गयी। उसी वर्ष
प्रेसिडेंसी प्रशासनिक व्यवस्था समाप्त
करने के साथ
ही तीनों प्रेसिडेंसियों
के चिकित्सा विभागों
का विलय कर
इंडियन मेडिकल सर्विस (आइएमएस)
का गठन किया
गया। आइएमएस के
गठन के बाद
सेना के लिये
पृथक रॉयल मेडिकल
कोर (आरएएमसी) का
गठन किया गया
जो कि 1919 तक
भारत सरकार के
अधीन रही। उसी
वर्ष मोन्टगोमरी-चेम्सफोर्ड
संवैधानिक सुधारों के लागू
होने के बाद
सर्वाजनिक स्वास्थ्य स्वच्छता और
सांख्यकी प्रान्तीय सरकारों को
हस्तांतरित कर दिये
गये। सार्वजनिक स्वास्थ्य
के क्षेत्र में
कदम आगे बढ़ाते
हुये 1920-21 में म्युनिस्पैलिटी
एवं लोकल बोर्ड
एक्ट पास होने
के साथ ही
इन स्थानीय निकायों
को लोक स्वास्थ्य
की जिम्मेदारी भी
सौंप दी गयी।
भारत सरकार अधिनियम
1935 के तहत प्रान्तीय
सरकारों को अधिक
स्वायत्तता दिये जाने
के साथ ही
सभी चिकित्सा एवं
स्वास्थ्य सेवाओं को संघीय,
संघीय एवं प्रान्तीय
तथा प्रान्तीय, की
तीन श्रेणियों में
बांट दिया गया।
सन् 1939 में पब्लिक
हेल्थ एक्ट पास
हुआ जो कि
भारत में अपने
तरह का पहला
एक्ट था। सन्
1946 में भारत सरकार
द्वारा देश में
स्वास्थ्य एवं चिकित्सा
सेवाओं की स्थिति
का सर्वे एवं
सुधार हेतु सुझाव
देने के लिये
हेल्थ सर्वे एवं
डेवेलपमेंट कमेटी (भोरे कमेटी) का
गठन किया गया।
कमेटी के सुझाव
पर देश की
स्वास्थ्य सेवाओं की समीक्षा,
मेडिकल रिलीफ, मेडिकल शिक्षा,
मेडिकल रिसर्च और अन्तर्राष्ट्रीय
स्वास्थ्य पर काम
शुरू हुआ। आजादी
के बाद सर्जन
जनरल के स्थान
पर डाइरेक्टर जनरल
ऑफ इंडियन मेडिकल
सर्विसेज बना दिया
गया।
भारत का पहला एलोपैथिक अस्पताल
मद्रास जनरल हास्पीटल
भारत का पहला
अस्पताल था जिसकी
स्थापना 1679 में की
गयी। उसके बाद
1796 में कलकत्ता में द
प्रेसिडेंसी जनरल हास्पीटल
नाम से दूसरा
अस्पताल खुला। सन् 1800 से
1820 तक तक मद्रास
में 4 अस्पताल खुल
गये थे। डाक्टरों
की कमी पूरी
करने के लिये
सन् 1835 में कलकत्ता
में मेडिकल कालेज
की स्थापना की
गयी, जो कि
एशिया का पाश्चात्य
दवाओं पर आधारित
पहला कालेज था।
उसके बाद 1860 में
लाहौर में मेडिकल
स्कूल खुला। सन्
1854 में भारत सरकार
छोटे अस्पतालों तक
दवाएं एवं मेडिकल
उपकरणों की सप्लाइ
के लिये सहमत
हुयी और इसके
लिये कलकत्ता, मद्रास,
बम्बई, मियां मीर और
रंगून में सरकारी
डिपो और स्टोर
खोले गये। सन्
1918 में दिल्ली में लेडी
रीडिंग हेल्थ स्कूल की
स्थापना हुयी। कलकत्ता में
सन् 1930 में ऑल
इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हाइजीन
एण्ड पब्लिक हेल्थ
की स्थापना हुयी
और उसके बाद
1939 में कलकत्ता के पास
सिंगूर में रूरल
हेल्थ ट्रेनिंग सेंटर
की स्थापना हुयी।
सन् 1880 तक ब्रिटिश
शासनाधीन भारत में
लगभग 1200 छोटे बड़े
अस्पताल थे जो
कि 1902 तक बढ़
कर 2500 तक पहुंच
गये। सन् 1902 तक
भारत में प्रत्येक
330 वर्गमील पर एक
अस्पताल बन गया
था। सन् 1880 में
अस्पतालों में मरीजों
की संख्या 74 लाख
थी जो कि
1902 तक 2.2 करोड़ तक
पहुंच गयी थी।
प्लेग से लाखों लोग मरे
सन् 1896 में जब
बम्बई में प्लेग
प्रकट हुआ तो
उसके साथ ही
इस बीमारी की
बम्बई के बाद
सूचनाएं अन्य बदंरगाह
शहर, पुणे, कलकत्ता
एवं करांची से
आने लगीं। पहले
साल तो महामारी
बम्बई तथा उसके
आसपास तक ही
सीमित थी लेकिन
दूसरे साल महामारी
बंगाल, मद्रास, संयुक्त प्रान्त,
मध्य प्रान्त, पंजाब,
मैसूर, हैदराबाद और कश्मीर
तक फैल गयी
जिसमें सरकारी रिकार्ड के
अनुसार 20 लाख तक
लोग मारे गये।
लेकिन गैर सरकारी
अनुमानों ने कहीं
अधिक मौतों के
संकेत दिये। यह
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्ग होने
के कारण ब्रिटिश
सरकार पर इसे
रोकने के लिये
भारी दबाव था।
वैसे भी उसे
अपने अधिकारियों और
सैनिकों की रक्षा
की भी चिन्ता
थी। इस बीमारी
पर नियंत्रण के
लिये ब्रिटिश सरकार
ने 1896 में प्लेग
आयोग का गठन
किया जिसकी राय
थी कि इस
अत्यन्त संक्रामक रोग के
फैलने का मुख्य
कारण लोगों का
एक दूसरे से
सम्पर्क है, जिसे
तोड़ कर संक्रमण
की चेन तोड़ी
जा सकती है।
इस प्रकार देश
को 1897 को महामारी
कानून मिला जिसका
प्रयोग हर बीमारी
के संकट में
होता रहता है।
महामारी में मरते रहे लाखों लोग
इंपीरियल गजट ऑफ
इंडिया के अनुसार
वर्ष 1881-90 के बीच
भारत की जनसंख्या
20,37,78,338 थी जबकि इस
अवधि मंे हैजा,
चेचक, ज्वर, अतिसार
एवं अन्य बीमारियों
से देश के
विभिन्न हिस्सों में 49,86,950 लोग
मारे जिनमें हैजा
से मरने वालों
की संख्या 3,06,518 एवं
चेचक से मरने
वालों की संख्या
1,22,772 थी। उस दौरान
सबसे ज्यादा 33,59,927 लोग
अकेले ज्वर से
मरे थे। इसी
प्रकार 1891-1900 के बीच
65,71,397 लोग विभिन्न व्याधियों से
मरे जबकि उस
दौरान देश की
जनसंख्या 21,77,00,151 ही थी।
उस दौरान हैजा
से 4,50,502, चेचक से
82,588 ज्वर से 43,63,055 अतिसार या दस्त
से 2,78,298 एवं अन्य
रोगों से 13,96,936 लोग
मरे। उस समय
इन बीमारियों का
असली कारण मालाबार,
सूरत, कोचीन, कलकत्ता,
मद्रास और बम्बई
बंदरगाह शहरों के विकास
एवं औद्योगीकरण से
जनसंख्या का कुछ
ही शहरों में
बेतरतीव जमाव था।
पलायन के कारण
यही नौबत अब
पुनः आ रही
है।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून
उत्तराखण्ड।
Mobile-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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