कोरोना
का लॉकडाउन प्रकृति और जीवों के लिये बरदान
-जयसिंह
रावत
Jay Singh Rawat journalist and Author |
कोरोना महामारी के इस
महासंकट के दौर
में जहां दुनियां
में हाहाकार मचा
हुआ है वहीं
एक दुनिया ऐसी
भी है जो
कि खिलखिला रही
है और स्वयं
को मुक्त मान
रही है। वह
दुनियां कही और
नहीं बल्कि इसी
पृथ्वी पर है,
जिसमें मनुष्यों की केवल
एक प्रजाति के
सिवा बाकी जीव
जन्तुओं और पादपों
की लाखों प्रजातियां
आजादी का अनुभव
कर रही हैं।
लगता है कि
इंसानों के घरों
में कैद होने
से धरती की
नैसर्गिकता मुक्त हो रही
है। नागरिकों पर
लगी बंदिशों से
जीव संसार को
मिली आजादी और
प्रकृति के पुनः
मुस्कराने का संदेश
स्पष्ट है कि
इंसान अपनी सीमाओं
में रहे अन्यथा
एक दिन डायनासौर
की ही तरह
मनुष्य भी प्रागैतिहासिक
इतिहास का विषय
मात्र रह जायेगा।
आदमी के कैद होने से मुक्त हुयी प्रकृति
गत 25 मार्च से लेकर
मात्र एक माह
की ही अवधि
में गंगा हरिद्वार
से लेकर हुगली
तक निर्मल होने
लगी, नैनीताल झील
की पारदर्शिता तीन
गुनी बढ़ गयी
और जालंधर के
लोगों को पहली
बार लगभग 213 किमी
दूर धौलाधार की
बर्फीली पहाड़ियां नजर आने
लगी हैं। नासा
की एक रिपोर्ट
के अनुसार लॉक
डाउन की इस
अवधि में उत्तर
भारत का वायु
प्रदूषण पिछले 20 वर्षों की
तुलना में सबसे
निचले एयरोसॉल के
स्तर तक पहुंच
गया है, जिससे
आसमान से विजिबिलिटी
बढ़ गयी है।
देश के कई
हिस्सों में ऐसे
नजारे देखने को
मिले हैं जहां
वन्य जीव सड़कों
पर निकल आए।
हाल ही में
केरल की सड़कों
पर एक कस्तूरी
बिलाव नजर आ
गया। उच्च हिमालयी
क्षेत्र का पक्षी
मोनाल इन दिनों
निचले क्षेत्रों में
भी स्वच्छन्द उड़़ता
नजर आ रहा
है। दुर्लभ हो
रही यह नैसर्गिकता
लॉकडाउन के कारण
मनुष्य की आजादी
छिनने के बाद
संभव हो पाई।
इसका स्पष्ट संदेश
है कि अपनी
सीमाएं लांघ चुके
मनुष्य की उदंडता,
उसके अहंकार और
निरंकुशता पर अंकुश
नहीं लगाया गया
तो प्रकृति मानव
अस्तित्व को मिटाने
के लिये कोरोना
जैसा महासंकट पैदा
करती रहेंगी।
आदमी 13 लाख जीव जातियों का मालिक बन बैठा
अब तक जीव
जन्तुओं और पादपों
की लगभग कुल
13 लाख प्रजातियों की पहचान
की गयी है,
लेकिन हवाई विश्व
विद्यालय के 87 लाख प्रजातियों
के अस्तित्व में
होने के दावे
की आप भले
ही पुष्टि न
करें मगर उसे
खारिज भी नहीं
कर सकते, क्योंकि
जन्तु और पादप
विज्ञानी नित नयी
प्रजातियों को खोज
निकालते रहते हैं।
इन लाखों प्रजातियों
में मनुष्य भी
एक है जोकि
धरती का अधिपति
बन बैठा है
और इस नाते
वह तमाम पादप
और जीव जन्तु
प्रजातियों का भी
भाग्य विधाता बन
बैठा है। भारतीय
वन्य जन्तु सर्वेक्षण
विभाग की रेड
डाटा बुक के
अनुसार भारत में
पायी जाने वाली
जीवजात की स्तनपायियों
की 372 प्रजातियों में से
77, चिड़ियों की 1228 प्रजातियों में
से 55, सरीसृपों की 446 में
से 20 और एम्फीबिया
की 1 और कीड़े
मकौड़ों की कई
प्रजातियों के अस्तित्व
पर विभिन्न स्तरों
तक खतरा मंडरा
रहा है। इनमें
से कुछ लुप्तप्राय
होने वाली स्तनपाइयों
की 75 प्रजातियां, पक्षियों
की 44 और सरीसृपों
की 19 प्रजातियां अति
संरक्षित श्रेणी की अनुसूची-एक में
तथा स्तनपाइयों की
2 और एम्फीबियन की
एक प्रजाति अनुसूची-दो में
शामिल हैं। मतलब
यह कि अगर
हम नहीं संभले
तो ये प्रजातियां
जल्दी ही दुनियां
से अलविदा कह
सकती हैं। कस्तूरी
मृग की ही
तरह कृष्ण मृग
भी खतरे की
जद में आ
गया है। घड़ियाल,
सौन चिड़िया, और
मगर आदि भी
उसी अस्तित्व के
खतरे की ओर
बढ़ रहे हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संगठन
(आइयूसीएन) की संकटापन्न
वन्य जीवों की
सूची तो और
भी लम्बी है,
जिसमें लुप्त प्रजातियों में
भारत में पाया
जाने वाला हिम
तेंदुआ भी है।
उसके अलावा भी
आइयूसीएन ने लासाइन,
डोडो, यात्री कबूतर,
टाइरानोसारस, कैरेबियन मॉन्क सील
को लुप्त घोषित
कर दिया है।
इंसान ने कुछ
जीवों को भोजन
के लिये मार
डाला तो कुछ
का विनाश उनके
अंगों की बिक्री
के लिये कर
डाला। इनके अलावा
गिद्ध जैसे ऐसे
जीव भी हैं
जिनकी मौत ऐसी
मृत गाय-भैंसों
को खाने से
हो रही है
जिनका दूध उत्पादन
बढ़ाने के लिये
डेयरियां वाले डिक्लोफिनैक
इंजेक्शन लगाते हैं।
जीवों में इंसान सबसे अधिक खूंखार
प्राणिजात की इतनी
बड़ी संख्या का
लुप्त या संकटापन्न
हो जाना मनुष्य
के लिये खतरे
की घंटी है।
देखा जाय तो
इंसान इस पृथ्वी
का सबसे खतरनाक
जीव साबित हो
रहा है। उसकी
विस्तारवादी और संसार
के अन्य प्राणियों
पर अधिपत्य की
प्रवृति के फलस्वरूप
पर्यावरण में प्राकृतिक
संसाधनों के दुरुपयोग
तथा अनियंत्रित व्यापार
विनियमन आदि के
कारण प्राणिजाति के
विलुप्त होने से
एक खतरनाक स्थिति
उत्पन्न हो रही
है। इस श्रृष्टि
में इंसान नाम
की अकेली प्रजाति
लाखों पादप और
प्राणि प्रजातियों के हिस्से
का भी लगभग
40 प्रतिशत जीवनोपयोगी संसाधन, फोटोसिन्थेसिस
आउटपुट हड़पने के साथ
ही उन जीवों
को ही निगल
रही है।
सबका हिस्सा डकार रहा है इंसान
पृथ्वी पर प्रकृति
का ऊर्जा प्रवाह
बनस्पतियों से शाकाहारी
जीवों और शाकाहारी
जीवों को खाने
से मांसाहारी जीवों
तक पहुंचता है
और उनके मरने
पर सूक्ष्म जीवों
के जरिये वापस
प्रकृति या धरती
में चला जाता
है। इस श्रृंखला
में हरे पौधे
सूर्य से ऊर्जा
प्राप्त करके उप
पाचन या मैटाबोलिज्म
क्रिया द्वारा स्टार्च, प्रोटीन
और अन्य पदार्थ
तैयार करते हैं
जो कि शाकाहारियों
और मांसाहारियों में
घूम फिर कर
फिर प्रकृति में
लौट जाते हैं।
इस प्रकार अगर
फोटोसिन्थैसिस वाले ऊर्जा
प्रवाह की कड़ी
टूट गयी तो
ऊर्जा प्रवाह बंद
होने पर सम्पूर्ण
जीवन पोषण तंत्र
छिन्न भिन्न हो
जाने से पृथ्वी
पर जीवन ही
समाप्त हो जायेगा।
वन्यजीवों की भोजन,
आवास स्थल और
सुरक्षा की आवश्यकताओं
की पूर्ति वनों
से ही होती
है।
वन और जीव एक दूसरे के पूरक
जिस तरह वन्यजीवों
को वनों की
आवश्यकता होती है
उसी तरह वनों
को भी जीव
जन्तुओं की आवश्यकता
होती है। बहुत
से वन्यजीव वनस्पति
प्रजातियों के प्रजनन
और पुनरोत्पादन में
सहायक होते हैं।
ये पेड़ों के
फल बीज समेत
खा जाते हैं
और कहीं दूर
या ऊंचाई वाले
स्थान पर मल
त्याग कर उन
बीजों को बहार
फेंक देते हैं
जिनसे नये पौधे
पैदा होते हैं।
कुछ बीज इनके
बालों पर चिपक
जाते हैं और
दूर कहीं फिर
जमीन पर गिर
जाते हैं। यही
नहीं कठफोड़वा जैसे
पक्षी फफूंद, कीड़े
मकोड़े और दीमक
को खा कर
पेड़ की रक्षा
करते हैं। वन्य
जीवों की ड्रापिंग्स
खाद का काम
करती है। सांप
को ही देख
लीजिये! सांप अगर
चूहों की आबादी
को नियंत्रित न
करें तो चूहे
आदमियों की आबादी
को भूखों मरने
पर विवश कर
दें। मिट्टी को
निरंतर उपजाऊ बनाये रखने
के लिये सूक्ष्म
जीवों या माइक्रो
ऑर्गानिज्म का महत्पूर्ण
योगदान रहता है।
कानून भी नहीं बचा पा रहा है वन्यजीवों को
भारत में ही
नहीं बल्कि सारी
दुनियां में वन्यजीवों
का प्राकृतिक आवास
वन क्षेत्र तेजी
से सिमट रहे
हैं। वन्यजीवों का
मानव जीवन के
लिये महत्व को
समझते हुये हमारे
देश में भी
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 जैसा
कठोर कानून तो
बन गया। लेकिन
यह कानून भी
वन्यजीवों का विनाश
नहीं रोक पा
रहा है। इस
अधिनियम के तहत
अनुसूची-1 तथा अनुसूची-2
के द्वितीय भाग,
वन्यजीवन को पूर्ण
सुरक्षा प्रदान करते हैं।
इनके तहत अपराधों
के लिए उच्चतम
दंड निर्धारित है।
अनुसूची-3 और अनुसूची-4
भी संरक्षण प्रदान
कर रहे हैं
लेकिन इनमे दंड
बहुत कम हैं।
अनुसूची-5 में वे
जीव शामिल हैं
जिनका शिकार हो
सकता है। छठी
अनुसूची में शामिल
पौधों की खेती
और रोपण पर
रोक है। फिर
भी वन्यजीवों का
बड़े पैमाने पर
संहार और उनके
अंगों की तस्करी
का कारोबार दिन
दूना रात चौगुना
फलफूल रहा है।
वनों और वन्यजीवों के लिये संविधान का अनुच्छेद 51ए
देखा जाय तो
अगर कानून से
ही अपराध रुक
जाते तो समाज
में हत्या, बलात्कार
और डकैती जैसे
जघन्य अपराध घटने
के बजाय बढ़ते
ही क्यों ? इन
अपराधों के लिये
तो मृत्यु दंड
से लेकर कई
कठोर सजायें तय
हैं। हमारे संविधान
के अनुच्छेद 51ए
में लिखा गया
है कि “प्रत्येक
भारतवासी का यह
कर्तव्य होगा कि
वह वनों, झीलों,
नदियों और वन्यजीवों
की रक्षा करे
और उनके संवर्धन
के साथ ही
प्राणियों पर दया
करे”। संविधान
की इस भावना
को जब तक
आत्मसात नहीं किया
जाता तब तक
सरकार के भरोसे
वन्य जीवों की
सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो
सकती। इसके लिये
हमारे पास विश्नोई
बिरादरी की जैसी
अनुकरण्ीय मिसालें हैं। वैसे
भी देखा जाय
तो वन्यजीव संरक्षण
का इतिहास हमारे
देश में ऋषि
मुनियों के जमाने
से चला आ
रहा है। स्वयं
कौटिल्य के अर्थशास्त्र
में वन्य जीवों
के संरक्षण का
उल्लेख है। चाणक्य
ने भी वन्य
जीव संरक्षण की
व्यवस्था की थी
और सम्राट अशोक
के शिलालेखों में
तो इसका उल्लेख
है ही।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून,
उत्तराखण्ड।