Search This Blog

Friday, May 22, 2020

नौकरशाही के रहमो करम पर उत्तराखंड की अनाड़ी और स्वहितकारी लोकशाही 



उत्तराखण्डः निरंकुश नौकरशाही के आगे लोकशाही बौनी
-जयसिंह रावत
Jay Singh Rawat, Author and Journalist
नौकरशाही शासन-प्रशासन का वह अति आवश्यक अंग होता है जिसके बिना लोकशाही नहीं चल सकती, क्योंकि जनता द्वारा निर्वाचित सरकार की नीतियों और उसके कार्यक्रमों को विधि द्वारा स्थापित प्रकृयाओं के माध्यम से धरती पर या व्यवहार में उतारने की जिम्मेदारी नौकरशाही की ही होती है। अगर नौरशाही भ्रष्ट, स्वेच्छाचारी, पक्षपाती, कामचोर, आलसी और अकर्मण्य रहेगी तो चाहते हुये भी जनता की पसन्दीदा सरकार अपने कल्याणकारी, विकासोन्मुखी और सुशासन की नीतियों और कार्यक्रमों को सफल नहीं बना सकती। इसके लिये जरूरी है कि नौकरशाही पर लोकशाही भारी रहे और नौकरशाही बफादार और आज्ञाकारी सेवक की तरह काम करे। देखा जाय तो नौकरशाही शब्द पुराना हो चुका है जिसकी जगह अफसरशाही ने ले ली, क्योंकि अब नौकर या जन सेवक तो काई रह नहीं गया।
कहते हैं कि नौकरशाही एक ऐसा बेलगाम घोड़ा है जिसको अपने काबू में एक कुशल राजनीतिक घुड़ सवार ही कर सकता है। अगर सवार ही अनाड़ी और स्वहित चिंतक होगा तो फिर केवल घोड़े को दोष नहीं दिया जा सकता। नौकरशाही के निरंकुश होने या भ्रष्ट होने की समस्या सारे देश की है लेकिन पिछले 20 सालों से हम उत्तराखण्ड में इस समस्या को कुछ ज्यादा ही महसूस कर रहे हैं। इस समस्या के कारण ईमान्दार और कर्तव्यपरायण जनसेवक स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं जबकि गलत तरीकों से अपने राजनीतिक मालिकों को खुश रखने की कला में माहिर अधिकारी सदैव मौज करते रहे हैं। उत्तराखण्ड में ऐसे चालू नौकरशाह सदैव मौज करते रहे।
उत्तराखण्ड का सबसे ताकतवर नौकरशाह ओम प्रकाश जिलाधिकारियों को उत्तर प्रदेश के बदनाम विधायक अमनमणि त्रिपाठी को योगी आदित्यनाथ के पिता का पिण्डदान करने के नाम पर लॉकडाउन में बदरी-केदार की सैर करने के लिये पास जारी करने के साथ ही इस बदनाम मण्डली के अतिथ्य में कोई कसर छोड़ने देने के आदेश जारी करते हैं। जबकि बदरीनाथ के रावल को ऋषिकेश में ही रोक कर क्वारेंटीन कर दिया जाता है। इतनी बड़ी गुस्ताखी के बाद भी कोई ओम प्रकाश का बालबांका नहीं कर पाया। नौकरशाही में किये गये ताजा फेरबदल में ओम प्रकाश से लोक निर्माण विभाग हटा कर उन्हें कुछ हल्का तो किया गया मगर इससे उनके रुतवे पर कोई असर नहीं पड़ता। मुख्यमंत्री के अपर मुख्य सचिव के नाते समझ लो कि सारे विभाग उन्हीं के पास हैं। ओम प्रकाश पर तो सरकार से बाहर ओरापों की बौछार हुयी। लेकिन दूसरे आइएएस पंकज पाण्डे और चन्द्रेश यादव पर तो स्वयं राज्य सरकार ने नेशनल हाइवे घोटाले में शामिल होने का आरोप लगाने के साथ ही उन्हें निलंबित भी कर दिया था। राज्य सरकार ने दिन में तारे देख लिये, मगर इन दो अफसरों को जेल की हवा नहीं खिला सकी। यही नहीं दोनों को बहाल करने के साथ ही पाण्डे जैसे बदनाम अफसर को वही पुराना चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग भी दे दिया। पंकज पाण्डे के पीछे नौकरशाही की सबसे बड़ी बिरादरी खड़ी हो गयी। इस प्रकरण से साफ संदेश गया कि एक आइएएस चाहे कितना भी बड़ा गुनाह कर डाले मगर उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। इस प्रकरण ने राज्य सरकार की छवि पर भी बट्टा लगाया। इस प्रकरण में सवाल उठने लाजिमी ही थे कि अगर राज्य सरकार के आरोप सही थे तो भ्रष्ट अफसरों को कानून के शिकंजे में क्यों नहीं जकड़ा गया। अगर आरोप गलत थे तो गलत आरोपों में उन 22 छोटे अफसरों और कर्मचारियों को जेल क्यों भेजा गया। वर्तमान में आइएएस, आइपीएस और आइएफएस अफसरों के खिलाफ कार्यवाही करना असंभव माना जा रहा है, जबकि इसी उत्तराखण्ड में वर्ष 2002 में पौड़ी के डीएम एस.के.लामा को निलंबित करने के बाद उन पर पटवारी भर्ती घोटाले में मुकदमा चला था। इसी प्रकार वर्ष 2002-03 में ही पुलिस दारोगा भर्ती काण्ड में तत्कालीन पुलिस महानिदेशक प्रेम दत्त रतूड़ी और अपर पुलिस महानिदेशक राकेश मित्तल के खिलाफ अपराधिक मुकदमा चला था। उत्तर प्रदेश की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव को नोयडा विकास प्राधिकरण की चेयरमैन रहते हुये जमीन आबंटन घोटाला करने पर जेल हुयी थी। उत्तर प्रदेश आइएएस एसोसिएशन ने तो एक बार अपनी बिरादरी से तीन महाभ्रष्टों को चयनित करने की मुहिम ही चला दी थी जो कि ज्यादा नहीं चल सकी। उत्तराखण्ड में ऐसी मुहिम चलाने के बजाय पंकज पाण्डे जैसे अफसरों को बचाने की मुहिम चलती है। देश में वर्ष 2014 से लेकर 2019 तक 2 आइएएस अधिकारी बर्खास्त और 9 आइपीएस को निलंबित हो चुके हैं।
अभी हाल ही में बहुचर्चित छात्रवृत्ति घोटाले में गिरफ्तार और निलंबित समाज कल्याण विभाग के संयुक्त निदेशक गीताराम नौटियाल को बहाल कर पुरानी कुर्सी सौंप दी गयी। यह घोटाला लगभग 500 करोड़ का बताया जाता है, जिसमें गीताराम अकेला नहीं बल्कि असरदार नेताओं के परिजन भी शामिल हैं। इस घोटाले में भी कई लोग गिरफ्तार हुये मगर एक वरिष्ठ विधायक के बेटे के कालर तक कानून का हाथ नहीं पहुंचा। जबकि उसके संस्थानों पर 5 करोड़ के गोलमाल का मुकदमा दर्ज हुआ था। सरकार ने कुम्भ कार्यों में घपला करने के आरोप में सिंचाई विभाग के अधीक्षण अभियन्ता शरद श्रीवास्तव, अधिशासी अभियन्ता पुरुषोत्तम और प्रेम सिंह पंवार को निलंबित किया था। लेकिन तीनों को ही क्लीन चिट देकर बहाल कर दिये गये हैं। ऊंचे दामों पर क्लीन चिटें बिकने की प्रथा हमें पैतृक राज्य से बिरासत में मिली है। पिछली सरकार के कार्यकाल में पावर कारपारेशन के प्रबंध निदेशक एसएस यादव को रिश्वत के नौटों का बण्डल उठा कर घर के अंदर ले जाते सारी दुनियां ने देखा था। उस भ्रष्ट अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही करने के बजाय तत्कालीन सरकार ने उसे कार्यकाल पूरा होने के बाद दो बार सेवा विस्तार दिया गया। शराब के ठेकों में करोड़ों की अवैध लेन देन का स्टिंग भी उस समय एक आइएएस का हुआ था, जिसे राज्य सरकार बचाती रही मगर केन्द्र सरकार ने उस अफसर को उत्तराखण्ड से हटा दिया था। ओम प्रकाश के मामले में सभी ने कान बंद कर दिये। इन 20 सालों में ऐसी कोई सरकार नहीं रही जिसके कार्यकाल में अफसरों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हों। जब राजनीतिक नेतृत्व ही ईमान्दार हो तो फिर नौकरशाही से भी ईमान्दारी की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? आखिर सरकार में बैठे लोग इन्हीं नौकरशाहों के माध्यम से भ्रष्टाचार करते हैं। अगर कोई नौकरशाह विभागीय मंत्री का कोई गलत काम करेगा तो धन कमाने के लिये कुछ गलत कार्य अपने लिये भी जरूर करेगा! अगर नौकरशाह अपने राजनीतिक मालिकों को गलत तरीके से कमाई करके देगा तो उस कमाई में अपना हिस्सा जरूर रखेगा।
वर्तमान में उत्तराखण्ड की नौकरशाही पर बिहार की एक महासभा का पूरा दबदबा माना जाता है जिसमें राज्य के लगभग सभी पावरफुल नौकरशाह शामिल बताये जाते हैं। इस गुट में पत्रकारों को भी शामिल किया गया है ताकि वे दलाली कर सकें। इस महासभा भुक्तभोगी सैनिक सन्त जनरल हणूतसिंह भी रहे। अमनमणि त्रिपाठी काण्ड इसी क्षेत्रवाद का परिणाम बताया जाता है। नौकरशाही में शक्तिशाली माना जाने वाला झा दम्पति भी इसी पूर्वांचल गुट से सम्बंधित माना जाता है। सारी दुनिया में कोरोना ने त्राहि मचा रखी है। लेकिन राज्य के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सचिव नितेश कुमार झा सारे संकटकाल में लापता रहे। अब जा कर सरकार ने नितेश से चिकित्सा एवं स्वास्थ्य का विभाग हटाया, मगर साथ ही पेयजल और सिंचाई जैसे महत्वपूर्ण विभाग भी दे दिये। नितेश झा केन्द्र में एक मंत्री के निजी सचिव रह चुके हैं।  2017 के विधानसभा चुनाव में तत्कालीन केन्द्रीय ऊर्जा मंत्री पियूष गोयल ने देहरादून में एक प्रेस कान्फ्रेंस में राज्य के ऊर्जा सेक्टर में भारी घपले का आरोप लगाने के साथ ही घोषणा की थी कि राज्य में भाजपा सरकार आयेगी तो इन घोटालों की जांच करेगी। चुनाव से पहले वरिष्ठ भाजपा नेता विनय गोयल ने यूपीसीएल में कई घोटालों का पर्दाफास कर भाजपा सरकार बनने पर घोटालों की जांच का वायदा किया था। लेकिन तीन साल गुजर गये मगर सचिव और तीनों बिजली निगमों के अध्यक्ष के तौर पर राधिका झा के कार्यकाल में सारे घोटाले दब गये। राधिका झा सुसुराल से पूर्वांचली और मायके से उत्तरांचली हैं।
काफी पहले सचिवों को एक रात गांव में बिताने के आदेश हुये थे। लेकिन उन आदेशों की भी अनुसनी कर दी गयी। राज्य के अफसर समय से अपनी सम्पतियों का ब्यौरा तक नियमानुसार नहीं देते। राज्य में ओम प्रकाश और अमनमणि का विवाद थमा भी नहीं था कि सेवाकाल से 9 साल पहले स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले उमाकांत पंवार का हाल ही में गुपचुप पुनर्वास हो गया। पंवार प्रमुख सचिव रहते हुये कुछ मामलों में खासे चर्चित हुये थे।
सरकार के विकास कार्यक्रमों और कल्याणकारी योजनाओं को गांव स्तर तक पहुंचाने के लिये किसी भी विभाग में कर्मचारी पूरे नहीं हैं। कृषि, बागवानी, चिकित्सा एवं शिक्षा जैसे विभागों में हजारों पद खाली होने के कारण सरकार चाहते हुये भी कुछ कर नहीं पा रही है। लेकिन शीर्ष स्तर पर कभी-कभी मुख्य सचिव स्तर के दो-दो अफसर हो जाते हैं। मनीषा पंवार को अब तसरी अपर मुख्य सचिव बना दिया गया है। सिविल पुलिस के पास राज्य के 40 प्रतिशत से कम हिस्से में कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी है। इतने कम क्षेत्र के लिये वर्तमान में दो-दो पुलिस महानिदेशक हैं और इतने ही अपर महानिदेशक तैनात हैं। जबकि राज्य गठन से पूर्व उत्तराखण्ड में केवल दो डीआइजी हुआ करते थे। इसी प्रकार जंगलों की रक्षा के लिये फारेस्ट गार्ड पूरे हों या हों मगर देहरादून के आलीसान वातानुकूलित दफ्तरों में बैठ कर वनों और वन्यजीवों की रक्षा करने वाले अफसरों की लम्बी फौज मौजूद है। इसमें भी दो-दो प्रमुख वन संरक्षकों के ऊपर एक हेड ऑफ फोरस्ट फोर्स (हॉफ) बिठा रखा है जो कि विभागीय कार्यक्रम में तक अपने मंत्री को तक बुलाना जरूरी नहीं समझता। किसी जमाने में ग्राम सेवक होता था जिसे विलेज लेवल वर्कर भी कहा जाता था, लेकिन अब वही सेवक ग्राम विकास अधिकारी हो गया। मतलब यह कि गांव स्तर से लेकर शासन के शीर्ष तक कोई सेवक नहीं रहा। अब गांव से लेकर सचिवालय तक हाकिम या शासकों की एक लम्बी श्रृंखला बन गयी। सचिवालय में बैठा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी स्वयं को शासन बताता है, जबकि शासन निर्वाचित सरकार का ही होता है।
राज्य गठन के शुरूआती दौर से ही नौकरशाहों ने सेवानिवृत्ति के बाद अपने सम्मानजनक पुनर्वास के लिये पद तलाशने शुरू कर दिये थे जिसकी शुरूआत रघुनन्दन सिंह टोलिया ने मुख्य सूचना आयुक्त पद संभाल कर की थी जो कि निरंतर चल रही है। सूचना आयोग ही नहीं, सेवा का अधिकार आयोग, लोक सेवा आयोग, अधीनस्थ सेवा आयोग एवं विद्युत नियामक आयोग जैसे संस्थानों में नौकरशाहों ने अपने लिये पद आरक्षित कर दिये। उत्पल कुमार सिंह जुलाई में रिटायर हो रहे हैं मगर उनके लिये विद्युत नियामक आयोग की कुर्सी पहले ही तैयार कर ली गयी है। पिछली सरकार के दौरान डी.एस. गर्व्याल लोक निर्माण विभाग से रिटायर भी नहीं हुये थे और उससे पहले उन्हें सेवा का अधिकार में सदस्य के तौर पर नियुक्ति दे दी गयी। पूरे सेवा काल में आम जनता से सूचनाएं छिपाने वाले नौकरशाहों के लिये सूचना आयोग पुनर्वास के लिये सुनिश्चित ठिकाना बन गया है।
जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल-9412324999


No comments:

Post a Comment