Article of Jay Singh Rawat appeared in Divya Himgiri on May 24, 2020 |
लिपुलेख
विवाद: भारत-नेपाल के रिश्ते दांव पर
-जयसिंह रावत
Article of Jay Singh Rawat apeared in Dainik Bhaskar on 24 May 2020 |
लिपुलेख
दर्रे पर नेपाल का दावा पुराना
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह
द्वारा गत 8 मई
को घट्टाबगड़-लिपुलेख
सड़क का उद्घाटन
किये जाने के
बाद से ही
नेपाल में भारत
विरोधी प्रदर्शनों का सिलसिला
जारी है। इन
प्रदर्शनों के दबाव
में सोमवार को
प्रधानमंत्री केपी शर्मा
ओली के नेतृत्व
में नेपाल की
कैबिनेट की बैठक
में देश के
नये नक्शे को
मंजूरी दे दी
गयी जिसमें लिंपियाधुरा,
लिपुलेख और कालापानी
नेपाल में दिखाया
गया है जबकि
इलाके भारत में
आते हैं। यही
नहीं नेपाल सरकार
ने अपने
दार्चुला जिले के
छांगरू में सीमा
पर निगरानी के
लिये नेपाल सशस्त्र
प्रहरी की स्थाई
चेकपोस्ट भी स्थापित
कर दी। चेकपोस्ट
के लिये जिस
तरह हेलीकाप्टर से
सशस्त्र बल के
जवानों को तैनात
किया जा रहा
है उससे ही
साबित हो जाता
है कि यह
क्षेत्र कितना दुर्गम और
अलाभकारी है जिसमें
नेपाल ने संचार
सुविधाओं का विस्तार
करना भी जरूरी
नहीं समझा। नेपाल
का यह भी
दावा है कि
1962 के युद्ध में भारतीय
सेना ने इस
क्षेत्र में अपनी
चौकियां स्थापित कीं थीं
और युद्ध के
बाद बाकी चौकियां
तो हटा दीं
मगर लिपुलेख क्षेत्र
से भारतीय सुरक्षा
बल नहीं हटे।
नेपाल ने इससे
पहले साल 2019 के
नवंबर में भी
इस क्षेत्र को
अपने नक्शे में
दर्शाने पर भारत
के समक्ष अपना
विरोध जताया था।
उससे पहले वर्ष
2015 में जब चीन
और भारत के
बीच व्यापार और
वाणिज्य समझौता हुआ था,
तब भी नेपाल
ने दोनों देशों
के समक्ष आधिकारिक
रूप से विरोध
दर्ज कराया था।
इस निर्जन एवं
दुर्गम क्षेत्र का सही
ढंग से सीमांकन
न होने के
कारण भारतीय कूटनीतिकार
इसे अधिकाधिक सुविधाएं
पाने के लिये
इसे नेपाल की
प्रेशर टैक्टिस मानते रहे
हैं। लेकिन अब
धीरे-धीरे इस
विवाद को हवा
देने के पीछे
चीन का हाथ
साफ नजा आने
लगा है।
सुगोली
की संधि में काली नदी है विभाजक रेखा
Sugauli treaty signed by East India Company and Nepal |
दरअसल भारत और
नेपाल के सर्वे
अधिकारी कई सालों
की साझा कोशिशों
के बावजूद अभी
तक कोई सर्वमान्य
नक्शा नहीं बना
पाए। दोनों देश
के बीच सीमांकन
आयोग का भी
गठन हुआ था
जो कि निष्किृय
है। भारत और
नेपाल के बीच
लगभग 1751 किमी सीमा
है जिसका निर्धारण
ईस्ट इंडिया कंपनी
और नेपाल के
बीच युद्ध की
समाप्ति के बाद
स्थाई शांति के
लिये 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्षरित
सुगोली की संधि
के द्वारा किया
गया था। संधि
को नेपाल के
राजा ने 4 मार्च
1916 को अनुमोदित किया था।
संधि की शर्तों
के अनुसार नेपाल
ने तराई के
विवादास्पद इलाके और काली
नदी के पश्चिम
में सतलज नदी
के किनारे तक
(आज के उत्तराखण्ड
और हिमाचल प्रदेश)
जीती हुई जमीन
पर अपना दावा
छोड़ दिया था।
इस ंसधि में
नेपाल के साथ
सिक्किम तक की
सीमाएं तय हैं
जिसमें उत्तराखण्ड से लगी
263 किमी लम्बी सीमा भी
शामिल है। नेपाल
इस संधि को
तो मानता है,
लेकिन इसमें जिस
काली नदी को
प्राकृतिक सीमा माना
गया है उसके
बारे में नेपाल
दुनिया को भ्रमित
कर रहा है।
सुगोली की संधि
की धारा 5 में
साफ लिखा गया
है कि काली
नदी के पश्चिम
वाला हिस्सा ईस्ट
इंडिया कंपनी का अधिक्षेत्र
होगा और उस
क्षेत्र तथा क्षेत्र
के निवासियों पर
नेपाल का राजा
या उसके उत्तराधिकारी
या कभी दावा
नहीं करेंगे। नेपाल
कालापानी के उत्तर
पश्चिम में 16 किलोमीटर दूर
लिम्पियाधुरा से निकलने
वाली कूटी यांग्ती
(नदी) को उसकी
लम्बाई एवं जलराशि
के आधार पर
काली नदी मानता
है, जबकि भारतीय
पक्ष कालापानी से
निकलने वाली जलधारा
को ही काली
नदी मानता रहा
है। इन दोनों
जलधाराओं का गुंजी
के निकट मनीला
में संगम होता
है और आगे
चल कर यही
काली नदी शारदा
और काफी आगे
मैदान में चल
कर घाघरा कहलाती
है। कूटी के
अलावा काली नदी
की श्रोत जल
धाराओं में धौली,
गोरी और सरयू
भी शामिल हैं।
सरयू पंचेश्वर में
और गोरी नदी
जौलजीवी में काली
से मिलती है।
कूटी यांग्ती को काली नदी मानता है नेपाल
location of Kalapani and Lipulekh |
भारत जिस जलधारा
को काली नदी
मानता है वह
कालापानी से निकलती
है। भारतीय पक्ष
का दावा है
कि 1875 के नक्शे
में भी काली
नदी का उद्गम
कालापानी के पूरब
में दिखाया गया
था। उस क्षेत्र
में काली चट्टानों
के कारण नदी
का रंग काला
नजर आता है,
इसलिये नदी को
काली, नाम दिया
गया है। यह
जलधारा निश्चित
रूप से कूटी
गाड़ या कूटी
यांग्ती से आकार
में छोटी अवश्य
है, मगर उत्तराखण्ड
या भारत ही
नहीं बल्कि विश्व
में अनेक ऐसी
नदियां हैं जिनमें
बाद में बड़ी
नदियों के मिलने
पर भी छोटी
नदी का ही
मूल नाम आगे
चलता है। उत्तराखण्ड
में टौंस नदी
यमुना से आकार
में कहीं बड़ी
है, मगर जब
वह देहरादून के
निकट डाकपत्थर में
यमुना से मिलती
है तो अपना
नाम खो कर
यमुना ही हो
जाती है। इसी
क्षेत्र में आकार
में बड़ी गोरी
नदी भी संगम
के बाद नाम
खो कर कूटी
ही हो जाती
है।
भारत के 7 जनजातीय गावों पर भी नेपाल का दावा
सुगोली की संधि
में काली नदी
के पश्चिम वाला
क्षेत्र भारत का
और पूरब वाला
नेपाल का माना
गया है। जिस
नदी को नेपाल
काली बता रहा
है वह पश्चिम
से पूरब की
ओर बहती है।
इसलिये नेपाल के दावे
के अनुसार संधि
में विभाजक दिशाएं
पूरब-पश्चिम के
बजाय उत्तर और
दक्षिण मानी जानी
चाहिये थीं। जबकि
इस कूटी घाटी
में नदी के
दो किनारे उत्तर
और दक्षिण दिशा
की ओर हैं
और घाटी के
निचले आबादी वाले
क्षेत्र में नदी
के दोनों ओर
भारत और नेपाल
के गांव हैं।
जबकि भारत जिस
नदी को काली
मानता है वह
उत्तर से दक्षिण
की ओर बहती
है। इसलिये संधि
के हिसाब से
पूरब में नेपाल
के दार्चुला जिले
के छांगरू, दिलीगाड़,
तिंकर और कौआ
गांव हैं, जबकि
पश्चिम में भारत
के उत्तराखण्ड राज्य
के पिथौरागढ़ जिले
की गुंजी, नपलच्यू,
रौंगकौंग, नाबी, कूटी, गर्ब्यांग
और बुदी ग्राम
सभाएं हैं। वर्तमान
में इस नदी
के दोनों ओर
भाटिया जनजाति के लोग
बसे हुये हैं।
एक ही संस्कृति
और नृवंश के
चलते दोनों ओर
के ग्रामवासियों के
आपस में वैवाहिक
और आर्थिक संबंध
हैं। उत्तराखण्ड में
मुख्य सचिव और
मुख्य सूचना आयुक्त
रह चुके नृपसिंह
नपलच्याल का गांव
इसी क्षेत्र के
नपलच्यू में है।
इन गावों के
बुदियाल, गंुजियाल और गर्व्याल
जातियों के अधिकारी
उत्तराखण्ड सरकार के वरिष्ठ
पदों पर हैं।
ये उपजातियां भोटिया
जनजाति की उपशाखा
रं से सम्बंधित
हैं। रं कल्याण
संस्था के अध्यक्ष
एवं गर्ब्यांग गांव
निवासी कृष्णा गर्ब्याल का
कहना है कि
नेपाल स्थित माउंट
अपि, तिपिल छ्यक्त,
छिरे, शिमाकल आदि
स्थल भी गर्ब्यालों
की नाप भूमि
है। सीमा के
बंटवारे के बाद
काली नदी पार
की भूमि गर्ब्यालों
ने छोड़ दी
थी। स्थानीय निवासियों
का कहना है
कि कालापानी और
नाभीढांग का पूरा
इलाका भारत का
है और गर्ब्यालों
की नाप भूमि
है। अगर नेपाल
का दावा मान
लिया गया तो
भारत के नियंत्रण
वाला कालापानी से
लेकर लिम्पियाधुरा तक
का 16 किमी चौड़ा
और गुंजी तक
का क्षेत्र नेपाल
में चला जायेगा
जिसमें लिपुलख दर्रा, कालापानी
और पिथौरागढ़ जिले
की 7 ग्राम सभाएं
भी शामिल हैं।
डोकलाम
से कम नहीं भारत के लिये लिपुलेख
Disputed map released by Nepal recently in which Limpiyadhura and Kala Pani is shwon as nepalese teritoreis |
लिपुलेख क्षेत्र भारत, नेपाल
और चीन की
सीमाओं से लगा
होने के कारण
इसकी स्थिति डोकलाम
जैसी ही है
जिस कारण यह
सामरिक दृष्टि से भारत
के लिये अत्यंत
महत्वपूर्ण है। सन्
1962 के भारत-चीन
युद्ध में यही
वह अकेला क्षेत्र
था जहां भारतीय
सेना ने आक्रमणकारी
चीनी सेना को
आगे बढ़ने से
रोक दिया था।
इसलिये इस क्षेत्र
में चीन रुचि
लेता रहा है
और नेपाली नागरिकों
को समय-समय
पर उकसाता रहा
है। जबकि नेपाल
के लिये यह
अति दुर्गम और
निर्जन क्षेत्र महत्वहीन है।
अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख
के बाद उत्तराखण्ड
ही भारत का
वह प्रदेश है
जहां चीन के
साथ भारत की
सबसे लम्बी (345 किमी)
सीमा लगती है
और चीनी सेना
भी हर साल
उत्तराखण्ड के चमोली
जिले के बाड़ाहोती
पठार की ओर
से घुसपैठ करती
रहती है। इसीलिये
सीमा पर सुरक्षा
व्यवस्था मजबूत करने के
दरादे से ही
भारत तिब्बत से
लगी सीमा क्षेत्र
में सड़कों का
जाल फैला रहा
है। यद्यपि चीन
ने इस विवाद
को भारत और
नेपाल का द्विपक्षीय
मामला बताया है
फिर भी इसमें
चीन का हाथ
अब छिपा नहीं
रह गया।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
उत्तराखण्ड।
मोबाइल-9412324999
बहुत ज्ञानवर्धक लेख💐💐💐
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