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Sunday, September 8, 2019

हिमालय पर निरन्तर बढ़ती जा रही आपदाएं 


हिमालय पर असुरक्षित हो रहा है जीवन
-जयसिंह रावत
विभिन्न संस्कृतियों और मान्यताओं वाले मानव समूहों में वर्चस्व को लेकर चले संघर्षों से निजात पाने के लिये जब कुछ मानव समूह हिमालय की ओर आये होंगे तो उन्होंने हिमालय की कंदराओं को सबसे सुरक्षित ठिकाना पाया होगा। इसीलिये कालीदास ने अपने महाकाब्य ‘‘कुमारसंभव’’ में हिमालय कोधरती का मानदण्डऔरदुनिया की छत तथा आश्रयबताया था। लेकिन इस हिमालय पर निरन्तर बढ़ती जा रही आपदाओं के कारण प्रकृति प्रदत्त यह आश्रय अब सुरक्षित नहीं रह गया है।
केन्द्रीय गृह मंत्रालय के इमरजेंसी रिस्पांस सेंटर द्वारा 26 अगस्त को जारी प्रेस रिलीज के अनुसार इस साल देश में उस तिथि तक बाढ़ और भूस्खलन से प्रभावित 88,69,768 से अधिक जनसंख्या प्रभावित होने के साथ ही 1155 लोगों की मौत हुयी है। इस साल दक्षिण में बाढ़ से सबसे अधिक प्रभावित केरल और कर्नाटक राज्य हुये जबकि उत्तर भारत में हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड और महाराष्ट्र राज्य बाढ़ और भूस्खलन से सर्वाधिक प्रभावित हुये हैं। इस साल की मानसून आपदाओं में हिमाचल प्रदेश में अगस्त महीने के तीसरे सप्ताह तक 63 लोगों की जानें चली गयीं थीं। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 20 अगस्त को राज्य विधानसभा में बताया कि इस बरसात में उस तिथि तक प्रदेश को मानव हानियों के अलावा लगभग 625 करोड़ की क्षतियां हो चुकी थीं। हिमाचल प्रदेश के पड़ोसी राज्य उत्तराखण्ड में प्रति वर्ष औसतन 110 लोग इस तरह की आपदाओं में मारे जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में तवी नदी हर साल बौखला जाती है। असम में आयी बाढ़ से इस साल  धेमाजी, बारपेटा, मोरीगांव, होजई, जोरहाट, चराइदेव और डिब्रूगढ़ जिलों के कई गावों की 17,563 हेक्टेयर से अधिक फसल जलमग्न हो गयी थी।
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की फ्रीक्वेंसी में जो तेजी महसूस की जा रही है वह निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त 2010 की रात्रि बादल फटने से आयी त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गये थे। वहां दो साल में ही फिर सितम्बर 2014 में आयी बाढ़ ने धरती के इस स्वर्ग को नर्क बना दिया था। उस आपदा में लगभग 300 लोग मारे गये और 2.50 लाख घर क्षतिग्रस्त और 5.50 लाख लोग बेघर हो गये थे। 
उत्तराखण्ड में बादल फटने और भूस्खलन जैसी आपदायें आम होती जा रही हैं। सन् 1977 में इस तरह के हादसे में तवाघाट में 25 सैनिकों सहित  44 लोग मारे गये थे। उसके बाद 1996 में बेरीनाग में 18 लोग मारे गये। सन् 1998 के अगस्त में ही मालपा में आयी बाढ़ 60 मानसरोवर यात्रियों सहित 250 और उखीमठ क्षेत्र में 101 लोग मारे गये थे। हड़की में सन् 2000 में 19, घनसाली और बूढ़ाकेदार में सन् 2002 में 29, बरहम में 2007 में 18, जून, 2008 में हेमकुंड में ग्लेशियर फटने से 14, अगस्त 2009 में पिथौरागढ़ के रोमगाड़, चासनी नागड़ी गावों में बादल फटने से 43, अगस्त 2010 में कपकोट के सुमगढ़ में स्कूल पर मलबा आने से 18 बच्चे और सितम्बर 2010 में अल्मोड़ा देवली में बादल फटने से 35 लोग मारे गये थे। राज्य आपदा प्रबन्धन केन्द्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2013 की मानसून आपदा में  उत्तराखण्ड के 4200 गावों की 5 लाख आबादी प्रभावित हुयी है। इनमें से 59 गांव तबाह हो गये। इस आपदा में शुरू में 4,459 लोगों के घायल होने तथा 5466 के लापता होने की रिपार्ट आयी थी। जबकि मृतकों की सही संख्या का पता कभी नहीं चला लेकिन गैर सरकारी अनुमानों में मृतकों की संख्या 15 हजार से अधिक मानी गयी।
हिमाचल प्रदेश में भी त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने एवं भूकम्प की दृष्टि से चम्बा, किन्नौर, कुल्लू जिले पूर्ण रूप से तथा कांगड़ा और शिमला जिलों के कुछ हिस्से अत्यधिक संवेदनशील माने गये हैं। इनके अलावा संवेदनशील जिलों में मण्डी, कांगड़ा, ऊना, शिमला और लाहौल स्पीति जिलों को शामिल किया गया है। कुल्लू घाटी में 12 सितम्बर 1995 को भूस्खलन में 65 लोग जिन्दा दब गये थे। मार्च 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग जानें गंवा बैठे थे। मार्च 1979 में आये एक अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गये थे। सतलुज नदी में 1 अगस्त 2000 को आयी बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे। उस समय सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ गयी। वर्ष 1995 में आयी आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गयीं थीं।
दुनिया की इस सबसे युवा और सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला के ऊपर निरंतर विप्लव हो रहे हैं तो इसका भूगर्व भी अशांत है। असम में 1897 में 8.7 और 1950 में 8.5 परिमाण के तथा हिमाचल के कांगड़ा में 7.8 परिमाण के भयंकर भूचाल चुके हैं। कांगड़ा के भूकम्प में 20 हजार लोग और 53 हजार पशु मारे गये थे। भूकंप विशेषज्ञों का मानना है कि पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में कोई बड़ा भूचाल आने से भूगर्वीय ऊर्जा जमीन के नीचे जमा होती जा रही है। जिस दिन वह ऊर्जा बाहर निकली तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाशकारी साबित हो सकती है।
भूगर्भविदों के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है तथा भूकम्पों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों धरती पर पड़ता रहता है। जिस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। दरअसल हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की लगभग 2400 किमी लम्बी इस पर्वतमाला को भूकम्प, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरने, बादल फटने एवं हिमखण्ड स्खलन जैसी आपदाओं ने अपना स्थाई घर बना दिया है। हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर पूर्व के हिमालयी राज्यों में निरन्तर वनावरण घट रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति से बेतहासा छेड़छाड़ हो रही है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही मनुष्यों और वाहनों की अनियंत्रित भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।
जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।



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