-जयसिंह रावत
नरेन्द्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर के बारे में एक बेहद साहसिक कदम उठाते हुये बहुचर्चित धारा 370 की विभेदकारी उपधारा दो और तीन को तो संवैधानिक तरीकों से सदा के लिये दफन कर दिया। लेकिन अगर कोई कहे कि केन्द्र सरकार के इस क्रांतिकारी कदम से एक देश एक कानून का राज स्थापित हो गया तो यह महज गलतफहमी ही होगी। वास्तव में अब एक देश और दो संविधान भले ही नहीं रह गये हों मगर धारा 371 जैसा कानून अब भी मौजूद है जिसके अंदर एक नहीं बल्कि अनेक व्यवस्थाएं हैं। स्थिति यह है कि किसी राज्य के लिये यह अनुच्छेद बरदान है तो दूसरे राज्य के लोग उसे अभिशाप बता रहे हैं। यह धारा नागालैण्ड और मीजोरम जैसे राज्यों के लिये बदरदान है तो अरुणाचल के लोग इसे अभिशाप मान रहे हैं। सवाल केवल धारा 371 का ही नहीं है। सवाल संविधान की अनुसूची 6 के राज्यों के लिये स्वायत्तशसी परिषदों के जैसे संवैधानिक प्रावधानों का भी है। इन क्षेत्रों में संविधान का 73वां और 74वां संशोधन लागू नहीं होता। इसी तरह अनुसूची पांच के क्षेत्रों में भी संविधान के 73वें संशोधन के बाद भी अलग प्रावधान हैं। ऐसी स्थिति में एक देश एक कानून का दावा कहां ठहरता है?
धारा 371 कुछ राज्यों पर बोझ तो कुछ का विशेषाधिकार
संविधान
के अनुच्छेद 371-ए के तहत नागालैंण्ड तथा 371-जी के तहत मीजोरम के नागरिकों को उनके धार्मिक कानूनों, रीति रिवाजों और यहां तक कि उनकी परम्परागत न्याय प्रणाली को मान्यता दी गयी है और संसद को इन परम्पराओं के अधिकारों को सीमित करने का अधिकार बहुत सीमित रखा गया है। अरुणाचल विधान सभा ने सितम्बर 2013 में एक संकल्प पारित कर संविधान में संशोधन कर इस प्रदेश को भी नागालैण्ड और मीजोरम का जैसा 371 का संवैधानिक दर्जा देने का प्रस्ताव पारित कर उसे केन्द्रीय गृह मंत्रालय को भेजा था। अरुणाचल का गठन 24वें राज्य के रूप में 1987 में हुआ और तब से लेकर निरन्तर वहां लागू धारा 371-एच को समाप्त कर 371-ए और 371-जी की तरह जनजातियों के परम्परागत रीति रिवाजों, धार्मिक परम्पराओं और परम्परागत पंचायतों को मान्यता देने की मांग की जाती रही है। अरुणाचल जिसे कभी नार्थ फ्रण्टियर ऐजंेसी (नेफा) भी कहा जाता था, सामरिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील होने के साथ ही यहां अपातानी, अबोर, डाफला, गैलॉन्ग, मोम्बा, शेरडुकपेन, सिंगफो जैसी कम से कम 25 जनजातियां और उनकी कई उपजातियां निवास करती हैं। जबकि 1963 में बने नागालैण्ड में केवल 16 जनजातियां ही हैं। अरुणाचल प्रदेश के नागरिकों को इसी धारा की उपधारा-एच के तहत स्वायत्तता देने के बजाय वहां के राज्यपाल को असीमित अधिकार दिये गये हैं। यहां तक कि अरुणाचल की सरकार या वहां की विधानसभा के निर्णय वहां के राज्यपाल पर बाध्यकारी नहीं हैं। जबकि संसदीय लोकतंत्र में राष्ट्रपति या राज्यपाल के सभी कार्यकारी अधिकार सरकार में निहित होते हैं और राज्यपाल या राष्ट्रपति को महज रबर स्टैम्प माना जाता है। इसलिये अगर कोई सोचता है कि कश्मीर में धारा 370 की सर्जरी करने से देश के 135 करोड़ लोगों पर एक कानून लागू हो गया या एक देश एक कानून का सिद्धान्त लागू हो गया तो इससे बड़ी गलतफहमी कुछ और नहीं हो सकती।
कई अन्य राज्यों में भी अलग कानून
कुछ लोग सवाल उठाते रहे हैं कि जब देश में विधान सभाओं और लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष है तो जम्मू-कश्मीर के लिये यह कार्याल 6 साल क्यों है? लेकिन सिक्किम की धारा 371-एफ के तहत वहां विधानसभा का कार्यकाल मात्र 4 साल रखे जाने पर सवाल कभी नहीं उठे। हालांकि इस संवैधानिक प्रावधान की अनुज्ञा होती रही है और वहां भी 5 साल में ही चुनाव कराये जा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में विदेशियों के लिये बीजा की तरह इनर लाइन परमिट पर भी कुछ लोग रोष प्रकट करते रहे हैं, जबकि यह व्यवस्था तो मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैंड में भी लागू है। इनके अलावा इनर परमिट की व्यवस्था उन सभी सीमावर्ती राज्यों के उन स्थानों पर भी लागू होती है जो कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा से 10 किमी के दायरे में आते हैं। जम्मू-कश्मीर में धारा 35-ए के तहत शरियत कानून लागू होने पर भी ऐतराज होता रहा है लेकिन 371-ए और जी के तहत भी लोगों को अपने प्रथागत वैवाहिक कानूनों और न्याय व्यवस्था की स्वतंत्रता है। यही नहीं आदिवासियों के विवाह करने तथा विवाह विच्छेद के अपने कानून होते हैं। वहां चरित्र पर लांछन, बीमारी, नपंुसकता और बांझपन जैसे आधार पर विवाह विच्छेद हो जाता है जिसके लिये अदालत जाने की बाध्यता नहीं है।
बहुलतावादी समाज को एक लाठी से हांकना कठिन
भारत जैसे बहुलतावादी लोकतंत्रिक एवं धर्म निरपेक्ष देश जहां कई धर्मों की सेकड़ों जातियों के साथ ही 7 सौ से अधिक जनजातियों और उनकी हजारों उपजातियों द्वारा 122 से अधिक भाषाएं एवं 1600 से अधिक बोलियां बोली जाती हों और हजारों तरह के रीति रिवाजों का पालन करते हों वहां एक देश और एक कानून का नारा सुनने में तो अच्छा लगता है मगर वह फिलहाल तो व्यवहारिक नहीं लगता। इसी विधिता में एकता स्थापित करने के लिये संविधान द्वारा कुछ राज्यों को अपनी गैर एकरूपता, असमान विकास, आदिवासी क्षेत्रों, पिछड़ेपन और लोगों की आकांक्षाओं के कारण समान विकास, समानता और समावेशी विकास को बढ़ावा देने के क्रम में कुछ विशेष दर्जे दिये गये हैं। ब्रिटिश शासनकाल में भी अंग्रेजों सारे देश को एक ही लाठी से नहीं हांका था। उस समय भी असम जैसे आदिवासी क्षेत्रों के मूल निवासियों के प्रथागत रीति रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं और परम्परागत प्रशासन का आदर करते हुये शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट ऐक्ट 1874 जैसे कानून लागू किये गये थे।
एक ही धारा 371 के रूप अनेक
जम्मू-कश्मीर के विलय के समय की युद्ध जैसी परिस्थितियों और विशेष जनसांख्यकी के कारण वहां के नागरिकों को भारतीय बनाये रखने के लिये 370 का उपहार देना पड़ा था। लेकिन ऐसी विशिष्ट संवैधानिक व्यवस्था केवल जम्मू-कश्मीर के लिये नहीं बल्कि 11 अन्य राज्यों को अनुच्छेद 371 की विभिन्न उपधाराओं के तहत दी गयी है और इसकी शुरूआत प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के गृह प्रदेश गुजरात और महाराष्ट्र से ही हुयी है। महाराष्ट्र और गुजरात, दोनों राज्यों के राज्यपाल को अनुच्छेद-371 के तहत ये विशेष जिम्मेदारी है कि वे महाराष्ट्र के विदर्भ, मराठवाड़ा और गुजरात के सौराष्ट्र और कच्छ के अलग विकास बोर्ड बना सकते हैं। इन इलाकों में विकास कार्य के लिए नियमित रूप से फण्ड दिया जाता है।
नागालैण्ड में धारा 371 से हुआ विद्रोह का मुकाबला
सन्
1957 में नागा हिल्स तुएनसांग नाम से केन्द्र शासित प्रदेश के गठन के उद्ेश्य पूरे न हो पाने पर जब सन् 1963 में नगालैंड राज्य का गठन किया गया तो इसकी विशिष्ट जनजातीय एवं भौगोलिक परिस्थितयों को ध्यान में रख कर संविधान के 13 वें संशोधन के जरिये नागालैण्ड को धारा 371-ए के तहत स्वायत्तता दी गयी। यह बात छिपी नहीं है कि किन परिस्थियों में नागालैण्ड को भारत में मिलाया गया और 1955 से शुरू हुये नागा विद्रोह को दबाने के लिये भारत सरकार को कितना खून-पसीना बहाना पड़ा। ए.जेड. फीजो जैसे नागा विद्रोही नेता इस विवाद को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर ले ही जा रहे थे साथ ही वे पाकिस्तान और चीन के भी सम्पर्क में थे। इस प्रदेश की सीमाएं चीन के साथ नहीं लगने के बावजूद चीन इस विद्रोह में रुचि ले रहा था। इसी नागा विद्रोह को शान्त करने के लिये धारा 371-ए के तहत उन्हें विशेषाधिकारों की गारण्टी दी गयी थी। इस विशिष्ट धारा में प्रावधान था कि इसके अन्तर्गत कुछ विशेष मामलों में नगालैंड में संसद और सरकार का कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। ये मामले धार्मिक और सामाजिक गतिविधियां, विभिन्न उपजातियों में बंटे नागा समुदाय के कानून, नागा कानूनों के आधार पर नागरिक और आपराधिक मामलों में न्याय एवं जमीन का स्वामित्व और खरीद-फरोख्त आदि थे। यहां भी बाहरी लोग जमीने नहीं खरीद सकते हैं। यह प्रावधान केवल 3 साल के लिये था लेकिन जब भी इस धारा को हटानेे का प्रयास हुआ तो उसका नागालैण्ड में घोर विरोध हुआ। स्थिति इतनी गंभीर है कि जम्मू-कश्मीर के मामले में साहस दिखाने वाले मोदी जी शायद ही नगालैण्ड और मीजोरम में ऐसा साहस दिखा पायें।
मीजोरम में भी उनका अपना कानून चलता है
नगालैण्ड की ही तरह मीजोरम की भौगोलिक की भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुये इस राज्य को भी स्वायत्तता दी गयी। यहां भी नागा विद्रोहियों की ही तरह लालडेंगा के नेतृत्व में विद्रोही गतिविधियां चलती रहीं। इसलिये सामरिक दृष्टि से संवेदनशील इस राज्य को भी संविधान के 53 वें संशोधन अधिनियम 1986 के तहत अनुच्छेद 371-जी में स्वायत्तता दी गयी। इस धारा के प्रावधानों के अनुसार यहां भी जमीन के मालिकाना हक को लेकर मिजो समुदाय कीे पारंपरिक प्रथाओं, शासकीय, नागरिक और आपराधिक न्याय संबंधी नियमों को भारत सरकार या संसद द्वारा अपरिवर्तनीय बनाया गया है। केंद्र सरकार इस पर तभी फैसला ले सकती है जब राज्य की विधानसभा कोई संकल्प या कानून लेकर आए। मिजोरम में चकमा, डिमसा, खासी, कूकी, लाख, पवई, राबा, सिंटेंग रहते हैं। नागालैण्ड और मीजोरम की ही तरह उत्तर पूर्व के कुछ अन्य राज्यों के लिये भी विभिन्न संविधान संशोधनों के जरिये अनुच्छेद 371 में उपधाराएं लगाकर विशेष प्रावधान किये तो गये मगर उन्हें उतनी स्वायत्तता नहीं दी गयी।
कुछ राज्यों में जनादेश ज्यादा राज्यपाल मजबूत
27 वें संविधान संशोधन एक्ट-1971 के अन्तर्गत मणिपुर के लिये 371सी के तहत प्रावधान रखे गये। इस धारा केअनुसार राष्ट्रपति चाहे तो राज्य के राज्यपाल को विशेष जिम्मेदारी देकर चुने गए प्रतिनिधियों की समिति बनवा सकते हैं। यह समिति राज्य के विकास संबंधी कार्यों की निगरानी करेगी। राज्यपाल सालाना इसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपते हैं। मणिपुर में आइमोल, अंगामी, चिरु, कूकी, मराम, मोनसांग, पैइट, पुरुम, थाडौ जनजातियां निवास करती हैं। यहां राज्यपाल को सामान्य राज्यों के राज्यपालों से अधिक शक्तियां हैं। संविधान के 36वें संशोधन एक्ट 1975 के अन्तर्गत सिक्किम के लिये 371-एफ का प्रावधान किया गया। सिक्किम के लिये इस धारा के अन्तर्गत किये गये विशिष्ट प्रावधानों के अनुसार राज्य की सारी जमीन का स्वामित्व राज्य सरकार के पास रखा गया। उक्त धारा के प्रावधानों के अनुसार राज्यपाल के पास विशेष अधिकार होते हैं ताकि वह सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए बराबर व्यवस्थाएं कर सकें। साथ ही राज्य के विभिन्न वर्गों के विकास के लिए प्रयास कर सकंे। राज्यपाल के फैसले पर किसी भी कोर्ट में अपील नहीं की जा सकेगी।
चीन के साथ विवाद के कारण इस सीमावर्ती राज्य अरुणाचल के लिये संविधान के 55वें संशोधन एक्ट 1986 के अन्तर्गत धारा 371-एच के तहत विशेष प्रावधान किये गये है। राज्य की विशिष्ट परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये राज्य पर केन्द्र का नियंत्रण बनाये रखने के लिये यहां राज्यपाल को राज्य के कानून और सुरक्षा को लेकर विशेष अधिकार दिये गये है। राज्यपाल मंत्रियों के परिषद से चर्चा करके अपने फैसले को लागू करा सकते हैं। लेकिन इस चर्चा के दौरान मंत्रिपरिषद राज्यपाल के फैसले पर कोई सवाल नहीं उठा सकता और राज्यपाल का फैसला अंतिम होता है।
असम के केवल दो जिलों में अलग कानून
असम के दो जनजाति बाहुल्य क्षेत्र दिमा हसाओ, जो पूर्व में उत्तरी कचार के नाम से जाना जाता था तथा कार्बी एन्गलौंग के लिये 22वें संशोधन एक्ट 1969 के अन्तर्गत विशेष प्रवाधान किये गये जिनके अनुसार राष्ट्रपति राज्य के आदिवासी इलाकों से चुनकर आए विधानसभा के प्रतिनिधियों की एक कमेटी बना सकते हैं। यह कमेटी राज्य के विकास संबंधी कार्यों की विवेचना करके राष्ट्रपति को रिपोर्ट सौंपती है। इन्हीं संवैधानिक प्रावधानों के तहत वहां स्वायत्तशासी जिला परिषदों का गठन किया जाता है। इन परिषदों के कार्यक्षेत्र में भी जानजाति के लोगों की धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं की स्वतंत्रतता तथा प्रशासन में स्वायत्तता दी गयी है। असम में भी चकमा, चुटिया, डिमासा, हाजोंग, ग्रास, खासी, गंगटे निवास करते हैं। इन राज्यों के अलावा आंध्र प्रदेश में केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना के लिये अनुच्छेद 371 ई, गोवा के लिए अनुच्छेद 371-आई और कर्नाटक के लिए अनुच्छेद 371 जे का प्रावधान किया गया।
स्वायत्तशासी जिला परिषदें
धारा
371 की विभिन्न उपधाराओं के अतिरिक्त आदिवासियों के परम्परागत रीति रिवाजों और धार्मिक तथा सामाजिक मान्यताओं का सम्मान करते हुये उन्हें विकास की मुख्य धारा में लाने के लिये संविधान की छटी अनुसूची के अन्तर्गत स्वायत्तशासी जिलों का भी गठन किया गया है। इन विशिष्ट क्षेत्रों के नागरिकों को विशिष्ट अधिकार दिये गये हैं। इन स्वायत्तशसी परिषदों में असम में-बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद, दीमा हसाओ स्वायत्त जिला परिषद एवं कार्बी एन्गलौंग स्वायत्त जिला परिषद, मणिपुर में-सदर हिल्स स्वायत्त जिला परिषद, जम्मू और कश्मीर में-लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद एवं कारगिल लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद लेह, मेघालय में-गारो हिल्स स्वायत्त जिला परिषद,जयंतिया हिल्स स्वायत्त जिला परिषद एवं खासी हिल्स स्वायत्त जिला परिषद, मिजोरम में-चकमा स्वायत्त जिला परिषद,लाइ स्वायत्त जिला परिषद एवंमारा स्वायत्त जिला परिषद,त्रिपुरा में-त्रिपुरा जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त जिला परिषद और पश्चिम बंगाल में-गोरखालैण्ड क्षेत्रीय प्रशासन शामिल हैं। इनके अलावा नार्थ सेण्टिनल द्वीप डी फैक्टो स्वायत्त क्षेत्र घाषित किया गया है जहां जरावा, ग्रेट अण्डमानी, सेंटिनली एवं औंगे जैसी बेहद संवेदनशील आदिवासी जातियां रहते हैं जिनका अस्तित्व ही खतरे में माना जाता है।
-जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
9412324999
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