विचारक
और कवि भी थे शहीदे आजम भगत सिंह
-जयसिंह रावत
शहीदे आजम भगत
सिंह को हम
केवल एक क्रांतिकारी
या फिर अराजकतावादी
या व्यवस्था परिवर्तन
के लिये हिंसा
में विश्वास करने
वाले उग्र वामपंथी
के रूप में
याद करते हैं।
लेकिन हम भूल
जाते हैं कि
हसरत मोहानी के
‘‘इंकलाब जिन्दाबाद’’ के नारे
को साकार करने
वाले भगत सिंह
एक विचारक, कवि,
लेखक और दूरदृष्ट्वा
भी थे। इस
अमर शहीद के
बारे में हमारी
यह धारणा ब्रिटिश
रिकार्ड के आधार
पर बनी जिसे
हमने अपने स्वतंत्र
विचारों से परखने
का प्रयास नहीं
किया। इसलिये भारत
माता का यह
सपूत बहुत 23साल
की उम्र में
ही र्स्व्ग सिधार
गया मगर भारतवासियों
के दिलों में
युगों-युगों के
लिये जिन्दा रह
गया।
लायलपुर जिले के
बंगा (
अब पाकिस्तान
में ) 28
सितम्बर को (
कुछ
विद्वानों के अनुसार
27
सितम्बर)
किशन सिंह
और माता विद्यावती
के घर जन्मे
भगत सिंह को
19
साल की उम्र
में विवाह के
बंधन में बांधने
का प्रयास किया
गया तो वह
घर से भाग
गये और अपने
पीछे अपने माता
पिता के लिये
एक पत्र छोड़
गये जिसमें लिखा
था, ‘‘
मेरा जीवन
एक महान उद्ेश्य
के लिये समर्पित
है और वह
उद्ेश्य देश की
आजादी है। इसलिये
मुझे तब तक
चैन नहीं है।
ना ही मेरी
ऐसी को सांसारिक
सुख की इच्छा
है जो मुझे
ललचा सके।’’ इतनी कम
उम्र में जिस
युवा का इतना
बड़ा संकल्प और
इतना दृढ़ निश्चय
होगा वह कोई
साधारण युवा तो
नहीं हो सकता।
वह केवल बारहवीं
पास कर के
घर से भाग
कर चन्द्रशेखर आजाद
की क्रांतिकारी पार्टी
में शामिल हो
गये थे। बहुत
अधिक शिक्षित न
होने पर भी
उन्होंने ‘‘
मैं नास्तिक
क्यों हूं’’ सहित जितना
भी लिखा उससे
उनकी वैचारिक गहराइयों
का स्वतः ही
अनुमान लग जाता
है।
देश की आजादी
के लिये भगतसिंह
के त्याग और
सर्वोच्च बलिदान से तो
हर देशवासी वाकिफ
है लेकिन एक
लेखक, विचारक, दार्शनिक
एवं कवि के
रूप में उनके
व्यक्तित्व के दूसरे
पहलू से संभवतः
बहुत कम लोग
परिचित होंगे। जॉन सैण्डर्स
की हत्या और
फिर सेण्ट्रल एसेम्बली
में बटुकेश्वर दत्त
के साथ बम
और पर्चे फेंकने
के बाद वह
फरार हो सकते
थे लेकिन उनके
लिये जान बचा
कर भागने से
अधिक महत्वपूर्ण आजादी
का संदेश दुनिया
तक पहुंचाना था।
उन्होंने दो साल
तक अदालत में
कानूनी लड़ाई जरूर
लड़ी मगर अपने
बचाव के लिये
नहीं बल्कि अपने
मकसद को प्रचारित
करने के लिये।
जेल में उन्होंने
4 पुस्तकें लिखीं जो कि
जेल से बाहर
भेजने पर नष्ट
करवा दी गयीं।
उनके लेखन के
सबूत के तौर
पर केवल उनकी
जेल डायरी मिली
जिसमें नोट्स, कविताएं एवं
व्यंग्य मिले। यह सब
सितम्बर 1929 से लेकर
मार्च 1931 के बीच
लिखे गये थे।
केवल यही डायरी
थी जो कि
बौद्धिक अमानत के तौर
पर उनकी शहादत
के बाद उनके
परिवार को मिली
जो कि बाद
में राष्ट्रीय संग्रहालय
में जमा की
गयी।
कुल 404
पृष्टों
की भगतसिंह की
जेल डायरी वास्तव
में विस्मयकारी है।
यह महान विचारकों
एवं हस्तियों की
पुस्तकों के अंशों,
विभिन्न विषयों पर उनके
नोट्स से भरी
पड़ी है जिससे
उनके गंभीर अध्ययन,
बौद्धिक स्पष्टता तथा सामाजिक
और राजनीतिक चिन्तन
का पता चलता
है जोकि बंदूक
और बमों की
भाषा बोलने वाले
एक क्रान्तिकारी के
मामले में सचमुच
विस्मयकारी है। ‘‘
द जेल
नोटबुक एण्ड अदर
राइटिंग्स’’ नाम से
पुस्तक के रूप
में यह जेल
डायरी प्रकाशक लेफ्टवर्ड
बुक्स द्वारा प्रकाशित
एवं चमन लाल
द्वारा हाल ही
के वर्षों में
सम्पादित की गयी
है।
भगतसिंह ने अपने
जेल के दिनों
में विश्व के
प्रमुख लेखकों की पुस्तकें
हासिल कीं और
फांसी के तख्ते
के इंतजार में
अपना अधिकांश समय
इन पुस्तकों को
पढ़ने और उनके
नोट्स उतारने में
व्यतीत किया। उनकी रुचियों
में राजनीतिक और
गैर राजनीतिक दोनों
ही प्रकार की
पुस्तकें होती थीं।
उनके पसन्दीदा लेखकों
में जार्ज बर्नार्ड
शॉ, बरटराण्ड रसेल,
चार्ल्स डिकिन्स रूसो, मार्क्स,
लेनिन, ट्रॉटस्की, रवीन्द्रनाथ टैगोर,
लाला लाजपत राय,
विलियम वर्ड्सवर्थ, उमर खय्याम,
मिर्जा गालिब और रामानन्द
चटर्जी आदि थे।
उनकी डायरी से
पता चलता है
कि ब्रिटिश हुकूमत
ने जिस भगत
सिंह नाम के
युवा को बन्दूकबाज
आतंकवादी के रूप
में निरूपति किया
था वह समाजवाद,
पूजीवाद, अपराध विज्ञान, सामाजिक
विज्ञान एवं न्यायशास्त्र
के बारे में
कितना अध्ययनशील और
जागरूक था।
भगतसिंह का मानना
था कि अगर
अगर आप आस्तिक
या नास्तिक होने
के किसी भी
मत को मानते
हैं तो अपनी
आलोचनाओं का मुकाबला
करने के लिये
आपके पास तर्क
होने चाहिये और
वे तर्क अध्ययन
तथा अनुभव से
प्राप्त किये जा
सकते हैं। इसीलिये
उन्होंने अपने नास्तिक
होने के बारे
में जेल डायरी
के उस विख्यात
लेख में लिखा
था कि ‘‘.... मैं
केवल एक रोमान्टिक
आदर्शवादी क्रान्तिकारी था। यह
मेरे क्रान्तिकारी जीवन
का एक निर्णायक
बिन्दु था। ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन
के गलियारों में
गूँज रही थी।
विरोधियों द्वारा रखे गये
तर्कों का सामना
करने योग्य बनने
के लिये अध्ययन
करो। अपने मत
के पक्ष में
तर्क देने के
लिये सक्षम होने
के वास्ते पढ़ो।
मैंने पढ़ना शुरू
कर दिया। इससे
मेरे पुराने विचार
और विश्वास अद्भुत
रूप से परिष्कृत
हुए।’’
जेल डायरी में भगत
सिंह ने लिखा
कि, ‘‘...मुझे विश्वक्रान्ति
के अनेक आदर्शों
के बारे में
पढ़ने का खूब
मौका मिला। मैंने
अराजकतावादी नेता बुकनिन
को पढ़ा, कुछ
साम्यवाद के पिता
मार्क्स को, किन्तु
अधिक लेनिन, त्रात्स्की,
व अन्य लोगों
को पढ़ा, जो
अपने देश में
सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे।
ये सभी नास्तिक
थे। बाद में
मुझे निरलम्ब स्वामी
की पुस्तक ‘सहज
ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी
नास्तिकता थी। 1926 के अन्त
तक मुझे इस
बात का विश्वास
हो गया कि
एक सर्वशक्तिमान परम
आत्मा की बात,
जिसने ब्रह्माण्ड का
सृजन, दिग्दर्शन और
संचालन किया, एक कोरी
बकवास है। मैंने
अपने इस अविश्वास
को प्रदर्शित किया।
.....।’’
भगत सिंह ने
परम्परागत न्यायशास्त्र से असहमति
जताते हुये लिखा
है कि पूर्वजों
ने, ‘‘.....ऐसे सिद्धान्त
गढ़े, जिनमें तर्क
और अविश्वास के
सभी प्रयासों को
विफल करने की
काफी ताकत है।
न्यायशास्त्र के अनुसार
दण्ड को अपराधी
पर पड़ने वाले
असर के आधार
पर केवल तीन
कारणों से उचित
ठहराया जा सकता
है। वे हैं-प्रतिकार, भय और
सुधार। आज सभी
प्रगतिशील विचारकों द्वारा प्रतिकार
के सिद्धान्त की
निन्दा की जाती
है। भयभीत करने
के सिद्धान्त का
भी अन्त वही
है। सुधार करने
का सिद्धान्त ही
केवल आवश्यक है
और मानवता की
प्रगति के लिये
अनिवार्य है.----- गरीबी एक
अभिशाप है। यह
एक दण्ड है।
मैं पूछता हूँ
कि दण्ड प्रक्रिया
की कहाँ तक
प्रशंसा करें, जो अनिवार्यतः
मनुष्य को और
अधिक अपराध करने
को बाध्य करे.....?’’
उन्होंने लिखा है
कि, ‘‘... ईश्वर में विश्वास
रखने वाला हिन्दू
पुनर्जन्म पर राजा
होने की आशा
कर सकता है।
एक मुसलमान या
ईसाई स्वर्ग में
व्याप्त समृद्धि के आनन्द
की और अपने
कष्टों और बलिदान
के लिये पुरस्कार
की कल्पना कर
सकता है। किन्तु
मैं क्या आशा
करूँ? मैं जानता
हूँ कि जिस
क्षण रस्सी का
फन्दा मेरी गर्दन
पर लगेगा और
मेरे पैरों के
नीचे से तख््ता
हटेगा, वह पूर्ण
विराम होगा। वह
अन्तिम क्षण होगा।
मैं या मेरी
आत्मा सब वहीं
समाप्त हो जायेगी।
आगे कुछ न
रहेगा। एक छोटी
सी जूझती हुई
जिन्दगी, जिसकी कोई ऐसी
गौरवशाली परिणति नहीं है,
अपने में स्वयं
एक पुरस्कार होगी।......’’
भगत सिंह का
विश्वास न तो
पुनर्जन्म में और
ना ही सृष्टि
की उत्पत्ति की
पौराणिक मान्यता में थी।
उन्होंने लिखा है
कि, ‘‘...मेरे प्रिय
दोस्तों! ये सिद्धान्त
विशेषाधिकार युक्त लोगों के
आविष्कार हैं। ये
अपनी हथियाई हुई
शक्ति, पूँजी और उच्चता
को इन सिद्धान्तों
के आधार पर
सही ठहराते हैं।
अपटान सिंक्लेयर ने
लिखा था कि
‘‘मनुष्य को बस
अमरत्व में विश्वास
दिला दो और
उसके बाद उसकी
सारी सम्पत्ति लूट
लो। वह बगैर
बड़बड़ाये इस कार्य
में तुम्हारी सहायता
करेगा। धर्म के
उपदेशकों और सत्ता
के स्वामियों के
गठबन्धन से ही
जेल, फाँसी, कोड़े
और ये सिद्धान्त
उपजते हैं।‘‘ ‘‘... चार्ल्स डार्विन ने
इस विषय पर
कुछ प्रकाश डालने
की कोशिश की
है। उसे पढ़ो।
यह एक प्रकृति
की घटना है।
विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका
के आकार में,
आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी
बनी। इतिहास देखो।
इसी प्रकार की
घटना से जन्तु
पैदा हुए और
एक लम्बे दौर
में मानव। डार्विन
की ‘जीव की
उत्पत्ति’ पढ़ो। और
तदुपरान्त सारा विकास
मनुष्य द्वारा प्रकृति के
लगातार विरोध और उस
पर विजय प्राप्त
करने की चेष्टा
से हुआ।.....’’
भगत सिंह को
भी जेल में
आजाद किये जाने
का प्रलोभन दिया
गया लेकिन उनका
मन नहीं डोला
जबकि ऐसे भी
क्रांतिकारी रहे जिन्होंने
मौत के भय
से सावरकार की
तरह क्षमायाचना कर
जेल से रिहाई
पाई। अपनी जेल
डायरी में भगत
सिंह ने स्वयं
भी लिखा है
कि, ‘‘......
मई 1927
में मैं
लाहौर में गिरफ्तार
हुआ। ....
पुलिस अफसरों ने
मुझे बताया कि
यदि मैं क्रान्तिकारी
दल की गतिविधियों
पर प्रकाश डालने
वाला एक वक्तव्य
दे दूँ,
तो
मुझे गिरफ्तार नहीं
किया जायेगा और
इसके विपरीत मुझे
अदालत में मुखबिर
की तरह पेश
किये बगैर रिहा
कर दिया जायेगा
और इनाम दिया
जायेगा। मैं इस
प्रस्ताव पर हँसा।
....
एक दिन सुबह
सी.
आई.
डी.
के वरिष्ठ अधीक्षक
श्री न्यूमन ने
कहा कि यदि
मैंने वैसा वक्तव्य
नहीं दिया,
तो
मुझ पर काकोरी
केस से सम्बन्धित
विद्रोह छेड़ने के षडयन्त्र
और दशहरा उपद्रव
में क्रूर हत्याओं
के लिये मुकदमा
चलाने पर बाध्य
होंगे और कि
उनके पास मुझे
सजा दिलाने और
फाँसी पर लटकवाने
के लिये उचित
प्रमाण हैं।’’
भगतसिंह निश्चित रूप से
एक साम्यवादी थे
जो कि रूस
की बोल्शिेविक क्रांति
के जनक ब्लादिमीर
लेनिन से प्रभावित
थे। लेकिन उनका
साम्यवाद पूर्णतः भारत के
संदर्भ में था
जहां जाति और
अमीर गरीब के
नाम पर समाज
में अन्याय और
शोषण होता था।
जिन लाला लाजपत
राय की खातिर
उन्होंने सैण्डर्स को मार
डाला था वही
लालाजी लाठीचार्ज
में घायल होने
से पूर्व हिन्दू
महासभा से जुड़
गये थे और
भगतसिंह पर नास्तिक
और रूस का
ऐजेण्ट होने का
आरोप लगाते थे।
भगतसिंह का मानना
था कि जिस
धर्म में असमानता,
भेदभाव और छुआछूत
जैसी बुराइयां हों
वहां से दलित
स्वाभाविक रूप से
मानवीय गरिमा और समानता
की खातिर ईसाइयत या इस्लाम
जैसे दूसरे धर्म
अपनायेंगे। उस स्थिति
में अन्य धर्मों
की आलोचना करना
व्यर्थ होगा। वह गरीबी
को दलितों का
पर्याय मानते थे और
इसी तथ्य को
ध्यान में रख
कर समाजवादी सोच
के साथ सभी
प्रकार की आस्थाओं
और आर्थिक वर्गों
को साथ लेकर
राष्ट्र निर्माण के पक्षधर
थे।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून
jaysinghrawat@gmail.com