पत्रकारिता से इतर मेरी सातवीं कृति स्वाधीनता आंदोलन और पत्रकारिता
मेरे दादू की नयी किताब नयी पीढ़ियों के लिए : आदित सिंह रावत |
मेरी नवीनतम् पुस्तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार के राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया) द्वारा इसी वर्ष जुलाइ में प्रकाशित की गयी। यह मेरी सातवीं पुस्तक है। हिमालयी राज्यों पर मेरी एक पुस्तक का तीसरा संस्करण विनसर पब्लिशिंग कम्पनी डिसपेंसरी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होने वाला है और आठवीं पुस्तक उन्हीं के पास प्रकाशनाधीन है। मैं पत्रकार के रूप में चार दशक से अधिक समय से अखबारों में टनों के हिसाब से लिख चुका हूं। लेखन को टनों के हिसाब से मापने का मेरा अभिप्राय यह है कि पत्रकारिता का आधार ही सामयिक सच्चाई या घटनाक्रम होता है। समाचार की अपील बहुत ही क्षणिक होती है। वह कालजयी साहित्य नहीं बल्कि क्षणिक साहित्य है। जिस तरह एक आखबार पर लोग सुबह-सुबह झपट पड़ते हैं। वह सामान्य व्यक्ति की दिन की पहली चाहत होती है। कुछ लोग बिना प्रातःकाल चाय और अखबार के बिना नित्यकर्म नहीं कर पाते हैं। लेकिन वही अखबार शाम तक घर के किसी कोने में अस्तव्यस्त हालत में पड़ा रहता है। अखबार गिन कर खरीदा जाता है और फिर तोल कर बेचा जाता है। इस तरह चार दशकों में मेरे द्वारा संकलित और प्रसारित समाचार या फिर सामयिक लेख अखबारों के साथ तोल के भाव बिके हैं और वह तोल कई टनों में ही हो सकता है। मैंने न्यूज ऐजेंसी में भी लम्बे समय तक काम किया है, इसलिये मेरा भेजा गया एक ही समाचार देशभर के हजारों अखबारों में छपा होगा। बल्कि अन्य देशों में भी छपा होगा। इसी तरह पीटीआइ मैग की तरह कई फीचर ऐजेंसियों को भी लिखा। वह सब पाठकों की तात्कालिक जिज्ञासा शांत करने के लियेही होता था। लेकिन मैंने कुछ मित्रों की प्रेरणा और मदद से पुस्तक लेखन के क्षेत्र में इसलिये अपनी कलम आजमाई ताकि मेरा लिखा हुआ अब तराजू या कांटे पर तोल कर न बिके और पुस्तकालयों में सदियों तक और और सुधी पाठकों के पास लम्बे समय तक संग्रहित रह सके। मेरी ज्यादातर पुस्तकें शोध परक संदर्भ गन्थ ही हैं, इसलिये वे भावी शोधकर्ताओं के काम भी आयेंगी। वे कुछ बच्चों के प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में काम आ रही हैं और आगे भी काम आयेंगी। दरअसल मेरा यह प्रयास भी अपने उत्तराखण्ड के शानदार अतीत को भविष्य से जोड़ने का और देश की स्वाधीनता में हमारे भूले बिसरे सेनानियों के कृतित्व का दस्तावेजीकरण ही है। मैं पुस्तक में वर्णित ऐतिहासिक पत्रकारों के आदर्शों और उनके त्याग तथा उनकी तपस्या को वर्तमान एवं भावी पीढ़ी के लिये प्रेरणा श्रोत के तौर पर भी पेश करना चाहता था। नवीनतम पुस्तक में मैंने उत्तराखण्ड के प्राचीन छापेखानों पर भी प्रकाश डाला है, क्योंकि आज भले ही छापाखाना गायब हो गया मगर पत्रकारिता की पहचान आज भी ‘‘प्रेस’’ से ही है। मुझे आशा है कि पत्रकारिता और स्वाधीनता पर मेरी नवीनतम पुस्तक पाठकों और खास कर देश के भविष्य और छात्र वर्ग को पसन्द आयेगी।
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