जम्मू-कश्मीर का भारत संघ में अब हुआ पूर्ण विलय
-जयसिंह रावत
भारत के पहले
प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल
नेहरू और अखण्ड
भारत की एकता
के प्रतीक सरकार
बल्लभ भाई पटेल
जिस जम्मू और
कश्मीर रियासत का भारत
संघ में पूर्ण
विलय का काम
अधूरा छोड़ गये
थे उसे वर्तमान
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं
उनके गृहमंत्री अमित
शाह कर गये।
मोदी सरकार द्वारा
संविधान के अनुच्छेद
370 की विभिन्न धाराओं के
निरसन तथा संविधान
की धारा 3 के
तहत जम्मू-कश्मीर
के विखण्डन की
प्रकृया शुरू किये
जाने के साथ
ही अब तक
विशेषाधिकार प्राप्त रहे जम्मू
और कश्मीर के
भारत संघ में
पूर्ण विलय की
प्रकृया शुरू हो
गयी है। भारत
स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत
इस राज्य का
पूर्ण विलय हुआ
ही नहीं था
और इसकी सम्प्रभुता
केवल महाराजा हरिसिंह
और गवर्नर जनरल
माउण्टबेटन के बीच
हुये ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ
एक्सेशन’ के तहत
ही भारत संघ
में निहित थी।
जब रियासत के
ही टुकड़े हो
जायेंगे तो उसके
अपने अलग संविधान
का भी कोई
अस्तित्व नहीं रह
जायेगा। शायद कभी
किसी ने सोचा
भी न होगा
कि कहां तो
जम्मू-कश्मीर के
लोगों को मौजूदा
स्वायत्तता और विशेषाधिकार
कम पड़ रहे
थे औ वे
1965 से पहले की
स्थिति की मांग
कर रहे थे
और कहां उनका
पूर्ण राज्य का
दर्जा भी छिन
गया। उनका पूर्ण
राज्य का दर्जा
ही नहीं छिना
बल्कि उन्हे पार्ट-सी का
उप राज्य बनाने
के साथ ही
सीधे केन्द्र सरकार
के नियंत्रण में
रख दिया। कानून
व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी
होती है और
यही सत्ता की
प्रतीक भी होती
है। लेकिन दिल्ली
की तरह जम्मू-कश्मीर के लोगों
के हाथो से
यह शक्ति भी
छिन गयी है।
यही नहीं अब
दिल्ली की ही
तरह रियासत के
लोगों द्वारा चुनी
गयी सरकार पर
दिल्ली से नियुक्त
उप राज्यपाल की
ही बादशाहत चलेगी।
कश्मीरियों के विशेषाधिकार अलगाववादियों ने छिनवाये
नरेन्द्र मोदी के
नेतृत्व वाली भाजपानीत
एनडीए सरकार ने
कई दिनों के
सस्पेंस के बाद
आखिरकार एक देश
एक कानून की
अपनी डॉक्टरिन के
अनुरूप जम्मू-कश्मीर और
उसके नागरिकों को
विशेषाधिकार देने वाले
अनुच्छेद 370 की खण्ड
एक को छोड़
कर अन्य विभेदकारी
उपधाराएं समाप्त करने का
कदम उठा ही
लिया। अब जम्मू-और कश्मीर
के नागरिकों को
केवल वही अधिकार
प्राप्त होंगे जो कि
देश के अन्य
नागरिकों को प्राप्त
होते हैं। अब
भारत सरकार को
बार-बार राज्यपाल
शासन भी नहीं
लगाना पड़ेगा, क्योंकि
वह राज्य अब
सीधे केन्द्र सरकार
के नियंत्रण में
होगा। कहां तो
भारत के नियंत्रण
वाले कश्मीर में
विशेषाधिकारों के बावजूद
मुख्य धारा के
कश्मीरी नेता 1965 से पहले
की जैसी स्थिति
की मांग कर
रहे थे और
हुर्रियत जैसे नेता
तो सीधे भारत
से आजादी की
मांग कर रहे
थे और कहां
वे पूर्ण राज्य
का दर्जा भी
खो बैठे। मोदी
सरकार का यह
निर्णय लोकतांत्रिक दृष्टि से
अवश्य ही अप्रिय
और अलोकतांत्रिक है।
यह महाराजा हरिसिंह
के साथ विलय
की शर्तों के
साथ भी धोखा
है। अपने खास
ऐजेण्डे के तहत
सामरिक और धार्मिक
दृष्टि से अति
संवेदनशील राज्य के लोकतांत्रिक
अधिकारों को बंदूक
की नोक पर
छीनना अंगारों से
खेलना जैसा और
राज्य के विशेषाधिकारों
के साथ ही
कुछ लोकतांत्रिक अधिकारों
को भी छीन
लेना ज्यादती ही
है, लेकिन इसके
लिये वे तत्व
भी कम जिम्मेदार
नहीं हैं जो
कि एक लोकतांत्रिक
देश में हासिल
होने वाली आजादी
का दुरुपयोग कर
रहे थे। अगर
जम्मू-कश्मीर में
हालात सामान्य होते
तो जो व्यवस्था
पिछले 72 सालों से चल
रही थी उसे
समाप्त करने की
जरूरत ही महसूस
नहीं की जाती।
वहां हुर्रियत के
नेता खाते हिन्दुस्तान
के थे लेकिन
उनकी बफादारी पाकिस्तान
के साथ थी।
पहले तो आम
आदमी न्यूट्रल था
लेकिन आज वहां
भारत विरोधी प्रवृत्ति
चरम पर पहुंच
गयी थी लोग
आतंकवादियों को बचाने
के लिये कवच
की तरह सुरक्षा
बलों के आगे
खड़े हो रहे
थे और जिन
युवाओं के हाथों
में कलम या
कम्प्यूटर का माउस
होना चाहिये था
उनके हाथों में
पत्थर आ गये
थे।
महाराजा
हरि सिंह भारत में भी नहीं मिलना चाहते थे
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के
तहत भारत में
मौजूद 562 देशी राज्यों
को भारत या
पाकिस्तान में विलीन
करने की जो
प्रकृया अपनायी गयी थी,
उसके तहत जम्मू-कश्मीर के विलय
की प्रकृया ही
अपूर्ण थी और
उसी अपूर्णता के
कारण इस रियासत
को अपने साथ
बनाये रखने के
लिये उसे विशेष
रियायतें या राज्य
को विशेष संवैधानिक
दर्जा देना पड़ा
था। उस संक्रमण
काल में सबसे
पहले जो जैसा
है की स्थिति
बरकरार रखने के
लिये इन रियासतों
के साथ ‘स्टैण्ड
स्टिल’ समझौते किये गये
मगर भारत सरकार
ने महाराजा हरिसिंह
के साथ यह
समझौता नहीं किया।
इसके बाद जब
तक राजा महाराजाओं
या नवाबों को
पूर्ण विलय के
लिये मनाया जाता
या विवश किया
जाता तब तक
उनसे ‘‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन”
पर हस्ताक्षर कराये
गये ताकि देशी
शासकों का अपने
राज्यों पर शासन
बरकरार रखने के
बावजूद ब्रिटिश क्राउन में
निहित उनकी सार्वभौम
सत्ता को भारत
संघ में निहित
कर उन्हें अपने
पक्ष में बने
रहने के लिये
पाबंद किया जा
सके। चूंकि अब
तक देशी राज्यों
की पैरामौंट्सी या
सार्वभौम सत्ता ब्रिटिश महारानी
में निहित थी
और भारत स्वतंत्रता
अधिनियम के लागू
होने के बाद
देशी राज्य राज्य
ब्रिटिश पैरामौंट्सी से भी
स्वतंत्र हो गये
थे। देखा जाय
तो वे अब
असली सम्प्रभुता सम्पन्न
शासक बन गये
थे। इसलिये भी
महाराजा हरिसिंह अपना अलग
अस्तित्व बनाये रखना चाहते
थे। वैसे भी
कट्टर हिन्दू होने
के कारण उनका
इस्लामिक पाकिस्तान के
साथ विलय करने
का प्रश्न ही
नहीं था। जबकि
वह कांग्रेस को
भी पसन्द नहीं
करते थे इसलिये
उन्होंने भारत संघ
में भी विलय
में रुचि नहीं
ली।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (इंडिपेंडेंस
ऑफ इंडिया एक्ट
1947) के तहत ब्रिटिश
शासित क्षेत्र के
भारतवासियों को स्वशासन
सौंपे जाने के
साथ ही देशी
रियासतों पर भी
ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता समाप्त
हो गयी थी।
क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य की
ओर से देशी
राज्यों के साथ
हुयी संधियों के
तहत उनकी सुरक्षा
की गारंटी और
बदले में ब्रिटिश
पैरामौंटसी (अधीनता) भी समाप्त
हो चुकी थी।
इसलिये महाराजा हरिसिंह समेत
अधिकांश नरेश स्वयं
को सम्प्रभुता सम्पन्न
अधिनायक मानने लगे थे।
फिर भी ब्रिटिश
संसद में वहां
के एटार्नी जनरल
ने स्पष्ट कर
दिया था कि
ब्रिटिश सम्राट/साम्राज्ञी इन
रियासतों को पृथक
अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता देने को
तैयार नहीं हैं।
नेहरू भी साफ
कह चुके थे
कि अगर कोई
देश इन रियासतों
को मान्यता देगा
तो उसे शत्रुतापूर्ण
कार्यवाही माना जायेगा।
सरदार पटेल के
अनुरोध पर तत्कालीन
गर्वनर जनरल लॉर्ड
माउंटबेटन ने 25 जुलाइ 1947 को
चैम्बर आफ प्रिंसेज
के अधिवेशन में
साफ कह दिया
था कि देशी
राज्यों को भारत
या पाकिस्तान में
से किसी एक
के साथ मिल
जाना चाहिये। गर्वनर
जनरल ने साफ
कह दिया था
कि ऐसी भौगोलिक
परिस्थितियां हैं जिनके
चलते सुरक्षा और
सुव्यवस्था की दृष्टि
से देशी रियासतों
को अपने से
जुड़े ब्रिटिश शासित
रहे प्रान्तों में
मिलने के सिवा
दूसरा विकल्प नहीं
है। इसलिये 15 अगस्त
1947 तक हैदराबाद, जूनागढ़ और
कश्मीर जैसे कुछ
बड़े राज्यों को
छोड़ कर टिहरी
समेत 136 रियासतों ने इंट्रूमेंट
ऑफ एक्सेशन पर
हस्ताक्षर कर दिये
थे।
कबाइली
हमले के बाद हुआ कश्मीर भारत का
पाकिस्तान समर्थित हजारों हथियारबंद
कबाइली जब 22 अक्टूबर 1947 को
कश्मीर में दाखिल
हो गए और
तेजी से राजधानी
श्रीनगर की तरफ
बढ़ने लगे तो
कश्मीर के पुंछ
इलाके में महाराजा
के शासन के
प्रति पहले से
ही काफी असंतोष
था। इसलिये इस
क्षेत्र के कई
लोग भी हमलावरों
के साथ मिल
गए। 24 अक्टूबर को कबाइलियों
के बारामूला की
ओर बढ़ने पर
महाराजा हरीसिंह ने भारत
सरकार से सैन्य
मदद मांगी तो
अगली ही सुबह
तत्कालीन सेक्रेटरी स्टेट वी
पी मेनन को
हालात का जायजा
लेने दिल्ली से
कश्मीर भेजा गया।
मेनन जब महाराजा
हरिसिंह से श्रीनगर
में मिले तब
तक हमलावर बारामूला
पहुंच चुके थे।
ऐसे में उन्होंने
महाराजा को तुरंत
जम्मू रवाना हो
जाने को कहा
और वे खुद
कश्मीर के प्रधानमंत्री
मेहरचंद महाजन को साथ
लेकर दिल्ली लौट
आए। इतिहासकार रामचन्द्र
गुहा ने अपनी
पुस्तक ‘‘ इंडिया आफ्टर गांधी’’ में लिखा है
कि ऐसे में
लार्ड माउंटबेटन ने
सलाह दी कि
कश्मीर में भारतीय
फौज को भेजने
से पहले हरीसिंह
से ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ
एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर
करवाना चाहिये। इसलिये मेनन
को एक बार
फिर से जम्मू
भेजा गया और
26 अक्टूबर को मेनन
महाराजा हरीसिंह से ‘इंस्ट्रूमेंट
ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर
करा कर तुरंत
ही दिल्ली वापस
लौट आए। अगली
सुबह सूरज की
पहली किरण के
साथ ही भारतीय
फौज कश्मीर के
लिए रवाना हो
गई। इसी दिन
28 विमान भी कश्मीर
के लिए रवाना
हुए और कुछ
ही दिनों में
पाकिस्तान समर्थित कबायली हमलावरों
और विद्रोहियों को
खदेड़ दिया गया।
कश्मीर
का अधूरा विलय और जनमत संग्रह का वायदा
महाराजा हरिसिंह द्वारा 26 अक्टूबर
1947 को ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करने के
बाद अगले ही
दिन गवर्नर जनरल
लुइस माउण्टबेटन ने
इस समझौते पर
हस्ताक्षर करने के
साथ ही कश्मीर
पर भारत का
औपचारिक, व्यवहारिक और आधिकारिक
कब्जा हो गया।
लेकिन कुछ चीजें
अब भी अनसुलझी
इसलिये रह गयी
क्योंकि विलय की
कुछ औपचारिकताएं अधूरी
रह गयी थी।
दरअसल भारत ने
कश्मीर के महाराजा
हरीसिंह के साथ
जिस “इंस्ट्रूमेंट ऑफ
एक्सेशन” पर हस्ताक्षर
किये थे, वह
अक्षरशः वैसा ही
था जैसा मैसूर,
टिहरी गढ़वाल या
किसी भी अन्य
रियासत के साथ
किया गया था।
लेकिन जहां बाकी
रियासतों के साथ
बाद में ‘इंस्ट्रूमेंट
ऑफ मर्जर’ पर हस्ताक्षर
कराये गये। जबकि
कश्मीर के साथ
भारत के संबंध
उलझते चले गए।
इन संबंधों के
उलझने की एक
बड़ी वजह थी
कश्मीर में जनमत
संग्रह का वह
वादा जिसकी पेशकश
लार्ड माउंटबेटन ने
की थी। 27 अक्टूबर
1947 को ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर करने के
साथ ही गवर्नर
जनरल ने महाराजा
हरिसिंह को पत्र
लिख कर कहा
था कि ‘‘मेरी
सरकार की इच्छा
है कि कश्मीर
की धरती से
आक्रमणकारियों से मुक्त
कराने के बाद
रियासत के भारत
में विलय के
बारे में जनता
की राय भी
ली जायेगी’। चूंकि
उस समय भारत
आजाद तो हो
गया था मगर
हमारा संविधान 26 जनवरी
1950 को ही लागू
हो सका। इसलिये
तब तक ब्रिटिश
कानून के चलते
गवर्नर जनरल के
रूप में माउण्टबेटन
ही शासन के
प्रमुख थे इसलिये
भारतीय नेतृत्व उनकी कही
बात नकार नहीं
सका। नकारना तो
रहा दूर माउण्टबेटन
के इस वादे
को देश के
पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल
नेहरू बाकायदा ऑल
इंडिया रेडियो पर दुहरा
गये। यही नहीं
माउण्टबेटन की सलाह
पर भारत यह
मामला संयुक्त राष्ट्र
संघ में भी
ले गया और
वहां उसकी पैरवी
पाकिस्तान के मुकाबले
काफी कमजोर रही।
कमजोरी का कारण
भारत में होने
वाले साम्प्रदायिक दंगे
भी थे। इस
तरह शासन प्रमुख
के तौर पर
अंग्रेज गवर्नर जनरल का
वायदा भविष्य के
लिये भारत के
लिये गले की
हड्डी बन गया।
‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’और धारा 370
‘इंस्ट्रूमेंट
ऑफ एक्सेशन’ के तहत
नयी शासन व्यवस्था
में देशी राज्यों
पर उनके शासकों
का अधिपत्य तो
था मगर संधि
के तहत 18 ऐसे
विषय थे जिन
पर भारत अधिराज्य
की विधायिका कानून
बना सकती थी।
इसका मतलब साफ
था कि ये
विषय भारत अधिराज्य
के अधीन आ
गये थे जिनमें
रक्षा, विदेश मामले, संचार,
मौद्रिक व्यवस्था, कस्टम, प्रत्यारोपण,
सिंचाई, बिजली, आवश्यक वस्तुओं
पर नियंत्रण, राष्ट्रीय
राजमार्ग, नमक, रेलवे,
डाक एवं तार,
केन्द्रीय उत्पाद कर, अफीम
और मोटर वाहन
आदि शामिल थे।
लेकिन इन विषयों
के अलावा बाकी
विषय देशी राज्यों
के पास ही
रखे गये।
संविधान की धारा
370 के अनुसार भारतीय संसद
जम्मू-कश्मीर के
मामले में सिर्फ
तीन क्षेत्रों-रक्षा,
विदेश मामले और
संचार के लिए
कानून बना सकती
है। इसके अलावा
किसी कानून को
लागू करवाने के
लिए केंद्र सरकार
को धरा 371 के
खण्ड एक के
तहत राज्य सरकार
की मंजूरी चाहिए
होती है। वास्तव
में संविधान सभा
में गोपालस्वामी आयंगर
ने धारा 306-ए
का प्रारूप पेश
किया था। बाद
में यह धारा
370 बनी। इन अनुच्छेद
के तहत जम्मू-कश्मीर को अन्य
राज्यों से अलग
अधिकार मिले। 1951 में राज्य
को संविधान सभा
अलग से बुलाने
की अनुमति दी
गई। संविधान सभा
की पहली बैठक
31 अक्टूबर 1951 को हुई
थी। जम्मू एवं
कश्मीर के संविधान
को बनने में
कुल 5 वर्ष का
समय लगा। नवंबर
1956 में राज्य के संविधान
का कार्य पूरा
हुआ। 26 जनवरी 1957 को राज्य
में विशेष संविधान
लागू कर दिया
गया।
जम्मू-कश्मीर का संविधान
जम्मू-कश्मीर देश का
अकेला राज्य है
जिसका अपना अलग
संविधान और अलग
झण्डा है तथा
इसकी विधानसभा की
अवधि 6 साल है।
सितम्बर-अक्टूबर 1951 में जम्मू
एवं कश्मीर की
संविधान सभा का
निर्वाचन राज्य के भविष्य
के संविधान के
निर्माण के लिए
तथा भारत के
साथ सम्बन्ध स्पष्ट
करने के लिए
किया गया था।
इस संविधान की
स्थिति अभी स्पष्ट
नहीं की गयी
है। अमित शाह
के बयान के
मुताबिक 370(1) बाकायदा कायम है
सिर्फ 370 (2) और (3) को हटाया
गया है। 370(1) में
प्रावधान के मुताबिक
जम्मू और कश्मीर
की सरकार से
सलाह करके राष्ट्रपति
आदेश द्वारा संविधान
के विभिन्न अनुच्छेदों
को जम्मू और
कश्मीर पर लागू
कर सकते हैं।
370(3) में प्रावधान था कि
370 को बदलने के लिए
जम्मू और कश्मीर
संविधान सभा की
सहमति चाहिए। राष्ट्रपति
के आदेश से
जम्मू-कश्मीर की
संविधान सभा भंग
कर दी गयी
है और उसके
अधिकार विधानसभा को दे
दिये हैं। चूंकि
इस समय विधानसभा
भी भंग हो
गयी और उसके
कार्य एवं दायित्वों
का निर्वहन संसद
कर रही है
इसलिये राज्य विधान सभा
वाला काम संसद
कर सकती है।
यही रास्ता मोदी
सरकार ने निकाला
है। लेकिन जब
जम्मू-कश्मीर विशेष
राज्य के दर्जे
के साथ ही
पूर्ण राज्य का
दर्जा भी खो
चुका होगा और
सीधे केन्द्र सरकार
के नियंत्रण में
जा चुका होगा
तो फिर उसके
अपने अलग संविधान
की भी प्रासंगिकता
कहां रह जाती
है?
अलग संविधान भी अखण्ड भारत का पक्षधर
जम्मू-कश्मीर का संविधान
अलग अवश्य है
मगर वह राज्य
का भारत संघ
में स्थाई विलय
का एक महत्वपूर्ण
दस्तावेज भी है,
जिसकी प्रस्तावना में
कहा गया है
कि, ‘‘हम जम्मू
एवं कश्मीर के
लोग 26 अक्टूबर 1947 को राज्य
के भारत संघ
में विलय के
अनुसरण में संघ
के साथ राज्य
के सम्बन्धों को
पुनः परिभाषित करते
हुये संकल्प लेते
हैं कि राज्य
भारत संघ का
अभिन्न अंग है
और बना रहेगा।’’ राज्य के संविधान
की इसी भावना
के बल पर
भारत विश्व बिरादरी
में जम्मू कश्मीर
पर अपना वैधानिक
अधिकार जताता रहा है।
देखा जाय तो
जम्मू एवं कश्मीर
की संविधान सभा
का यह दस्तावेज
ही भारत संघ
में विलय का
जनतम संग्रह है।
जूनागढ़ के मामले
में तो भारत
ने उस पर
कब्जा करने के
बाद वहां अपने
पक्ष में जनमत
संग्रह कराया था। सिक्किम
को भारत संघ
में मिलाने के
लिये जब 1947 में
वहां जनमत संग्रह
कराया गया तो
वह जनता द्वारा
अस्वीकार हो गया
था। इसलिये उस
समय सिक्कम को
छोड़ दिया गया।
उस राज्य को
16 मई 1975 को सिक्किम
को भारत संघ
में मिला दिया
गया। लेकिन जम्मू-कश्मीर के साथ
परिस्थिति भिन्न थी। पाकिस्तान
धर्म के नाम
पर इसे हड़पना
चाहता था और
भारत जनता के
धर्म के आधार
पर जूनागढ़ को
अपने कब्जे में
ले चुका था।
इसी प्रकार भोपाल
नवाब का प्रयास
भी इसी आधार
पर विफल किया
जा चुका था।
त्रिपुरा का अक्टूबर
1949 में भारत संघ
में विलय बिना
जनमत संग्रह के
हो गया। वह
राज्य 1956 तक पार्ट
सी राज्य बनने
के बाद 1956 में
केन्द्र शासित बना और
फिर सन् 1972 में
पूर्ण राज्य बन
गया।
विशेष संवैधानिक दर्जे का ह्रास जारी था
जम्मू-कश्मीर समस्या के
लिये कांग्रेस और
खास कर नेहरू
को जिम्मेदार बताने
वाली भाजपा और
विशेषकर उसके गृहमंत्री
अमित शाह ने
ने जम्मू-कश्मीर
पर एक के
बाद एक विधेयक
पेश करते हुये
अमित शाह को
कांग्रेस के विरोध
के आगे स्वीकार
करना पड़ा कि
कश्मीर के विशेषाधिकारों
को धीरे-धीरे
घटाने का रास्ता
धारा 370 के जरिये
कांग्रेस ने ही
उनको दिखाया था।
उस समय जम्मू-कश्मीर को विशेष
संवैधानिक दर्जा दिये जाने
के पीछे राजनीतिक
नेतृत्व की सोच
थी कि समय
के साथ सब
कुछ सामान्य हो
जायेगा या फिर
धीरे-धीरे राज्य
के अधिकारों को
अन्य राज्यों के
समकक्ष लाया जा
सकेगा। इसकी शुरुआत
1954 में ही हो
चुकी थी। वह
संशोधन 14 मई 1954 से लागू
हुआ था। राष्ट्रपति
द्वारा संविधान
के अनुच्छेद 370 के
खंड (1) द्वारा प्रदत्त शक्तियों
का प्रयोग करते
हुए, जम्मू-कश्मीर
राज्य की सरकार
की सहमति से
संविधान के अनुच्छेद-1
तथा अनुच्छेद 370 के
अतिरिक्त उसके 20 जून, 1964 को
यथा प्रवृत्त और
संविधान (उन्नीसवाँ संशोधन) अधिनियम,
1966, से लेकर संविधान
(इकसठवाँ संशोधन) अधिनियम, 1988 तक
कई संशोधन किये
गये। जम्मू और
कश्मीर के संविधान
में राज्य के
लिये अलग चुनाव
आयोग का प्रावधान
था लेकिन अब
वहां भी चुनाव
भारत निर्वाचन आयोग
की देख रेख में
होता है। सन्
1965 से पहले जम्मू-कश्मीर में प्रधानमंत्री
और सदर-ए-रियासत याने कि
राष्ट्रपति होता था।
संवैधानिक संशोधनों से पूर्व
वहां मेहर चन्द
(अक्टूबर 1947 से मार्च
1948) से लेकर गुलाम
मोहम्मद सादिक (19 फरबरी 1964 से
30 मार्च 1965) तक प्रधानमंत्री
पद रहा। इसी
प्रकार महाराजा हरिसिंह के
पुत्र कर्ण सिंह
1952 से लेकर 1965 तक रियासत
के सदर रहे।
तो क्या अब 371 की बारी?
अगर नरेन्द्र मोदी सरकार
सचमुच एक देश
एक कानून का
लक्ष्य लेकर आगे
बढ़ रही है
तो उसकी नजर
370 के बाद अब
371 पर भी पड़
सकती है। चूंकि
371 का सम्बन्ध किसी धर्म
विशेष से नहीं
है और यह
संवैधानिक प्रावधान ज्यादातर आदिवासियों
की संस्कृति, उनकी
जमीनों और प्रथागत
कानूनों से सम्बन्धित
है, इसलिये बहुत
संभव है कि
मोदी-शाह द्वय
की सरकार इस
धारा को नजरंदाज
करने का प्रयास
करे मगर विपक्ष
यह मुद्दा नहीं
छोड़ पायेगा। धरा
371-ए नागालैंण्ड के
लिये 1963 में लागू
की गयी थी
और उसके बाद
उत्तर पूर्व के
कई अन्य रजनजाति
बाहुल्य राज्यों में यह
लागू हो गयी।
इसी तरह संविधान
की अनुसूची 6 पर
भी सवाल उठ
सकते हैं।
अमित शाह की दावेदारी पक्की
कश्मीर को विशेषाधिकार
देने वालीे संविधान
के अनुच्छेद 370 के
पीछे तो भाजपा
आज से नहीं
बल्कि श्यामा प्रसाद
मुखर्जी के जमाने
से लगी हुयी
थी। हालांकि डा0
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने
कश्मीर को विशेष
रियायतें देने का
विरोध संविधान सभा
में नहीं किया
था। पहले तीन
तलाक बिल को
संसद में पास
कराना और फिर
तत्काल जम्मू कश्मीर के
बारे में अप्रत्याशित
निर्णय लेकर उन्हें
धरातल पर उतारना
अमित शाह के
अश्वमेघ यज्ञ का
अनवरत आगे बढ़ते
जाना ही है।
अमित शाह ने
पार्टी के दबारा
सत्ता में आने
के 6 महीनों अंदर
ही तीन तलाक
बिल और जम्मू-कश्मीर सम्बन्धी बिलों
को पास करा
दिया। मोदी सरकार
के वर्ग विशेष
पर लक्षित ये
निर्णय भविष्य में क्या
गुल खिलायेंग या
सर्वोच्च न्यायालय में ये
निर्णय कितने टिक पायेंगेे,
ये तो भविष्य
ही बतायेगा लेकिन इतना तो
तय है कि
अमित शाह ने
मोदी के उत्तराधिकारी
के रूप में
अपनी दावेदारी अवश्य
ही पक्की कर
डाली है।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेण्ड्स एन्कलव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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