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Wednesday, August 14, 2019

दुनियां बनी गांव और विश्व गांव लोगों की जेब में



ISRO 50th Anniversary: अनूठा है हिंदुस्तान की अंतरिक्ष यात्रा का इतिहास
  जयसिंह रावत Updated Tue, 13 Aug 2019 01:13 PM IST

हमारे वेद् एवं प्राचीन ग्रन्थ हमारे पूर्वजों के खगोलीय ज्ञान के प्रमाण हैं।
हमारे वेद् एवं प्राचीन ग्रन्थ हमारे पूर्वजों के खगोलीय ज्ञान के प्रमाण हैं। - फोटो : Amar Ujala Graphics
अंग्रेजी की कहावत ‘‘स्काइ इज लिमिट’’ का शाब्दिक अर्थ ‘‘भले ही आसमान ही सीमा’’ हो लेकिन इसका असली भावार्थ् है कि जिस तरह अपने आंचल में चांद तारों को समेटे हूं आकाश अनन्त है उसी तरह उन्नति की संभावनाएं भी अनन्त हैं और उसी तरह उन संभावनाओं को हासिल करने के उपक्रम भी खुले आसमान की तरह अनन्त हैं। 
जाहिर है जब अनन्त संभावनाओं की बात होती है तो स्वाभाविक रूप से नजर आसमान की और उठ जाती है। लेकिन संभावनाएं केवल आकाश तक नहीं ठहरतीं बल्कि उससे भी बाहर ब्रह्माण्ड और फिर उससे भी बाहर निकल कर उस अंतरिक्ष की ओर बढ़ने लगती है जिसमें जाने कितने करोड़ ब्रह्माण्ड और उन ब्रह्माण्डों के अन्दर जाने कितने सौर मण्डल होगे तथा सूरज जैसे अरबों तारों या नक्षत्रों वाली जाने कितनी हजारों या  लाखों आकाश गंगाएं होंगी।

यकीनन इंसान ने जैसे ही होश संभाला होगा या उसमें बुद्धि और विवेक का विकास होने लगा होगा तब से उसकी नजर आसमान पर टिकी हुई है और तभी से उसके मन में अपने ऊपर दिखाई देने वाले नीले शून्य के रहस्यों के बारे में जिज्ञासाएं पनपती रही होंगी।

हमारे ज्ञान का प्रतीक है हमारे ग्रंथ
हमारे वेद् एवं प्राचीन ग्रन्थ हमारे पूर्वजों के खगोलीय ज्ञान के प्रमाण हैं। हमारे देश ने चांद तारों पर पहुंचने के लिए रूस एवं अमेरिका जैसे देशों की तुलना में भले ही कुछ विलम्ब से छलांग लगाई हो मगर हमारे वैज्ञानिकों ने आर्यभट्ट जैसे खगोलविदों और गणितज्ञों के पद्चिन्हों पर चलते हुए ‘‘स्पेस की रेस’’ (अन्तरिक्ष की दौड़ या उड़ान) में स्वयं को बराबरी पर लाकर खड़ा कर दिया है। आज हम भी चांद पर पहुंच गए हैं और अन्तरिक्ष के रहस्यों को सुलझाने तथा मानव कल्याण के लिए अंतरिक्ष की संभावनाओं को समेटने के लिए गंगनयान की तैयारी में जुट गए हैं। मिशन शक्ति के तहत हम अंतरिक्ष में किसी उपग्रह को मार गिराने में सक्षम होकर अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथा देश बन गए।

अंतरिक्ष में छलांग के लिए इसरो का गठन
यद्यपि भारत के अंतरिक्ष के क्षेत्र में छलांग लगाने से पहले ही सोवियत संघ का यूरी गगारिन 1961 में अंतरिक्ष की सैर कर चुका था और अमेरिका अपने नील आर्म  को चांद पर भेजने की तैयारी कर चुका था। लेकिन नए-नए स्वतंत्र हुए भारत को भी अंतरिक्ष की उपयोगिता समझने में देरी नहीं लगी और डॉ. विक्रम साराभाई ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का वरदहस्त पाकर 60 के दशक में अंतरिक्ष अनुसंधान की गतिविधियां शुरू कर दीं। उस समय अमेरिका में भी उपग्रहों का प्रयोग करने वाले अनुप्रयोग परीक्षणात्मक चरणों में थे। अमेरिकी उपग्रहसिनकाम-3’ द्वारा प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में टोकियो ओलंपिक खेलों के सीधे प्रसारण ने संचार उपग्रहों की सक्षमता को प्रदर्शित किया तो अन्तरिक्ष अनुसंधान की महती आवश्यकता को समझते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अहमदाबाद स्थित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला (पी.आर.एल.) के निदेशक के रूप में कार्यरत डॉ. विक्रम साराभाई के नेतृत्व में वर्ष 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की स्थापना कर दी।

भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान के जनक डॉसाराभाई के नेतृत्व में इसरों ने अपनी स्थापना के बाद भारत के लिए कई कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक चलाने के साथ ही अंतरिक्ष के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अनुसंधानों को सफल बनाया। इसरो ने अब तक कई अंतरिक्ष यान मिशन, लॉन्च मिशन सम्पन्न करने के साथ ही चंद्रयान 1 को चांद पर उतारने के बाद चन्द्रयान- 2 और आदित्य (अंतरिक्ष यान) सहित कई मिशनों की योजना बनाई। संगठन ने केवल भारत की प्रगति के लिए बल्कि भारत को विश्व के समक्ष अन्तरिक्ष शक्ति के रूप में स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत ने 28 विभिन्न देशों के लिए 209 उपग्रह लॉन्च किए हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की वाणिज्यिक शाखा एंट्रिक्स के माध्यम से बाहरी देशों के लिए वाणिज्यिक लॉन्च पर बातचीत की जाती है। सभी उपग्रहों को इसरो के ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण वाहन (पीएसएलवी) खर्च करने योग्य प्रक्षेपण प्रणाली का उपयोग करके लॉन्च किया गया।

दुनियां बनी गांव और विश्व गांव लोगों की जेब में
अंतरिक्ष कार्यक्रम के आरंभिक काल में भारत ने अपनी आवश्यकता के लिए इसका उपयोग आरंभ किया। इसरो ने देश में दूरसंचार, प्रसारण और ब्रॉडबैंड अवसंरचना के क्षेत्र में विकास के लिए उपग्रह संचार के माध्यम से कार्यक्रमों का संचालन किया। हम पहले अखबारों के अलावा देश-दुनिया का हाल रेडियो से जानते थे। लेकिन जब टेलिविजन युग आया तो हम समाचारों को सुनने के साथ ही घटनाक्रम को सजीव देखने भी लगे।
पहले देश-विदेश की सजीव जानकारी केवल दूरदर्शन देता था, लेकिन अब हजारों की संख्या में टीवी चैनल समाचार और मनोरंजन की सामग्री चौबीसों घण्टे परोस रहे हैं। अब हम दुनिया के किसी भी कोने में हो रहे घटनाक्रम का आंखों देखा हाल प्रत्यक्ष देख रहे हैं। पहले एक शहर से दूसरे शहर बात करने के लिए भी एसटीडी काल्स के लिए तार घरों या टेलीफोन केन्द्रों में लाइनों में खड़ा होना पड़ता था। लेकिन आज हम जेब में मोबाइल लेकर दुनिया के किसी भी कोने में किसी से बात करने के साथ ही आमने-सामने सजीव चैटिंग या वीडियो चैटिंग कर लेते हैं।

आज एक सूचना सेकेण्डों के अन्दर दुनिया के किसी भी कोने में पहुंचाई जा रही है। दुनिया अगर गांव बन गई है या सारी दुनिया आपकी जेब में है तो हम भारतवासी इसके लिए इसरो का ही आभार प्रकट कर सकते हैं।
आज जमाना ऐसा गया है कि आप घर बैठे अपने दफ्तर का काम कर सकते हैं। आज कार्यस्थल कहीं और तथा कार्य कहीं दूसरी जगह से हो जाता है। मानव विकास के लिए समय की बचत एवं उसका सदुपयोग बहुत जरूरी है और इसे हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम ने सफल बनाया है। अमेरिका की तरह हम भी उपग्रह के माध्यम से दुनिया पर नजर रख रहे हैं। भारत में इसरो की एक और महत्त्वपूर्ण भूमिका भू-पर्यवेक्षण के क्षेत्र में रही है। भारत में मौसम पूर्वानुमान, आपदा प्रबंधन, संसाधनों की मैपिंग करना तथा भू-पर्यवेक्षण के माध्यम से नियोजन करना आदि के लिए भू-पर्यवेक्षण तकनीक की आवश्यकता होती है। मौसम की सटीक जानकारी के द्वारा कृषि और जल प्रबंधन तथा आपदा के समय वक्त रहते बचाव कार्य इसी तकनीक के द्वारा संभव हो सका। भारत में वन सर्वेक्षण रिपोर्ट भी इसी तकनीक द्वारा तैयार होती है।

अंतरिक्ष में इसरो की एक के बाद एक कई छलांगें
शुरुआत में इसरो द्वारा तीन विशिष्ट खंड जैसे संचार तथा सुदूर संवेदन के लिए उपग्रह, अंतरिक्ष परिवहन प्रणाली तथा अनुप्रयोग कार्यक्रमों को शामिल किया गया। इन कार्यक्रमों के संचालन के लिए डॉ. साराभाई तथा डॉ. रामनाथन के नेतृत्व में इन्कोस्पार (भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति) की शुरुआत हुई।
पहले सन् 1967 में अहमदाबाद स्थित परीक्षणात्मक उपग्रह संचार भू-स्टेशन (.एस..एस.) का प्रचालन किया गया, जिसने भारतीय तथा अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों और अभियंताओं के लिए प्रशिक्षण केन्द्र के रूप में भी कार्य किया। प्रारम्भ में अपने कार्यक्रमों के लिए इसरो द्वारा विदेशी उपग्रहों का प्रयोग किया गया।

इसरो द्वारा एक पूर्ण विकसित उपग्रह प्रणाली के परीक्षण से पहले, राष्ट्रीय विकास के लिए दूरदर्शन माध्यम की क्षमता को बढ़ाने के लिए कुछ नियंत्रित परीक्षण किए गए। तत्पश्चात् किसानों के लिए कृषि संबंधी सूचना देने हेतु टी.वी. कार्यक्रमकृषि दर्शनकी शुरुआत की गई। इसरो का अगला ठोस कदम उपग्रह अनुदेशात्मक टेलीविजन परीक्षण (साइट) था, जो वर्ष 1975-76 के दौरानविश्व में सबसे बड़े समाजशास्त्रीय परीक्षणके रूप में सामने आया। साइट के बाद, वर्ष 1977-79 के दौरान फ्रेंको-जर्मन सिमफोनी उपग्रह का प्रयोग करते हुए इसरो तथा डाक एवं तार विभाग की एक संयुक्त परियोजना उपग्रह दूरसंचार परीक्षण परियोजना (स्टेप) की शुरुआत की गई। दूरदर्शन पर केन्द्रित साइट के क्रम में परिकल्पित स्टेप दूरसंचार परीक्षणों के लिए बनाया गया था। इसी दौरानखेड़ा संचार परियोजना (के.सी.पी.)’ की शुरूआत हुई। 
अंतरिक्ष कार्यक्रम बेहद जटिल होने के साथ ही उतना ही खर्चीला भी होता है
अंतरिक्ष कार्यक्रम बेहद जटिल होने के साथ ही उतना ही खर्चीला भी होता है - फोटो : self
आर्यभट्ट का प्रक्षेपण
इस अवधि में इसरो द्वारा भारत का प्रथम अंतरिक्षयानआर्यभट्टका विकास किया गया तथा सोवियत राकेट का प्रयोग करते हुए इसका प्रक्षेपण किया गया। कार्यक्रम की दूसरी प्रमुख उपलब्धि निम्न भू कक्षा (एल...) में 40 कि.ग्रा. को स्थापित करने की क्षमता वाले प्रथम प्रक्षेपण राकेट एस.एल.वी.-3 का विकास करने की थी। इसने पहली सफल उड़ान 1980 में भरी थी। सन् 80 के दशक के परीक्षणात्मक चरण में सुदूर संवेदन के क्षेत्र में भास्कर-प्रथम एवं द्वितीय ठोस कदम थे जबकि भावी संचार उपग्रह प्रणाली के लिएऐरियन यात्री नीत भार परीक्षण (ऐप्पल) अग्रदूत बना।
नब्बे के दशक के प्रचालनात्मक दौर में दो व्यापक श्रेणियों के अंतर्गत प्रमुख अंतरिक्ष अवसंरचना का निर्माण किया गया। एक का प्रयोग बहु-उद्देश्यीय भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली (इन्सैट) के माध्यम से संचार, प्रसारण तथा मौसमविज्ञान के लिए किया गया, तथा दूसरे का भारतीय सुदूर संवेदन उपग्रह (आई.आर.एस.) प्रणाली के लिए। ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण राकेट (पी.एस.एल.वी.) तथा भूतुल्यकाली उपग्रह प्रक्षेपण राकेट (जी.एस.एल.वी.) का विकास तथा प्रचालन इस चरण की विशिष्ट उपलब्धियां थीं।

अमेरिका को सहन नहीं था भारत का अंतरिक्ष में जाना
अंतरिक्ष कार्यक्रम बेहद जटिल होने के साथ ही उतना ही खर्चीला भी होता है जो कि भारत जैसे विकासशील देश के लिये आसान नहीं होता। इसके बावजूद भारत का कार्यक्रम रुका नहीं। इसरो के सामने अमेरिका जैसे विकसित एवं बेहद प्रभावशाली देश की ईष्या भी एक चुनौती रही। लेकिन इसरो ने हर चुनौती का सफलता पूर्वक सामना किया। बिना इंजन के सड़क पर स्कूटर तक नहीं चलता तो फिर आसमान में बिना इंजन के राकेट दागने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। रूस से वायदा खिलाफी होने पर इसरो ने स्वयं अपना क्रायाजेनिक इंजन बनाकर इस चुनौती का भी सफलता पूर्वक मुकाबला किया। आपको याद होगा कि 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में अमेरिका ने रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति बोरिस येल्तिसिन पर दबाव डालकर भारत को क्रायोजेनिक इंजन प्रोद्योगिकी के हस्तान्तरण के लिए हुए समझौते से पीछे हटने के लिए दबाव डाला तो येल्तिसिन अमेरिकी दबाव के आगे घुटने टेककर समझौते से मुकर गए।

रूस ने भी मुंह फेरा, समझौते से मुकरा
दरअसलक्रायोजेनिक इंजन प्रोद्योगिकी के हस्तान्तरण के लिए 18 जनवरी 1991 को सोवियत् संघ के साथ भारत का समझौत तब हुआ था जबकि वहां मिखाइल गोर्बाच्योब राष्ट्रपति एवं कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे। उसके बाद 25 दिसम्बर 1991 को जब सोवियत् संघ बिखर गया तो बोरिस येल्तिसिन ने गोर्बाच्योब की जगह रूस के राष्ट्रपति के रूप में सत्ता संभाली।
सोवियत संघ के विघटन एवं के विस्तारवादी साम्यवादी अजेय दुर्ग के ढहने में अमेरिका की भूमिका होनी स्वाभाविक ही थी और येल्तिसिन को गोर्बाच्योब की जगह सत्ता संभालने में भी अमेरिकी सहयोग जग जाहिर थाइसलिए बोरिस येल्तिसिन क्रायोजेनिक प्रोद्योगिकी के हस्तान्तरण के मामले में अमेरिका के विरोध का सामना कर सके और रूस की अंतरिक्ष ऐजेंसी ग्लावकोसमोस, भारत की ऐजेंसी इसरो को प्रोद्योगिकी देने से मुकर गई। लेकिन इसरो ने इस चुनौती को बहादुरी के साथ स्वीकार कर अपना क्रायोजेनिक इंजन बना डाला। आज भारत अंतरिक्ष प्रोद्योगिकी के क्षेत्र में उन्हीं देशों की श्रेणी में खड़ा है जो कि इसरो के मार्ग में रोड़े अटका रहे थे। भारत आज अमेरिका, रूस, फ्रांस, जापान और चीन के साथ अंतरिक्ष क्लब का छटा सदस्य है जो कि अन्तरिक्ष में अन्य देशों की मदद भी कर रहा है।

भारत बना अंतरिक्ष महाशक्ति
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. .पी.जे अब्दुल कलाम, जिन्हें मिसाइल मैन के नाम से भी याद किया जाता है, का कहना था कि अब दुनिया में जमीन पर लड़े जाने वाले परम्परागत् तरीके के युद्ध नहीं होंगे। वे युद्ध धरती के अलावा जल एवं आकाश या अन्तरिक्ष में भी हो सकते हैं। वे साइबर युद्ध की तरह अदृष्य भी हो सकते हैंइसलिए भारत को उन परिस्थितियों से निपटने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। हमारे वैज्ञानिकों ने डॉ. कलाम की उस नसीहत को शिरोधार्य करते हुए उस चुनौती का मुकाबला करने की क्षमता भी ‘‘मिशन शक्ति’’ के जरिए हासिल कर ली।

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मार्च् 2019 भारत ने लियो अर्थ ओरबिट में तीन सौ किलोमीटर दूर, एक लाइव सैटेलाइट को मार गिराकर अन्तरिक्ष में किसी उपग्रह को मार गिराने की क्षमता हासिल कर अमेरिका, रूस और चीन के साथ चैथे देश के रूप में अपनी जगह बना ली। इस परीक्षण के बाद अब भारत के खिलाफ अंतरिक्ष के जरिए भी कोई देश जासूसी नहीं कर सकता है। दरअसल, वर्ष 2007 में चीन ने जब अपने एक खराब पड़े मौसम उपग्रह को मार गिराया था तो उसी समय से भारत की चिंता बढ़ गई थी। उस समय इसरो और डीआरडीओ ने संयुक्त रूप से ऐसी एक मिसाइल को विकसित करने की दिशा में अपने प्रयास तेज कर दिए थे। अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों और जिम्मेदार देश होने के कारण भारत ने पहले इस क्षमता को हासिल होने के बारे में कोई पुष्टि नहीं की थी। लेकिन अन्तरिक्ष में चीन की बढ़ती गतिविधियों को देखकर तथा जासूसी के खतरे को भांप कर भारत कोशक्ति मिशनको सफल बनाना पड़ा। अब भारत ऐसा देश बन गया है जो अंतरिक्ष में किसी भी सैटेलाइट को मारकर गिरा सकता है। 
इंसान का एक कदम मानवता के लिये विशाल छलांग - फोटो : फाइल फोटो
राकेट के आविष्कारक को पुलिस की प्रताड़ना सहनी पड़ी
अमेरिका के भौतिक विज्ञानी गोड्डार्ड ने जब 1926 में आसमान में राकेट दागने के अपने परीक्षण शुरू किए तो उन्हें लोगों ने सिरफिरा ही नहीं माना बल्कि पुलिस से प्रताड़ित तक करा डाला। लेकिन आर्थिक तंगी, पड़ोसियों और किसानों के विरोध तथा पुलिस की प्रताड़ना के बावजूद गोड्डार्ड ने अपने परीक्षण जारी रखे और एक दिन वह आवाज से तेज गति से चलने वाले द्रव्य ऊर्जा चालित राकेट का परीक्षण करने में सफल होने के साथ ही भविष्य के वैज्ञानिकों को अन्तरिक्ष का रास्ता दिखा ही गया। दरअसल, गोड्डार्ड ने सबसे पहले मार्च 1926 में मैसाचुसैट के औबर्न में अपनी आण्टी इफी के फॉर्म से अपने पहले राकेट का परीक्षण किया था। उसका पहला राकेट 1.2 मीटर लम्बा या ऊंचा था जिसे एक ट्रक पर लादकर फॉर्म में एक लैम्प के जरिये ईंधन सुलगा कर दागा गया था। उसके बाद उसने पिछले राकेट से काफी बड़ा राकेट तैयार किया जिस पर बैरोमीटर, कैमरा और थर्मामीटर भी फिट किए गए थे। इस राकेट को दागने में इतना शोर हुआ कि पड़ोसी गोड्डार्ड की शिकायत करने पुलिस स्टेशन चले गए। शुरू में गोड्डार्ड और उसके साथियों को कहीं से काई मदद मिलने से उनकी आर्थिक हालत बिगड़ती गई। ऊपर से पुलिस के हस्तक्षेप से उन्हें बार-बार प्रताड़ित होना पड़ता था। कभी-कभी पुलिस तो कभी नाराज किसान उसके राकेट के माडलों को छीनकर ले जाते थे। किसान इसलिए परेशान थे क्योंकि वे राकेट उन्हीं के खेतों में आकर गिरते थे। जब अमेरिका को जलन हो रही थी और रूस ने की थी वादा खिलाफी

इन संकटों के बीच गोड्डार्ड को डेविड गग्जेहीम नाम के एक अमीर दानदाता से 50 हजार डॉलर की आर्थिक मदद मिल गई। इस आर्थिक सहायता से गोड्डार्ड ने न्यू मेक्सिको रेगिस्तान में एक राकेट स्टेशन की स्थापना कर ली। वहां गोड्डार्ड के नेतृत्व में उसके साथियों ने एक बड़े रोकट का निर्माण किया जो कि दागने पर आसमान में 2.5 किमी तक 800 किमी प्रति घण्टा की रफ्तार से गया। वर्ष 1935 में गोड्डार्ड विश्व का पहला वैज्ञानिक बना जिसका लिक्विड प्रोपेल्ड राकेट समुद्र की सतह से हवा में 1200 किमी प्रति घण्टा की गति से गया। यह गति पहली बार आवाज से तेज थी। उसने इस तरह 200 राकेट के नूमूने निकाले जिनमें से एक मल्टी स्टेज राकेट भी था। यही आज के तीन स्तरीय बूस्टर राकेटों का भी आधार बना।

इंसान का एक कदम मानवता के लिये विशाल छलांग
अपोलो मिशन-11 के कमाण्डर नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने सबसे पहले 21 जुलाई 1969 को चांद पर कदम रखा था। लेकिन जुबान फिसलने से उसके ऐतिहासिक बयान का एक शब्द ही इतिहास की किताबों में गलत दर्ज हो गया। नील आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था कि ‘‘एक आदमी का एक छोटा सा कदम मानवजाति के लिए एक विशाल छलांग होगी। दरअसलउसका मंतव्य एक खास आदमी से नहीं था। उसका अभिप्राय था कि आदमी का एक छोटा सा कदम मानवता के लिए विशाल छलांग है या हो सकती है।

यूरी गगारिन पहले अंतरिक्ष यात्री
रूसी क्रांति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा रूस की सत्ता हासिल करने की 40वीं वर्षगांठ के अवसर पर रूस ने पृथ्वी की परिक्रमा के लिए पहला अंतरिक्ष यान 4 अक्टूबर 1957 को प्रक्षेपित किया था। इस यान का नाम स्पुतनिक-1 था जिसका वजन मात्र 84 किलोग्राम था तथा वह मल्टी स्टेज राकेट से प्रक्षेपित किया गया था।
पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले इस अंतरिक्ष यान ने 28,000 किमी प्रति घण्टा की रफ्तार से अपनी यात्रा की, जो कि तब तक की किसी भी अंतरिक्ष यान की सबसे तेज गति थी। इस यान ने एक रेडियो ध्वनि विस्तारित की जो कि सारे विश्व में सुनी या पकड़ी गई। स्पुतनिक-1 के बाद 12 अप्रैल 1961 को सोवियत संघ के यूरी गगारिन ने अपने कैपसूल यान वोस्टोक-1 से अन्तरिक्ष की यात्रा की। वह अंतरिक्ष में जाने वाले प्रथम मानव थे। अन्तरिक्ष की यात्रा करने के बाद गागरिन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित व्यक्ति बन चुके थे और उन्हें कई तरह के पदक और खिताबों से सम्मानित किया गया था।

धरती पर चांद के अति कीमती पत्थर
सन् 1969 से लेकर 1972 तक के अपोलो अभियानों में अमेरिका के कुल 12 अन्तरिक्ष यात्री चांद पर उतरे जो कि चांद से 382 किलोग्राम चट्टान या पत्थर और मिट्टी लेकर आए। इन अभियानों पर अमेरिका के कुल 40,000 मिलियन डॉलर खर्च हुए। इस प्रकार देखा जाए तो चाॅद से लाई गई सामग्री या मिट्टी-पत्थर की कीमत प्रति ग्राम 1 लाख डॉलर की पड़ी। ये पत्थर अपने वजन के सोने से हजारों गुना महंगे साबित हुए। इसके बदले में अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्री चांद पर 6 लूनर लैंडर, 3 लूनर रोवर वाहन और वैज्ञानिक उपकरणों का कम से कम 50 टन कबाड़ छोड़ गए। इनमें खाली डब्बे और अन्य कबाड़ भी शामिल था। संभवतः यह इतिहास में अंतरिक्ष में सबसे अधिक कबाड़ था।
 
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।


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