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Saturday, July 6, 2019

केन्द्रीय बजट :उत्तराखण्डियों के अपार समर्थन का भी मान नहीं रखा


केन्द्रीय बजट 2019: बरसात में भी उत्तराखण्ड-हिमाचल रह गये सूखे
भाजपा को अपार जन समर्थन का भी लिहाज नहीं किया
-जयसिंह रावत
Author and Journalist Jay Singh Rawat
देश की पहली पूर्णकालिक महिला वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का पहला बजट और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दूसरे कार्यकाल के पहले बजट का गांव, गरीब और किसान पर केन्द्रित होने का मतलब बजट का सम्पूर्ण भारत की आशाओं और अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुये तैयार किया जाना ही है। क्योंकि भारत सचमुच गावों का देश होने के साथ ही कृषि प्रधान देश है जिसकी 29.5 प्रतिशत आबादी गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहती है, (रंगराजन कमेटी) इसलिये उत्तराखण्ड हो या हिमाचल प्रदेश जैसा कोई भी अन्य हिमालयी राज्य भी मोदी सरकार के विकास के लक्ष्य से आच्छाादित माना जायेगा। लेकिन आप अगर इन हिमालयी राज्यों और खास कर उत्तराखण्ड या हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्यों की विशेष सामाजिक, आर्थिक, सामरिक और भौगोलिक परिस्थितियों की कसौटी पर इस बजट को परखें तो कम से कम हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड इस बजट में बिल्कुल खाली हाथ नजर आते हैं। जबकि इन दोनों पहाड़ी राज्यों ने प्रधानमंत्री मोदी से ऐसी अभूतपूर्व अपेक्षाऐं की थीं जिनका अनुमान गत लोकसभा चुनावों के नतीजों से लगाया जा सकता है।
उत्तराखण्डियों के अपार समर्थन का भी मान नहीं रखा
गत लोकसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो सभी हिमालयी राज्यों में सत्ताधारी भाजपा सर्वाधिक 69.1 प्रतिशत मत हिमाचल प्रदेश में तथा 61.01 प्रतिशत मत उत्तराखण्ड में मिले थे, जबकि इन राज्यों में कांग्रेस 27.3 एवं 31.4 प्रतिशत मतों पर ही सिमट गयी थी। उत्तराखण्ड में तो सबसे कम 2,32,986 मतों से जीतने वाले अल्मोड़ा के भाजपा प्रत्याशी अजय टमटा तथा सबसे अधिक 3,39,096 मतों के भारी मतों के अन्तर से जीतने वाले अजय भट्ट थे जिन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर कांग्रेस के महासचिव एवं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को भारी अन्तर से हराया था। भाजपा और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इन दो पहाड़ी राज्यों से जो अपार जनसमर्थन मिला उसके बदले में इनको केन्द्र सरकार के वर्ष 2019-20 के वार्षिक बजट में अलग से कुछ भी नहीं मिला। अन्य हिमालयी राज्यों में भी भाजपा को सर्वाधिक 58.2 प्रतिशत मत अरुणाचल से ही मिल पाये जबकि नागालैण्ड में भाजपा खाता तक नहीं खोल पायी थी और मेघालय तथा मीजोरम में तो भाजपा को 10 प्रतिशत से कम मत मिले थे। फिर भी उत्तर पूर्व के लिये विशेष प्रावधानों तथा उन राज्यों को मिली उत्तर पूर्व परिषद (एनईसी) तथा उत्तर पूर्व मंत्रालय (डोनर मंत्रालय) की छत्रछाया के चलते केन्द्रीय बजट ने खूब धनवर्षा की है। इसी तरह जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के चलते सदैव की तरह इस बार भी उसका पूरा ध्यान रखा गया है। इस तरह देखा जाय तो पूर्व की भांति केवल  हिमालयी राज्य हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड केन्द्र सरकार के बजट से होने वाली धन वर्षा में भी सूखे रह गये।
उत्तराखण्ड के साथ उत्तर पूर्वी राज्यों जैसा बर्ताव क्यों नहीं ?
वन और वन्यजीव संरक्षण संबंधी कठोर कानून उत्तर पूर्व के राज्यों पर भी अवश्य ही लागू हैं, मगर अनुसूची 6 के जनजातीय बाहुल्य राज्य होने के कारण वहां इन कानूनों में उतनी सख्ती नहीं है। विशिष्ट परिस्थितियों के चलते उत्तर पूर्व और जम्मू कश्मीर में तो पंचायती राज की नयी व्यवस्था के तहत संविधान का 73वां और 74वां संशोधन भी लागू नहीं है। सत्तर के दशक के ‘‘लुक नॉर्थ ईस्ट’’ की विकास की डाक्ट्रिन के चलते वहां 1971 में  ‘‘नार्थ ईस्ट काउंसिल’’नाम की नोडल ऐजेंसी स्थापित की गयी। वर्ष 1996 में भारत सरकार द्वारा उत्तर पूर्व के आठ राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा से सम्बद्धता, जनजातीय बाहुल्य और कुछ हिस्सों में पृथकतवादी गतिविधियों को ध्यान में रखते हुये इन राज्यों को देश के विकास की मुख्य धारा में लाने के लिये कुछ अतिरिक्त प्रयास किये गये जिनमें केन्द्रीय मंत्रालयों और विभागों के प्लान बजट मद (योजनागत व्यय का) का 10 प्रतिशत हिस्सा उत्तर पूर्व के आठ राज्यों के लिये निर्धारित किया गया जो कि नार्थ ईस्ट काउंसिल या उत्तर पूर्व परिषद के माध्यम से उत्तर पूर्व के राज्यों को जाना निश्चित है। उत्तर पूर्व के 8 राज्यों के लिये सीतारामन के 2019-20 के बजट में भी 50,169 करोड़ 39 लाख रुपये की व्यवस्था की गयी है, जबकि 2018-19 के बजट में उत्तर पूर्व के लिये 39,201 करोड़ की व्यवस्था थी। हिमालयी राज्यों में उत्तर पूर्व के राज्य इस विशेष प्रवाधान के तहत तो जम्मू-कश्मीर धरा 370 और 35 जैसे विशिष्ट संवैधानिक प्रावधानों के तहत विशेषाधिकार प्राप्त राज्य है। इन विशिष्ट प्रावधानों से केवल हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड ही छूट जाते हैं।
ग्रीन बोनस के लिये चिल्लाते रह गये उत्तराखण्ड-हिमाचल
इस केन्द्रीय बजट में हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश की विशिष्ट सामाजिक, भौगोलिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियों के आलोक में कोई भी विशिष्ट प्रावधान नहीं हो सका। जबकि ये पहाड़ी राज्य काफी लम्बे अर्से से पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अपने उल्लेखनीय योगदान के बदले ग्रीन बोनस की मांग करते रहे हैं। इस बार उम्मीद थी कि मोदी सरकार जरूर इस मांग पर विचार करेगी। हिमालयी राज्य ही क्यों दुनियां के चुनींदा मेगा बायोडाइवर्सिटी देशों में से एक होने के नाते भारत भी विकसित देशों से पर्यावरणीय सेवाओं के लिये क्षतिपूर्ति की मांग करता रहा है। ब्राजील के ऐतिहासिक शहर रियो डी जिनेरियो में सन् 1992 के पृथ्वी सम्मेलन में भारत की ओर से जब तत्कालीन वन एवं पर्यावरण मंत्री कमलनाथ ने ग्रीन हाउस क्षरण समेत धरती के पर्यावरण को हुयी क्षति के लिये विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराया था और इस क्षति के लिये विकासशील देशों को क्षतिपूर्ति देने की मांग उठायी थी तो उनकी आवाज को तीसरे विश्व या विकासशील देशों की प्रबल आवाज माना गया था। उनका कहना था कि वनों सहित प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक दोहन करके ही अमेरिका जैसे विकसित देश आज इतने समृद्धशाली हैं जबकि विकासशील देशों में अपने प्राकृतिक संसाधनों का विनाश करने के बजाय उनका संरक्षण कर धरती के पर्यावरण की रक्षा की है, इसलिये वे आज भी गरीब हैं। उसी के बाद भारत में भी पर्यावरणीय सेवाओं के लिये हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस देने की मांग उठने लगी। इस मांग को उत्तराखण्ड में सबसे पहले मुख्यमंत्री के तौर पर रमेश पोखरियालनिशंकने भारत सरकार के समक्ष उठाया था। उसके बाद तो कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही दलों के मुख्यमंत्री केन्द्र से यह मांग उठाते रहे हैं। मौजूदा मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत तो योजना आयोग और पन्द्रहवें वित्त आयोग के समक्ष यह मांग रख चुके हैं। जबकि अधिकारिक तौर पर मांग उठाने वाले रमेश पोखरियालनिशंकइस समय स्वयं भी केन्द्र सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री हैं और संसद में यह मांग निरन्तर उठती रही है।
वन कानूनों से विकास हैं विकास में बाधक
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, वन संरक्षण अधिनियम 1980, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 एवं राष्ट्रीय वन नीति 1988 जैसे कठोर वन कानूनों के कारण उत्तराखण्ड जैसे वन बाहुल्य राज्यों का विकास गति नहीं पकड़ पा रहा है। इन कानूनों के कारण सड़क, बिजली और पानी की योजनाओं के अलावा स्कूल भवनों का निर्माण तक अवरुद्ध हो रहा है। प्रदेश का 66 प्रतिशत से अधिक भूभाग वन विभाग के अन्तर्गत हैं जहां विकास सम्बन्धी गतिविधियों वर्जित हैं। इसके अलावा राजस्व विभाग के अन्तर्गत भी कुछ वन क्षेत्र हैं। इस प्रकार कुल मिला कर राज्य का 71 प्रतिशत हिस्सा वनों के अन्तर्गत आता है  जिसका मतलब है कि उत्तराखण्ड राज्य का अधिकांश हिस्सा वनों के अन्दर है जहां विकास गतिविधियां के आगे वन कानून वाधक बनकर खड़े हो जाते हैं। बाकी वनों से जुड़े हिस्से में भी नहरें, सड़क बिजली की जैसी लाइनों का निर्माण आसान नहीं है। गैरसैण के निकट भराड़ीसैण में विधानसभा भवन निर्माण से ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) लाल पीला हो गया और सरकार को जवाब देना भारी पड़ रहा है। जबकि वह भवन वनक्षेत्र में नहीं है। चारधाम यात्रा मार्ग के चौड़ीकरण पर ही एनजीटी ने भृकुटी तान ली थी। गढ़वाल और कुमाऊं मण्डलों को जोड़ने वाले पुराने चिल्लरखाल-रामनगर मार्ग के पुनर्निमाण के प्रयास विफल हो गये हैं। इसलिये एक मण्डल से दूसरे मण्डल में जाने के लिये प्रदेशवासियों को उत्तर प्रदेश से हो कर गुजरना होता है। राज्य की दो दर्जन से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण एनजीटी ने रोका हुआ है।
उत्तराखण्ड की 31 हजार करोड़ की इको सेवा भी गयी अकारथ
उत्तराखण्ड सरकार के वन विभाग की वेबसाइट में दी गयी जानकारी के अनुसार जुलाइ 2014 तक राज्य की 5,652 विकास परियोजनाओं की पर्यावरणीय क्लीयरेंस के लिये प्रस्ताव केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को गये थे। इन परियोजनाओं में विद्युत वितरण की लाइनों, पेयजल, सिंचाई, सड़क, जलविद्युत परियोजनाओं, स्कूल एवं अन्य भवन आदि शामिल हैं। इनमें से 465 प्रस्तावों से राज्य सरकार पीछे हटी तो उसने 103 प्रस्ताव स्वयं ही वापस ले लिये, 259 प्रस्ताव अस्वीकृत हुये, 161 राज्य के वन विभाग के पास लंबित रहे और 26 प्रस्ताव केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय में लंबित थे। इस मामले में हिमाचल प्रदेश भाग्यशाली रहा, क्यांेकि 2 जुलाइ 2015 तक विकास योजनाओं के उसके केवल 2 प्रस्ताव पर्यावरण क्लीयरेंस के लिये पेंडिंग थे। यही नहीं सड़क, पुल, नहर आदि के जो विकास कार्य पर्यावरण की बंदिशों से मुक्त हो भी जाते हैं उनका निर्माण पहाड़ की जटिल परिस्थितियों के कारण बेहद खर्चीला होता है। इसलिये भी राज्य सरकार और उसके नेता विभिन्न मंचों से पर्यावरणीय सेवाओं के लिये ग्रीन बोनस की मांग करते रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार उत्तराखण्ड प्रतिवर्ष लगभग 31 हजार करोड़ से अधिक की पर्यावरणीय सेवा देश को देता है जिसमें कार्बनडाइ ऑक्साइड जैसे गैसों को सोखने और ऑक्सीजन का उत्पादन शामिल है। हिमालय मौसम का नियंत्रक होने के साथ ही ऐशिया का जलस्तम्भ भी है जिसमें बर्फ के रूप में एक महासागर से अधिक पानी जमा है, जो कि गांगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र, झेलम, रावी और व्यास जैसे नदियों को जन्म देकर भारत और पाकिस्तान को जलापूर्ति करती हैं।
भूल गये मोदी जी पहाड़ की जवानी और पानी रोकने का वायदा
ग्रीन बोनस के अलावा उत्तराखण्ड सरकार को पहाड़ी क्षेत्रों से पलायन रोकने के लिये विशेष केन्द्रीय मदद की भी दरकार थी। चूंकि उत्तराखण्ड अन्य हिमालयी राज्यों की तरह अन्तराष्ट्रीय सीमाओं से जुड़ा हुआ है और यहां सीमान्त गावों का आबादी विहीन होना राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी संवेदनशील है। यहां हर साल बाड़ाहोती की तरफ से चीनी सेना भारतीय क्षेत्र में घुस आती है जिसकी जानकारी सीमान्त भोटिया जनजाति के भेड़पालक सेना और प्रशासन को देते हैं। इसी प्रकार नेपाल की ओर से माओवादियों की घुसपैठ की सूचनाएं भी शासन प्रशासन को मिलती रहती हैं। राज्य की प्रति व्यक्ति आय 1.77 लाख तक पहुंच गयी है जिसमें हरिद्वार जैसे मैदानी जिले में प्रति व्यक्ति आय 2.50 लाख तक पहुंच गयी जबकि रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, चमोली और चम्पावत-बागेश्वर जैसे जिलों में प्रति व्यक्ति आय 1 लाख रुपये के आसपास ही है। इस आर्थिक असन्तुलन को दूर करने के लिये भी केन्द्रीय मदद की जरूरत थी। इन्हीं सीमान्त क्षेत्रों की विशिष्ट परिस्थितियों को देखते हुये साठ के दशक में गढ़वाल और कुमाऊं मण्डल के अलावा तीन सीमान्त जिलों से एक तीसरे मण्डल का श्रृजन किया गया था जिसका नाम उत्तराखण्ड मण्डल था। ग्रामीण विकास विभाग के अनुसार प्रदेश के 6,19,718 परिवार गरीबी की सीमा रेखा से नीचे हैं जबकि खाद्य एवं आपूर्ति विभाग के अमानों के अनुसार उत्तराखण्ड में 19,68,773 परिवार बीपीएल हैं। इसी तरह ग्रामीण विकास विभाग के मानकों के हिसाब से हिमाचल प्रदेश के ढाइ लाख परिवार बीपीएल हैं तथा खाद्य और आपूर्ति विभाग के मानकों के अनुसार हिमाचल के 14,27,365 परिवार बीपीएल श्रेणी में हैं।
महाकुम्भ 2012 के लिये भी खाली हाथ
पलायन रोकने में मदद के अलावा उत्तराखण्ड को 2021 में हरिद्वार में होने वाले महाकुम्भ की तैयारियों के लिये भी अभी से केन्द्रीय मदद की जरूरत थी। महाकुम्भ के लिये अभी से व्यवस्थाऐं की जानीं हैं। इस मामले में भी केन्द्रीय बजट खामोश ही रहा। वर्ष 2021 में ही उत्तराखण्ड में राष्ट्रीय खेलों का आयोजन होना है और उसकी तैयारियों के लिये भी राज्य सरकार को केन्द्रीय मदद की उम्मीद थी।
रेलवे विस्तार को भी लगा झटका
रेलवे विस्तार के मामले में भी उत्तराखण्ड और हिमाचल को निराशा हाथ लगी। हिमाचल में 1903 में शिमला-कालका टॉय ट्रेन शुरू हुयी थी। वहां बिलासपुर-मनाली-लेह और पठानकोट से जोगिन्दरनगर जैसी रेल परियोजनाएं प्रस्तावित भी हैं। लेकिन उत्तराखण्ड में पिछले सौ सालों में रेलवे नेटवर्क का एक इंच भी विस्तार नहीं हुआ। नब्बे के दशक में देवगौड़ा सरकार द्वारा ऋषिकेश कर्णप्रयाग लाइन पर सर्वे शुरू कराया गया था जिसका 2011 में डा0 मनमोहन सिंह सरकार द्वारा गौचर में शिलान्यास कराया गया था। उसके अलावा राज्य में रेलवे विकास पर ध्यान ही नहीं दिया गया। अब गढ़वाल मण्डल में ऋषिकेश से आगे रेल लाइनें खिसकाने का काम तो शुरू हो गया मगर कुमाऊं मण्डल में काठगोदाम से आगे रेल लाइन बढ़ाये जाने का मामला भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। गत रेल बजट में रामनगर-चौखुटिया रेल मार्ग हेतु स्वीकृति प्रदान की गयी थी। टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन के निर्माण के संदर्भ में राष्ट्रीय परियोजनान्तर्गत स्वीकृति प्रदान की  गयी थी। किच्छा-खटीमा (57.7 किमी) रेल लाइन के लिए भूमि अधिग्रहण होना था। सहारनपुर -देहरादून मार्ग का सर्वेक्षण कार्य भी पूर्ण हो चुका है। इस नए मार्ग का निर्माण हरबर्टपुर (विकासनगर) होते हुए देहरादून होना है। वर्तमान में देहरादून जाने वाली समस्त गाड़ियों को सहारनपुर होते हुए गोलाकार घूमकर रूड़की लक्सर हरिद्वार होते हुए आना-जाना पड़ता है। ऋषिकेश-डोईवाला डाइरेक्ट लिंक एवं हल्द्वानी-चोरगलिया, हल्द्वानी रीठा साहेब, पीरान कलियर-रूड़की एवं हरिद्वार, देहरादून-पुरोला (यमुना किनारे-2), देहरादून-कालसी एवं टनकपुर-जौलजीवी नई रेल लाइनों के सर्वे की घोषणा पिछले एक रेल बजट में की गयी थी। इस बार इन प्रस्तावित परियोजनाओं पर बजट खामोश है।
-जयसिंह रावत
-फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com






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