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Thursday, July 18, 2019

जलवायु परिवर्तन का कहर कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा


जलवायु परिवर्तन का कहर कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा -जयसिंह रावत देेश की आर्थिक राजधानी मुम्बई अतिवृष्टि से डूब रही है और राजनीतिक राजधानी दिल्ली सूखी पड़ी है। जबकि बादलों के प्रदेश मेघालय में लोग पीने के पानी की समस्या से जूझ रहे हैं, जबकि उत्तराखण्ड जैसे हिमालयी राज्यों में महीनों बिना वर्षा के गुजर जाते हैं और जब आसमान का मिजाज बदलता है तो छप्पर फाड़ बारिश हो जाती है जिससे लाभ हो न हो मगर केदारनाथ की जैसी महाविनाशकारी आपदा जरूर आ जाती है। इन प्राकृतिक विपदाओं के लिये हम प्रकृति पर चाहे जितना भी दोष मढ़ लें मगर सच्चाई यह है कि हम प्रकृति के साथ जीना सीखने के बजाय प्रकृति को अपनी सहुलियत से अपनी मर्जी के हिसाब से चलाने का प्रयास कर रहे हैं। दिल्ली पर मौसम की मार भारत सरकार के मौसम विज्ञान विभाग द्वारा जारी 1 जून से 10 जुलाइ 2019 तक के वर्षा के आंकड़ों पर गौर करें तो इस दौरान देश के 35 राज्यों एवं केन्द्र शासित राज्यों में से केवल 6 में सामान्य या सामान्य से कुछ ज्यादा वर्षा हुयी है जिनमें से उत्तर पूर्व का सिक्किम और मध्य भारत का राजस्थान राज्य भी शामिल है। जबकि बादलों का घर माने जाने वाले मेघालय समेत सभी हिमालयी राज्यों में सूखे की जैसी स्थिति रही है। देश की राजधानी दिल्ली में तो हालत और भी खराब रही। मौसम विभाग के पैमाने के अनुसार उपरोक्त अवधि में दिल्ली में केवल 13.8 मिमी वर्षा हुयी जो कि सामान्य 114.2 मिमी वर्षा से बहुत ही कम है। गर्मियों में दिल्ली में बढ़ती गर्मी और तापमान को नियंत्रित करने वाली घटती वर्षा के कारण सारे देश से आकर वहां बसे दिल्ली वासियों के लिये दिल्ली प्रेम महंगा पड़ रहा है। ये हालत तो जुलाइ की है और अगस्त का महीना पिछले 5 साल से भी अधिक समय से दिल्ली के लिये सूखा जा रहा है। वर्ष 2014 से लेकर 2018 तक के अगस्त महीने के वर्षा के आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच सालों में अगस्त का महीना दिल्ली वासियों के लिये सूखा ही रहा है। वहां 2014 में 43 प्रतिशत कम, 2015 में 26 प्रतिशत कम, 2016 में 41 प्रतिशत कम, 2017 में 33 प्रतिशत कम और 2018 में 41 प्रतिशत वर्षा कम हुयी है। जुलाइ का महीना भी 2015 और 2017 को छोड़ कर दिल्ली के लिये अवर्षा का रहा है। धुएं में डूबी दिल्ली में घुटन और हिमालय पर लपटें जून के महीने आसमान भले ही दिल्लीवासियों को न भिगा पाया हो मगर उसी आसमान से बरसी आग ने लोगों को झुलसा कर पसीने से अवश्य ही तरबतर किया। देश की राजधानी पर जलवायु परिवर्तन एवं हिमालय पर जंगल की आग और हर साल पड़ोसी हरियाणा-पंजाब में पुराली जलाने से दिल्ली में आम आदमी के लिये जीवन कठिन होता जा रहा है। एक ओर भयंकर गर्मी के बढ़ते जाने और दूसरी ओर वर्षा के घटते जाने से स्थिति गंभीर हो गयी है। इस साल 10 जून को दिल्ली में तापमान 48 डिग्री सेल्सियस था जो कि अब तक का एक कीर्तिमान था। वर्ष 2014 में पालम के निकट सर्वाधिक 47.8 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। इससे पहले दिल्ली के आसपास के राज्यों में किसानों द्वारा पुराली जलाये जाने से दिल्ली उस धुएं में डूबी हुयी थी। जून के महीने हिमालयी राज्यों के जंगलों में लगी भयंकर आग के कारण उत्तर भारत को ठण्डा रखने वाला हिमालय स्वयं ही आग की लपटों से घिरा था। इस तरह भारी मात्रा में कार्बनडाइऑक्साइड और मिथेन जैसी गैसों के उत्सर्जन से दिल्ली ही नहीं बल्कि समूचे उत्तर भारत का पारितंत्र प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। इनके अलावा दिल्ली सहित प्रमुख नगरों में जिस तरह चौपहिया वाहनांे की संख्या बढ़ रही है उससे भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है। बादलों के घर में बादल सूखे आप यकीन करें या न करें मगर यह सत्य है कि मेघालय राज्य पेयजल की समस्या से जूझ रहा है। यह हाल जब मेघालय का होगा तो फिर राजस्थान जैसे मरु प्रदेश का क्या हाल होगा? देश की राजधानी के लिये पीने का पानी टिहरी बांध से भी जाता है। सन् 1972 में खासी हिल्स को काट कर जब मेघालय का श्रृजन हुआ तो उसका नामकरण ‘‘मेघालय’’ उसकी विशिष्टता के आधार पर होना ही था। विशिष्टता यह थी कि वह विश्व का सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र था। इसीलिये उसे मेघालय याने कि बादलों का घर नाम दिया गया। जिस पर्वत श्रंृखला की गोद में यह राज्य बसा हुआ है उसका नामकरण ‘‘हिमालय’’ याने कि बर्फ का घर भी इसीलिये हुआ था। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण वह बादलों का घर अब सूखता जा रहा है। समाचार रिपोर्ट यहां तक आ रही हैं कि वहां पीने का पानी ट्रकों से ढोया जाने लगा है और इन प्रकृति पुत्रों को पानी भी खरीद कर पीना पड़ रहा है। चेरापूंजी की पूंजी भी घट रही है चेरापूंजी को स्थानीय लोग या स्थानीय भाषा में सोहरा के नाम से भी जाना जाता है। सन् 1861 में जब वहां 22,987 मिमी वार्षिक वर्षा रिकार्ड की गयी तो उसे धरती का सबसे गीला या वर्षा वाला क्षेत्र घोषित किया गया। वर्ष 1974 में मेघालय में ं 24,555 मिमी वर्षा रिकार्ड की गयी थी। वर्ष 1960-61 में वहां 26,470 मिमी औसत वार्षिक वर्षा रिकार्ड की गयी थी। लेकिन जैसे इस रिकार्ड पर किसी की नजर लग गयी हो और वहां वर्षा का वार्षिक औसत सिमट कर 11,777 मिमी तक आ गया। यही नहीं आज हालात इतने बदल गये कि चेरापूंजी में औसत वार्षिक वर्षा घट कर 9 हजार मिमी तक आ गयी है। चेरापूंजी से मात्र 16 किमी दूर मावसिनराम औसत वर्ष के मामले में चेरापूंजी का प्रतिद्वन्दी माना जाता है। वहां 1985 में लगभग 26,000 मिमी वार्षिक वर्षा रिकार्ड की गयी थी। अब मावसिनराम पर भी प्रतिकूल मौसम का असरपड़ रहा है। उत्तर पूर्व के राज्यों में मेघालय से अधिक मणिपुर की स्थिति खराब नजर आती है। इस साल 1 जून से 10 जुलाइ के बीच जहां असम और मेघालय में सामान्य से 15 प्रतिशत कम वर्ष हुयी वहीं मणिपुर में वर्ष की कमी 60 प्रतिशत दर्ज हुयी। 4 जुलाइ से 10 जुलाइ के बीच भी मणिपुर में सामान्य से 37 प्रतिशत वर्षा कम दर्ज हुयी। एशिया के मौसम नियंत्रक हिमालय पर मौसम की मार हिमालय एशिया के जलस्तम्भ के साथ ही इस महाद्वीप की जलवायु का नियंत्रक भी माना जाता है। विश्व की सबसे ऊंची चोटियों को धारण करने वाला हिमालय अरब सागर और हिन्द महासागर से चलने वाली वास्पीकृत हवाओं को रोक कर उन्हें उत्तर भारत में ही बरसने के लिये मजबूर करता है जबकि मध्य ऐशिया से चलने वाली शीत लहरियों को रोक कर तापमान नियंत्रित करता है। हिमालय को स्पर्श कर चलने वाली ठण्डी हवायें उत्तर भारत की प्रचण्ड गर्मी का मुकाबला कर तापमान को नियंत्रित करती हैं जबकि उससे निकलने वाली सिन्धु, गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से की प्यास बुझाती हैं। मौसम का नियंत्रक हिमालय जब मानवीय हस्तक्षेत्र के कारण स्वयं ही जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो तो फिर उससे मौसम के नियंत्रण की उम्मीद तो पूरी नहीं होती मगर उससे 2013 की केदारनाथ जलप्रलय और 2014 की जम्मू-कश्मीर की जैसी बाढ़ की जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आशंकाएं अवश्य बढ़ जाती हैं। ताजा सर्वेक्षणों के अनुसार भारतीय क्षेत्र में 3550 वर्ग किमी में फैले हिमालय के हिस्से में लगभग 1439 छोटे बड़े ग्लेशियर (शाह आदि 2005) हैं। डोभाल, जंगपांगी, वोहरा, गौतम और मुखर्जी आदि वैज्ञानिकों के अनुसार इन ग्लेशियरों में से अधिकांश गिलेशियर 10 से लेकर 20 मीटर प्रति वर्ष की दर से पीछे खिसक रहे हैं। टाइम मैग्जीन द्वारा मैन ऑफ द इयर सम्मान से अलंकृत डा0 डी0पी0 डोभाल के अनुसार 147 वर्ग किमी में फैला गंगोत्री ग्लेशियर 20 से लेकर 22 मीटर प्रति वर्ष एवं 7 वर्ग किमी में फैला डोकरानी ग्लेशियर 18 से लेकर 20 मीटर की गति से से सिकुड़ रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिषत ग्लेशियर 5 वर्ग किमी आकार से छोटे हैं जो कि मॉस बैलेंस बहुत कम होने के कारण जल्दी और ज्यादा सिमट रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की भरमार मानसून के कहर ने 2013 में हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड को तबाह किया तो अगले साल 2014 में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को नर्क बना कर छोड़ दिया। हालत यह है कि कब किस हिमालयी राज्य की बारी आयेगी, यह कहना तो अभी मुश्किल ही है लेकिन ऋतुओं के मिजाज में आये परिवर्तन से जिस तरह साल दर साल पामीर के पठार से लेकर ब्रह्मपुत्र के गार्ज तक फैली हिमालय पर्वत श्रृंखला की गोद में बसे हिमालयी राज्यों में विप्लव हो रहे हैं, उसे भविष्य के लिये और भी गंभीर खतरे की घंटी माना जाना चाहिये। बरसात से पहले सामान्यतः सूखे की जैसी स्थिति रहती है और जब आसमान का मिजाज बदलता है तो बादल फटने लगते हैं और तबाही मच जाती है। हिमालय की गोद में त्रासदियों की श्रृंखला हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया भी है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की फ्रीक्वेंसी में जो तेजी महसूस की जा रही है वह निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। उत्तराखण्ड में 2010 में भी हालात काफी बदतर हो गये थे और दो साल बाद तो केदारनाथ के ऊपर ही बाढ़ आ गयी। हिमाचल प्रदेश की सतलुज नदी में भी एक के बाद एक विनाशकारी बाढ़ आती रहीं हैं। अगस्त 2000 में जब सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गयी। दरअसल पहले रिमझिम बारिश होती थी। ज्यादा से ज्यादा बारिश की झड़ियां लगतीं थीं। लेकिन अब तो इन हिमालयी राज्यों में लगभग हर रोज कहीं न कहीं बादल फटने लगे हैं। इसलिये ऐसी स्थिति में यह कहना मुश्किल है कि आसमान से कब प्रलय बरसेगी! ऋतु चक्र अपने ढर्रे से हट कर चल रहा है। वर्ष 2013 में अस्थाई हिमरेखा के खिसक कर अपने मूल स्थान तक पहुंचने से 15 दिन पहले ही मानसून के धमकने से उत्तराखंड में टोंस से लेकर काली या शारदा तक सारी नदियां बौखला गयीं। कच्ची बर्फ में वर्षा का पानी गिरने से बर्फ एक साथ अचानक पिघल गयी और हर नदी में बाढ़ आ गयी। उससे पहले देशभर में इतनी भयंकर गर्मी थी कि हिन्द महासागर और अरब सागर से मानसून समय से पहले ही मचल उठा। असामान्य परिस्थितियों में नमी का भारी लोड (भार) लेकर चले मानसून ने ऐसी गति पकड़ी कि सीधे केदारनाथ से ऊपर स्थाई हिमरेखा को पार कर वह चोराबाड़ी ग्लेशियर पर टूट पड़ा। उसका अंजाम केदारघाटी में सारी दुनियां ने देखा। हिमालय पर मानसून का धावा ज्यादा चिन्ता का विषय यह है कि मानसून हिमालय पर चढ़ने को बेताब लग रहा है। यह हिमालय पर जितना ऊपर चढ़ेगा, उतनी ही अधिक तबाही करेगा। क्योंकि हिमालय पर एक महासागर से भी अधिक पानी बर्फ के रूप में जमा है। इसीलिये हिमालय को एशिया का जलस्तंभ भी कहा जाता है। अगर बर्फ का यह महासागर विचलित हो गया तो उस प्रलय की कल्पना भी भयावह है। खतरा केवल बादल फटने या अतिवृष्टि का नहीं है। हिमालय पर बनी उन अनगिनत बर्फीली झीलों पर भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का खतरा मंडरा रहा है। वर्ष 2013 में केदारनाथ के ऊपर बनी चोराबाड़ी झील के ऊपर बादल फटने से यह ग्लेशियल झील फट गयी थी जिससे केदारघाटी का हुलिया बदल गया और हजारां लोग काल के ग्रास बन गये। ऐसी अनगिनत झीलें हिमालय की गोद में है। भयंकर भूचाल का भी खतरा दुनिया की इस सबसे युवा और सबसे ऊंची परतदार कच्ची पर्वत श्रृंखला के ऊपर जिस तरह निरंतर विप्लव हो रहे हैं उसी तरह इसका भूगर्व भी अशांत है। भूकंप विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में रिचर पैमाने पर यहां 8 या उससे अधिक परिमाण का कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्वीय ऊर्जा जमीन के नीचे जमा होती जा रही है। जिस दिन वह ऊर्जा बाहर निकली तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाशकारी साबित होगी। रिचर स्केल पर 8 परिमाण के भूचाल का मतलब एक भी इमारती ढांचे का खड़ा न रहना होता है। इसी हिमालय क्षेत्र के नेपाल में 2015 में भयंकर भूचाल आ चुका है मगर उससे भी हिमालय के गर्भ में मचल रही साइस्मिक ऊर्जा का बहुत ही कम हिस्सा बाहर निकल पाया। प्रकृति के प्रकोप के लिये आदमी जिम्मेदार प्रकृति के विनाशी स्वरूप या चिढ़चिढ़ेपन के लिये अगर हम प्रकृति को ही दोषी मानें तो सही नहीं होगा। प्रकृति अपने हिसाब से चलती है और हम प्रकृति को अपने हिसाब और सुविधा से चलाना चाहते हैं। हिमालय का पूर्वी हिस्सा जिसे उत्तर पूर्व कहा जाता है, जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के 18 हॉट स्पॉट्स में से एक माना जाता है। लेकिन बेतहासा मानव दबाव, शिफ्टिंग कल्टीवेशन या जगह बदल-बदल कर खेती (झूम खेती) तथा बेतरतीव औद्योगीकरण तथा शहरीकरण जैसी गतिविधियों के कारण वहां निरन्तर वनों का विनाश हो रहा है। वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड जैसी गैसें बढ़ रही हैं और उन घातक गैसों को पी कर आक्सीजन छोड़ने वाले वन सिमट रहे हैं। अगर आप भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 1995 और 2013 की वन स्थिति सर्वे रिपोर्टों का मिलान करें तो आप अंदाज लगा सकते हैं कि हम हिमालयवासी अपने आश्रयदाता हिमालय के तंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा उत्तर पूर्व के शेष हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 2013 की वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार जनजाति बाहुल्य उत्तर पूर्व के राज्यों का कुल वनावरण 1,72,592 वर्ग किमी है जो कि इन राज्यों के कुल क्षेत्रफल का 65.83 प्रतिशत है। उस समय द्विवार्षिक सर्वे में वहां बहुत सघन वन 14.77 प्र.श., सधन वन 44.02 प्र.श. और खुले वन 41.21 प्र.श. दर्ज किये गये। यह वनावरण 2011 के सर्वेक्षण की तुलना में 627 वर्ग किमी कम पाया गया। विश्व के हॉट स्पॉट में जैव विधिता का क्षरण भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 2003 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001 की तुलना में जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के सबसे धनी क्षेत्रों में से एक उत्तर पूर्व मंे कुल 8955 वर्ग किमी वनावरण की क्षति हुयी है। उस रिपोर्ट के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में मात्र दो सालों के अन्तराल में 1181 वर्ग किमी, असम मंे 2695 वर्ग किमी, मणिपुर में 963 वर्ग किमी, मेघालय में 755 वर्ग किमी, मीजोरम में 1587 वर्ग किमी, नागालैंण्ड में 1389 वर्ग किमी और त्रिपुरा में 385 वर्ग किमी वनावरण घटा है। उत्तर पूर्व के इन हिमालयी राज्यों में से किसी एक में शायद ही कोई साल ऐसा गुजरा हो जब वह वनावरण न घटा हो। इन दो दशकों में अरुणाचल में 1300 वर्ग किमी, मणिपुर में 568 वर्ग किमी और नागालैंड में 1247 वर्ग किमी वनावरण घटा है। विभाग की ताजा वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल के गोरखा स्वायत्तशासी प्रशासन को छोड़ कर शेष 11 हिमालयी राज्यों में से 8 राज्यों में वनावरण घटा है। पश्चिम बंगाल में आयी सघन वनों में 500 वर्ग किमी की कमी भी ज्यादातर दार्जिलिंग के हिमालयी क्षेत्र की है। उत्तराखण्ड और मेघालय में भले ही वनावरण बढ़ा हुआ दिखाया गया है, मगर 2011 से लेकर 2013 तक 2 साल की अवधि में उत्तराखंड में सघन वनों में 56 वर्ग किमी तथा मेघालय में 86 वर्ग किमी की कमी आयी है। जैव विधिता की दृष्टि से भारत दुनिया के 12 मेगा वायो डाइवर्सिटी जोन में आता है और भारत में भी हिमालय अपने वनावरण के चलते चार समृद्ध या हॉट स्पॉट में शामिल माना जाता है। 1988 की वन नीति के तहत हिमालयी राज्यों का वनावरण कुल भौगोलिक क्षेत्र के 67 प्रतिशत होना चाहिये। लेकिन जम्मू-कश्मीर जहां इन दिनों आसमान आफत बरसा रहा है, वहां का वनावरण मात्र 10.14 प्रतिशत रह गया है। उसी के पड़ोसी हिमाचल प्रदेश का वनावरण भी 26.37 तक सिमट गया है। जयसिंह रावत- पत्रकार ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शहनगर, डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून। मोबाइल 09412324999

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