Article of Jay Singh Rawat on Union budget published in Uttar Ujala on July 8, 2019 |
भारी जनादेश के बदले उत्तराखण्ड को मिली निराशा ?
-जयसिंह रावत
देश की पहली
पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री
श्रीमती निर्मला सीतारमण का
पहला बजट देश
के लिये नये
भारत का सपना
लेकर जरूर आया
है, मगर परम्परागत
ब्रीफकेश से मुक्त
होकर लाल रंग
की पोटली में
बंद इस बजट
से उत्तराखण्ड और
हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी
राज्यों के लिये
उम्मीदों के बजाय
निराशाएं ही निकलीं।
खास कर जब
उत्तर पूर्व के
आठ राज्यों के
लिये बजट में
धन की वर्षा
हो रही हो
और जम्मू-कश्मीर
जैसा राज्य अपने
विशेषाधिकारों का लाभ
उठा रहा हो
तो उस हाल
में बीच के
केवल दो हिमालयी
राज्यों की अनदेखी
विकास की समावेशी
धारणा के बिल्कुल
विपरीत होने के
साथ ही मोदी
जी के डबल
इंजन के वायदे
के भी विपरीत
है।
Article of Jay Singh Rawat published in Shah Times on July 8, 2019 |
गत वर्ष नवम्बर
में जब नीति
आयोग ने सिन्धु
से लेकर ब्रह्मपुत्र
तक हिमालय की
गोद में बसे
जम्मू-कश्मीर, हिमाचल
प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल
प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर,
मिजोरम, त्रिपुरा, असम के
दिमो हसाओ और
कारबी आंगलोंग तथा
पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग
और कलिम्पोंग जिलों
के समग्र विकासके
लिये हिमालयी राज्य
क्षेत्रीय परिषद का गठन
किया था तो
उम्मीद जगी थी
कि अब सम्पूर्ण
हिमालय क्षेत्र के निवासियों
की आशाओं, आकांक्षाओं
और विशिष्ट समस्याओं
को समग्र रूप
से देखा जायेगा
और और समग्र
दृष्टि से ही
हिमालयवासियों की विकास
की जरूरतों को
पूरा करने एवं
विकट भौगोलिक परिस्थितियों
तथा विशिष्ट सास्कृतिक
परिवेश को ध्यान
रख कर उनके
कष्टों को दूर
करने का रोडमैप
बनेगा जिससे हिमालयवासियों
की खुशहाली सुनिश्चित
करने के साथ
ही हिमालय के
पर्यावरण का भी
संरक्षण हो सकेगा।
लेकिन मोदी राज
के दूसरे कार्यकाल
के पहले बजट
में भी हिमालय
क्षेत्र की समग्रता
कहीं नजर नहीं
आ रही है।
कुल
2,62,179 वर्ग किमी में
फैले उत्तर पूर्व
के 8 राज्यों के
86 जिलों में निवास
कर रही 4,55,87,982 जनसंख्या
के लिये 2019-20 के
केन्द्रीय बजट में
50,169 करोड़ 39 लाख रुपये
की व्यवस्था की
गयी है, जबकि
2018-19 के बजट में
उत्तर पूर्व के
लिये 39,201 करोड़ की
व्यवस्था थी। इस
हिसाब से उत्तर
पूर्व के लिये
प्रति व्यक्ति 11004.95 रुपये
का बजट आबंटन
हुआ है। जबकि
उसी हिमालय क्षेत्र
के उत्तराखण्ड और
हिमाचल प्रदेश के लिये
वित्त मंत्री का
खाता-बही में
लिपटा बजट खामोश
है और इस
खामोशी का मतलब
साफ है कि
भले ही इन
दो पहाड़ी राज्यों
की जनता का
प्रधानमंत्री मोदी के
प्रति चाहे जितना
भी मोह हो
मगर मोदी सरकार
के लिये इनके
लिये विशिष्ट कुछ
भी नहीं है।
हालांकि बजट में
जम्मू-कश्मीर के
लिये अलग से
कुछ नहीं कहा
गया है लेकिन
संविधान के विशिष्ट
प्रावधानों के कारण
वह राज्य वैसे
ही विशिष्टता का
लाभ उठाता है
और अगर अशांति
के कारण वह
राज्य को विकास
की दौड़ में
आगे नहीं बढ़
रहा है तो
इसके लिये अकेली
केन्द्र सरकार ही क्यों,
अशांति फैलाने वाले और
अशांति में शामिल
लोग भी जिम्मेदार
हैं। जहां तक
उत्तर पूर्व के
राज्यों को विशेष
तबज्जो देने का
सवाल है तो
सत्तर के दशक
के ‘‘लुक नॉर्थ
ईस्ट’’ की विकास
की नीति के
चलते वहां 1971 में
‘‘नार्थ ईस्ट काउंसिल’’नाम की नोडल
ऐजेंसी स्थापित की गयी
थी। वर्ष 1996 में
भारत सरकार द्वारा
उत्तर पूर्व के
राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय
सीमा से सम्बद्धता,
जनजातीय बाहुल्य और कुछ
हिस्सों में पृथकतवादी
गतिविधियों को ध्यान
में रखते हुये
इन राज्यों को
देश के विकास
की मुख्य धारा
में लाने के
लिये कुछ अतिरिक्त
प्रयास किये गये
जिनमें केन्द्रीय मंत्रालयों और
विभागों के योजनागत
व्यय का 10 प्रतिशत
हिस्सा उत्तर पूर्व के
राज्यों के लिये
निर्धारित किया गया।
उसके बाद इन
राज्यों के लिये
2001 में केन्द्र में अलग
से एक मंत्रालय
भी गठित कर
दिया गया।
गत लोकसभा चुनाव में
सभी हिमालयी राज्यों
में सत्ताधारी भाजपा
को सर्वाधिक 69.1 प्रतिशत
मत हिमाचल प्रदेश
में तथा 61.01 प्रतिशत
मत उत्तराखण्ड में
मिले थे, जबकि
इन राज्यों में
कांग्रेस 27.3 एवं 31.4 प्रतिशत मतों
पर ही सिमट
गयी थी। उत्तराखण्ड
में आज तक
इतने बड़े अन्तर
से जीत हार
पहले नहीं हुयी
थी। यहां सबसे
कम 2,32,986 मतों के
अन्तर से जीतने
वाले अल्मोड़ा के
भाजपा प्रत्याशी अजय
टमटा थे जबकि
इसी उत्तराखण्ड के
नैनीताल से भाजपा
प्रत्याशी ने कांग्रेस
के राष्ट्रीय महासचिव
एवं पूर्व मख्यमंत्री
हरीश रावत को
3,39,096 मतों के भारी
मतों के अन्तर
से हराया था
जबकि बजट में
विशेष महत्व प्राप्त
उत्तर पूर्व में
भाजपा को सर्वाधिक
58.2 प्रतिशत मत केवल
अरुणाचल में ही
मिल पाये जबकि
नागालैण्ड में भाजपा
खाता तक नहीं
खोल पायी थी
और मेघालय तथा
मीजोरम में तो
भाजपा को 10 प्रतिशत
से कम मत
मिले। ऐसी स्थिति
में उत्तराखण्ड और
हिमाचल की जनता
का यह सवाल
वाजिब ही है
कि ‘‘हमने आपको
दिल खोल कर
दे दिया लेकिन
आपने बदले में
हमें क्या दिया?’’
वैसे भी जब
मोदी जी ने
डबल इंजन और
विशेष परवरिश का
वायदा किया तो
उसी वायदे पर
भरोसा कर पहाड़
के लोगों ने
भाजपा को अपना
भाग्य विधाता मानकर
सब कुछ न्योछावर
कर दिया था।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, वन
संरक्षण अधिनियम 1980, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम
1986 एवं राष्ट्रीय वन नीति
1988 जैसे कठोर वन
कानूनों के कारण
उत्तराखण्ड जैसे वन
बाहुल्य राज्यों का विकास
गति नहीं पकड़
पा रहा है।
इन कानूनों के
कारण सड़क, बिजली
और पानी की
योजनाओं के अलावा
स्कूल भवनों का
निर्माण तक अवरुद्ध
हो रहा है।
प्रदेश का 66 प्रतिशत से
अधिक भूभाग वन
विभाग के अन्तर्गत
हैं और इसके
अलावा राजस्व विभाग
के अन्तर्गत भी
कुछ वन क्षेत्र
हैं। इस प्रकार
कुल मिला कर
राज्य का 71 प्रतिशत
हिस्सा वनों के
अन्तर्गत आता है
जहां विकास गतिविधियां
के आगे वन
कानून वाधक बनकर
खड़े हो जाते
हैं। गैरसैण के
निकट भराड़ीसैण में
विधानसभा भवन निर्माण
से ही नेशनल
ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी)
लाल पीला हो
गया और सरकार
को जवाब देना
भारी पड़ रहा
है। चारधाम यात्रा
मार्ग के चौड़ीकरण
पर ही एनजीटी
ने भृकुटी तान
ली थी। गढ़वाल
और कुमाऊं मण्डलों
को जोड़ने वाले
पुराने चिल्लरखाल-रामनगर मार्ग
के पुनर्निमाण के
प्रयास विफल होने
से एक मण्डल
से दूसरे मण्डल
में जाने के
लिये प्रदेशवासियों को
उत्तर प्रदेश से
हो कर गुजरना
होता है। राज्य
की दो दर्जन
से अधिक जलविद्युत
परियोजनाओं का निर्माण
एनजीटी ने रोका
हुआ है।
उत्तराखण्ड
सरकार के वन
विभाग की वेबसाइट
में दी गयी
जानकारी के अनुसार
जुलाइ 2014 तक राज्य
की 5,652 विकास परियोजनाओं की
पर्यावरणीय क्लीयरेंस के लिये
प्रस्ताव केन्द्रीय वन एवं
पर्यावरण मंत्रालय को गये
थे। इन परियोजनाओं
में विद्युत वितरण
की लाइनों, पेयजल,
सिंचाई, सड़क, जलविद्युत
परियोजनाओं, स्कूल एवं अन्य
भवन आदि शामिल
हैं। इनमें से
465 प्रस्तावों से राज्य
सरकार पीछे हटी
तो उसने 103 प्रस्ताव
स्वयं ही वापस
ले लिये, 259 प्रस्ताव
अस्वीकृत हुये, 161 राज्य के
वन विभाग के
पास लंबित रहे
और 26 प्रस्ताव केन्द्रीय
वन एवं पर्यावरण
मंत्रालय में लंबित
थे। इस मामले
में हिमाचल प्रदेश
भाग्यशाली रहा, क्यांेकि
2 जुलाइ 2015 तक विकास
योजनाओं के उसके
केवल 2 प्रस्ताव पर्यावरण क्लीयरेंस
के लिये पेंडिंग
थे।
उत्तराखण्ड
सरकार को पहाड़ी
क्षेत्रों से पलायन
रोकने के लिये
विशेष केन्द्रीय मदद
की भी दरकार
थी। उत्तराखण्ड को
2021 में हरिद्वार में होने
वाले महाकुम्भ की
तैयारियों के लिये
भी अभी से
केन्द्रीय मदद की
जरूरत थी जो
नहीं मिली। रेलवे
विस्तार के मामले
में भी उत्तराखण्ड
और हिमाचल को
निराशा हाथ लगी।
हिमाचल में 1903 में शिमला-कालका टॉय ट्रेन
शुरू हुयी थी।
वहां बिलासपुर-मनाली-लेह और
पठानकोट से जोगिन्दरनगर
जैसी रेल परियोजनाएं
प्रस्तावित भी हैं।
नब्बे के दशक
में देवगौड़ा सरकार
द्वारा ऋषिकेश कर्णप्रयाग लाइन
पर सर्वे शुरू
कराया गया था
जिसका 2011 में डा0
मनमोहन सिंह सरकार
द्वारा गौचर में
शिलान्यास कराया गया था
जिस पर अब
काम तेजी से
चल रहा है।
लेकिन इसके अलावा
पहाड़ों में रेलवे
नेटवर्क के विस्तार
के लिये कई
सर्वेक्षण हुये थे
जिनर वित्तमंत्री का
यह बजट मौन
है। गत रेल
बजट में रामनगर-चौखुटिया रेल मार्ग
हेतु स्वीकृति प्रदान
की गयी थी।
टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन
के निर्माण के
संदर्भ में राष्ट्रीय
परियोजनान्तर्गत स्वीकृति प्रदान की गयी
थी। किच्छा-खटीमा
(57.7 किमी) रेल लाइन
के लिए भूमि
अधिग्रहण होना था।
लेकिन डबल इंजन
का वायदा ही
पटरी से उतर
गया।
-जयसिंह
रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी देहरादून
jaysinghrawat@gmail.com
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