एवरेस्ट फतह के जुनून से हिमालय पर मंडरा रहा पहाड़ सा संकट
आखिर एवरेस्ट को लेकर क्यों मची है होड़
समुद्रतल से 8,848 मीटर ऊंची ऐवरेस्ट की चोटी पर पहली बार 1953 में एडमण्ड हिलैरी और शेरपा तेन्जिंग नोर्गे द्वारा सफल आरोहण के बाद दुनिया की इस सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ाई करने की ऐसी होड़ लगी कि वहां अब तक 4000 से अधिक लोग उस पर चढ़ कर झंडे गाड़ चुके हैं। आज हालत यह है कि इस सबसे दुर्गम पर्वत पर अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रैफिक की ऐसी समस्या खड़ी हो गई जैसी कि दिल्ली जैसे शहरों में आम है।
काठमाण्डू से न्यूयॉर्क टाइम्स में भारत शर्मा और मुजीब माशल की एक रिपोर्ट (26 मई 2019) के अनुसार इस पर्वतारोहण सीजन में माउण्ट ऐवरेस्ट जिसे नेपाल में सागरमाथा कहा जाता है, पर पर्वतारोहण के लिए नेपाल सरकार ने 381 परमिट जारी किए हैं जिनमें से 250 से लेकर 300 तक चढ़ाई के लिए तैयार हैं और कई अभियान शुरू कर पूरा भी कर चुके हैं। एवरेस्ट अभियानों पर पैनी दृष्टि रखने वाले ब्लाॅगर एलन आर्नेट के ब्लॉग अनुसार 1953 से लेकर 2018 तक ऐवरेस्ट पर कुल 8,306 अभियान चले जिनमें से 5,280 नेपाल की ओर से तथा 3,026 अभियान तिब्बत की और से चले, जिनमें कुल 4,333 लोगों ने एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने में सफलता हासिल की इन अभियानों में 288 पर्वतारोहियों को जानें गंवानीं पड़ी।
समुद्रतल से 8,848 मीटर ऊंची ऐवरेस्ट की चोटी पर पहली बार 1953 में एडमण्ड हिलैरी और शेरपा तेन्जिंग नोर्गे द्वारा सफल आरोहण के बाद दुनिया की इस सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ाई करने की ऐसी होड़ लगी कि वहां अब तक 4000 से अधिक लोग उस पर चढ़ कर झंडे गाड़ चुके हैं। आज हालत यह है कि इस सबसे दुर्गम पर्वत पर अत्यधिक भीड़ के कारण ट्रैफिक की ऐसी समस्या खड़ी हो गई जैसी कि दिल्ली जैसे शहरों में आम है।
काठमाण्डू से न्यूयॉर्क टाइम्स में भारत शर्मा और मुजीब माशल की एक रिपोर्ट (26 मई 2019) के अनुसार इस पर्वतारोहण सीजन में माउण्ट ऐवरेस्ट जिसे नेपाल में सागरमाथा कहा जाता है, पर पर्वतारोहण के लिए नेपाल सरकार ने 381 परमिट जारी किए हैं जिनमें से 250 से लेकर 300 तक चढ़ाई के लिए तैयार हैं और कई अभियान शुरू कर पूरा भी कर चुके हैं। एवरेस्ट अभियानों पर पैनी दृष्टि रखने वाले ब्लाॅगर एलन आर्नेट के ब्लॉग अनुसार 1953 से लेकर 2018 तक ऐवरेस्ट पर कुल 8,306 अभियान चले जिनमें से 5,280 नेपाल की ओर से तथा 3,026 अभियान तिब्बत की और से चले, जिनमें कुल 4,333 लोगों ने एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने में सफलता हासिल की इन अभियानों में 288 पर्वतारोहियों को जानें गंवानीं पड़ी।
ऐवरेस्ट सहित हिमालय की अन्य चोटियों पर अत्यधिक भीड़ के कारण मौतें तो हो ही रही हैं - फोटो : Social Media
रिपोर्ट के अनुसार इस साल अब तक इस अभियान में मरने वालों की संख्या 18 तक पहुंच गई है जिनमें से 10 मौतें ट्रैफिक जाम के कारण लौटने के लिए समय से रास्ता न मिलने के कारण हुई हैं।
क्यों ट्रैफिक जाम बनता है मौत का कारण?
क्यों ट्रैफिक जाम बनता है मौत का कारण?
दरअसल एवरेस्ट के रास्ते में कैंप-4 से आगे पर्वतारोहियों को एक ही रस्सी के सहारे संकरे रास्ते से गुजरना पड़ता है। इस खरनाक रास्ते को ‘डेथ जोन’ के नाम से जाना जाता है। ऐसे में जब पर्वतारोहियों की संख्या अधिक होती है तो रास्ते में उन्हें घंटे भर रुकना भी पड़ जाता है और यही ठहराव उनकी मौत का कारण बन जाता है।
23 मई को मौसम विभाग से हरी झंडी मिलने के बाद एक साथ दो सौ से भी अधिक पर्वतारोही कैंप-4 से एवरेस्ट के लिए निकल पड़े। ऐसे में डेथ जोन में जाम लग जाने से पर्वतारोहियों को दो घंटे तक रुकना पड़ गया। अत्यधिक ठहराव और ऑक्सीजन की कमी के कारण तीन पर्वतारोहियों ने दम तोड़ दिया। मरनेवालों में दो भारतीय और एक ऑस्ट्रेलियाई पर्वतारोही थे। ऐवरेस्ट सहित हिमालय की अन्य चोटियों पर अत्यधिक भीड़ के कारण मौतें तो हो ही रही हैं साथ ही इसका हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण पर भी बुरा असर पड़ रहा है। तिब्बत की ओर से इन अभियानों पर थोड़ा बहुत नियंत्रण अवश्य है लेकिन नेपाल के लिए सागरमाथा अभियान कमाई का एक बेहतरीन जरिया होने के कारण जनहानि और पारितंत्र की चिन्ता किए बिना ज्यादा से ज्यादा पर्वतारोहियों को परमिट देने में ही उसे फायदा नजर आता है। नेपाल के पर्यटन विभाग द्वारा एक परमिट का शुल्क 11 हजार अमेरिकी डाॅलर लिया जाता है। इस प्रकार देखा जाय तो नेपाल सरकार को इन 381 परमिटों से 41,91,000 डॉलर की आय प्राप्त हुई। यह रकम नेपाली मुद्रा में 46,55,15,325 रुपये बैठती है। हिमालय जितना विशाल है उतना ही नाजुक भी है। युवा पर्वत श्रृंखला होने कारण यह भूकम्प और भूस्खलन की दृष्टि तो संवेदनशील है ही लेकिन इसका पारितंत्र भी बेहद नाजुक है। यह न केवल एशिया के मौसम का नियंत्रक है, बल्कि एक जल स्तम्भ भी है जिसमें एक महासागर से अधिक जलराशि वर्फ के रूप में जमा है।
सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की लगभग 2400 कि.मी. लंबी यह पर्वतमाला विलक्षण विविधताओं से भरपूर है। इस उच्च भूभाग में जितनी भौगोलिक विविधताएं हैं, उतनी ही जैविक और सांस्कृतिक विविधताएं भी हैं। हिमालय की यह विशिष्ट नैसर्गिक विविधता इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के जीवन तथा उनके रोजगार के साधनों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।
अफगानिस्तान से लेकर म्यामार तक फैला है हिमालय - फोटो : social media
हिमालय में पर्यावरण को लेकर है चिंता
अफगानिस्तान से लेकर म्यामार तक फैला हिमालय आज पर्यावरणविदों के साथ ही आपदा प्रबंधकों की भी चिन्ता का विषय बना हुआ है। कहीं बाढ़ तो कही भूस्खलन और जलवायु परिवर्तन से उपजी नई समस्याएं स्पष्ट संकेत दे रही हैं कि नगाधिराज की तबियत निश्चित रूप से नासाज है और किसी महाविनाश से पहले ही इसके इलाज की तत्काल जरूरत है। नवीनतम अध्ययनों के अनुसार एशिया महाद्वीप के मौसम को नियंत्रित करने वाले हिमालय के 38,000 वर्ग कि.मी.में फैले लगभग 9757 ग्लेशियरों में से ज्यादातर पीछे हट रहे हैं। तेजी से पीछे हटने वालों या तेजी से पिघलने वाले ग्लेशियरों में ज्यादातर छोटे और कम ’मास बैलेंस’ वाले हैं।
आई.आई.टी मुम्बई के प्रोफेसर आनन्द पटवर्धन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित भारत सरकार के वन और अन्तरिक्ष जैसे आधा दर्जन संस्थानों के विशेषज्ञों के अध्ययन दल ने पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को तो स्वीकार किया है।
इस उच्चस्तरीय दल के सदस्य पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुसार हिमालय ग्लेशियरों एवं पारितंत्र पर ग्लाबल वॉर्मिंग से अधिक लोकल वॉर्मिंग का असर हो रहा है और यह लोकल वॉर्मिंग हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण बढ़ रही है। हिमालय पर पर्वतारोहण, पथारोहण, तीर्थाटन एवं पर्यटन के नाम पर हर साल 20 लाख के करीब लोग आते हैं जो कि सीधे अपने वाहनों समेत गंगोत्री और सतोपन्थ जैसे ग्लेशियरों के पास पहुंच रहे हैं। पहाड़ों में वाहनों की संख्या में भारी वृद्धि भी लोकल वॉर्मिंग का कारण बन रही है। जिसका असर पारितंत्र पर पड़ रहा है और ऋतु चक्र प्रभावित हो रहा है। हिमालय का पारितंत्र डगमगाने से भारतीय हिमालय की गोद में बसे राज्यों में से जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के अलावा असम के हिमालयी क्षेत्र कार्बी एन्लौंग और दिमा हसाओ तथा पश्चिम बंगाल के हिमालयी जिले दार्जिंलिंग सहित कुल 4,67,90,642 की आबादी (2011 की जनगणना) सीधे प्रभावित होती है।
इन हिमालयी लोगों का भविष्य सीधे-सीधे हिमालय के पारितंत्र से जुड़ा हुआ है। इन हिमालयी राज्यों में सैकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी उपजातियां का अपना-अपना जीने का तरीका है। अगर इन पर्वतवासियों के कारण हिमालय का पारितंत्र प्रभावित हो रहा है तो हिमालय भी सीधे-सीधे इनके जीवन को प्रभावित कर रहा है। हिमालयी क्षेत्र प्राकृतिक तथा मानवजनित विभीषिकाओं की दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है। इस समूचे क्षेत्र को भूकंपीय दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माना जा रहा है। ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ ही लोकल वार्मिंग से ग्लेशियर निरंतर पीछे खिसक कर रहे हैं और मानसून के स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र (क्रायोस्फीयर) में बरसने से केदारनाथ जैसी आपदा आ रही है। इस खतरे की जद में हिमालय ही नहीं बल्कि समूचा गंगा का मैदान है। सन् 2008 की कोशी की बाढ़ को हम भूले नहीं हैं।
आई.आई.टी मुम्बई के प्रोफेसर आनन्द पटवर्धन की अध्यक्षता में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित भारत सरकार के वन और अन्तरिक्ष जैसे आधा दर्जन संस्थानों के विशेषज्ञों के अध्ययन दल ने पृथ्वी का तापमान बढ़ने से हिमालय पर पड़ रहे प्रभाव को तो स्वीकार किया है।
इस उच्चस्तरीय दल के सदस्य पद्मभूषण चण्डी प्रसाद भट्ट के अनुसार हिमालय ग्लेशियरों एवं पारितंत्र पर ग्लाबल वॉर्मिंग से अधिक लोकल वॉर्मिंग का असर हो रहा है और यह लोकल वॉर्मिंग हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण बढ़ रही है। हिमालय पर पर्वतारोहण, पथारोहण, तीर्थाटन एवं पर्यटन के नाम पर हर साल 20 लाख के करीब लोग आते हैं जो कि सीधे अपने वाहनों समेत गंगोत्री और सतोपन्थ जैसे ग्लेशियरों के पास पहुंच रहे हैं। पहाड़ों में वाहनों की संख्या में भारी वृद्धि भी लोकल वॉर्मिंग का कारण बन रही है। जिसका असर पारितंत्र पर पड़ रहा है और ऋतु चक्र प्रभावित हो रहा है। हिमालय का पारितंत्र डगमगाने से भारतीय हिमालय की गोद में बसे राज्यों में से जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, मेघालय, सिक्किम, त्रिपुरा और नागालैंड राज्यों के अलावा असम के हिमालयी क्षेत्र कार्बी एन्लौंग और दिमा हसाओ तथा पश्चिम बंगाल के हिमालयी जिले दार्जिंलिंग सहित कुल 4,67,90,642 की आबादी (2011 की जनगणना) सीधे प्रभावित होती है।
इन हिमालयी लोगों का भविष्य सीधे-सीधे हिमालय के पारितंत्र से जुड़ा हुआ है। इन हिमालयी राज्यों में सैकड़ों की संख्या में जनजातियां और उनकी उपजातियां का अपना-अपना जीने का तरीका है। अगर इन पर्वतवासियों के कारण हिमालय का पारितंत्र प्रभावित हो रहा है तो हिमालय भी सीधे-सीधे इनके जीवन को प्रभावित कर रहा है। हिमालयी क्षेत्र प्राकृतिक तथा मानवजनित विभीषिकाओं की दृष्टि से भी अत्यंत संवेदनशील है। इस समूचे क्षेत्र को भूकंपीय दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील माना जा रहा है। ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ ही लोकल वार्मिंग से ग्लेशियर निरंतर पीछे खिसक कर रहे हैं और मानसून के स्थाई हिमाच्छादित क्षेत्र (क्रायोस्फीयर) में बरसने से केदारनाथ जैसी आपदा आ रही है। इस खतरे की जद में हिमालय ही नहीं बल्कि समूचा गंगा का मैदान है। सन् 2008 की कोशी की बाढ़ को हम भूले नहीं हैं।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।
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