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Friday, July 26, 2019
कारगिल युद्ध से कितना सबक लिया हमने?
कारगिल युद्ध से कितना सबक लिया हमने? युद्ध के लिए वाकई तैयार है भारतीय सेना?
जयसिंह रावत Updated Fri, 26 Jul 2019 12:56 PM IST
कारगिल युद्ध में विजय का जश्न मनाते हुए हमें पूरे 20 साल हो गए। जश्न तो स्वाभाविक ही है क्योंकि यह दुनिया के युद्धों के इतिहास का एक असाधारण युद्ध था जो कि समुद्रतल से 17500 फुट से अधिक ऊंचाइयों पर बेहद कठिन चट्टानों पर भारत की सेना के अदम्य साहस, पराक्रम और सर्वोच्च बलिदान की भावना से लड़ा गया और जीता भी गया। आण्विक शस्त्र बनाने के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ यह पहला सशस्त्र संघर्ष था। इस युद्ध में हमारे 527 जांबाज सैनिकों ने हमारे भविष्य के लिए अपने वर्तमान का सर्वोच्च बलिदान दिया इनमें 75 जांबाज अकेले उत्तराखण्ड के थे। इस युद्ध में भारतीय सेना ने दुनिया में एक बार फिर अपना लोहा तो मनवाया मगर हमारे राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही ने कोई सीख नहीं ली। दरअसल, कारगिल युद्ध से कोई सबक लिया होता तो उसके बाद पुलवामा जैसे काण्ड नहीं होते और ना ही हमारे हजारों जांबाज सैनिकों अपनी जान से हाथ धोना पड़ता।
हमारी रक्षा तैयारियों पर चिन्ता जताने वाली संसदीय समिति के अध्यक्ष रहे मेजर जनरल (से.नि) भुवन चन्द्र खण्डूड़ी को पद से हाथ धोना पड़ा। लेकिन उनकी जगह जब कलराज मिश्र को समिति का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने भी रक्षा तैयारियों पर लगभग वहीं चिन्ताएं अपनी रिपोर्ट में प्रकट कीं जो कि जनरल खण्डूड़ी की अध्यक्षता वाली समिति ने प्रकट की थीं।
कारगिल के बाद भी खुफिया तंत्र न जागा
कारगिल विजय का जश्न मनाना हमारी सेना का मनोबल ऊंचा रखने के लिए जरूरी है क्योंकि सेना के लिए उच्च मनोबल उसकी शक्ति को ही कई गुना बढ़ाता है। इसके साथ ही कृतज्ञ राष्ट्र के लिए विजय दिवस इसलिये मनाना जरूरी है हमारे जांबाज सैनिक हमारे कल के लिए अपना वर्तमान का बलिदान देते हैं। लेकिन हमारे लिए विजयोल्लास के साथ ही अति दुर्गम चोटियों पर लड़े गए उस युद्ध से सबक लेना भी जरूरी है। कारगिल की चोटियों पर पाकिस्तानी सेना और मुजाहिद्दीनों द्वारा इतने बड़े पैमाने पर घुसपैठ और वहां बंकर बनाकर किलेबन्दी करना हमारे खुफिया तंत्र की बड़ी विफलता थी। इसकी जानकारी भी मार्च में भेड़ बकरियां चराने वाले बकरवालों ने सेना को दी थी। इसकी जानकारी भारत के शत्रुओं पर पैनी नजर रखने वाली खुफिया ऐजेंसी राॅ को भी काफी बाद में हुई। कहा जाता है कि इस घुसपैठ की जानकारी पत्रकारों द्वारा सरकार को दी गई थी। हमारी खुफिया ऐजेंसियों की विफलता और सरकार की लापरवाही से हमें मई से लेकर 26 जुलाई तक इतिहास की सबसे कठिन माउण्टेन वार लड़नी पड़ी जिसमें हमें अपने 527 बहादुर सैनिक गंवाने के साथ ही हमारे हजारों सैनिकों को घायल होना पड़ा। युद्ध के कारण आर्थिक रूप से जो नुकसान उठाना पड़ा वह अलग है। लेकिन इतने बड़े कारगिल कांड से हमने अगर कुछ सीखा होता तो पुलवामा में हमें अर्ध सैन्यबल के 40 जवानों को नहीं खोना पड़ता। पुलवामा से पहले पठानकोट, पम्पोर, उरी, बारामुला, हण्डवारा, शोपियां और जाकुरा में सैनिकों या सैन्य शिविरों पर भी पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों के कई हमले हो चुके हैं।
सुन्जवान आर्मी कैंप पर आतंकियों ने 10 फरवरी 2018 को सैनिकों के परिवारों को लक्ष्य बनाया था। अगर हमने कारगिल से कुछ सबक लिए होता और अपना खुफिया तंत्र चुस्त किया होता और हमारे इतने जांबाज सैनिकों और अर्ध सैनिकों की जानें नहीं जातीं।
हमारी ताकत धरती पर कम और आसमान में ज्यादा बढ़ी
इसमें दो राय नहीं कि कारगिल युद्ध के बाद भारत की सामरिक क्षमता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। भारत ने मिशन ‘‘शक्ति’’ के तहत् गत् 27 मार्च को एसैट प्रक्षेपास्त्र से अन्तरिक्ष में एक लक्षित उपग्रह को मार गिरा कर धरती पर ही नहीं बल्कि आसमान में भी अमेरिका, रूस और चीन के साथ अपनी बराबरी दर्ज कर ली। कारगिल के बाद भारत की तीनों सेनाओं के शस्त्रागार की क्षमता भी बढ़ी है। वायुसेना द्वारा 26 फरवरी 2019 को पाकिस्तान के बालाकोट पर हमला किया जाना आसमान में हमारे बढ़ते दबदबे का ही एक उदाहरण है। विवादों के बावजूद अति आधुनिक युद्धक विमान राफेल को हासिल करने से भी भारत की वायुशक्ति में भी काफी इजाफा होने जा रहा है। लेकिन तीनों सेनाएं अब भी गोला बारूद के साथ ही अन्य साजो-सामान के लिए नौकरशाही और उससे प्रभावित राजनीतिक नेतृत्व के समक्ष जद्दोजहद कर रही हैं। हमारा राजनीतिक नेतृत्व और खासकर सेना के आधुनिकीकरण के लिए धन उपलब्ध कराने वाला वित्त मंत्रालय पाकिस्तान के साथ ही चीन जैसे महाबली के विरुद्ध दो मोर्चों पर डटी भारतीय सेना की ताकत बढ़ाने के प्रति कितना सजग है उसका जीता जागता उदाहरण संसद की रक्षा मामलों की 40वीं और 41 वीं रिपोर्ट ही काफी हैं।
सेना के पास 10 दिन की लड़ाई के लिए भी नहीं है गोला-बारूद
मेजर जनरल (सेनि) भुवन चन्द्र खण्डूड़ी की अध्यक्षता वाली रक्षा मामलों की संसदीय समिति की 40वीं रिपोर्ट जब मार्च 2018 में संसद में पहुंची तो समिति के अध्यक्ष जनरल खण्डूड़ी को 20 सितम्बर 2018 को अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। जबकि सामान्यतः कमेटी पांच साल के लिए होती है इसलिए उसके अध्यक्ष को बीच में नहीं हटाया जाता है।
दरअसल, खण्डूड़ी वाली समिति ने रक्षा तैयारियों में हो रही लापरवाहियों पर घोर चिन्ता प्रकट की थी। इस समिति ने रक्षा बलों पर हो रहे आतंकी हमलों से निपटने की तैयारियों पर भी टिप्पणी की थी। लेकिन जब खण्डूड़ी की जगह वरिष्ठ भाजपा नेता एवं सांसद कलराज मिश्र को समिति का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने भी लगभग उन्हीं बिन्दुओं पर अपनी चिन्ताएं जाहिर कीं। इस समिति की रिपोर्ट में साफ कहा गया कि अगर किसी भी देश से पूर्ण और लंबे समय तक चलने वाला युद्ध होता है तो भारतीय सेनाओं के पास 10 दिन का भी पूरा साजो सामान और गोला बारूद नहीं है।
68 प्रतिशत साजो सामान और हथियार बहुत पुराने
खण्डूड़ी की अध्यक्षता वाली समिति ने इस रिपोर्ट में बताया था कि हमारे करीब 68 प्रतिशत गोला-बारूद और हथियार पुराने जमाने के हैं। केवल 24 प्रतिशत ही ऐसे हथियार हैं, जिन्हें हम आज के जमाने के हथियार कह सकते हैं और सिर्फ आठ प्रतिशत हथियार ऐसे हैं, जो ‘‘स्टेट ऑफ द आर्ट’’ यानी अत्याधुनिक श्रणी में रखे जा सकते हैं। यानी सेना के पास अधिकतर हथियार बहुत पुराने समय के हैं और उनकी जगह तुरन्त नये हथियार खरीदे जाने की जरूरत है। वर्तमान में किसी भी आधुनिक सेना के पास मुश्किल से सिर्फ एक तिहाई हथियार ही ऐसे रह जाते हैं, जिन्हें पुराना कहा जा सके। समिति ने यह भी कहा था कि हमारी सेनाओं के पास धन की बेहद कमी है और युद्ध छिड़ जाने पर मौजूदा स्टॉक से हम मुश्किल से दस दिन की लड़ाई ही पाकिस्तान से लड़ सकते हैं, वह भी तब जब चीन मैदान में न हो। रिपोर्ट में कहा गया था कि रक्षा बजट 2018-19 में सेना ने राजस्व व्यय में 1,51,814 करोड़ मांगे थे लेकिन उसे केवल 1,27,059 करोड़ ही मिले। इसी प्रकार पूंजीगत् व्यय में सेना को 44,572 करोड़ की जरूरत थी मगर उसे केवल 26,815 करोड़ ही मिले।
सेना का सामना दो दुश्मनों से
खण्डूड़ी की अध्यक्षता वाली स्मिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पाकिस्तान और चीन दोनों अपनी सेनाओं को आधुनिक बनाने में जी-जान से लगे हुए हैं। जहां चीन का लक्ष्य अमेरिका की बराबरी करना है, वहीं पाकिस्तान भारत को पछाड़कर आगे निकल जाना चाहता है। हमारे सामने दोनों ओर से चुनौती है, लेकिन हमारा रक्षा बजट इस क्षेत्र में सिर्फ आंशिक या न के बराबर योगदान कर रहा है। यही नहीं कई बार तो सेना को धन का आवंटन पिछले वर्ष के मुकाबले घट ही गया। वह ऐसे कि जिस रफ्तार से मुद्रास्फीति बढ़ी, उससे भी कम बढ़ोतरी रक्षा बजट पर की गई। ऑपरेशन और मेंटेनेंस के मद में विगत् साल से कुल 3.73 प्रतिशत अधिक आवंटित तो किया गया, लेकिन मुद्रास्फीति 5 प्रतिशत तक रही। यानी अगर औसत मुद्रास्फीति को हिसाब में ले लें, तो बढ़ोत्तरी नकारात्मक हो गई। सेना के आधुनिकीकरण की 125 योजनाओं के लिए 29,033 करोड़ के इंतजाम का वादा किया गया था, पर 21,338 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए। समिति के समक्ष सेना द्वारा बताया गया कि उसके पास किसी भी सूरत में दस दिन तक लड़ने के लिए साजो सामान का रिजर्व रहना जरूरी है। इस मद में 9,980 करोड़ रुपए की मांग सेना ने रखी थी, लेकिन उसे कुल 3600 करोड़ रुपए ही आवंटित हुए।
इधर, अभी सेना के बजट का करीब 63 प्रतिशत वेतन देने में निकल जाता है। मैंटेंनेंस और ऑपरेशनल जरूरतों के लिए 20 प्रतिशत और करीब 3 प्रतिशत आधारभूत ढांचे पर खर्च होता है। इसके बाद बचा 14 प्रतिशत धन ही आधुनिकीकरण के लिए खर्च किया जाता है, जबकि सेना पिछले कई सालों से इसको कम से कम 22 से 25 प्रतिशत करने की मांग कर रही है। दुनिया की आधुनिक सेनाएं कम से कम 40 प्रतिशत धन इस मद में खर्च कर रही हैं।
कुल मिलाकर हालात बहुत ही खराब
वायुसेना के प्रतिनिधि ने कमेटी को बताया कि बजट में कमी की वजह से मरम्मत के लिए जरूरी कलपुर्जे और ईंधन खरीदना मुश्किल हो रहा है। इससे हमारे हवाई बेड़े की मेंटेनेंस और ट्रेनिंग प्रभावित हो रही है। कमेटी ने इस बात पर रिपोर्ट में कड़ी नाराजगी जाहिर की थी कि हमारे रक्षा प्रतिष्ठानों (समुद्री अड्डों समेत) की सुरक्षा के मौजूदा इंतजाम बहुत ही घटिया है। मतलब यह कि सैन्य व अन्य सुरक्षा प्रतिष्ठानों की अपनी खुद की सुरक्षा व्यवस्था इतनी लचर है कि वे आसानी से आतंकवादी हमलों की चपेट में आ जाते हैं। इसी सन्दर्भ में समिति ने सुन्जुवान आर्मी कैम्प पर आतंकवादी हमले का उल्लेख किया था और कहा था कि हमें इंक्वायरी और पॉलिसी अनाउंसमेंट मत सुनाइए, हमको बताइए कि सिक्योरिटी सिस्टम को मजबूत करने का आपका क्या प्लान है? इन प्रतिष्ठानों और मोर्चों के आधुनिकीकरण के लिए आपकी क्या योजना है? इन ठिकानों की सुरक्षा के लिए कौन-सी आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है? अभी तक क्यों नहीं हुआ?
सेना के प्रतिनिधि ने कमेटी के सामने अपना बयान देते हुए कहा कि कुल मिलाकर हालात बहुत ही खराब हैं। सेना के प्रतिनिधि ने समिति के समक्ष कहा कि यदि हम दो मोर्चों पर युद्ध के लिए सेना को तैयार रखना चाहते हैं, तो तत्काल सेना के आधुनिकीकरण के काम को देश में सबसे बड़ी प्राथमिकता के तौर पर ही लेना होगा, फिलहाल न तो स्पष्ट नीति पर कोई ध्यान है और न ही बजट उपलब्ध है।
कलराज मिश्रा समिति ने भी असन्तोष जताया
कलराज मिश्र की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति की 7 जनवरी 2019 को संसद के दोनों सदनों में पेश की गई। रिपोर्ट में रक्षा बजट में सेना की मांग के अनुरूप बजट न मिलने की बात कही। समिति ने भी मांग से 41,512.14 करोड़ कम मिलने का उल्लेख करने के साथ ही सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने से 4427 करोड़ का व्ययभार बढ़ने का उल्लेख किया। समिति ने सेना की आधुनिकीकरण की मांगों पर वित्त मंत्रालय की पैनी कैंची का उल्लेख करना नहीं भूली। यही नहीं कलराज मिश्र की अध्यक्षता वाली समिति ने 41वीं रिपोर्ट में यहां तक कहा कि एक पेशेवर ताकतवर सेना का सैन्य साजो सामान, उपकरण और गोला बारूद का एक-एक तिहाई समय के तीन चक्रों में श्रेणीबद्ध होना चाहिए। इसमें एक तिहाई साजो सामान एवं शस्त्रागार विन्टेज या पुराना, एक तिहाई वर्तमान में प्रचलित श्रेणी में तथा शेष एक तिहाई स्टेट ऑफ आर्ट यानी की अगली पीढ़ी के योग्य अत्याधुनिक होना चाहिए। मगर हमारी सेना के पास 68 प्रतिशत साजो सामान विन्टेज श्रेणी का या प्रचलन में पुरानी हो चुकी श्रेणी, 24 प्रतिशत वर्तमान में प्रचलित श्रेणी का और मात्र 8 प्रतिशत अत्याधुनिक श्रेणी का है।
सेना के आधुनिकीकरण पर ध्यान नहीं
समिति की रिपोर्ट के पैराग्राफ 13 में कहा गया कि 2012 से 2027 की दीर्घकालीन आधुनिकीकरण योजना के तहत थल सेना ने 2012 से 2018 तक 10,64,336 करोड़ की मांग की थी, लेकिन उसे 8,78,001 करोड़ ही मिले। इस प्रकार इस मद में भी उसे 1,86,335 करोड़ रुपये आवश्यकता से कम मिले। यही बात पिछली समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कही थी। समिति ने रिपोर्ट में कहा था कि सेना ने ‘मेक इन इंडिया’ के तहत 25 प्रोजेक्ट तय किए थे। इनमें से दो तिहाई तो शुरुआती महीनों में ही बजट की कमी से बंद हो गए। बाकी के लिए भी बजट इतना कम है कि इन्हें जारी रखना अनिश्चित है।
सैनिकों के पास बुलेट जैकेट नहीं
समिति ने सैनिकों के लिए बुलेट प्रूफ जैकेटों का मामला भी उठाया और कहा कि समिति इस मुद्दे को गत् 5 सालों से निरन्तर उठा रही है, लेकिन इस दिशा में बहुत सन्तोषजनक कार्य नहीं हो पा रहा है। इसका मतलब है कि सेना के आधुनिकीकरण और अपग्रेडेशन पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जबकि राजनीतिक शासकों के लिए महंगी से महंगी बुलेट प्रूफ जैकेट मंगाई जाती है। जाहिर है कि सरकार के लिए सैनिकों की जान से अधिक राजनीतिक नेताओं की जान की ज्यादा फिक्र होती है।
सेना में अधिकारियों की कमी
समिति के समक्ष सेना के प्रतिनिधि ने बताया कि थल सेना में अधिकारियों की स्वीकृत संख्या 49,932 है जिसके विपरीत केवल 42,235 ही अधिकारी उस समय उपलब्ध थे। यह कमी लगभग 14 प्रतिशत आंकी गई है। इसी प्रकार जेसीओ तथा अन्य रैंक के कुल 12,15,049 स्वीकृत पदों के विपरीत 11,94,864 सैन्यकर्मी ही तैनात थे। समिति को बताया गया कि प्रतिवर्ष 1 प्रतिशत की दर से यह कमी दूर की जा रही है जिससे समिति सन्तुष्ट नहीं थी।
नेवी और एयर फोर्स भी बजट की कमी से त्रस्त
कलराज मिश्रा समिति ने नेवी में भी मांग से 40 प्रतिशत कम बजट मिलने पर भी चिन्ता जताई थी। समिति को बताया गया कि 2018-19 के बजट में नेवी को 15,083 करोड़ का आबंटन हुआ जबकि उसका प्रतिबद्ध खर्च ही 25,106.74 करोड़ था। इसी प्रकार समिति ने वायुसेना के बजट पर भी असन्तोष प्रकट किया। वायु सेना में प्रशिक्षण विमानों की संख्या 310 है जबकि उसकी जरूरत 432 विमानों की थी।
कारगिल युद्ध में उत्तराखण्ड टाप पर
समुद्रतल से लगभग 17 हजार फुट से अधिक उंचाई पर शून्य से नीचे 11 से लेकर 15 डिग्री के तापमान में लगभग 160 कि.मी. तक फैले रणक्षेत्र की कारगिल और द्रास की जैसी चोटियों पर लड़े गए इस भीषणतम युद्ध में लगभग 30 हजार सैनिकों ने भाग लिया, जिसमें 527 सैनिकों ने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया। इन में से 75 शहीद उत्तराखण्ड के थे। इनके अलावा लगभग 30 अर्धसैनिकों ने भी इस संघर्ष में मातृभूमि की खातिर अपने प्राण गंवाए। इनमें मेजर विवेक गुप्ता और मेरी राजेश अधिकारी को मरणेापरान्त महावीर चक्र मिला। वीर चक्र से अंलकृत होने वाले उत्तराखण्डियों में कश्मीर सिंह, बृजमोहन सिंह,अनुसूया प्रसाद, कुलदीप सिंह, ए.के.सिन्हा, के.उस. गुरुग, शशिभूषण घिल्डियाल, रूपेश प्रधान एवं राजेश शाह शामिल थे। हालांकि बिक्रम बत्रा और मनोज पाण्डे जैसे कई महान बलिदानी उत्तराखण्ड में नहीं जन्में थे मगर उनका प्रशिक्षण देहरादून की भारतीय सैन्य अकादमी में हुआ था।
उत्तराखण्ड के कारगिल शहीदों में देहरादून से 18,पौड़ी से 17, टिहरी से 15, चमोली से 11, पिथौरागढ़ से 5, नैनीताल से 3, अल्मोड़ा से 3, उत्तरकाशी, बागेश्वर और रुद्रप्रयाग से एक-एक शहीद शामिल हैं। पहाड़ी होने के कारण इस पहाड़ी युद्ध में गढ़वाल रायफल्स की 10वीं, 14वी, 17वीं और 18वीं बटालियनें तैनात थीं। इसी प्रकार कुमाऊं रेजिमेंट की यूनिटों ने भी अदम्य साहस का परिचय देते हुए पाकिस्तानियों को मार भगाने में अहम भूमिका अदा की। इस युद्ध में उत्तराखण्ड के 15जांबाजों को सेना मेडल, एवं 11 को मेंन्सन इन डिस्पैच जैसे बहादुरी के पुरस्कार मिले।
Thursday, July 18, 2019
जलवायु परिवर्तन का कहर कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा
Tuesday, July 16, 2019
बादलों के घर मेघालय में बादल सूखे
ब्लॉग
कहीं बाढ़ कहीं सूखा, क्या जलवायु परिवर्तन का शिकार हो रही है दिल्ली?
जयसिंह रावत Updated Tue, 16 Jul 2019 04:10 PM IST
देेश की आर्थिक राजधानी मुंबई अतिवृष्टि से डूब रही है और राजनीतिक राजधानी दिल्ली सूखी पड़ी है। जबकि बादलों के प्रदेश मेघालय में लोग पीने के पानी की समस्या से जूझ रहे हैं, जबकि उत्तराखण्ड जैसे हिमालयी राज्यों में महीनों बिना वर्षा के गुजर जाते हैं और जब आसमान का मिजाज बदलता है तो छप्पर फाड़ बारिश हो जाती है जिससे लाभ हो न हो मगर केदारनाथ की जैसी महाविनाशकारी आपदा जरूर आ जाती है। दरअसल, इन प्राकृतिक विपदाओं के लिए हम प्रकृति पर चाहे जितना भी दोष मढ़ लें मगर सच्चाई यह है कि हम प्रकृति के साथ जीना सीखने के बजाय प्रकृति को अपनी सहुलियत से अपनी मर्जी के हिसाब से चलाने का प्रयास कर रहे हैं।
दिल्ली पर मौसम की मार
भारत सरकार के मौसम विज्ञान विभाग द्वारा जारी 1 जून से 10 जुलाई 2019 तक के वर्षा के आंकड़ों पर गौर करें तो इस दौरान देश के 35 राज्यों एवं केन्द्र शासित राज्यों में से केवल 6 में सामान्य या सामान्य से कुछ ज्यादा वर्षा हुई है जिनमें से उत्तर पूर्व का सिक्किम और मध्य भारत का राजस्थान राज्य भी शामिल है। जबकि बादलों का घर माने जाने वाले मेघालय समेत सभी हिमालयी राज्यों में सूखे की जैसी स्थिति रही है। देश की राजधानी दिल्ली में तो हालत और भी खराब रही। मौसम विभाग के पैमाने के अनुसार उपरोक्त अवधि में दिल्ली में केवल 13.8 मिमी वर्षा हुई जो कि सामान्य 114.2 मिमी वर्षा से बहुत ही कम है। गर्मियों में दिल्ली में बढ़ती गर्मी और तापमान को नियंत्रित करने वाली घटती वर्षा के कारण सारे देश से आकर वहां बसे दिल्लीवासियों के लिए दिल्ली प्रेम महंगा पड़ रहा है। ये हालत तो जुलाई की है और अगस्त का महीना पिछले 5 साल से भी अधिक समय से दिल्ली के लिए सूखा जा रहा है।
इधर, वर्ष 2014 से लेकर 2018 तक के अगस्त महीने के वर्षा के आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच सालों में अगस्त का महीना दिल्लीवासियों के लिए सूखा ही रहा है। वहां 2014 में 43 प्रतिशत कम, 2015 में 26 प्रतिशत कम, 2016 में 41 प्रतिशत कम, 2017 में 33 प्रतिशत कम और 2018 में 41 प्रतिशत वर्षा कम हुई है। जुलाइ का महीना भी 2015 और 2017 को छोड़ कर दिल्ली के लिए अवर्षा का रहा है।
धुएं में डूबी दिल्ली में घुटन और हिमालय पर लपटें
जून के महीने आसमान भले ही दिल्लीवासियों को न भिगा पाया हो मगर उसी आसमान से बरसी आग ने लोगों को झुलसाकर पसीने से अवश्य ही तरबतर किया। देश की राजधानी पर जलवायु परिवर्तन एवं हिमालय पर जंगल की आग और हर साल पड़ोसी हरियाणा-पंजाब में पुराली जलाने से दिल्ली में आम आदमी के लिए जीवन कठिन होता जा रहा है। एक ओर भयंकर गर्मी के बढ़ते जाने और दूसरी ओर वर्षा के घटते जाने से स्थिति गंभीर हो गई है। इस साल 10 जून को दिल्ली में तापमान 48 डिग्री सेल्सियस था जो कि अब तक का एक कीर्तिमान था। वर्ष 2014 में पालम के निकट सर्वाधिक 47.8 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड किया गया था। इससे पहले दिल्ली के आसपास के राज्यों में किसानों द्वारा पराली जलाये जाने से दिल्ली उस धुएं में डूबी हुई थी।
जून के महीने हिमालयी राज्यों के जंगलों में लगी भयंकर आग के कारण उत्तर भारत को ठण्डा रखने वाला हिमालय स्वयं ही आग की लपटों से घिरा था। इस तरह भारी मात्रा में कार्बनडाइऑक्साइड और मिथेन जैसी गैसों के उत्सर्जन से दिल्ली ही नहीं बल्कि समूचे उत्तर भारत का पारितंत्र प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। इनके अलावा दिल्ली सहित प्रमुख नगरों में जिस तरह चैपहिया वाहनों की संख्या बढ़ रही है उससे भी प्रदूषण का स्तर बढ़ रहा है।
बादलों के घर मेघालय में बादल सूखे
आप यकीन करें या न करें मगर यह सत्य है कि मेघालय राज्य पेयजल की समस्या से जूझ रहा है। यह हाल जब मेघालय का होगा तो फिर राजस्थान जैसे मरु प्रदेश का क्या हाल होगा? देश की राजधानी के लिए पीने का पानी टिहरी बांध से भी जाता है। सन् 1972 में खासी हिल्स को काटकर जब मेघालय का सृजन हुआ तो उसका नामकरण ‘‘मेघालय’’ उसकी विशिष्टता के आधार पर होना ही था। विशिष्टता यह थी कि वह विश्व का सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र था। इसीलिए उसे मेघालय याने कि बादलों का घर नाम दिया गया। जिस पर्वत श्रृंखला की गोद में यह राज्य बसा हुआ है उसका नामकरण ‘‘हिमालय’’ यानी कि बर्फ का घर भी इसीलिए हुआ था। लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण वह बादलों का घर अब सूखता जा रहा है। समाचार रिपोर्ट यहां तक आ रही हैं कि वहां पीने का पानी ट्रकों से ढोया जाने लगा है और इन प्रकृति पुत्रों को पानी भी खरीदकर पीना पड़ रहा है।
चेरापूंजी की पूंजी भी घट रही है
चेरापूंजी को स्थानीय लोग या स्थानीय भाषा में सोहरा के नाम से भी जाना जाता है। सन् 1861 में जब वहां 22,987 मिमी वार्षिक वर्षा रिकार्ड की गयी तो उसे धरती का सबसे गीला या वर्षा वाला क्षेत्र घोषित किया गया। वर्ष 1974 में मेघालय में 24,555 मिमी वर्षा रिकार्ड की गई थी। वर्ष 1960-61 में वहां 26,470 मिमी औसत वार्षिक वर्षा रिकार्ड की गई थी। लेकिन जैसे इस रिकॉर्ड पर किसी की नजर लग गई हो और वहां वर्षा का वार्षिक औसत सिमटकर 11,777 मिमी तक आ गया। यही नहीं आज हालात इतने बदल गए कि चेरापूंजी में औसत वार्षिक वर्षा घटकर 9 हजार मिमी तक आ गई है।
चेरापूंजी से मात्र 16 किमी दूर मावसिनराम औसत वर्ष के मामले में चेरापूंजी का प्रतिद्वन्दी माना जाता है। वहां 1985 में लगभग 26,000 मिमी वार्षिक वर्षा रिकॉर्ड की गई थी। अब मावसिनराम पर भी प्रतिकूल मौसम का असरपड़ रहा है। उत्तर पूर्व के राज्यों में मेघालय से अधिक मणिपुर की स्थिति खराब नजर आती है। इस साल 1 जून से 10 जुलाई के बीच जहां असम और मेघालय में सामान्य से 15 प्रतिशत कम वर्ष हुई वहीं मणिपुर में वर्ष की कमी 60 प्रतिशत दर्ज हुई। 4 जुलाई से 10 जुलाई के बीच भी मणिपुर में सामान्य से 37 प्रतिशत वर्षा कम दर्ज हुई।
एशिया के मौसम नियंत्रक हिमालय पर मौसम की मार
हिमालय एशिया के जलस्तम्भ के साथ ही इस महाद्वीप की जलवायु का नियंत्रक भी माना जाता है। विश्व की सबसे ऊंची चोटियों को धारण करने वाला हिमालय अरब सागर और हिन्द महासागर से चलने वाली वाष्पीकृत हवाओं को रोककर उन्हें उत्तर भारत में ही बरसने के लिए मजबूर करता है जबकि मध्य एशिया से चलने वाली शीत लहरियों को रोककर तापमान नियंत्रित करता है। हिमालय को स्पर्श कर चलने वाली ठण्डी हवाएं उत्तर भारत की प्रचण्ड गर्मी का मुकाबला कर तापमान को नियंत्रित करती हैं जबकि उससे निकलने वाली सिन्धु, गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से की प्यास बुझाती है।
मौसम का नियंत्रक हिमालय जब मानवीय हस्तक्षेत्र के कारण स्वयं ही जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो तो फिर उससे मौसम के नियंत्रण की उम्मीद तो पूरी नहीं होती मगर उससे 2013 की केदारनाथ जलप्रलय और 2014 की जम्मू-कश्मीर की जैसी बाढ़ की जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आशंकाएं अवश्य बढ़ जाती हैं। ताजा सर्वेक्षणों के अनुसार भारतीय क्षेत्र में 3550 वर्ग किमी में फैले हिमालय के हिस्से में लगभग 1439 छोटे बड़े ग्लेशियर (शाह आदि 2005) हैं। डोभाल, जंगपांगी, वोहरा, गौतम और मुखर्जी आदि वैज्ञानिकों के अनुसार इन ग्लेशियरों में से अधिकांश गिलेशियर 10 से लेकर 20 मीटर प्रति वर्ष की दर से पीछे खिसक रहे हैं।
टाइम मैग्जीन द्वारा मैन ऑफ द इयर सम्मान से अलंकृत डॉ. डी.पी. डोभाल के अनुसार 147 वर्ग किमी में फैला गंगोत्री ग्लेशियर 20 से लेकर 22 मीटर प्रति वर्ष एवं 7 वर्ग किमी में फैला डोकरानी ग्लेशियर 18 से लेकर 20 मीटर की गति से से सिकुड़ रहे हैं या पीछे हट रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिषत ग्लेशियर 5 वर्ग किमी आकार से छोटे हैं जो कि माॅस बैलेंस बहुत कम होने के कारण जल्दी और ज्यादा सिमट रहे हैं।
हिमालयी क्षेत्र में आपदाओं की भरमार
मानसून के कहर ने 2013 में हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड को तबाह किया तो अगले साल 2014 में धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर को नर्क बना कर छोड़ दिया। हालत यह है कि कब किस हिमालयी राज्य की बारी आयेगी, यह कहना तो अभी मुश्किल ही है लेकिन ऋतुओं के मिजाज में आये परिवर्तन से जिस तरह साल दर साल पामीर के पठार से लेकर ब्रह्मपुत्र के गार्ज तक फैली हिमालय पर्वत श्रृंखला की गोद में बसे हिमालयी राज्यों में विप्लव हो रहे हैं, उसे भविष्य के लिये और भी गंभीर खतरे की घंटी माना जाना चाहिये। बरसात से पहले सामान्यतः सूखे की जैसी स्थिति रहती है और जब आसमान का मिजाज बदलता है तो बादल फटने लगते हैं और तबाही मच जाती है।
हिमालय की गोद में त्रासदियों की श्रृंखला
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया भी है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की फ्रीक्वेंसी में जो तेजी महसूस की जा रही है वह निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। उत्तराखण्ड में 2010 में भी हालात काफी बदतर हो गये थे और दो साल बाद तो केदारनाथ के ऊपर ही बाढ़ आ गई। हिमाचल प्रदेश की सतलुज नदी में भी एक के बाद एक विनाशकारी बाढ़ आती रहीं हैं। अगस्त 2000 में जब सतलुज में बाढ़ आयी तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गयी।
दरअसल, पहले रिमझिम बारिश होती थी। ज्यादा से ज्यादा बारिश की झड़ियां लगतीं थीं। लेकिन अब तो इन हिमालयी राज्यों में लगभग हर रोज कहीं न कहीं बादल फटने लगे हैं, इसलिए ऐसी स्थिति में यह कहना मुश्किल है कि आसमान से कब प्रलय बरसेगी! ऋतु चक्र अपने ढर्रे से हटकर चल रहा है। वर्ष 2013 में अस्थाई हिमरेखा के खिसककर अपने मूल स्थान तक पहुंचने से 15 दिन पहले ही मानसून के धमकने से उत्तराखंड में टोंस से लेकर काली या शारदा तक सारी नदियां बौखला गईं। कच्ची बर्फ में वर्षा का पानी गिरने से बर्फ एक साथ अचानक पिघल गई और हर नदी में बाढ़ आ गई। उससे पहले देशभर में इतनी भयंकर गर्मी थी कि हिन्द महासागर और अरब सागर से मानसून समय से पहले ही मचल उठा। असामान्य परिस्थितियों में नमी का भारी लोड (भार) लेकर चले मानसून ने ऐसी गति पकड़ी कि सीधे केदारनाथ से ऊपर स्थाई हिमरेखा को पारकर वह चोराबाड़ी ग्लेशियर पर टूट पड़ा। उसका अंजाम केदारघाटी में सारी दुनिया ने देखा।
हिमालय को एशिया का जलस्तंभ कहा जाता है। - फोटो : फाइल फोटो
हिमालय पर मानसून का धावा
ज्यादा चिन्ता का विषय यह है कि मानसून हिमालय पर चढ़ने को बेताब लग रहा है। यह हिमालय पर जितना ऊपर चढ़ेगा, उतनी ही अधिक तबाही करेगा, क्योंकि हिमालय पर एक महासागर से भी अधिक पानी बर्फ के रूप में जमा है, इसीलिये हिमालय को एशिया का जलस्तंभ भी कहा जाता है। अगर बर्फ का यह महासागर विचलित हो गया तो उस प्रलय की कल्पना भी भयावह है। खतरा केवल बादल फटने या अतिवृष्टि का नहीं है। हिमालय पर बनी उन अनगिनत बर्फीली झीलों पर भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का खतरा मंडरा रहा है। वर्ष 2013 में केदारनाथ के ऊपर बनी चोराबाड़ी झील के ऊपर बादल फटने से यह ग्लेशियल झील फट गई थी जिससे केदारघाटी का हुलिया बदल गया और हजारों लोग काल के ग्रास बन गए, ऐसी अनगिनत झीलें हिमालय की गोद में है।
भयंकर भूचाल का भी खतरा
दुनिया की इस सबसे युवा और सबसे ऊंची परतदार कच्ची पर्वत श्रृंखला के ऊपर जिस तरह निरंतर विप्लव हो रहे हैं उसी तरह इसका भूगर्व भी अशांत है। भूकंप विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में रिचर पैमाने पर यहां 8 या उससे अधिक परिमाण का कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्वीय ऊर्जा जमीन के नीचे जमा होती जा रही है। जिस दिन वह ऊर्जा बाहर निकली तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाशकारी साबित होगी। रिचर स्केल पर 8 परिमाण के भूचाल का मतलब एक भी इमारती ढांचे का खड़ा न रहना होता है। इसी हिमालय क्षेत्र के नेपाल में 2015 में भयंकर भूचाल आ चुका है मगर उससे भी हिमालय के गर्भ में मचल रही साइस्मिक ऊर्जा का बहुत ही कम हिस्सा बाहर निकल पाया।
प्रकृति के प्रकोप के लिये आदमी जिम्मेदार
प्रकृति के विनाशी स्वरूप या चिढ़चिढ़ेपन के लिये अगर हम प्रकृति को ही दोषी मानें तो सही नहीं होगा। प्रकृति अपने हिसाब से चलती है और हम प्रकृति को अपने हिसाब और सुविधा से चलाना चाहते हैं। हिमालय का पूर्वी हिस्सा जिसे उत्तर पूर्व कहा जाता है, जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के 18 हाॅट स्पाॅट्स में से एक माना जाता है। लेकिन बेतहाशा मानव दबाव, शिफ्टिंग कल्टीवेशन या जगह बदल-बदल कर खेती (झूम खेती) तथा बेतरतीव औद्योगीकरण तथा शहरीकरण जैसी गतिविधियों के कारण वहां निरन्तर वनों का विनाश हो रहा है।
वातावरण में कार्बनडाइऑक्साइड जैसी गैसें बढ़ रही हैं और उन घातक गैसों को पीकर ऑक्सीजन छोड़ने वाले वन सिमट रहे हैं। अगर आप भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 1995 और 2013 की वन स्थिति सर्वे रिपोर्टों का मिलान करें तो आप अंदाज लगा सकते हैं कि हम हिमालयवासी अपने आश्रयदाता हिमालय के तंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा उत्तर पूर्व के शेष हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 2013 की वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार जनजाति बाहुल्य उत्तर पूर्व के राज्यों का कुल वनावरण 1,72,592 वर्ग किमी है जो कि इन राज्यों के कुल क्षेत्रफल का 65.83 प्रतिशत है। उस समय द्विवार्षिक सर्वे में वहां बहुत सघन वन 14.77 प्र.श., सघन वन 44.02 प्र.श. और खुले वन 41.21 प्र.श. दर्ज किए गए। यह वनावरण 2011 के सर्वेक्षण की तुलना में 627 वर्ग किमी कम पाया गया।
विश्व के हाट स्पाट में जैव विधिता का क्षरण
भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 2003 की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2001 की तुलना में जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के सबसे धनी क्षेत्रों में से एक उत्तर पूर्व में कुल 8955 वर्ग किमी वनावरण की क्षति हुयी है। उस रिपोर्ट के अनुसार अरुणाचल प्रदेश में मात्र दो सालों के अन्तराल में 1181 वर्ग किमी, असम में 2695 वर्ग किमी, मणिपुर में 963 वर्ग किमी, मेघालय में 755 वर्ग किमी, मीजोरम में 1587 वर्ग किमी, नागालैंण्ड में 1389 वर्ग किमी और त्रिपुरा में 385 वर्ग किमी वनावरण घटा है। उत्तर पूर्व के इन हिमालयी राज्यों में से किसी एक में शायद ही कोई साल ऐसा गुजरा हो जब वह वनावरण न घटा हो। इन दो दशकों में अरुणाचल में 1300 वर्ग किमी, मणिपुर में 568 वर्ग किमी और नागालैंड में 1247 वर्ग किमी वनावरण घटा है। विभाग की ताजा वन स्थिति रिपोर्ट के अनुसार पश्चिम बंगाल के गोरखा स्वायत्तशासी प्रशासन को छोड़कर शेष 11 हिमालयी राज्यों में से 8 राज्यों में वनावरण घटा है। पश्चिम बंगाल में आई सघन वनों में 500 वर्ग किमी की कमी भी ज्यादातर दार्जिलिंग के हिमालयी क्षेत्र की है। उत्तराखण्ड और मेघालय में भले ही वनावरण बढ़ा हुआ दिखाया गया है, मगर 2011 से लेकर 2013 तक 2 साल की अवधि में उत्तराखंड में सघन वनों में 56 वर्ग किमी तथा मेघालय में 86 वर्ग किमी की कमी आई है।
जैव विधिता की दृष्टि से भारत दुनिया के 12 मेगा वायो डाइवर्सिटी जोन में आता है और भारत में भी हिमालय अपने वनावरण के चलते चार समृद्ध या हाॅट स्पाॅट में शामिल माना जाता है। 1988 की वन नीति के तहत हिमालयी राज्यों का वनावरण कुल भौगोलिक क्षेत्र के 67 प्रतिशत होना चाहिए। लेकिन जम्मू-कश्मीर जहां इन दिनों आसमान आफत बरसा रहा है, वहां का वनावरण मात्र 10.14 प्रतिशत रह गया है। उसी के पड़ोसी हिमाचल प्रदेश का वनावरण भी 26.37 तक सिमट गया है।
Monday, July 8, 2019
मोदी लहर में बहे उत्तराखण्ड को आखिर क्या मिला ? Article on
Article of Jay Singh Rawat on Union budget published in Uttar Ujala on July 8, 2019 |
भारी जनादेश के बदले उत्तराखण्ड को मिली निराशा ?
-जयसिंह रावत
देश की पहली
पूर्णकालिक महिला वित्त मंत्री
श्रीमती निर्मला सीतारमण का
पहला बजट देश
के लिये नये
भारत का सपना
लेकर जरूर आया
है, मगर परम्परागत
ब्रीफकेश से मुक्त
होकर लाल रंग
की पोटली में
बंद इस बजट
से उत्तराखण्ड और
हिमाचल प्रदेश जैसे हिमालयी
राज्यों के लिये
उम्मीदों के बजाय
निराशाएं ही निकलीं।
खास कर जब
उत्तर पूर्व के
आठ राज्यों के
लिये बजट में
धन की वर्षा
हो रही हो
और जम्मू-कश्मीर
जैसा राज्य अपने
विशेषाधिकारों का लाभ
उठा रहा हो
तो उस हाल
में बीच के
केवल दो हिमालयी
राज्यों की अनदेखी
विकास की समावेशी
धारणा के बिल्कुल
विपरीत होने के
साथ ही मोदी
जी के डबल
इंजन के वायदे
के भी विपरीत
है।
Article of Jay Singh Rawat published in Shah Times on July 8, 2019 |
गत वर्ष नवम्बर
में जब नीति
आयोग ने सिन्धु
से लेकर ब्रह्मपुत्र
तक हिमालय की
गोद में बसे
जम्मू-कश्मीर, हिमाचल
प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, अरुणाचल
प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर,
मिजोरम, त्रिपुरा, असम के
दिमो हसाओ और
कारबी आंगलोंग तथा
पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग
और कलिम्पोंग जिलों
के समग्र विकासके
लिये हिमालयी राज्य
क्षेत्रीय परिषद का गठन
किया था तो
उम्मीद जगी थी
कि अब सम्पूर्ण
हिमालय क्षेत्र के निवासियों
की आशाओं, आकांक्षाओं
और विशिष्ट समस्याओं
को समग्र रूप
से देखा जायेगा
और और समग्र
दृष्टि से ही
हिमालयवासियों की विकास
की जरूरतों को
पूरा करने एवं
विकट भौगोलिक परिस्थितियों
तथा विशिष्ट सास्कृतिक
परिवेश को ध्यान
रख कर उनके
कष्टों को दूर
करने का रोडमैप
बनेगा जिससे हिमालयवासियों
की खुशहाली सुनिश्चित
करने के साथ
ही हिमालय के
पर्यावरण का भी
संरक्षण हो सकेगा।
लेकिन मोदी राज
के दूसरे कार्यकाल
के पहले बजट
में भी हिमालय
क्षेत्र की समग्रता
कहीं नजर नहीं
आ रही है।
कुल
2,62,179 वर्ग किमी में
फैले उत्तर पूर्व
के 8 राज्यों के
86 जिलों में निवास
कर रही 4,55,87,982 जनसंख्या
के लिये 2019-20 के
केन्द्रीय बजट में
50,169 करोड़ 39 लाख रुपये
की व्यवस्था की
गयी है, जबकि
2018-19 के बजट में
उत्तर पूर्व के
लिये 39,201 करोड़ की
व्यवस्था थी। इस
हिसाब से उत्तर
पूर्व के लिये
प्रति व्यक्ति 11004.95 रुपये
का बजट आबंटन
हुआ है। जबकि
उसी हिमालय क्षेत्र
के उत्तराखण्ड और
हिमाचल प्रदेश के लिये
वित्त मंत्री का
खाता-बही में
लिपटा बजट खामोश
है और इस
खामोशी का मतलब
साफ है कि
भले ही इन
दो पहाड़ी राज्यों
की जनता का
प्रधानमंत्री मोदी के
प्रति चाहे जितना
भी मोह हो
मगर मोदी सरकार
के लिये इनके
लिये विशिष्ट कुछ
भी नहीं है।
हालांकि बजट में
जम्मू-कश्मीर के
लिये अलग से
कुछ नहीं कहा
गया है लेकिन
संविधान के विशिष्ट
प्रावधानों के कारण
वह राज्य वैसे
ही विशिष्टता का
लाभ उठाता है
और अगर अशांति
के कारण वह
राज्य को विकास
की दौड़ में
आगे नहीं बढ़
रहा है तो
इसके लिये अकेली
केन्द्र सरकार ही क्यों,
अशांति फैलाने वाले और
अशांति में शामिल
लोग भी जिम्मेदार
हैं। जहां तक
उत्तर पूर्व के
राज्यों को विशेष
तबज्जो देने का
सवाल है तो
सत्तर के दशक
के ‘‘लुक नॉर्थ
ईस्ट’’ की विकास
की नीति के
चलते वहां 1971 में
‘‘नार्थ ईस्ट काउंसिल’’नाम की नोडल
ऐजेंसी स्थापित की गयी
थी। वर्ष 1996 में
भारत सरकार द्वारा
उत्तर पूर्व के
राज्यों की अन्तर्राष्ट्रीय
सीमा से सम्बद्धता,
जनजातीय बाहुल्य और कुछ
हिस्सों में पृथकतवादी
गतिविधियों को ध्यान
में रखते हुये
इन राज्यों को
देश के विकास
की मुख्य धारा
में लाने के
लिये कुछ अतिरिक्त
प्रयास किये गये
जिनमें केन्द्रीय मंत्रालयों और
विभागों के योजनागत
व्यय का 10 प्रतिशत
हिस्सा उत्तर पूर्व के
राज्यों के लिये
निर्धारित किया गया।
उसके बाद इन
राज्यों के लिये
2001 में केन्द्र में अलग
से एक मंत्रालय
भी गठित कर
दिया गया।
गत लोकसभा चुनाव में
सभी हिमालयी राज्यों
में सत्ताधारी भाजपा
को सर्वाधिक 69.1 प्रतिशत
मत हिमाचल प्रदेश
में तथा 61.01 प्रतिशत
मत उत्तराखण्ड में
मिले थे, जबकि
इन राज्यों में
कांग्रेस 27.3 एवं 31.4 प्रतिशत मतों
पर ही सिमट
गयी थी। उत्तराखण्ड
में आज तक
इतने बड़े अन्तर
से जीत हार
पहले नहीं हुयी
थी। यहां सबसे
कम 2,32,986 मतों के
अन्तर से जीतने
वाले अल्मोड़ा के
भाजपा प्रत्याशी अजय
टमटा थे जबकि
इसी उत्तराखण्ड के
नैनीताल से भाजपा
प्रत्याशी ने कांग्रेस
के राष्ट्रीय महासचिव
एवं पूर्व मख्यमंत्री
हरीश रावत को
3,39,096 मतों के भारी
मतों के अन्तर
से हराया था
जबकि बजट में
विशेष महत्व प्राप्त
उत्तर पूर्व में
भाजपा को सर्वाधिक
58.2 प्रतिशत मत केवल
अरुणाचल में ही
मिल पाये जबकि
नागालैण्ड में भाजपा
खाता तक नहीं
खोल पायी थी
और मेघालय तथा
मीजोरम में तो
भाजपा को 10 प्रतिशत
से कम मत
मिले। ऐसी स्थिति
में उत्तराखण्ड और
हिमाचल की जनता
का यह सवाल
वाजिब ही है
कि ‘‘हमने आपको
दिल खोल कर
दे दिया लेकिन
आपने बदले में
हमें क्या दिया?’’
वैसे भी जब
मोदी जी ने
डबल इंजन और
विशेष परवरिश का
वायदा किया तो
उसी वायदे पर
भरोसा कर पहाड़
के लोगों ने
भाजपा को अपना
भाग्य विधाता मानकर
सब कुछ न्योछावर
कर दिया था।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, वन
संरक्षण अधिनियम 1980, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम
1986 एवं राष्ट्रीय वन नीति
1988 जैसे कठोर वन
कानूनों के कारण
उत्तराखण्ड जैसे वन
बाहुल्य राज्यों का विकास
गति नहीं पकड़
पा रहा है।
इन कानूनों के
कारण सड़क, बिजली
और पानी की
योजनाओं के अलावा
स्कूल भवनों का
निर्माण तक अवरुद्ध
हो रहा है।
प्रदेश का 66 प्रतिशत से
अधिक भूभाग वन
विभाग के अन्तर्गत
हैं और इसके
अलावा राजस्व विभाग
के अन्तर्गत भी
कुछ वन क्षेत्र
हैं। इस प्रकार
कुल मिला कर
राज्य का 71 प्रतिशत
हिस्सा वनों के
अन्तर्गत आता है
जहां विकास गतिविधियां
के आगे वन
कानून वाधक बनकर
खड़े हो जाते
हैं। गैरसैण के
निकट भराड़ीसैण में
विधानसभा भवन निर्माण
से ही नेशनल
ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी)
लाल पीला हो
गया और सरकार
को जवाब देना
भारी पड़ रहा
है। चारधाम यात्रा
मार्ग के चौड़ीकरण
पर ही एनजीटी
ने भृकुटी तान
ली थी। गढ़वाल
और कुमाऊं मण्डलों
को जोड़ने वाले
पुराने चिल्लरखाल-रामनगर मार्ग
के पुनर्निमाण के
प्रयास विफल होने
से एक मण्डल
से दूसरे मण्डल
में जाने के
लिये प्रदेशवासियों को
उत्तर प्रदेश से
हो कर गुजरना
होता है। राज्य
की दो दर्जन
से अधिक जलविद्युत
परियोजनाओं का निर्माण
एनजीटी ने रोका
हुआ है।
उत्तराखण्ड
सरकार के वन
विभाग की वेबसाइट
में दी गयी
जानकारी के अनुसार
जुलाइ 2014 तक राज्य
की 5,652 विकास परियोजनाओं की
पर्यावरणीय क्लीयरेंस के लिये
प्रस्ताव केन्द्रीय वन एवं
पर्यावरण मंत्रालय को गये
थे। इन परियोजनाओं
में विद्युत वितरण
की लाइनों, पेयजल,
सिंचाई, सड़क, जलविद्युत
परियोजनाओं, स्कूल एवं अन्य
भवन आदि शामिल
हैं। इनमें से
465 प्रस्तावों से राज्य
सरकार पीछे हटी
तो उसने 103 प्रस्ताव
स्वयं ही वापस
ले लिये, 259 प्रस्ताव
अस्वीकृत हुये, 161 राज्य के
वन विभाग के
पास लंबित रहे
और 26 प्रस्ताव केन्द्रीय
वन एवं पर्यावरण
मंत्रालय में लंबित
थे। इस मामले
में हिमाचल प्रदेश
भाग्यशाली रहा, क्यांेकि
2 जुलाइ 2015 तक विकास
योजनाओं के उसके
केवल 2 प्रस्ताव पर्यावरण क्लीयरेंस
के लिये पेंडिंग
थे।
उत्तराखण्ड
सरकार को पहाड़ी
क्षेत्रों से पलायन
रोकने के लिये
विशेष केन्द्रीय मदद
की भी दरकार
थी। उत्तराखण्ड को
2021 में हरिद्वार में होने
वाले महाकुम्भ की
तैयारियों के लिये
भी अभी से
केन्द्रीय मदद की
जरूरत थी जो
नहीं मिली। रेलवे
विस्तार के मामले
में भी उत्तराखण्ड
और हिमाचल को
निराशा हाथ लगी।
हिमाचल में 1903 में शिमला-कालका टॉय ट्रेन
शुरू हुयी थी।
वहां बिलासपुर-मनाली-लेह और
पठानकोट से जोगिन्दरनगर
जैसी रेल परियोजनाएं
प्रस्तावित भी हैं।
नब्बे के दशक
में देवगौड़ा सरकार
द्वारा ऋषिकेश कर्णप्रयाग लाइन
पर सर्वे शुरू
कराया गया था
जिसका 2011 में डा0
मनमोहन सिंह सरकार
द्वारा गौचर में
शिलान्यास कराया गया था
जिस पर अब
काम तेजी से
चल रहा है।
लेकिन इसके अलावा
पहाड़ों में रेलवे
नेटवर्क के विस्तार
के लिये कई
सर्वेक्षण हुये थे
जिनर वित्तमंत्री का
यह बजट मौन
है। गत रेल
बजट में रामनगर-चौखुटिया रेल मार्ग
हेतु स्वीकृति प्रदान
की गयी थी।
टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन
के निर्माण के
संदर्भ में राष्ट्रीय
परियोजनान्तर्गत स्वीकृति प्रदान की गयी
थी। किच्छा-खटीमा
(57.7 किमी) रेल लाइन
के लिए भूमि
अधिग्रहण होना था।
लेकिन डबल इंजन
का वायदा ही
पटरी से उतर
गया।
-जयसिंह
रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी देहरादून
jaysinghrawat@gmail.com
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