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Thursday, January 4, 2018

उत्तराखण्ड में अघोषित इमरजेंसी



उत्तराखण्ड में अघोषित इमरजेंसी

शासन प्रशासन में पारदर्शिता लाने के लिये ही भारत के नागरिकों को सूचना का अधिकार मिला था। सुप्रीमकोर्ट ने भी एक बार कहा था कि जब तक शासन-प्रशासन में पारदर्शिता हो और आम आदमी, जो कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का एक अंग है, को जब तक शासन प्रशासन में हो रही गतिविधियों की जानकारी हो तो तब तक संविधान के अनुच्छेद 19 (1) () में प्रदत्त अभिव्यक्ति एवं भाषण की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। सत्तर के दशक में इमरजेंसी के दौरान नागरिकों के इस मौलिक अधिकार का हनन हुआ था जिसका रोना आज भी वे लोग रो रहे हैं जो कि स्वयं नागरिकों के इस अधिकार का परोक्ष रूप से हनन कर रहे हैं। उत्तराखण्ड सरकार के पत्रकारों को सचिवालय से दूर रखने के ताजा आदेश की मूल भावना भी इमरजेंसी के दौरान की ज्यादतियों के पीछे की मंशा से मेल खाती हैं। एक तरफ तो मुख्यमंत्री और उनके सिपहसालार जीरो टालरेंस का राग अलापते थक नहीं रहे हैं और दूसरी तरह वे नहीं चाहते कि उनके कामकाज पर मीडिया के जरिये आम आदमी नजर रखे। अगर आप सचमुच जीरो टालरेंस में यकीन रखते हैं तो अपने कामकाज के सार्वजनिक होने से इतने खौफजदा क्यों हैं? दरअसल त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार शुरू के दिन से जो अपरिपक्वता और अनुभवहीनता का परिचय देती रही है उसी अपरिपक्वता का यह अगला क्रमांक है जिस पर सरकार की छिछालेदर होनी स्वाभाविक ही है। कहते हैं कि नादान की दोस्ती से जी का जंजाल ही होता है। जिस तरह के सलाहकार त्रिवेन्द्र सिंह जी देहरादून और दिल्ली से पकड़ कर लाये हैं उनसे यही उम्मीद की जा सकती थी। टेलिविजन में एंकरिंग का न्यूज रिपोर्टिंग से या पत्रकारिता से संबंध नहीं होता। जिनका रिपोर्टिंग से संबंध रहा वे अगर अपने पेशे के प्रति बफादार होते तो पेशे से अधिक नेताओं की चाकरी में भलाई नहीं समझते और गिरगिट की तरह रंग नहीं बदलते। अभी तो यह शुरुआत ही है। आगे-आगे देखिये होता है क्या? सूचना विभाग के मर्यादा पुरुषोत्तम मुखिया ने पत्रकारों के लिये सचिवालय के अलग पास बनाने की योजना बनायी थी। उसके आवेदन में पूछा गया था कि आप सचिवालय में क्यों जाना चाहते हैं और किस-किस के पास जाना चाहते हैं। जिस आदमी का नजरिया ही पत्रकारों के प्रति अपमानजनक हो उसे सूचना विभाग का महानिदेशक बनाना भी पत्रकारों का उत्पीड़न ही है। गैरों पे करम अपनों पे सितम........का रास्ता अपनाया होता तो आज यह स्थिति नहीं आती। भाजपा में देवेन्द्र भसीन जैसे पढ़े लिखे, सौम्य और अनुभवी लोग होने के बावजूद मीडिया सलाहकार जैसे पदों पर इधर उधर से नाबालिग जैसे लड़कों को पकड़ कर ले आये। मीडिया सलाहकार ने एक बार मुझे भी पूछा था कि मैं क्या काम करता हूं। ये भी पूछा था कि मैं किस तरह की पत्रकारिता करता हूं? महानिदेशक के पास गया तो श्रीमान जी ने अपमानित कर भगा दिया। इस सरकार में कहीं सुनवाई तो होती नहीं। शिकायत भी करें तो किससे?लगता है कि यह राज्य अंधेर नगरी चौपट....की ओर बढ़ रहा है। मंत्री सरकारी योजनाओं की जगह अपना प्रचार कर रहे हैं। प्रदेश के पर्यटन स्थलों का प्रचार देश विदेश में होना चाहिये था, यहां के मंदिरों का प्रचार देश के अन्य कोनों में होना था लेकिन देश के उन कोनों में मंत्री की तस्बीर छपने से मंत्री को क्या लाभ? एक मंत्री की बेलगाम जुबान के कारण आज सवाल उठने लग गया है कि लोग अपनी बेटियों को कैसे खिलाड़ी बनायेंगे?



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