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Saturday, January 20, 2018

उत्तराखण्ड के पटवारियों से कानून का डंडा भी छिना


उत्तराखण्ड के पटवारियों से कानून का डंडा भी छिना

-जयसिंह रावत
नैनीताल स्थित उत्तराखण्ड हाइकोर्ट ने राज्य में प्रचलित देश की एकमात्र राजस्व पुलिस व्यवस्था को कालविरुद्ध और अनुपयोगी बताते हुये इसे 6 माह के अन्दर समाप्त कर कानून व्यवस्था के मामले में इसकी जिम्मेदारी सिविल पुलिस को सौंपने के आदेश जारी कर दिये हैं। हाइकोर्ट का यह आदेश एक तरह से उत्तराखण्ड की विशेष भौगोलिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल ढली सदियों पुरानी पुलिस व्यवस्था का मौत का वारण्ट ही है और अगर राज्य सरकार या किसी अन्य पक्ष की ओर से सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं की गयी तो पहाड़ी समाज में सदियों से रची बसी गांधी पुलिस के नाम से भी पुकारी जाने वाली यह अंग्रेजों के जमाने की बिना वर्दी की यह पुलिस व्यवस्था अंग्रेजी राज के साथ ही इतिहास के पन्नों तक सिमट जायेगी। बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन और खेतों के बंजर होने से वैसे ही पहाड़ के पटवारियों के पास कोई खास काम नहीं है और अब अगर उनसे पुलिसिंग की जिम्मेदारी भी छीन ली गयी तो वे लगभग बिना काम के रह जायेंगे।
नैनीताल हाइकोर्ट की दो जजों की खण्डपीठ ने टिहरी गढ़वाल के दहेज हत्या के एक मामले की सुनवाई के दौरान राज्य सरकार को 6 माह के अंदर राजस्व पुलिस व्यवस्था समाप्त कर सिविल पुलिस को उसके सभी क्षेत्र सौंपने का आदेश जारी करते हुये कहा है कि पटवारियों को पुलिस की तरह प्रशिक्षण नहीं दिया जाता और ना ही इनके पास विवेचना के लिये आधुनिक साधन, कम्प्यूटर, डीएनए, रक्त परीक्षण, फौरेंसिक जांच की व्यवस्था, फिंगर प्रिंट लेने जैसी मूलभूत सुविधायें ही होती हैं जिससे अपराध की समीक्षा में परेशानी होती है और अपराधियों को इस कमी का लाभ मिल जाता है।
पटवारी पुलिस व्यवस्था का समय के साथ बदली परिस्थितियों में और खास कर विज्ञान और प्रोद्योगिकी के इस युग में पुरानी और कम व्यवहारिक हो जाना तो स्वाभाविक ही है मगर दूसरा पक्ष यह भी है कि यह व्यवस्था सिविल पुलिस से खराब भी नहीं है। खासकर जितने आन्दोलन सिविल पुलिस की कारगुजारियों के खिलाफ होते रहे हैं उतने राजस्व पुलिस के खिलाफ कभी नहीं हुये। लेकिन अदालत में सरकार द्वारा राजस्व पुलिस का यह पक्ष नहीं रखा गया। लगता है कि अगर राजस्व पुलिस को लागू की जाने वाली सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों की पूरी जानकारी अदालत को दी जाती तो हो सकता है कि अदालत का आदेश राजस्व पुलिस के बारे में इतना कठोर नहीं होता। सरकार की ओर से राजस्व पुलिस के पक्ष में यह नहीं बताया गया कि राजस्व पुलिस के गठन से लेकर अब तक यह व्यवस्था प्रदेशवासियों के सामाजिक सांस्कृतिक एवं भौगोलिक ताने-बाने से सामंजस्य स्थापित कर चुकी है। वर्दीधारी पुलिसकर्मी से लोग दूरी बना कर रखते हैं और उनसे डरते भी हैं। जबकि पहाड़ी गावों में बिना वर्दी वाला पटवारी और उसका अनुसेवक गांव वालों के साथ हिलमिल जाते हैं और जनता से सहयोग के कारण अपराधी कानून से बच नहीं पाते। सरकार की ओर से अगर सिवलि पुलिस और राजस्व पुलिस क्षेत्र में घटित अपराधों के आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति सपष्ट हो जाती। वर्ष 2015-16 में प्रदेश के 60 प्रतिशत क्षेत्र की कानून व्यवस्था संभालने वाली राजस्व पुलिस के क्षेत्र में केवल 449 अपराध दर्ज हुये जबकि सिविल पुलिस के 40 प्रतिशत क्षेत्र में यह आंकड़ा 9 हजार पार कर गया। यही नहीं अगर सिविल पुलिस और राजस्व पुलिस द्वारा अदालतों में पेश मामलों में सजा और दोषमुक्ति (एक्विटल) के आंकड़े पेश किये जाते तो स्थिति और भी साफ हो जाती। सिविल पुलिस द्वारा अदालतों में दाखिल किये गये हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य मामलों में काफी कम लोगों को सजा हो पाती है। हत्या के मामलों में औसतन 60 और बलात्कार के मामलों में लगभग 30 प्रतिशत को ही सजा हो पाती है और इस तरह ज्यादातर अपराधी दोष मुक्त हो जाते हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य पुलिस द्वारा हत्या के मामलों में अनावरण या हत्यारोपियों की गिरफ्तारी का प्रतिशत मात्र 85 ही है। जाहिर है कि राज्य की पुलिस 15 प्रतिशत हत्यारों तक पहुंच भी नहीं पाती है। लेकिन रेवेन्यू पुलिस द्वारा दाखिल अपराधिक मामलों में सजा का प्रतिशत 90 प्रतिशत तक होता है। यह इसलिये कि राजस्व पुलिस के लोग समाज में पुलिसकर्मियों की तरह अलग नहीं दिखाई देते। जहां तक सवाल समय के साथ बदली परिस्थितियों में अपराधों के वैज्ञानिक विवेचन या जांच में अत्याधुनिक साधनों का सवाल है तो राज्य सरकार की ओर से अदालत में उत्तराखण्ड पुलिस एक्ट 2008 की धारा 40 का उल्लेख नहीं किया गया। इस धारा में कहा गया है कि ‘‘अपराधों के वैज्ञानिक अन्वेषण, भीड़ का विनियमन और राहत, राहत कार्य और ऐसे अन्य प्रबंधन, जैसा जिला मजिस्ट्रेट द्वारा आपवादिक परिस्थितियों में जिले के पुलिस अधीक्षक के माध्यम से निर्देश दिया जाये, पुलिस बल और सशस्त्र पुलिस इकाइयों द्वारा ऐसी सहायता देना एवं अन्वेषण करना, जो राजस्व पुलिस में अपेक्षित हो विधि सम्मत होगा।’’ गंभीर अपराधों के ज्यादातर मामले राजस्व पुलिस से सिविल पुलिस को दिये जाते रहे हैं। अगर सिविल पुलिस हर मामले में इतनी सक्षम होती तो ऐसा होता तो थानों में दर्ज अपराधिक मामलों की जांच अक्सर सिविल पुलिस से सीआइडी, एसआइटी और कभी-कभी सीबीआइ को क्यों सौंपे जाते? सिवलि पुलिस व्यवस्था राजस्व पुलिस से बेहद खर्चीली भी है। राज्य पुलिस में कुल 26,000 कार्मिक और अगर सभी 1225 पटवारी सर्किलों में एक-एक थाना खोला गया तो विभिन्न श्रेणियों के कम से कम 12 हजार अतिरिक्त पुलिसकर्मियों को भर्ती करना पड़ेगा। जब केवल राज्य के 40 प्रतिशत क्षेत्र के लिये तीन-तीन डीजीपी रैंक के अफसर तैनात हो सकते हैं तो 100 प्रतिशत क्षेत्र के लिये अफसरों की कितनी बड़ी फौज चाहिये होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है।
वर्तमान में उत्तराखंड की कानून व्यवस्था याक्रिमिनल जस्टिस सिस्टमउत्तराखंड पुलिस एक्ट 2007 ( जो कि पुलिस एक्ट 1861 का निरसन कर बना है ) तहत संचालित है। इसके तहत भी मुख्य रूप से उत्तराखंड में दो तरह की कानून व्यवस्थाएं है। इनमें से एक व्यवस्था रेग्युलर पुलिस के तहत है, जिसके अधीन चारधाम यात्रा मार्ग समेत सभी प्रमुख नगर और नगरीय क्षेत्रों के साथ ही नगरों के निकटवर्ती गांव भी हैं। दूसरी व्यवस्थाराजस्व पुलिसकी है, जिसके तहत लगभग संपूर्ण पर्वतीय आंचल का ग्रामीण हिस्सा है। यह क्षेत्र प्रदेश के कुल भूभाग का लगभग 60 प्रतिशत है और इसके तहत लगभग इतनी ही आबादी भी प्रशासित होती है। रेगुलर पुलिस के तहत वर्तमान में 124 थाने तथा 4 रेलवे थाने हैं। जबकि रेवेन्यू पुलिस के तहत 1225 पटवारी चौकियां हैं जो कि ग्रामीण पुलिस स्टेशन के तौर पर कार्य करती हैं। पुलिस विभाग का मुखिया भारतीय पुलिस सेवा का (आइपीएस) अधिकारी, पुलिस महानिदेशक होता है, जबकि रेवेन्यू पुलिस एक तरह से भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) के अधीन ही है। इस सेवा का कोई वरिष्ठतम् अधिकारी मुख्य राजस्व आयुक्त ही राजस्व पुलिस का महानिदेशक होता है। एक तरह से देखा जाय तो प्रदेश की कानून व्यवस्था आइएएस और आइपीएस संवर्गों में बंटी हुयी है।
गांधी पुलिस के नाम से भी पुकारी जाने वाली राजस्व पुलिस व्यवस्था का श्रेय जी.डब्ल्यू. ट्रेल को ही दिया जा सकता है। सन् 1814 में देहरादून के खलंगा दुर्ग से गोरखा सरदार बलभद्र थापा और उसकी बची खुची सेना को मार भागने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने सन् 1815 की सुगौली की संधि के तहत अपने अधीन ले लिया था और इस ब्रिटिश गढ़वाल को भी कुमाऊं कमिश्नरी में शामिल किया गया। तदोपरान्त कुमाऊं कमिश्नरी को पहला कमिश्नर या आयुक्त 0 गार्डनर को बनाया गया। गार्डनर की सहायता के लिये उसके साथ सहायक कमिश्नर के तौर पर जी. डब्ल्यु. ट्रेल को नियुक्त किया गया और उसे पुलिस तथा राजस्व प्रशासन की जिम्मेदारी सौंपी गयी। गार्डनर के बाद ट्रेल को पदोन्नत कर कुमाऊं का कमिश्नर बना दिया गया था। ट्रेल की पदोन्नति के साथ ही विनियम (रेगुलेशन) संख्या 10 पारित कर हत्या, डकैती, देशद्रोह जैसे जघन्य अपराधों को छोड़ कर बाकी अपराधों का न्यायाधिकार कुमाऊं के अधिकारियों को दे दिया गया। टेª ने जमीनों का लेखा जोखा रखने तथा राजस्व वसूली के लिये सबसे पहले सन् 1819 में पटवारी की नियुक्ति कर दी। कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि इस पहाड़ी क्षेत्र में अपराध केवल नाममात्र के ही हैं और यहां की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये यहां अल्मोड़ा रानीखेत और नैनीताल जैसे कुछ नगरों को छोड़ कर बाकी पहाड़ी पट्टियों में रेगुलर पुलिस की आवश्यकता नहीं है। ट्रेल की मांग मान लिये जाने के बादे पहाड़ों में पुलिस व्यवस्था लागू नहीं हुयी और कमिश्नर ट्रेल को अपने मैदानी समकक्षों से कहीं अधिक अधिकार और स्वायत्तता मिल गयी और इस नॉन रेगुलेटेड क्षेत्र में उसने पटवारियों और परंपरागत थोकदार-पदानों के माध्यम से प्रशासन शुरू कर दिया।
हालांकि ब्रिटिश भारत में पुलिस अधिनियम 1861 में लागू हो गया था, लेकिन ब्रिटिश कुमाऊं तक यह 30-8-1892 से राजाज्ञा संख्या 1254/टप्प्प्.228..81 के तहत विस्तारित किया गया। गौरतलब है कि तब तक कुमाऊं कमिश्नरी के इन पहाड़ी क्षेत्रों में भी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम प्रशासनिक आदेशों के अनुसार चलता था। इसी दौरान जब अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 (शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट) आया तो फिर यहां रेगुलर पुलिस को लाने के बजाय रेवेन्यू पुलिस को ही पुलिस के अधिकार देने का अवसर मिल गया। इस अधिनियम की धारा 6 के तहत इस तरह के अनुसूचित या शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट में स्थानीय प्रशासन को क्षेत्र की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये कानून व्यवस्था का पालन कराने तथा अपराधिक न्यायिक व्यवस्था (क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) का अनुपालन कराने हेतु अलग से प्राधिकारी नियुक्त करने का अधिकार दिया गया था। सन् 1892 की राजाज्ञा के तहत सन् 1861 के पुलिस एक्ट को लागू करने के लिये शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 की धारा 6 का सहारा लेते हुये ब्रिटिश गढ़वाल समेत कुमाऊं कमिश्नरी की पहाड़ी पट्टियों के लियेकुमाऊं पुलिसकानून बनाया गया जिसे अधिसूचना संख्या 494/टप्प्प्ध्.418.16 दिनांक 07-03-1916 को गजट में प्रकाशित की गयी। देखा जाय तो इस अधिसूचना के तहत ही राजस्व पुलिस व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाया गया। इस व्यवस्था के प्रावधानों के तहत थोकदार-पदानों जैसे ग्राम मुखियाओं की परम्परागत भूमिका सीमित कर दी गयी और पटवारी की शक्तियां बढ़ा दी गयीं।
सन् 1949 में टिहरी रियासत के भारत संघ में विलय के बाद कुमाऊं से लेकर सम्पूर्ण गढ़वाल तक समस्त पहाड़ी क्षेत्रों में एक ही जैसी कानून व्यवस्था के लिये समान कानून की जरूरत महसूस की गयी। इस प्रयोजन हेतु टिहरी रियासत वाले टिहरी और उत्तरकाशी जिलों की राजस्व पुलिस को भी वैधानिक मान्यता देने के लियेटिहरी गढ़वाल रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1956” बनाया गया। यह अधिनियम सीधे-सीधे टिहरी-उत्तरकाशी के पटवारी या राजस्वकर्मियों को पुलिस के अधिकार नहीं देता अपितु उसकी धारा 2 में राज्य सरकार को पुलिस अधिकार देने के लिये अधिकृत किया गया था। पूरे प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में समान कानून व्यवस्था लागू करने के लिये टिहरी के बादजौनसार-बावर परगना (जिला देहरादून) रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958” लाया गया। यह उत्तर प्रदेश का अधिनियम संख्या 27 सन् 1958 था।
कुछ अपवादस्वरूप छोड़कर राजस्व पुलिस की यह व्यवस्था पहाड़ में काफी सफल मानी जा सकती है। अंग्रेज शासक इसे बेहतर एवं बेहद सस्ती व्यवस्था मानते थे। यही कारण रहा कि स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने हल्के-फुल्के बदलावों के अलावा इस व्यवस्था को यथावत रहने दिया। वर्ष 1963 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने .प्र. पटवारी सेवा नियमावली बनाकर विधिवत चयन, पुलिस एवं भू-लेख कार्यों की ट्रेनिंग, पदोन्नति एवं पेंशन आदि की व्यवस्था भी कर डाली। पटवारियों के प्रशिक्षण के लिये अल्मोड़ा में पटवारी प्रशिक्षण संस्थान स्थापित है।





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