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Sunday, December 3, 2017

उत्तराखंड की राजधानी कभी तुगलकाबाद तो कभी दौलताबाद



 उत्तराखंड की राजधानी कभी तुगलकाबाद तो कभी दौलताबाद 
-जयसिंह रावत
Jay Singh Rawat Journalist and Author
हर साल जिस तरह निरुद्ेश्य दो-तीन दिनों के लिये उत्तराखण्ड विधानसभा का सत्र गैरसैण और भराड़ीसैण में किया जा रहा है उसे तुगलकी सोच का नतीजा ही कहा जा सकता है, क्योंकि पहाड़ के लोग गैरसैण में विधानसभा का शोर नहीं बल्कि सत्ता का केन्द्र मांग रहे हैं। लोगों का मानना है कि इस पहाड़ी भूभाग की सत्ता लखनऊ से चल कर देहरादून तो अवश्य गयी मगर उसका लाभ पहाड़ों तक नहीं पहुंच पा रहा है। बात वहां ग्रीष्मकालीन राजधानी की भी हो रही है मगर सरकार वहां कुछ छोटे मोटे दफ्तर तक नहीं खुलवा पा रही है। राज्य सरकार के इस असमंजस्य के कारण देहरादून के रायपुर में प्रस्तावित विधानसभा भवन भी अधर में लटक गया है।
मोहम्मद बिन तुगलक केवल एक बार तुगलकाबाद (दिल्ली) से अपनी राजधानी महाराष्ट्र के देवगिरी या कुतुबाबाद, जिसे उसने दौलताबाद का नाम दिया, ले गया और अपनी गलती स्वीकार कर राजधानी को वापस दिल्ली याने कि तुगलकाबाद ले आया। मगर उत्तराखण्ड में सन् 2014 से लगातार राजधानी का तामझाम कुछ दिनों के लिये विधानसभा सत्र के दौरान देहरादून से गैरसैण जा रहा है और एक सप्ताह से भी कम समय वहां गुजार कर सारा लाव लस्कर वापस देहरादून लौट रहा है। राजधानी को केवल विधानसभा के एक सत्र के लिये फुटबॉल बनाये जाने से लगभग 45 हजार करोड़ कर्ज के बोझ तले तथा विकास कार्यों के लिये पूरी तरह केन्द्र की दया पर निर्भर उत्तराखण्ड राज्य के हर साल इस राजनीतिक तमाशे पर करोड़ों रुपये बरबाद हो रहे हैं।
जन भावनाओं के दबाव में पिछली कांग्रेस सरकार ने सन् 2012 में ही गढ़वाल और कुमाऊं के मध्य में स्थित गैरसैण में राजनतिक और शासकीय गतिविधियां शुरू कर दी थीं। गैरसैण में 3 नवम्बर 2012 को तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की अध्यक्षता में मंत्रिमण्डल की ऐतिहासिक बैठक आयोजित हुई। उसके बाद 9 नवम्बर 2013 को गैरसैण के भराड़ीसैण में विधानसभा भवन के लिये भूमि पूजन हुआ। 14 जनवरी 2013 को भराड़ीसैंण (गैरसैण) में विधानभवन का शिलान्यास किया गया। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष गोविन्द सिह कुंजवाल एवं मुख्यमंत्री ने विधानभवन के साथ ही वहां विधायक ट्रांजिट हॉस्टल, अधिकारी ट्रांजिट हॉस्टल तथा कर्मचारी ट्रांजिट हॉस्टल का भी शिलान्यास किया। बाद में मुख्यमंत्री हरीश रावत की अध्यक्षता में अल्मोड़ा में आयोजित राज्य कैबिनेट की बैठक में लिये गये निर्णय के अनुसार पहली बार गैरसैंण में 9 जून से 12 जून 2014 तक विधानसभा का ग्रीष्मकालीन सत्र टेंटों में आयोजित हुआ। गैरसैण में 2 नवम्बर 2015 से विधानसभा का दूसरा सत्र शुरू हुआ मगर यह पूरी पांच दिन की अवधि तक चलने के बजाय 3 नवम्बर को ही विपक्षी भाजपा के भारी हंगामें के कारण अनिश्चित् काल के लिये स्थगित हो गया। अगले साल 2016 में 17 एवं 18 नवम्बर को गैरसैण के निकट ही भराड़ीसैण में विधानसभा सत्र नवनिर्मित विधानसभा भवन में आयोजित हुआ। अब 7 दिसम्बर से भराड़ीसैण में नवनिर्मित विधानभवन में एक और सत्र आहूत होने जा रहा है। अगर राजधानी के नाम पर केवल विधानसभा सत्र आयोजित होने हैं और वहां जनता के कष्टों को दूर करने के लिये स्थाई तौर राजनीतिक शासकों और आला अफसरों ने नहीं बैठना है तो ऐसी केवल तमाशे वाली राजधानी पहाड़वासियों के किस काम की ?
शिमला की तरह ही गैरसैण को अपनी गतिविधियों के लिये अंग्रेजों ने ही चुना था। सन् 1856 में ब्रिटिश कमिश्नर लुशिंगटन ने गैरसैण के लोहबा में पेशकारी दफ्तर बनाया था, जिसमंे नायब तहसीलदार को रखा गया। उन्होंने इसे सबसे बेहतरीन स्थान बताते हुए प्रशासन का केंद्र बनाने का प्रस्ताव भी तत्कालीन प्रान्त सरकार को भेजा था तथा सिल्कोट टी स्टेट और अन्य चाय बागानों को मिलकर चाय बगान का मुख्यालय भी बनाया था। भराड़सैण के पास ही रीठिया चाय बागान के पास 100 हैक्टेअर, सिलकोट के पास 300 हैक्टेअर और बेनीताल चाय बागान के पास 350 हैक्टेअर जमीन पड़ी है। इन बागानों के मालिक गैरसैंण में राजधानी जाने की प्रतीक्षा में हैं ताकि इन विशाल बागानों पर शानदार रिसार्ट बनाये जा सकें। प्रख्यात समाजसेवी स्वर्गीय स्वामी मन्मथन और कम्युनिस्ट नेता विजय रावत तथा मदनमोहन पाण्डे इन चाय बागानों के अधिग्रहण के लिये 1978 आन्दोलन भी चला चुके हैं। इस स्थान की केन्द्रीय स्थिति होने के कारण इसी को पहाड़ी राज्य की राजधानी बनाने की मांग निरन्तर होती रही है मगर तत्कालीन केन्द्र सरकार ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की राजधानियां तो तत्काल तय कर दी मगर गैरसैण की मांग की अनदेखी कर राजधानी के विवाद को चिरस्थाई बना दिया।
गैरसैण के निकट भराड़ीसैण में विधानसभा भवन, विधायक निवास, सचिव आवास, उवं अन्य  आवश्यक भवनों पर लगभग 125 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इनमें केन्द्र सरकार से शुरू में मिले 80 करोड़ रुपये भी शामिल हैं। विधानसभा सत्र के दौरान इन भवनों में मंत्रियों, विधायकों, अफसरों और कर्मचारियों के ऐशो आराम के लिये पूरी व्यवस्था है। विधानसभा सत्र के बाद इस प्रस्तावित ग्रीष्मकालीन राजधानी के आलीशान बंगलों की छतों और बाल्कनियों में बंदरों और लंगूरों की अफरातफरी नजर आयेगी। पिछली हरीश रावत सरकार एक बार भराड़ीसैण के भवनों को पर्यटकों के आतिथ्य के लिये पर्यटन विभाग को सौंपने का मन बना चुकी थी, लेकिन तब तक मीडिया में बात खुल जाने से बवाल हो गया। इसी असमंजस के कारण सरकार देहरादून के रायपुर में प्रस्तावित विधानसभा भवन और अन्य भवनों का निर्माण शुरू नहीं कर पा रही है। सरकार की हिचक इसलिये कि स्थाई राजधानी का उत्तर उसके पास नहीं है। देहरादून की धारक क्षमता राजधानी का बोझ उठाने लायक नहीं थी। कभी देश के कोने कोने से अभिजात्य वर्ग के लोग, उद्योगपति और चोटी के नौकरशाह रिटायरमेंट के बाद तरोताजा स्वास्थ्य वर्धक आबोहवा और सुरम्यता के साथ ही शान्त माहौल से आकर्षित हो कर देहरादून आकर बसते थे। इसीलिये देहरादून लघु भारत कहा जाता था। लेकिन उस लघु भारत को राजधानी के बोझ ने कुचलकर रख दिया है। राज्य सरकार पर इस बोझ को हल्का करने के लिये भारी दबाव है मगर राजधानी का मसला हल हो पाने के कारण सरकार बेबस है।
प्रदेश की राजधानी को लेकर ढुलमुल रवैये के कारण अगली पिछली सरकारें हर एक काम आधे अधूरे मन से करती रही हैं। भराड़ीसैण में विशालकाय इमारतें तो बन गयीं मगर वहां जाने के लिये सड़कें इतनी तंग हैं कि कई स्थानों पर दो कारें भी एक साथ नहीं गुजर सकतीं। हरीश रावत ने प्रदेश के सभी जिलों से भराड़ीसैण की सीधी कनेक्टिविटी के लिये 6 सड़कें बनाने की घोषणा की थीं जिनके प्रस्ताव अभी फाइलों से मुक्त नहीं हो पाये। पिछले विधानसभा अध्यक्ष के कार्यकाल में भराड़ीसैण विधानसभा के लिये जिन 168 कर्मचारियों की नियुक्ति हुयी थी, उनकी तक तैनाती भराड़ीसैण में नहीं हो पा रही है। अन्य कर्मचारियों और अधिकारियों को भराड़ीसैण की चढ़ाई चढ़ाना कितना मुश्किल होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। राज्य का कृषि निदेशालय पौड़ी में होना था मगर सरकार लाख कोशिशों के बाद भी उसे पौड़ी नहीं चढ़ा पायी। इसी तरह मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक का मुख्यालय नैनीताल में है मगर मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक देहरादून के ही कैंप कार्यालय से काम करता है। जब आप कमिश्नर और डीआइजी जैसे मंडल स्तरीय अफसरों को मंडल मुख्यालय पौड़ी नहीं भेज पा रहे हैं तो राज्य स्तरीय आला अफसरों को कैसे भराड़ीसैण भेज पाओगे, स्वतः समझा जा सकता है।
राज्य गठन के बाद जब विधानसभा के पहले चुनाव हुये थे तो उस समय पहाड़ की 40 और मैदान की 30 सीटें थीं। लेकिन जब 2011 की जनगणना पर आधारित 2006 के परिसीमन से 2012 में चुनाव हुये तो पहाड़ में 34 सीटें रह गयीं और मैदान में सीटें बढ़कर 36 हो गयीं। इस तरह पहाड़ और मैदान के बीच सत्ता सन्तुलन मैदान के पक्ष में चला गया। अगर यही हाल रहा तो सन् 2026 के परिसीमन में पहाड़ में 27 और मैदान में 43 सीटें हो जायेंगी। पहाड़ों से लागों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ तो नेताओं ने भी देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी जैसे नगरों में कोठियां बना कर अपने नये राजनीतिक ठिकाने तलाश लिये। जब पहाड़ के नेताओं को ही पहाड़ की राजधानी पहाड़ में बनाने की मांग बेसुरी लगने लगे तो फिर औरों से क्या उम्मीद की जा सकती है। पहाड़ के कुछ नेता तो खुले आम गैरसैण राजधानी की मांग को बेतुकी बता चुके हैं।
राजधानी के चयन के लिये गठित दीक्षित आयोग ने तो 2 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद जो रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी उसमें गैरसैण को सीधे सीधे ही रिजेक्ट कर दिया था। दीक्षित आयोग ने गैरसैण के साथ ही रामनगर तथा आइडीपीएल ऋषिकेश को द्वितीय चरण के अध्ययन के दौरान ही विचारण से बाहर कर दिया था और उसके बाद आयोग का ध्यान केवल देहरादून और काशीपुर पर केन्द्रित हो गया था। हालांकि दीक्षित आयोग ने गैरसैण के विपक्ष में और देहरादून के समर्थन में जो तर्क दिये थे वे कुतर्क ही थे। जैसे कि उसने गैरसैण का भूकंपीय जोन में और देहरादून को सुरक्षित जोन में बताने के साथ ही गैरसैंण में पेयजल का संभावित संकट बताया था। आयोग का यह अवैज्ञानिक तर्क किसी के गले नहीं उतरा था। आयोग ने मानकों की वरीयता के आधार पर चमोली के गैरसैंण को केवल 5 नम्बर और देहरादून को 18 नंबर दिये थे। यही नहीं आयोग ने देहरादून के नथुवावाला-बालावाला स्थल के पक्ष में 21 तथ्य और विपक्ष में केवल दो तथ्य बताये थे, जबकि गैरसैण के पक्ष में 4 और विपक्ष में 17 तथ्य गिनाये गये थे। फिर भी आयोग ने जनमत को गैरसैण के पक्ष में और देहरादून के विपक्ष में बताया था।
गैरसैंण केवल पहाड़ के लोगों की भावनाओं का प्रतीक नहीं बल्कि इस पहाड़ी राज्य की उम्मीदों का द्योतक भी है। गैरसैण के भराड़ीसैंण में अघोषित ग्रीष्मकालीन राजधानी का आधारभूत ढांचा खड़ा किये जाने की शुरूआत के साथ ही वहां एक नये पहाड़ी नगर की आधारशिला भी पड़़ गयी है। वह नवजात शहर स्वतः ही देहरादून के बाद सत्ता का दूसरा केन्द्र बन जायेगा। सत्ता के इस वैकल्पिक केन्द्र में स्वतः ही नामी स्कूल और बड़े अस्पताल आदि जनसंख्या को आकर्षित करने वाले प्रतिष्ठान जुटने लग जायेंगे। पहाड़ों में शिक्षा और चिकित्सा के लिये सबसे अधिक पलायन हो रहा है। बीस सालों में कम से कम 968 गांव निर्जन हो गये हैं और हजारों गांवों की आबादी आधी रह गयी है। अगर पहाड़ी नगर शिमला और मसूरी में देश के नामी स्कूल खुल सकते हैं तो फिर गैरसैंण में क्यों नहीं। सत्ता ऐसी मोहिनी है कि निवेशक खुद ही गैरसैंण की ओर खिंच आयेंगे। लोगों का मानना है कि गैरसैण में ग्रीष्मकालीन राजधानी बनने से प्रदेश की राजनीतिक संस्कृति में बदलाव आयेगा और उसमें पहाड़ीपन झलकने लगेगा। पहाड़ का जो धन मैदान की ओर रहा है वह वहीं स्थानीय आर्थिकी का हिस्सा बनेगा।

-जयसिंह रावत
पत्रकार
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999




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