सतपाल महाराज की ऋषिकेश - कर्णप्रयाग रेल अब आल वेदर रोड पर
सन् 2017 के उत्तराखण्ड
विधानसभा चुनाव में भाजपा
की झोली में
कुल 70 में 57 सीटें जाने पर
भी उत्तराखण्ड में
राजनीतिक स्थायित्व नजर नहीं
आ रहा है।
एक तरह से
भाजपा का प्रचण्ड
बहुमत ही उसके
गले की फांस
बनता जा रहा
है। अभूतपूर्व बहुमत
पाने के दंभ
में चूर भाजपा
नेतृत्व ने वरिष्ठ
और दमदार नेताओं
को दरकिनार कर
त्रिवेन्द्र सिंह रावत
को इस विश्वास
के साथ मुख्यमंत्री
बना दिया कि
ऐसे बहुमत के
बाद कोई कांग्रेस
में 2016 में हुये
विद्रोह की तरह
हरकत करने की
हिम्मत नहीं कर
सकेगा। मुख्यमंत्री पद के
दावेदार मार्च 2017 में सरकार
के गठन के
बाद ही उपेक्षित
और घुटन महसूस
करने लगे। इस
घुटन और मानसिक
त्रास को मुख्यमंत्री
त्रिवेन्द्र सिंह रावत
की स्वेच्छाचारिता और
दंभ ने और
हवा दे दी।
आज उत्तराखण्ड में
हालत यह है
कि त्रिवेन्द्र रावत
से वरिष्ठ और
सक्षम नेता त्रिवेन्द्र
को अनाड़ी और
अपरिपक्व साबित करने में
कोई कसर नहीं
छोड़ रहे हैं।
जबकि मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र
बड़े कद के
महत्वाकांक्षी मंत्रियों की महत्वाकाक्षाओं
पर लगाम देने
के लिये उनके
द्वारा प्रस्तावित योजनाओं या
जनहित के कामों
को ठण्डे बस्ते
में डाल रहे
हैं। नौकरशाही को
यह संदेश चला
गया है कि
प्रदेश के वरिष्ठ
मंत्रियों की कोई
औकात नहीं है।
नतीजतन नौकरशाही ऐसे मंत्रियों
के निर्देशों को
सीधे कूड़े की
टोकरी में डाल
रही है। रेल
परियोजनाओं के शिलान्यास
और उद्घाटन के
साथ ही प्रधानमंत्री
के दौरों से
सतपाल महाराज को
अलग रखना और
महाराज का राज्य
की योजनाओं के
लिये सीधे केन्द्रीय
नेताओं से मिलना
सत्ताधारी भाजपा की अन्दरूनी
उठापटक का नमूना
है। पिछले साल
हरीश रावत को
गच्चा देकर भाजपा
में शामिल हुये
सभी मंत्रियों की
स्थिति दोयम दर्जे
की जैसी तो
है ही लेकिन
प्रकाश पन्त जैसे
मुख्यमंत्री पद के
दावेदारों की हालत
भी नौकरशाही के
समक्ष कोई अच्छी
नहीं है। उत्तराखण्ड
में इतिहास के
5 साल में ही
दुहराने की परम्परा
शुरू हो चुकी
है। यहां जो
दल सत्ता में
आता है वह
लोकसभा चुनाव हार जाता
है और फिर
मुख्यमंत्री पद पर
बैठा व्यक्ति कुर्सी
गंवा देता है।
इस बार भी
हालात कुछ ऐसे
ही नजर आ
रहे हैं।
जयसिंह रावत
पत्रकार
ई-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव,
शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
Mobile- 9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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