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Tuesday, August 15, 2017

15 अगस्त को देश आजाद हुआ मगर टिहरी रह गयी

15 अगस्त को देश आजाद हुआ मगर टिहरी रह गयी
-जयसिंह रावत
15 अगस्त 1947 को जब सारा देश आजादी का जश्न मना रहा था और देशवासी सारे जहां से अच्छे हिन्दोस्तां के खयालों में डूबे थे तो टिहरी राज्य में राजशाही की गुलामी का एक नया दौर शुरू हो रहा था। चूंकि अन्य देशी राज्यों के शासकों के साथ ही टिहरी नरेश की पैरामौंटसी (सार्वभौम सत्ता) भी ब्रिटिश सरकार के पास गिरवी थी इसलिये अंग्रेजी राज समाप्त होते ही टिहरी का राजा भी स्वयं को स्वतंत्र मान बैठा और लोकतंत्र के पक्ष में उठ रहे स्वरों को दबाने के लिये कमर कसने लगा। इससे पहले शोषत शासित प्रजा कभीकभार राजशाही की शिकायत सीधे पॉलिटिकल ऐजेंट या अंग्रेज हाकिमों से कर लेती थी लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद राजा महाराजाओं पर किसी का नियंत्रण नहीं रह गया था।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब 14 एवं 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को स्वतंत्र भारत का तिरंगा फहराया तो उसी दिन टिहरी में भी महाराजा द्वारा सैन्य परेड का आयोजन किया गया। शिव प्रसाद डबराल आदि इतिहासकारों के अनुसार इस अवसर पर घोषणा की गयी कि अब हमारे ऊपर अंग्रेजों का अधिपत्य नहीं रह गया और ब्रिटिश इंडिया के साथ ही टिहरी राज्य भी स्वतंत्र हो गया। इस अवसर पर महाराजा ने ढडकियों (आन्दोलनकारियों) को भी साफ तौर पर चेतावनी दे डाली कि उसके पास एक सुदृढ़ सेना है जो कि विद्रोहियों के दमन के लिये काफी है। चूंकि द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद बदले विश्व परिदृष्य में भारत की आजादी अवश्यंभावी लग रही थी और उसके बाद 20 फरबरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली ने पार्लियामेंट में उत्तरदायी भारतीयों के हाथों में देश की सत्ता सौंपने की घोषणा कर दी थी, इसलिये अन्य देशी राज्यों की तरह टिहरी राज्य के शासक को भी अंग्रेजों से मुक्ति मिलने की उम्मीद बढ़ने के साथ ही नयी परिस्थितियों में शासन की पकड़ मजबूत करने के लिये टिहरी नरेश ने ढंडकियों को कुचलने के लिये ’टिहरी गढ़वाल मैंटेनेंस आफ पब्लिक ऑर्डर एक्ट (शांति रक्षा अधिनियम) पारित कर दिया था। देश की आजादी के साथ ही टिहरी नरेश ने राज्य के उत्पातियों के दमन के लिये इस अधिनियम का हथियार के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया।
दरअसल महाराजा को स्वतंत्र होने की गलतफहमी बेवजह नहीं थी। देश की अन्य लगभग 560 रियासतों की ही तरह टिहरी राज्य को भी आन्तरिक या बाहरी खतरे से सुरक्षा के लिये ब्रिटिश सरकार का संरक्षण प्राप्त था। सुरक्षा की गारंटी के बदले देशी रियासतों ने ब्रिटिश ’पैरामौंटसी’ स्वीकार कर रखी थी। ब्रिटिश राज समाप्त होने के साथ ही ब्रिटेन ने देशी राज्यों के साथ हुयी संधियों को समाप्त मान लिया था। इन संधियों के समाप्त होते ही देशी राज्य ब्रिटिश नियंत्रण सं मुक्त हो चुके थे। वैसे भी ब्रिटिश प्रधानमंत्री कह गया था कि देशी राज्यों की सार्वभौम सत्ता किसी अन्य को नहीं सौंपी जायेगी। हालांकि नेहरू ने देशी राज्यों की स्वतंत्रता की थ्योरी को साफ तौर पर अस्वीकार करते हुये चेतावनी दे दी थी कि जो बाहरी देश इन राज्यों के साथ सीधा संबंध रखेगा उसे भारत सरकार शत्रुता मानेगी।
इसी दिन जब टिहरी प्रजामण्डल के अध्यक्ष परिपूर्णानन्द पैन्यूली अपनी जेल से फरारी के बाद नयी उम्मीदों को लेकर टिहरी की नयी राजधानी नरेन्द्रनगर पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। हिरासत में लेने के बाद पैन्यूली को जिस कोठरी में उन्हें रखा गया वह नर्क से बदतर थी। पैन्यूली स्वयं बताते हैं कि उस कोठरी की चाहर दीवारी पर मल-मूत्र से पुताई की गयी थी। यही नहीं सारे नगर का पखाना एकत्र कर इस कोठरी के फर्श पर जमा कर रखा था। ऐसी विभत्स और बदबूदार स्थिति में सांस लेना भी बहुत मुश्किल था। ऐसी स्थिति में भोजन करना भी बहुत कठिन था, इसलिये उन्होंने खाना-पीना बंद कर दिया। उन्होंने उस दौरान 21 दिन तक भूख हड़ताल की।
चारों ओर मल-मूत्र की बदबू और भूख हड़ताल के कारण पैन्यूली का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था। चूंकि पैन्यूली अब एक साधारण आन्दोलनकारी न होकर प्रजामण्डल के प्रधान थे और टिहरी में चल रहे सत्याग्रह का उन्हें डिक्टेटर भी बनाया गया था इसलिये उनकी गिरफ्तारी के कारण रियासत के अंदर और बाहर काफी बवाल मचना स्वाभाविक ही था। यह समाचार लैंसडौन के ’कर्मभूमि’ समेत कई प्रमुख अखबारों में छप गया था। कुछ दिन बाद देशी राज्य लोक परिषद के महामंत्री जयनारायण व्यास को पता चला तो पैन्यूली से मिलने आये। तब तक पैन्यूली को उस नारकीय काल कोठरी से अस्पताल में लाया जा चुका था।
पैन्यूली की गिरफ्तारी  के बाद टिहरी के चीफ सेक्रेटरी ने देहरादून, लखनऊ, कानपुर, दिल्ली और गढ़वाल के जिला मजिस्ट्रेटों को भगोड़ा पैन्यूली की गिरफ्तारी की सूचना दे दी। चूंकि टिहरी शासन इससे पहले पैन्यूली की फारारी के बाद उनको गिरफ्तार कर उनका प्रत्यर्पण टिहरी राज्य को करने का अनुरोध 21 जनवरी 1947 को इन सभी जिलों के कलक्टरों से कर चुका था, इसलिये इन जिलों को नवीनतम् कार्यवाही की सूचना देनी जरूरी थी।  चीफ सेक्रटरी ने इस सूचना में अधिकारियों को सावधान करते हुये कहा गया कि पैन्यूली की जेल से फरारी के बाद वह प्रजामण्डल द्वारा प्रधान चुने गये हैं, इसलिये उनकी गिरफ्तारी की प्रतिक्रिया जनाक्रोश के रूप में उनके क्षेत्र में भी हो सकती है।
वास्तव में अगले ही दिन पैन्यूली की गिरफ्तारी के विरोध में टिहरी नगर में आम हड़ताल रही। दरबार की ओर से शांति प्रयास किये जाने के बजाय दमन का मार्ग अपनाया गया। राज्य में राजा तो 1946 में ही बदल गया था मगर दरबारी तो पुराने ही थे, जो कि पूर्व की भांति राजा को गलत राय ही देते थे। पुलिस ने प्रजामण्डल के कार्यकर्ताओं को पकड़ कर कारागार में डाल दिया। नगर के चारों ओर सेना का पहरा लगा दिया गया, जिससे सारा टिहरी नगर छावनी जैसा लगने लगा। इससे जनता का आक्रोश और भी अधिक भड़क गया। (डबराल: गढ़वाल का इतिहास भाग-3: 385 ) इसके बाद रियासत के विभन्न बाजार विरोध में बंद हो रहे थे। नागेन्द्र सकलानी, बंशीलाल पुडीर, दिनेश चन्द्र सकलानी, प्रेमलाल वैद्य, वीरेन्द्रदत्त सकलानी, मास्टर रामस्वरूप रतूड़ी आदि प्रमुख नेताओं को आन्दोलन भड़काने और शांति व्यवस्था भंग करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। प्रजामण्डल के संस्थापक सदस्य और अपने जमाने के मूर्धन्य पत्रकार श्यामचन्द सिंह नेगी अपने एक लेख (सितम्बर 1947: टिहरी सरकार समय की पुकार ) में लिखते हैं कि “प्रजामण्डल के प्रधान श्री परिपूर्णानन्द पैनोली प्रतिबन्ध की परवाह न कर 15 अगस्त को राज्य के अन्दर प्रवृष्ट हुये, यहीं से प्रजामण्डल का वर्तमान आन्दोलन छिड़ा।” वास्तव में टिहरी को राजशाही से आजाद करने वाली अहिंसक क्रांन्ति की शुरुआत पैन्यूली की गिरफ्तारी से शुरू हुयी। पैन्यूली के नेतृत्व में यह जन आन्दोलन सितम्बर 1947 से अपने चरम की ओर बढ़ने लगा ।
देवप्रयाग के भूमिगत आन्दोलनकारी मुरलीधर शास्त्री ने दिनांक 26 अगस्त 1947 को पत्र लिख कर पैन्यूली की गिरफ्तारी के बाद उत्पन्न स्थिति से अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद के महामंत्री जयनारायण व्यास को अवगत कराते हुये कहा कि “अब पुनः पत्र लिखने का कारण कि टिहरी में पुनः दमन चक्र शुरू हो गया है। 16 ता. पं. परिपूर्णानंद, प्रधान केन्द्रीय प्रजामंडल के गिरफ्तार होने पर विरोध करने में राज्य की नौकरशाही ने दफा 144 ता. 17-8-47 से लेकर 29-8-47 तक लगा दी है और इसी में पं. प्रेमलाल वैद्य, पं. शंकर दत्त डोभाल वगैरह 8 व्यक्ति गिरफ्तार कर लिये गये हैं। इन पर पुलिस द्वारा मारपीट भी की गयी और पं. प्रेमलाल वैद्य के मुंह से खून की कै भी निकली। शंकर दत्त डोभाल का हाथ भी टूटा है और 19 ता0 से सबने भूख हड़ताल भी कर दी है।.....सुमन काण्ड की पुनरावृत्ति न हो जाय, ऐसा प्रतीत हो रहा है।” पैन्यूली की गिरफ्तारी के बाद भड़के जनाक्रोश को दबाने के लिये टिहरी के एडिशनल मजिस्ट्रेट ने नये सुरक्षा कानून के तहत टिहरी राज्य की कड़ाकोट, अकरी, डागर, डुंडसिर, बडियारगढ़, भरदार और सरजूला पट्टियों में 3 महीने के लिये धारा 144 लागू कर दी थी। ये पट्टियां प्रजामंडल से सहानुभूति रखने वाली मानी गयी थीं, जबकि कहीं कोई अशांति नहीं दिखाई दे रही थी। देवप्रयाग के मुरलीधर शास्त्री ने जयनारायण व्यास को 29 सितंबर 1947 को भी एक पत्र लिखा जिसमें पैन्यूली की गिरफ्तारी का विरोध करने वाले गिरफ्तार प्रजामण्डल कार्यकताओं पर लगे जुर्माने की वसूली के लिये प्रेमलाल वैद्य और शंकरदत्त डोभाल आदि की सम्पति कुर्क करने के आदेश जारी होने की भी शिकायत की। इस पत्र में शास्त्री ने जेल में बंद परिपूर्णानन्द द्वारा भूख हड़ताल किये जाने का भी उल्लेख करते हुये तत्काल हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया।
जानवरों जैसा भोजन, गंदगी और भूख हड़ताल से गिरते स्वास्थ्य तथा अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद सहित चारों ओर से पड़ रहे दबाव के आगे झुक कर दरबार ने अन्ततः पैन्यूली को सितम्बर 1947 में जेल से रिहा कर ही दिया। जेल से रिहाई के बाद परिपूर्णानन्द पैन्यूली ने टिहरी के जनसंघर्ष का संचालन एक बार फिर अपने हाथ में ले लिया और 15 जनवरी 1948 को प्रजामण्डल ने टिहरी की सत्ता अपने हाथ में ले ही ली। अगले दिन भारत सरकार ने टिहरी का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और अन्ततः 1 अगस्त 1949 को टिहरी का भारत संघ में विलय हो ही गया। वास्तव में टिहरीवासियों का स्वतंत्रता दिवस ही यही है।

इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (इंडिपेंडेंस ऑफ इंडिया एक्ट 1947) के तहत ब्रिटिश शासित क्षेत्र के भारतवासियों को स्वशासन सौंपे जाने के साथ ही देशी रियासतों पर भी ब्रिटिश सार्वभौम सत्ता समाप्त हो गयी थी। क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य की ओर से देशी राज्यों के साथ हुयी संधियों के तहत उनकी सुरक्षा की गारंटी और बदले में ब्रिटिश पैरामौंटसी (अधीनता) भी समाप्त हो चुकी थी। इसलिये टिहरी समेत अधिकांश नरेश स्वयं को सम्प्रभुता सम्पन्न अधिनायक मानने लगे थे। फिर भी ब्रिटिश संसद में वहां के एटार्नी जनरल ने स्पष्ट कर दिया था कि ब्रिटिश सम्राट/साम्राज्ञी इन रियासतों को पृथक अन्तराष्ट्रीय मान्यता देने को तैयार नहीं हैं। नेहरू भी साफ कह चुके थे कि अगर कोई देश इन रियासतों को मान्यता देगा तो उसे शत्रुतापूर्ण कार्यवाही माना जायेगा। सरदार पटेल के अनुरोध पर तत्कालीन गर्वनर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने 25 जुलाइ 1947 को चैम्बर आफ प्रिंसेज के अधिवेशन में साफ कह दिया था कि देशी राज्यों को भारत या पाकिस्तान में से किसी एक के साथ मिल जाना चाहिये। गर्वनर जनरल ने साफ कह दिया था कि ऐसी भौगोलिक परिस्थितियां हैं जिनके चलते सुरक्षा और सुव्यवस्था की दृष्टि से देशी रियासतों को अपने से जुड़े ब्रिटिश शासित रहे प्रान्तों में मिलने के सिवा दूसरा विकल्प नहीं है। इसलिये 15 अगस्त 1947 तक हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर जैसे कुछ बड़े राज्यों को छोड़ कर टिहरी समेत 136 रियासतों ने इंट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन (विलय पत्र) पर हस्ताक्षर कर दिये थे। भारत के गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल और देशी रियासतों से संबंधित विभाग के सचिव पी.वी. मेनन द्वारा बहुत ही चतुराई से तैयार इस विलयपत्र पर टिहरी के महाराजा मानवेन्द्र शाह ने 8 अगस्त को हस्ताक्षर कर दिये थे जिसे भारत के गर्वनर जनरल माउंटबेटन ने 16 अगस्त 1947 को स्वीकार किया। इससे पहले टिहरी के मुख्य सचिव पी.एल. सौंधी और भारत सरकार में देशी राज्यों के मामलों के सचिव पी.वी. मेनन ने 11 अगस्त 1947 को इस नयी शासन व्यवस्था के लिये संधि पर हस्ताक्षर कर दिये थे। इस अस्थाई नयी शासन व्यवस्था के तहत देशी राज्यों पर उनके शासकों का अधिपत्य तो था मगर संधि के तहत 18 ऐसे विषय थे जिन पर भारत अधिराज्य की विधायिका कानून बना सकती थी। इसका मतलब साफ था कि ये विषय भारत अधिराज्य के अधीन आ गये थे जिनमें रक्षा, विदेश मामले, संचार, मौद्रिक व्यवस्था, कस्टम, प्रत्यारोपण, सिंचाई, बिजली, आवश्यक वस्तुओं पर नियंत्रण, राष्ट्रीय राजमार्ग, नमक, रेलवे, डाक एवं तार, केन्द्रीय उत्पादकर, अफीम और मोटर वाहन आदि शामिल थे। इतने अधिकार गर्वनर जनरल के अधीन रह कर स्वशासन करने वाली भारत सरकार को देने के बावजूद टिहरी में सामन्तशाही निरंकुश शासन करती रही।
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