विश्व धरोहर फूलों की घाटी के दुर्दिन
-जयसिंह रावत
पारिस्थितिकी
तंत्र की जानकारी
के नितांत अभाव,
वन एवं वन्यजीव
संरक्षण के अव्यवहारिक
सरकारी उपाय और
विवेकहीन पर्यटन तथा विकास
की नीतियों के
चलते धरती पर
स्वर्ग का जैसा
नजारा देने वाली
”विश्व विख्यात फूलों की
घाटी’’ का अस्तित्व
खतरे में पड़
गया है। जानकार
तो यहां तक
कह रहे हैं
कि कुदरत के
इस हसीन तोहफे
पर पर्यावरण कानूनों के ताले
डाले जाने से
इसके अंदर की
विलक्षण जैव विविधता
का दम घुटने
लगा है। वनस्पति
विज्ञानियों को डर
है कि अगर
पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम जैसी झाड़-पतवार प्रजातियां इसी
तरह फैलती गयी
तो वह दिन
दूर नहीं जबकि
मनुष्य को सौदर्य
का बोध कराने
वाली दुर्लभ फूलों
की यह घाटी
झाड़ियों की घाटी
में तब्दील हो
जायेगी।
Article published in Hindustan newspaper on 5 June 2017 |
विलक्षण पादप विविधता
और अद्भुत नैसर्गिक
छटा को परखने
के बाद यूनेस्को
द्वारा 2005 में विश्व
धरोहर घोषित फूलों
की घाटी और
नन्दादेवी बायोस्फीयर रिजर्व पर
जब से कानूनों
का शिकंजा कसता
गया तब से
वहां जैव विविधता
बढ़ने के बजाय
फूलों की कई
प्रजातियां दुर्लभ या संकटापन्न
हो गयीं। यही
नहीं वहां कस्तूरी
मृग, भूरा भालू
और हिम तेंदुआ
जैसी प्रजातियां दुर्लभ
हो गयी हैं।
सन् 1982 में इसे
राष्ट्रीय पार्क घोषित किये
जाने के बाद
इसके पादप वैविध्य
का भारत सरकार
के तीन विभागों
ने अलग-अलग
सर्वे किया है।
इनमें से भारतीय
सर्वेक्षण विभाग (बीएसआइ) द्वारा
गोविन्द घाट से
लेकर फूलों की
घाटी के सिरे
तक 19 किमी लम्बी
भ्यूंडार घाटी के
सर्वे में 613 पादप
प्रजातियां दर्ज हुयी
हैं। जबकि वाइल्ड
लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ
इंडिया (डब्लुआइआइ) के पादप
विज्ञानियों ने लगभग
87.50 वर्ग किमी में
फैली इस घाटी
के केवल 5 किमी
लम्बे हिस्से का
सर्वे किया जिसमें
521 प्रजातियां दर्ज हुयी
हैं। दूसरी ओर
भारतीय वन अनुसंधान
संस्थान (एफआरआइ) के वनस्पतिशास्त्रियों
ने वनस्पति सर्वेक्षण
विभाग की सूची
में 50 अतिरिक्त प्रजातियों को
जोड़ा है। इन
प्रजातियों में लगभग
400 प्रजातियां फूलों की हैं
जिनमें ब्लू पॉपी,
सीरिंगा इमोडी, एबीज पिन्ड्रो,
एसर कैसियम, बेटुला
यूटिलिस, इम्पैटीन्स सुल्काटा, पौलीमोनियम
कैरुलियम, पेडिकुलैरिस पेक्टिनाटा, प्रिमुला
डेन्टीकुलेट, कैम्पानुला लैटिफोलिया, जेरेनियम,
मोरिना, डेलफिनियम, रेनन्कुलस, कोरिडालिस,
इन्डुला, सौसुरिया, कम्पानुला, पेडिक्युलरिस,
मोरिना, इम्पेटिनस, बिस्टोरटा, लिगुलारिया,
अनाफलिस, सैक्सिफागा, लोबिलिया, थर्माेपसिस,
साइप्रिपेडियम आदि हैं।
इन नाजुक प्रजातियों
के अस्तित्व पर
गंभीर खतरा मंडराने
लगा है।
दुनियां की नजर
में कुदरत के
इस बेहद हसीन
तोहफे को सबसे
पहले ब्रिटिश पर्वतोराही
फ्रेंक स्माइथलाया था। वह
अपने साथी होर्ल्ड्वर्थ
के साथ सन्
1931 में सीमान्त जिला चमोली
में स्थित कामेट
शिखर पर चढ़ाई
के बाद लौटते
समय भटक कर
जब यहां पहुंचा
तो वह जंगली
फूलों के सागर
में डूबी इस
घाटी का दिव्य
नजारा देख कर
आवाक रह गया।
दुनियां की कई
घाटियों से गुजर
कर गगनचुम्बी शिखरों
पर चढ़ाई करने
वाले स्माइथ ने
प्रकृति का ऐसा
नैसर्गिक रूप कहीं
नहीं देखा था।
फ्रेंक स्माइथ जब वापस
इंग्लैंड लौटा तो
वह स्वयं को
नहीं रोक पाया
और 6 साल बाद
फिर इस घाटी
में लौट आया
जहां उसने अपने
साथी बॉटनिस्ट आर.एल. होल्ड्सवर्थ
के साथ मिल
कर घाटी की
पादप विविधता का
विस्तृत अध्ययन किया और
अपने अनुभवों तथा
घाटी की विलक्षण
विविधता पर सन्
1938 में अपनी विश्व
विख्यात पुस्तक ‘‘द वैली
ऑफ फ्लावर्स’’ प्रकाशित
कर दी। इस
पुस्तक में उसने
इस घाटी का
वर्णन दुनिया की
सबसे हसीन फूलों
की घाटी के
रूप में किया।
पुस्तक को पढ़ने
के बाद 1939 में
ईडनवर्ग बॉटनिकल गार्डन की
वनस्पति विज्ञानी जौन मार्गरेट
लेगी यहां पहुंची।
बीसवीं सदी के
तीसवें दशक तक
ऋषिकेश से ऊपर
मोटर मार्ग नहीं
था, इसलिये मार्गरेट
लेगी 289 किमी की
कठिनतम् पैदल यात्रा
कर हिमालय की
उस कल्पनालोक जैसी
सुन्दर घाटी में
जा पहुंची। वह
एक माह तक
वहां विलक्षण पादप
प्रजातियों के संकलन
के दौरान 4 जुलाइ
1939 के दिन पांव
फिसलने से चट्टान
से गिर गयी
और अपनी जान
गंवा बैठी। मार्गरेट
जब समय से
वापस नहीं लौटी
तो लंदन से
उसकी बहन भी
घाटी में पहुंची
जहां उसे मार्गरेट
का शव मिल
गया जिसे वहीं
कब्र बना कर
प्रकृति की गोद
में सुला दिया
गया। वहां आज
भी मार्गरेट लेगी
की कब्र उसकी
याद दिलाती है।
लेकिन आज जब
प्रकृति की विलक्षण
कारीगरी का नमूना
देखने के लिये
देशी-विदेशी पर्यटक
पहुंचते हैं तो
फ्रेंक स्माइथ, मार्गरेट लेग्गी
और अस्सी के
दशक से पूर्व
वहां पहुंचे पुष्प
प्रेमियों की तरह
यह हसीन घाटी
उनके मन को
नहीं हर पाती
है। कारण यह
कि सनकी दिमागों
से उपजे निर्णयों,
आसपास की अत्यधिक
अनियंत्रित भीड़ और
पहाड़ों की अत्यंत
जटिल और सहज
भंगुर पारिस्थितिकी तंत्र
की वास्तविकताओं से
अनविज्ञ प्रबंधकों और नीति
निर्माताओं के कारण
वहां इको सिस्टम
में काफी बदलाव
आ गया है।
वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ)
के पारिस्थितिकी विशेषज्ञों
के अनुसार गलत
नीतियों के कारण
वहां नेचुरल सक्सेशन
(प्राकृतिक उत्तराधिकार) की प्रकृया
शुरू हो गयी
है। इस प्राकृतिक
प्रकृया के तहत
जब एक प्रजाति
विलुप्त होती है
तो उसकी जगह
दूसरी प्रजाति ले
लेती है। इस
घाटी में नाजुक
फूलों की प्रजातियों
की जगह पोलीगोनम
पॉलिस्टैच्यूम जैसी झाड़ीनुमा
प्रजातियां लेने लगी
है। वन अनुसंधान
संस्थान में वरिष्ठ
वैज्ञानिक रह चुके
डा0 जे.डी.एस नेगी
एवं डा0 एच.
बी. नैथाणी के
अनुसार अगर घाटी
में तेजी से
फल रही पोलीगोनम
पॉलिस्टैच्यूम को समूल
नष्ट नहीं किया
गया तो सौ
सालों से पहले
ही फूलों की
घाटी केवल झाड़ियों
की घाटी बन
कर रह जायेगी
और प्रकृति की
यह अनूठी सुरम्यता
वियावान बन जायेगी।
डा0 ज.ेडी.एस. नेगी
के अनुसार घाटी
में पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम
और ओसमुण्डा जैसी
विस्तारवादी प्रजातियों का विस्तार
तेजी से हो
रहा है और
लगभग ढाइ मीटर
तक ऊंची इन
प्रजातियों के नीचे
प्रिमुला और हिमालयी
ब्लू पॉपी जैसी
नाजुक प्रातियां पनप
नहीं पा रही
हैं। वैसे भी
वनस्पति विज्ञानियों का मानना
है कि हिमालय
पर वनस्पति प्रजातियां
जलवायु परिवर्तन के कारण
ऊपर की ओर
चढ़ रही हैं।
वृक्ष रेखा के
साथ ही झाड़ियां
भी ऊंचाई की
ओर बढ़ रही
हैं। फूलों की
घाटी में भी
इस झाड़ीनुमा प्रजाति
पोलीगोनम के अलावा
बीच में बुरांस
(रोडोन्डेण्ड्रन) और बेटुला
यूटिलिस जैसी बड़े
आकार की प्रजातियां
पनपने लगी हैं,
जबकि यह एल्पाइन
या बुग्याल क्षेत्र
है और बृक्ष
रेखा इससे काफी
नीचे होती है।
अगर यहां की
जैव विधिता पर
पोलीगोनम पॉलिस्टैच्यूम का हमला
नहीं रोका गया
तो 100 सालों के अन्दर
ही यह घाटी
घनघोर जंगल या
झाड़ियों में गुम
हो जायेगी।
भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग,
वन अनुसंधान संस्थान
और वाइल्ड लाइफ
इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया
के पादप विज्ञानियों
के अनुसार फूलों
की घाटी समेत
खिरों घाटी जैसे
बुग्यालों में चीनी
या तिब्बत मूल
की पादप प्रजातियां
हैं। वनस्पति विज्ञानी
डा0 जे.डी.एस.नेगी
के अनुसार इस
अद्भुत पादप विविधता
की उम्र लगभग
ढाइ से तीन
हजार साल पुरानी
है। शोधकर्ताओं के
कौतूहल का विषय
रही इस विविधता
की जननी बकरियां
रहीं हैं। हिमालयन
एक्शन रिसर्च सेंटर
(हार्क) के एक
अध्ययन के अनुसार
स्थानीय लोगों और उनकी
बकरियों की गतिविधियों
के कारण वहां
जंगल की जगह
सकेड़ों प्रकार की फूलों
की प्रजातियां उगीं।
उनकी ही गतिविधियों
के चलते वहां
प्राकृतिक बदलाव में ठहराव
आया और जैव
वैविध्य बरकरार रहा। महेन्द्र
सिंह कुंवर के
नेतृत्व में जयसिंह
रावत और ओम
प्रकाश भट्ट द्वारा
किये गये एक
अध्ययन के अनुसार
घाटी को राष्ट्रीय
पार्क का दर्जा
तो 1982 में मिल
गया था लेकिन
सन् 1991 में जब
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 में
संशोधन हुआ तो
उसमें पादप प्रजातियां
भी शामिल कर
दी गयीं और
उसी के साथ
ही घाटी में
स्थानीय लोगों और उनकी
बकरियों के प्रवेश
पर रोक लग
गयी। इससे पहले
वहां स्थानीय लोगों
की बकरियां पहुंचती
थीं तो वे
अनावश्यक घास को
चरती थी और
बाहरी हस्तक्षेप के
कारण वहां एक
ही प्रजाति का
साम्राज्य नहीं हो
पाता था। यही
नहीं बकरियों के
बालों पर फूलों
के बीज चिपक
जाते थे इससे
पुष्प प्रजातियों का
फैलाव भी होता
था। वन अनुसंधान
संस्थान के सेवानिवृत
वरिष्ठ वैज्ञानिक डा0 एच.
बी. नैथाणी (वैज्ञानिक
एस.एफ) के
अनुसार फूलों की घाटी
में स्थानीय लोगों
की बकरियों के
प्रवेश पर भी
प्रतिबन्ध लगने से
वहां होमोजेनस कण्डीशन
पैदा हो गयी
है जबकि पादप
वैविध्य के लिये
हेट्रोजेनस कण्डीशन की जरूरत
होती है। ऐसी
स्थिति में कहीं
भी झाड़ झंकाड़
या तेजी से
फैलने वाली बड़े
आकार की एक
ही तरह की
प्रजातियां फैल जाती
है। नन्दा देवी
राष्ट्रीय पार्क के डीएफओ
चन्द्र शेखर जोशी
भी स्वीकार करते
हैं कि पोलीगोनम
से फूलों की
घाटी की जैव
विविधता के लिये
खतरा उत्पन्न हो
गया है। इस
खतरे से निपटने
के लिये हर
साल वहां जून
से लेकर जुलाइ
तक इस प्रजाति
के पौधे उखाड़ने
का अभियान चलाया
जाता है। जोशी
कहते हैं कि
पोलीगोनम कोई बाहरी
प्रजाति तो नहीं
है मगर उसके
बड़े आकार और
तेजी से फैलने
की प्रवृत्ति के
कारण उसका फैलाव
जल्दी हो जाता
है और उसके
नीचे सुन्दर और
नाजुक पुष्प प्रजातियां
उग नहीं पातीं।
शोधकर्ताओं
के अनुसार प्रचीन
काल से लेकर
1962 में भारत-चीन
युद्ध तक इस
सीमान्त क्षेत्र के निवासियों
का तिब्बत के
साथ वस्तु विनिमय
के आधार पर
व्यापार चलता रहा
है। उस समय
इस उच्च हिमालयी
क्षेत्र में आवागमन
और सामान को
ढोने का साधन
बकरियां, याक और
घोड़े जैसे जानवर
ही होते थे।
ये जीव जब
तिब्बत के एल्पाइन
चारागाहों से चरते
हुये लौटते थे
तो इनके बालों
पर वहां के
फूलों के बीज
(स्थानीय बोली में
कूरे-कुंबर) चिपक
जाते थे। उस
जमाने में आज
की फूलों की
घाटी जैसे बुग्याल
बकरियों के कैंपिंग
ग्राउण्ड होते थे।
उन कैंपिंग ग्राउण्ड
में व्यापारी तथा
उनकी भेड़ें कई
दिनों तक विश्राम
करती थीं। वह
इसलिये कि वहां
बकरियों के लिये
चरने के लिये
पर्याप्त घास मिल
जाती थी। इसी
दौरान तिब्बत से
चिपक कर आये
फूलों या वनस्पतियों
के बीज वहां
गिर जाते थे।
इसीलिये एक छोटी
सी घाटी में
इतनी तरह की
पादप प्रातियां उग
जाती थीं और
फिर वे प्रजातियां
उन चारागाहों की
स्थाई वास बन
जाती थी। वनस्पति
विज्ञानियों के अनुसार
तिब्बत से बकरियों
और याकों पर
चिपक कर आये
बीजों से जन्मीं
ये पुष्प प्रजातियां
इसीलिये चीनी या
तिब्बती मूल की
हैं। उत्तराखण्ड की
सरकार और उसका
पर्यटन विभाग फूलों की
घाटी के अस्तित्व
पर मंडराते खतरे
के प्रति कितनी
सजग है उसका
नमूना पर्यटन विभाग
के उन पोस्टरों
को देख कर
लगाया जा सकता
है जिनमें इस
अद्भुत प्राकृतिक पुष्प वाटिका
की दुश्मन पोलीगोनम
को फूलों की
घाटी की शान
के तौर पर
प्रचारित किया जाता
है।
जयसिंह रावत
ई-11 फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
919412324999
jaysinghrawat@gmail.com
jaysinghrawat@hotmail.com
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