कहां चिरागां मयस्सर नहीं एक शहर के लिये
-जयसिंह रावत--
“कहां तो तय था चिरागां घर-घर के लियेे, कहां चिरागां मयस्सर नहीं एक शहर के लिये”। लगता है दुष्यन्त कुमार ने यह शेर उत्तराखण्ड के लिये ही लिखा था। कहां तो उत्तराखण्ड अपने अपार जल संसाधनों के बल पर उर्जा राज्य बन कर सारे देश को बिजली देने की तैयारी कर रहा था और कहां देश का यह भावी पावर हाउस स्वयं बिजली की एक -एक यूनिट के लिये तरसने लग गया है। अगर प्रदेश की पन बिजली परियोजनाओं को इसी तरह एक बाद एक बन्द करने तथा कुछ की भ्रूण हत्या का सिलसिला एक के बाद एक जारी रहा तो इस राज्य का अन्धकारमय ही समझें।
प्रो0 गुरुदास अग्रवाल के पहले अनशन के दौरान 19 जून 2008 को उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी भागीरथी पर बिजली परियोजनाओं को बन्द करने का जो सिलसिला शुरू किया वह अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। भागीरथी पर बन रही 480 मेगावाट की पाला मनेरी और 381 मेगावाट की भैरोंघाटी परियोजनाओं को खण्डूड़ी सरकार से बन्द कराने में सफल होने के बाद प्रो0 अग्रवाल आखिरकार केन्द्र सरकार को 600 मेगावाट की लोहारी नागपाला बन्द कराने में भी सफल हो ही गये। इसके बाद अब अलकनन्दा पर प्रस्तावित 830 मेगावाट की कोटली बहल परियोजना के देवप्रयाग के निकट बनने वाली 320 मेगावाट की द्वितीय चरण की परियोजना की भ्रूण हत्या का इन्तजाम हो गया। इस परियोजना को मिली पर्यावरण सम्बन्धी क्लीयरेंस ही अदालत ने रद्द कर दी। अब तो उत्तराखण्ड सरकार की बक्रदृष्टि श्रीनगर गढ़वाल में बन रही 330 मेगावट की श्रीनगर परियोजना पर भी पड़ गयी। इस प्रोजेक्ट के खिलाफ विहिप जैसे संघ परिवार के जो लोग भागीरथी की अविरलता को लेकर हायतौबा कर रहे थे, वे अविरलता को भूल कर श्रीनगर में एक स्थानीय मंदिर धारी देवी का राग अलापने लगे। हालत आज यह है कि अब कोई भी कम्पनी इस राज्य में बिजली परियोजनाओं पर पूंजी लगाने की जोखिम मोल लेने की स्थिति में नहीं है।
हिमानियों पर आधारित गंगा और यमुना जैसी सदानीराओं की बदौलत अपार जल संसाधन और उपर से पानी के प्रचण्ड वेग से पैदा भौतिक उर्जा से विद्युत उर्जा पैदा करने सर्वोत्तम सम्भावनाओं को देखते ही अग्रेजों ने दार्जिलिंग के बाद उत्तराखण्ड के मसूरी के नीचे गलोगी में सन् 1907 में पन बिजली पैदा करने की शुरुआत की थी। बिजली पानी में बह कर नहीं आती है। पानी के वेग से उत्पन्न भौतिक उर्जा या शक्ति से बिजलीघरों की टरबाइनें घूमती हैं और फिर बिजली (इलैक्ट्रि)उर्जा पैदा होती है। इसके लिये ढलान की जरूरत होती है और उत्तराखण्ड जैसा ढलान और कहां मिल सकता है जहां लगभग 4000 मीटर की उंचाई पर स्थित गोमुख और सतोपन्थ से गंगा चल कर 300 मीटर की उंचाई पर स्थित ऋषिकेश में मैदान पर उतरती है। पानी की इसी भौतिक उर्जा का उपयोग करने के लिये पहाड़ों पर गेंहूं पीसने वाले घराटों (पन चक्कियों)का जन्म सेकड़ों साल पहले हुआ था। यही घराट आधुनिक पनबिजलीघरों का पिता या पितामह माने जा सकते हैं।
राज्य के गठन के समय उत्तराखण्ड में लगभग 15हजार मेगावाट की परियोजनाऐं विभिन्न चरणों में थीं। इनमें लगभग 1130 मेगावाट की परियोजनाऐं उत्पादनरत् थीं जबकि 4164 मे.वा. की निर्माणाधीन, 5571 मे.वा. की विकास प्रकृया के दौर में तथा 4245 मे.वा. की परियोजनाओं को विकास के लिये लिया जाना था।इनमें से निर्माणाधीन परियोजनाऐं नब्बे के दशक से धनाभाव के कारण बन्द थीं और मात्र लगभग 1100 मेगावाट के 25 से 30 साल पुराने पावरहाउस चल रहे थे, और ये पावर हाउस अपनी क्षमता से आधे के बराबर भी बिजली पैदा नहीं कर पा रहे थे।राज्य की पहली भाजपा सरकार के दूसरे मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी ने बन्द पड़ी परियोजनाओं को शुरू करने की कोशिश ही की थी कि उनका कुछ ही महीनों का कार्यकाल पूरा हो गया। प्रदेश में जब पहली निर्वाचित सरकार नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में आई तो बन्द पड़ी कई परियोजनाऐं फिर शुरू हो गयीं और उत्तराखण्ड को उर्जा राज्य के रूप में फिर प्रचारित किया जाने लगा। तिवारी सरकार के कार्यकाल में राज्य की जलवि़द्युत क्षमता को 20 हजार घोषित की गयी। तिवारी के बाद भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आयी तो खण्डूड़ी ने उत्तराखण्ड की विद्युत उत्पादन क्षमता 40 हजार बता दी। खण्डूड़ी सरकार ने क्षमता वृद्धि तो की नहीं अलबत्ता लगभग 800 मेगावाट की भैरोंघाटी और पाला मनेरी परियोजनाओं को डा0 गुरुदास अग्रवाल के अनशन के कारण बन्द जरूर करा दीं।
कुल मिला कर देखा जाय तो देश के भावी पावर हाउस के रूप में प्रचारित इस उत्तराखण्ड में देश को जगमगाने वाली जलविद्युत परियोजनाओं को ग्रहण लग गया है। प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार ने दसवीं पंचवर्षीय योजनाकाल में प्रदेश की विद्युत उत्पादन क्षमता में 3876 मे.वा. की वृद्धि का लक्ष्य रखा था इसमें से केन्द्रीय सेक्टर की 1000 मे.वा. की टिहरी बांध प्रथम चरण और 280 मे.वा. की धौली गंगा, निजी क्षेत्र की 400 मे.वा. की विष्णुप्रयाग और 304 मे.वा. की राज्य सैक्टर की मनेरी भाली द्वितीय ही पूरी हो पाई।
प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार द्वारा बिजली परियोजनाओं का कलैण्डर भी तैयार किया गया था, जिनमें से सन् 2008 तक100 मे.वा.से उपर की 2314 मेगावाट की 5 परियोजनाओं से उत्पादन शुरू होना था।इनमें से श्रीनगर परियोजना अब तक हिचखोले खा रही है। इनके अलावा पाला मनेरी और लोहारी नागपाला सहित 1180 मे.वा. की 5 परियोजनाओं की कमिशनिंग 2010 तक होनी थी। इनमें केवल लोहारी नागपाला पर काम शुरू हुआ था तो उसे केन्द्र के जयराम रमेश और उत्तराखण्ड के रमेश ने साधुओं को खुश करने के लिये बन्द करा दिया। जयराम रमेश जैसे अति उत्साही पर्यावरणमंत्री के होते हुये यह देश बिजली संकट से कभी मुक्ति नहीं पा सकता।कलैण्डर के मुताबिक केन्द्र,राज्य और निजी क्षेत्र में कुल मिला कर 7448 मे.वा. की 14 अन्य परियोजनाओं ने 2011 तक उत्पादन शुरू करना था जो कि सब की सब लटकी हुयी हैं। इनके अलावा भी 509 मे.वा. क्षमता की 25 से लेकर 100 मे.वा. की 13 अन्य परियोजनाओं को 2009 तक उत्पादन शुरू करना था, जिन पर काम अब तक शुरू नही हुआ। कुल मिला कर सन् 2011 तक 12000 मेगावाट से अधिक विद्युत उत्पादन क्षमता में वृद्धि होनी थी लेकिन इन सभी के भविष्य को पर्यावरण पुरस्कारों की हवश ने अधर में लटका दिया।
आज सवाल यह खड़ा हो गया है कि उत्तराखड जैसे प्रदेश में जब पन बिजली का उत्पादन नहीं होने दिया जायेगा तो फिर भारत की सरकार कहां जा कर पावर हाउस लगायेगी। अचरज की बात तो यह है कि आस्था के नाम पर जो लोग गंगा की अविरलता की बात कर रहे हैं वे गंगा की निर्मलता की बात नहीं करते। उत्तराखण्ड में गंगा की अविरलता के नाम पर प्रोजेक्ट तो बन्द कराये जा रहे हैं, मगर बद्रीनाथ सहित एक दर्जन नगरों के लाखों लोगों का मलमूत्र तथा प्रतिदिन निकलने वाला सेकड़ों टन कूड़ा कबाड़ अलकनन्दा में आने से रोकने के लिये प्रयास नहीं हो रहे हैं। बद्रीनाथ की सीवर लाइन एक दशक से अधूरी पड़ी है।ऋषिकेश से लेकर गंगोत्री, यमुनात्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ तक के सारे इलाके का मलमूत्र गंगा में ही आ रहा हैद्व क्योंकि वहां सीवर लाइन ही नहीं बनी है। एक अनुमान के अनुसार गोमुख से लेकर गंगा सागर तक के इसके 2510 कि.मी. के सफर में इसमें एक बिलियन लीटर सीवेज का मलमूत्र युक्त पानी मिल जाता है। उत्तराखण्ड पेयजल निगम द्वारा कराये गये एक अध्ययन के अनुसार बद्रीनाथ से लेकर हरिद्वार तक गंगा में प्रतिदिन लगभग 132 मिलियन लीटर सीवेज का पानी मिल जाता है।
आज के जमाने में बिजली के बिना विकास या जीवन की ही कल्पना नहीं की जा सकती है। बिजली ही विकास दर की चालक है। सन् 2012 तक देश की उर्जा जरूरत को पूरा करने के लिये लगभग 2 लाख मेगावाट बिजली की जरूरत होगी जबकि देश की अधिष्ठापित क्षमता केवल 1 लाख 47 हजार मेगावाट है और उसमें से भी वास्तविक उत्पादन लगभग 85 हजार मेगावाट के आसपास होता है। इस बिजली में भी पन बिजली का हिस्सा महज 26 प्रतिशत है जबकि आजादी के समय यह 50 प्रतिशत था। पन बिजली ही सबसे साफ सुथरी, सबसे सस्ती और सबसे सुरक्षित मानी जाती है।इसके बाद उत्पादित बिजली में से 59 प्रतिशत कोयला आधारित तापीय, 2 प्र0श0 नाभिकीय, 2 प्र0श0 वायु, 1 प्र0श0 डीजल और 10 प्रतिशत गैस आधारित बिजली है। इनमें से रिन्यूवेबल श्रोत पानी, हवा और सूरज से उत्पन्न होने वाली बिजली ही युगों - युगों तक चल सकती है।देश की बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिये 78577 मेगावाट की क्षमता वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था जिसमें से उत्तराखण्ड की जैसी कई परिस्थितियों के कारण 60 प्रतिशत लक्ष्य पूरा नहीं हो सका।
उत्तराखण्ड के बहुप्रचारित उर्जा राज्य के सपने को पर्यावरण राजनीति और पुरातनपंथी सोच ने चकनाचूर कर दिया है। इस दिवास्वप्न को रौंदने में पुरस्कारों की हवश और निर्णय लेने वालों का उतावलापन भी पीछे नहीं रहा। पहले तो धड़ाधड़ बिना सथानीय समुदाय की राय और दूरगामी पर्यावरणीय पहलुओं पर गहनता से विचार किये बिना पन बिजली परियोजनाओं पद सर्वे से लेकर निर्माण के कार्य शुरू होते रहे और अब उसी तरह इन परियोजनाओं को बन्द करने का सिलसिला शुरू हो गया।यही हाल रहा तो सन् 2012 तक हर घर को बिजली देने का लक्ष दुस्वप्न में बदल जायेगा।
--- जयसिंह रावत----
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