Search This Blog
Wednesday, February 22, 2012
KOTDWAR MAY BE PROVED AS WATERLOO
-जयसिंह रावत-
भारतवर्ष को अपना नाम देने वाले दुष्यंत और शकुन्तला के पुत्र तथा कुरूवंश के आदि पुरूष चक्रवर्ती महाराजा भरत की क्रीडा और शिक्षा स्थली कण्वाश्रम की कोटद्वार सीट इस विधनसभा चुनाव में एक बार फिर इतिहास रचने जा रही है। इस सीट पर अगर मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूड़ी चुनाव जीतते हैं तो वह 44 सालों के बाद इस क्षेत्र से चुनाव जीतने वाले पहले ब्राह्मण प्रत्याशी होंगे और अगर चुनाव हार जाते हैं तो मुख्यमंत्री की हार एक इतिहास तो बनाती ही है। अगर खण्डूड़ी हार गये तो कोटद्वार एक और वाटरलू बन जायेगा जिसकी हार के बाद खण्डूड़ी को राजनीति सेण्ट हेलना द्वीप जाना पड़ सकता है।
उत्तराखंड की तीसरी निर्वाचित विधानसभा के चुनाव के लिए सारे मुद्दे ”खण्डूड़ी है जरूरी” या मजबूरी के नारे पर टिक जाने के साथ ही उत्तराखंड ही नहीं बल्कि सारे देश की निगाह गढ़वाल के प्रवेश द्वार और कण्व ऋषि की तपोस्थली (कण्वाश्रम) कोटद्वार पर टिक गई है। लगभग 82 हजार मतदाताओं वाली इस विधानसभा सीट पर कुल 8 प्रत्याशी चुनाव मैदान में है जिनमें प्रदेश के मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खंडूड़ी भी एक है, जिन्हें भाजपा न केवल पहले ही अपना अगला मुख्यमंत्राी घोषित कर चुकी है, बल्कि उनके नाम से ही अन्य सीटों पर वोट भी मांग रही थी। दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने परखे हुए प्रत्याशी सुरेन्द्र सिंह नेगी को चुनाव मैदान में उतारा है। हालांकि सुरेन्द्र सिंह नेगी 2007 में हुए धूमाकोट विधानसभा उपचुनाव में खंडूड़ी से हार गए थे, लेकिन इस समय परिस्थितियां बिल्कुल अलग है। क्योंकि कोटद्वार सुरेन्द्र सिंह नेगी का गढ़ होने के साथ ही एक ठाकुर बहुल निर्वाचन क्षेत्र है, जहां से पिछले 44 सालों में आज तक कोई भी ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत पाया । अगर इस समय भुवन चन्द्र खंडूड़ी यहां से चुनाव जीतते है तो यह अपने आप में एक इतिहास तो होगा ही लेकिन अगर उन्हें कांग्रेस के सुरेन्द्र सिंह नेगी पटकनी देकर चुनाव जीत जाते है तो उत्तराखंड के राजनीतिक इतिहास में एक और अविस्मरणीय रोचक पन्ना जुड़ जाएगा।
गत 30 जनवरी को कुल 84909 मतदाताओं वाले कोटद्वार के मतदाताओं ने खण्डूड़ी समेत सभी प्रत्याशियों की किश्मत ईवीएम में बन्द कर दी है। इस चुनाव में बसपा,उक्रांद और रक्षा मोर्चा के प्रत्याशी भी मैदान में है लेकिन उनकी भूमिका केवल इन दोनों दलों के चुनावी समीकरण को गड़बड़ाने के अलावा नजर नहीं आ रही है। जो होना था वह 30 जनवरी को ही हो चुका होगा मगर प्रदेश के अन्य हिस्सों की तरह कोटद्वार में भी परिवर्तन की चर्चाएं काफी गर्म है।लेकिन जब मतदाताओं के सामने न केवल प्रदेश का मुख्यमंत्री हांे और वह भी एक पार्टी का खेवनहार हो तो परिवर्तन की हवाएं स्वयं ही दम तोड देती हैं, लेकिन राजनीतिक विश्लेषक कहते है कि उत्तराखंड की सर्वाधिक जातिवादग्रस्त सीट होने के कारण कोटद्वार में खंडूड़ी की राहें बेहद मुश्किल दिख रही हैं। पिछले इतिहास का हवाला देते हुए चुनावी विश्लेषक मानते है कि सन् 1967 में आखिरी ब्राह्मण प्रत्याशी भैरवदत्त धूलिया इस क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव जीते थे। उस समय उन्होंने कांग्रेस के जगमोहन सिंह नेगी को हराया था। जगमोहन सिंह नेगी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी थे। उस समय से लेकर उत्तराखंड राज्य के गठन तक कोटद्वार, लैन्सडौन विधानसभा क्षेत्र का ही अंग रहा। उस चुनाव के बाद गढ़वाल की राजनीति में जातिवाद का असर इतना फैला कि उसके बाद आज तक कोई ब्राह्मण प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत पाया। राजनीति के पण्डित तो यहां तक कह रहे हैं कि जिसने भी खण्डूड़ी को कोटद्वार से लड़ने की सलाह दी वह उनका शुभ चिन्तक तो हो ही नहीं सकता है। अगर वह कोटद्वार की जगह कहीं और से लड़ते तो जीत सुनिश्चित होने के साथ ही वह अन्य सीटों पर भी प्रचार के लिये अधिक समय दे पाते। कोटद्वार में संकट के कारण पूरे तीन दिन वहां दर-दर भटकना पड़ा।
इतिहास के पन्नों को अगर पलटा जाए तो 1967 में लैन्सडौन क्षेत्र से जगमोहन सिंह नेगी की हार के मात्र 2 साल बाद उनके बेटे चन्द्र मोहन सिंह नेगी ने 1969 में यह सीट दुबारा जीत कर अपने पिता की हार का बदला ले लिया। उसके बाद वह 1974,1977 और 1980 में इस क्षेत्र से चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश में मंत्री रहे और अस्सी के दशक के बहुचर्चित गढ़वाल चुनाव में उन्होंने हेमवती नंदन बहुगुणा से जबरदस्त टक्कर ली और मात्र 25 हजार वोट से हार गए। इस सीट पर उसके बाद उनकी विरासत सुरेन्द्र सिंह नेगी ने ही सम्भाली और वह 1985 में पहली बार इस सीट से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए। सुरेन्द्र सिंह नेगी एक बार निर्दलीय और 2 बार कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विधानसभा चुनाव जीते हैं और तिवारी मंत्रिमण्डल में केबिनेट मंत्री भी रह चुके हैं।
कोटद्वार विधानसभा क्षेत्र की कुल जनसंख्या करीब 1 लाख 80 हजार है जिसमें 84909 मतदाता हैं। इनमें करीब 41971 महिला और 42938 पुरुष मतदाता हैं। जातिवादी समीकरणों से देखा जाए तो इस सीट पर 40 प्रतिशत ठाकुर, 20 से 22 प्रतिशत ब्राह्मण और शेष मुस्लिम, अनुसूचितजाति तथा अनुसूचितजनजाति मतदाता हैं। इस सीट पर मैदानी मूल के मतदाताओं की भी अच्छी खासी संख्या है। कोटद्वार विधनसभा सीट पर भाजपा प्रत्याशी भुवन चन्द्र खंडूड़ी और कांग्रेस प्रत्याशी सुरेन्द्र सिंह नेगी के बीच ही मुख्य मुकाबला माना जा रहा है, जबकि बसपा के राजेन्द्रसिंह आर्य और जनरल टीपीएस रावत के उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के गीताराम सुन्द्रियाल तथा निर्दलीय प्रत्याशी राजेन्द्र ंिसंह आर्य के स्थान पर रहने की संभावना है।
कोटद्वार-तराई भाबर से लेकर कालागढ़ और कुंभीखाल तक करीब 32 किमी में फैली यह सीट अविभाजित उत्तरप्रदेश के दौरान लैंसडौन विधनसभा में थी, लेकिन पृथक उत्तराखंड के गठन के बाद कोटद्वार विधानसभा सीट अस्तित्व में आई। इसी चुनाव क्षेत्र में पौराणिक कण्वाश्रम है जहां शकुन्तला और दुष्यन्त के पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत का बाल्यकाल गुजरा। उसी भरत के नाम से इस देश का नाम भी भारत हुआ।नये परिसीमन के बाद विकासखंड दुगड्डा का घाड़ क्षेत्र यमकेश्वर विधानसभा में चला गया है। जिससे घाड़ क्षेत्र के करीब 10 हजार मतदाता इस सीट पर कम हो गये हैं। इसका कुछ नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है,किन्तु उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के प्रत्याशी गीताराम सुन्दिरयाल भाजपा को नुकसान पहुंचा सकते हैं, क्योंकि मोर्चा के अध्यक्ष पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल टीपीएस रावत हैं जिनके कारण कुछ फौजी वोट सुन्दरियाल को मिल सकते हैं। जिसका नुकसान सीध्ेा-सीध्ेा भाजपा प्रत्याशी को खण्डूड़ी को होगा।
Uttarakhand Himalaya: POWER CRISIS IN THE POWER STATE
POWER CRISIS IN THE POWER STATE
-जयसिंह रावत--
“कहां तो तय था चिरागां घर-घर के लियेे, कहां चिरागां मयस्सर नहीं एक शहर के लिये”। लगता है दुष्यन्त कुमार ने यह शेर उत्तराखण्ड के लिये ही लिखा था। कहां तो उत्तराखण्ड अपने अपार जल संसाधनों के बल पर उर्जा राज्य बन कर सारे देश को बिजली देने की तैयारी कर रहा था और कहां देश का यह भावी पावर हाउस स्वयं बिजली की एक -एक यूनिट के लिये तरसने लग गया है। अगर प्रदेश की पन बिजली परियोजनाओं को इसी तरह एक बाद एक बन्द करने तथा कुछ की भ्रूण हत्या का सिलसिला एक के बाद एक जारी रहा तो इस राज्य का अन्धकारमय ही समझें।
प्रो0 गुरुदास अग्रवाल के पहले अनशन के दौरान 19 जून 2008 को उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी भागीरथी पर बिजली परियोजनाओं को बन्द करने का जो सिलसिला शुरू किया वह अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। भागीरथी पर बन रही 480 मेगावाट की पाला मनेरी और 381 मेगावाट की भैरोंघाटी परियोजनाओं को खण्डूड़ी सरकार से बन्द कराने में सफल होने के बाद प्रो0 अग्रवाल आखिरकार केन्द्र सरकार को 600 मेगावाट की लोहारी नागपाला बन्द कराने में भी सफल हो ही गये। इसके बाद अब अलकनन्दा पर प्रस्तावित 830 मेगावाट की कोटली बहल परियोजना के देवप्रयाग के निकट बनने वाली 320 मेगावाट की द्वितीय चरण की परियोजना की भ्रूण हत्या का इन्तजाम हो गया। इस परियोजना को मिली पर्यावरण सम्बन्धी क्लीयरेंस ही अदालत ने रद्द कर दी। अब तो उत्तराखण्ड सरकार की बक्रदृष्टि श्रीनगर गढ़वाल में बन रही 330 मेगावट की श्रीनगर परियोजना पर भी पड़ गयी। इस प्रोजेक्ट के खिलाफ विहिप जैसे संघ परिवार के जो लोग भागीरथी की अविरलता को लेकर हायतौबा कर रहे थे, वे अविरलता को भूल कर श्रीनगर में एक स्थानीय मंदिर धारी देवी का राग अलापने लगे। हालत आज यह है कि अब कोई भी कम्पनी इस राज्य में बिजली परियोजनाओं पर पूंजी लगाने की जोखिम मोल लेने की स्थिति में नहीं है।
हिमानियों पर आधारित गंगा और यमुना जैसी सदानीराओं की बदौलत अपार जल संसाधन और उपर से पानी के प्रचण्ड वेग से पैदा भौतिक उर्जा से विद्युत उर्जा पैदा करने सर्वोत्तम सम्भावनाओं को देखते ही अग्रेजों ने दार्जिलिंग के बाद उत्तराखण्ड के मसूरी के नीचे गलोगी में सन् 1907 में पन बिजली पैदा करने की शुरुआत की थी। बिजली पानी में बह कर नहीं आती है। पानी के वेग से उत्पन्न भौतिक उर्जा या शक्ति से बिजलीघरों की टरबाइनें घूमती हैं और फिर बिजली (इलैक्ट्रि)उर्जा पैदा होती है। इसके लिये ढलान की जरूरत होती है और उत्तराखण्ड जैसा ढलान और कहां मिल सकता है जहां लगभग 4000 मीटर की उंचाई पर स्थित गोमुख और सतोपन्थ से गंगा चल कर 300 मीटर की उंचाई पर स्थित ऋषिकेश में मैदान पर उतरती है। पानी की इसी भौतिक उर्जा का उपयोग करने के लिये पहाड़ों पर गेंहूं पीसने वाले घराटों (पन चक्कियों)का जन्म सेकड़ों साल पहले हुआ था। यही घराट आधुनिक पनबिजलीघरों का पिता या पितामह माने जा सकते हैं।
राज्य के गठन के समय उत्तराखण्ड में लगभग 15हजार मेगावाट की परियोजनाऐं विभिन्न चरणों में थीं। इनमें लगभग 1130 मेगावाट की परियोजनाऐं उत्पादनरत् थीं जबकि 4164 मे.वा. की निर्माणाधीन, 5571 मे.वा. की विकास प्रकृया के दौर में तथा 4245 मे.वा. की परियोजनाओं को विकास के लिये लिया जाना था।इनमें से निर्माणाधीन परियोजनाऐं नब्बे के दशक से धनाभाव के कारण बन्द थीं और मात्र लगभग 1100 मेगावाट के 25 से 30 साल पुराने पावरहाउस चल रहे थे, और ये पावर हाउस अपनी क्षमता से आधे के बराबर भी बिजली पैदा नहीं कर पा रहे थे।राज्य की पहली भाजपा सरकार के दूसरे मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी ने बन्द पड़ी परियोजनाओं को शुरू करने की कोशिश ही की थी कि उनका कुछ ही महीनों का कार्यकाल पूरा हो गया। प्रदेश में जब पहली निर्वाचित सरकार नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में आई तो बन्द पड़ी कई परियोजनाऐं फिर शुरू हो गयीं और उत्तराखण्ड को उर्जा राज्य के रूप में फिर प्रचारित किया जाने लगा। तिवारी सरकार के कार्यकाल में राज्य की जलवि़द्युत क्षमता को 20 हजार घोषित की गयी। तिवारी के बाद भुवन चन्द्र खण्डूड़ी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार आयी तो खण्डूड़ी ने उत्तराखण्ड की विद्युत उत्पादन क्षमता 40 हजार बता दी। खण्डूड़ी सरकार ने क्षमता वृद्धि तो की नहीं अलबत्ता लगभग 800 मेगावाट की भैरोंघाटी और पाला मनेरी परियोजनाओं को डा0 गुरुदास अग्रवाल के अनशन के कारण बन्द जरूर करा दीं।
कुल मिला कर देखा जाय तो देश के भावी पावर हाउस के रूप में प्रचारित इस उत्तराखण्ड में देश को जगमगाने वाली जलविद्युत परियोजनाओं को ग्रहण लग गया है। प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार ने दसवीं पंचवर्षीय योजनाकाल में प्रदेश की विद्युत उत्पादन क्षमता में 3876 मे.वा. की वृद्धि का लक्ष्य रखा था इसमें से केन्द्रीय सेक्टर की 1000 मे.वा. की टिहरी बांध प्रथम चरण और 280 मे.वा. की धौली गंगा, निजी क्षेत्र की 400 मे.वा. की विष्णुप्रयाग और 304 मे.वा. की राज्य सैक्टर की मनेरी भाली द्वितीय ही पूरी हो पाई।
प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार द्वारा बिजली परियोजनाओं का कलैण्डर भी तैयार किया गया था, जिनमें से सन् 2008 तक100 मे.वा.से उपर की 2314 मेगावाट की 5 परियोजनाओं से उत्पादन शुरू होना था।इनमें से श्रीनगर परियोजना अब तक हिचखोले खा रही है। इनके अलावा पाला मनेरी और लोहारी नागपाला सहित 1180 मे.वा. की 5 परियोजनाओं की कमिशनिंग 2010 तक होनी थी। इनमें केवल लोहारी नागपाला पर काम शुरू हुआ था तो उसे केन्द्र के जयराम रमेश और उत्तराखण्ड के रमेश ने साधुओं को खुश करने के लिये बन्द करा दिया। जयराम रमेश जैसे अति उत्साही पर्यावरणमंत्री के होते हुये यह देश बिजली संकट से कभी मुक्ति नहीं पा सकता।कलैण्डर के मुताबिक केन्द्र,राज्य और निजी क्षेत्र में कुल मिला कर 7448 मे.वा. की 14 अन्य परियोजनाओं ने 2011 तक उत्पादन शुरू करना था जो कि सब की सब लटकी हुयी हैं। इनके अलावा भी 509 मे.वा. क्षमता की 25 से लेकर 100 मे.वा. की 13 अन्य परियोजनाओं को 2009 तक उत्पादन शुरू करना था, जिन पर काम अब तक शुरू नही हुआ। कुल मिला कर सन् 2011 तक 12000 मेगावाट से अधिक विद्युत उत्पादन क्षमता में वृद्धि होनी थी लेकिन इन सभी के भविष्य को पर्यावरण पुरस्कारों की हवश ने अधर में लटका दिया।
आज सवाल यह खड़ा हो गया है कि उत्तराखड जैसे प्रदेश में जब पन बिजली का उत्पादन नहीं होने दिया जायेगा तो फिर भारत की सरकार कहां जा कर पावर हाउस लगायेगी। अचरज की बात तो यह है कि आस्था के नाम पर जो लोग गंगा की अविरलता की बात कर रहे हैं वे गंगा की निर्मलता की बात नहीं करते। उत्तराखण्ड में गंगा की अविरलता के नाम पर प्रोजेक्ट तो बन्द कराये जा रहे हैं, मगर बद्रीनाथ सहित एक दर्जन नगरों के लाखों लोगों का मलमूत्र तथा प्रतिदिन निकलने वाला सेकड़ों टन कूड़ा कबाड़ अलकनन्दा में आने से रोकने के लिये प्रयास नहीं हो रहे हैं। बद्रीनाथ की सीवर लाइन एक दशक से अधूरी पड़ी है।ऋषिकेश से लेकर गंगोत्री, यमुनात्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ तक के सारे इलाके का मलमूत्र गंगा में ही आ रहा हैद्व क्योंकि वहां सीवर लाइन ही नहीं बनी है। एक अनुमान के अनुसार गोमुख से लेकर गंगा सागर तक के इसके 2510 कि.मी. के सफर में इसमें एक बिलियन लीटर सीवेज का मलमूत्र युक्त पानी मिल जाता है। उत्तराखण्ड पेयजल निगम द्वारा कराये गये एक अध्ययन के अनुसार बद्रीनाथ से लेकर हरिद्वार तक गंगा में प्रतिदिन लगभग 132 मिलियन लीटर सीवेज का पानी मिल जाता है।
आज के जमाने में बिजली के बिना विकास या जीवन की ही कल्पना नहीं की जा सकती है। बिजली ही विकास दर की चालक है। सन् 2012 तक देश की उर्जा जरूरत को पूरा करने के लिये लगभग 2 लाख मेगावाट बिजली की जरूरत होगी जबकि देश की अधिष्ठापित क्षमता केवल 1 लाख 47 हजार मेगावाट है और उसमें से भी वास्तविक उत्पादन लगभग 85 हजार मेगावाट के आसपास होता है। इस बिजली में भी पन बिजली का हिस्सा महज 26 प्रतिशत है जबकि आजादी के समय यह 50 प्रतिशत था। पन बिजली ही सबसे साफ सुथरी, सबसे सस्ती और सबसे सुरक्षित मानी जाती है।इसके बाद उत्पादित बिजली में से 59 प्रतिशत कोयला आधारित तापीय, 2 प्र0श0 नाभिकीय, 2 प्र0श0 वायु, 1 प्र0श0 डीजल और 10 प्रतिशत गैस आधारित बिजली है। इनमें से रिन्यूवेबल श्रोत पानी, हवा और सूरज से उत्पन्न होने वाली बिजली ही युगों - युगों तक चल सकती है।देश की बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिये 78577 मेगावाट की क्षमता वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था जिसमें से उत्तराखण्ड की जैसी कई परिस्थितियों के कारण 60 प्रतिशत लक्ष्य पूरा नहीं हो सका।
उत्तराखण्ड के बहुप्रचारित उर्जा राज्य के सपने को पर्यावरण राजनीति और पुरातनपंथी सोच ने चकनाचूर कर दिया है। इस दिवास्वप्न को रौंदने में पुरस्कारों की हवश और निर्णय लेने वालों का उतावलापन भी पीछे नहीं रहा। पहले तो धड़ाधड़ बिना सथानीय समुदाय की राय और दूरगामी पर्यावरणीय पहलुओं पर गहनता से विचार किये बिना पन बिजली परियोजनाओं पद सर्वे से लेकर निर्माण के कार्य शुरू होते रहे और अब उसी तरह इन परियोजनाओं को बन्द करने का सिलसिला शुरू हो गया।यही हाल रहा तो सन् 2012 तक हर घर को बिजली देने का लक्ष दुस्वप्न में बदल जायेगा।
--- जयसिंह रावत----
Tuesday, February 14, 2012
JAY SINGH RAWAT INTERVIEWS GD AGRWAL AILAS GYANSWAROOP SANAND
स्वामी ज्ञानस्वरूप सानन्द उर्फ प्रो0 जी.डी. अग्रवाल का साक्षात्कार
गंगा के लिये एक और भगीरथ तपस्यारत्
महापुरुष भी सुख और समृद्धि को तो त्याग देते हैं, मगर अपना यश नहीं त्याग सकते। क्योंकि वही यश आदमी को युगों-युगों तक जीवित रखता है। लेकिन डा0 गुरुदास अग्रवाल उन हस्तियों में हैं जो कि यश से भी आगे पहुंच गये हैं और न केवल अपने यशस्वी नाम को त्याग कर एक भगीरथ प्रयास के लिये सन्यास धारण कर गये बल्कि अपने विख्यात अतीत के बारे में चर्चा तक करना नहीं चाहते। जी हां ! गंगा की अविरलता और निर्मलता की खातिर जीडी अग्रवाल अब ज्ञानस्वरूप सानन्द हो गये हैं। वह भगोया धारण करने से पहले गंगा पर बिजली परियोजनाओं को रोकने की मांग को लेकर तीन बार 91 दिन का अनशन कर चुके हैं और अब इसी उद्ेश्य को हासिल करने के लिये वह अन्न त्याग कर हरिद्वार के मातृ सदन में चौथी बार तपस्या पर बैठ गये हैं। इंजिनियरिंग की डिग्री के बाद अमेरिका के बर्कले स्थित कैलीॅफोेर्निया विश्वविद्यालय में मास्टर आफ साइंस के साथ ही पर्यावरण अभियांत्रिकी में पीएचडी करने वाले डा0 अग्रवाल आइआइटी कानपुर के प्रोफेसर रहने के बाद भारत सरकार के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पहले सदस्य सचिव भी रहे हैं। उनकी विद्वता के ही कारण दुनियाभर में उनके शिष्य अभियांत्रिकी के क्षेत्र में नये आयाम स्थापित कर रहे हैं। तपस्यारत् स्वामी सानन्द पत्रकारों की आवाजाही को भी विघ्न मान कर ख्ीज रहे हैं। फिर भी आज समाज के उत्तराखण्ड ब्यूरो प्रमुख जयसिंह रावत से बात करने के लिये वह मुश्किल से तैयार हो ही गये। वार्ता के दौरान वह अक्सर खीजते भी रहे। प्रस्तुत है स्वामी सानन्द से हुयी बातचीत के अंश:-
प्रश्न- स्वामी जी पर्यावरण अभियांत्रिकी में डा0 गुरुदास अग्रवाल एक बहुत बड़ा नाम था। डा0 अग्रवाल की ख्याति दुनियां में थी। आपने वह यशस्वी नाम आखिर क्यों और किसकी प्रेरणा से त्यागा और सन्यासी क्यों बन गये?
स्वामी सानन्दः- मुझे लगा कि हमें संन्यास आश्रम ग्रहण कर लेना चाहिए और साथ में जो हमारे यहाँ चार पुरुषार्थ बताये गए हैं, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और उसमें भले ही मोक्ष की मुझे कामना नहीं ह,ै पर मुझे ये लगा कि इस स्थिति में आकर शास्त्रों का अध्ययन आत्मज्ञान ये भी एक महत्वपूर्ण कार्य है मैंने सोचा कि अब वो समय आ गया है कि मैं चौथा आश्रम अपनाऊं और दूसरी ओर ये तो था ही कि मैं 2006 में ही अपना बचा संपूर्ण जीवन गंगा जी को समर्पित कर चुका था। मुझे ये लगा कि अब संन्यास ले लेने से मैं अधिक स्वतंत्र हो जाऊंगा। अन्य दबाव से जैसे बार -बार समाज की बात की जाती है। मित्रों की या सम्बन्धियों की उन सब दबाव से मैं मुक्त हो जाऊंगा। उस रूप में भी मुझे ये लगा कि संन्यास ले लेना इस समय एक अच्छी स्ट्रेटेजी होगी तो एक प्रकार से संन्यास ले लेना दोनों दिशाओं से एक सर्वोत्तम बात लगी। एक तरफ स्ट्रेटेजी के रूप में एक तरफ सिद्धांत के रूप में तो फिर मैंने संन्यास ले लिया। आपको पता ही होगा कि मैंने जुलाई मास में संन्यास लिया और उसके बाद लगभग तुरंत मैं 15 जुलाई से गुरुदेव के साथ, मेरे गुरूजी के गुरुदेव शंकराचार्य जी हैं, ज्योतिषपीठ के स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती। मेरे गुरु स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द जी हैं, जो शंकराचार्य के शिष्य हैं। इन दोनों के साथ और बहुत से संतो के साथ जैसे स्वामी अमृता नन्द जी और अन्य संतो के साथ मैंने चातुर्मास कलकत्ते में किया वहां एक ओर वेदांत का अध्ययन और धर्म शास्त्रों का मनुस्मृति नारद स्मृति इन साबका अध्ययन किया जो संभवतया मैंने संन्यास न लिया होता तो मैंने वह ज्ञान प्राप्त न किया होता। साथ ही वहां पर गंगा जी की भी चर्चा चलती ही रही और उसके बाद आकर जो ये तपस्या का निर्णय लिया गया इसमें अब मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ मेरे गुरूजी ने भी संकल्प लिया है और एक ब्रह्मचारी हैं और एक गंगा प्रेमी भिक्षु हैं जो अपना नाम भी नहीं बताते। वह पूरा बोलते भी नहीं और गंगा जी के लिए पूरी तरह से समर्पित हैं। पांचवें तपस्वी राजेन्द्र सिंह जी हैं जो हम सबसे जुड़े हैं। वह जल पुरुष के नाम से भी जाने जाते हैं। उनका भी बड़ा आग्रह था कि मुझे भी उसमें रखा जाए। हम पांच ने गंगा सागर जाकर गंगा सागर समुद्र में खड़े होकर विधिपूर्वक जैसी हमारी शास्त्रीय विधि है उससे ये संकल्प लिया है कि गंगा जी की जैसी स्थिति हम देखना चाहते हैं अगर वो नहीं होती है तो हम जीवनोत्कर्ष करने के लिए तैयार हैं, एक के बाद एक ।
प्रश्न-स्वामी जी! गंगा की दुर्दशा पर तो आपने काफी लड़ाई लड़ ली। आपने कुछ बिजली प्रोजेक्ट पहले ही बन्द करा दिये। लेकिन यमुना की कोई सुध नहीं ल रहा है, जबकि यमुना दिल्ली पहुंचते-पहुंचते गन्दे नाले में बदल गयी है?
स्वामीः-मैंने आपको जो दिया है वो आपने पढ़ लिया होगा मुझे कुछ नहीं कहना है यमुना के बारे में। उससे आगे जो मैंने अपने उस व्यक्तव्य में दिया है जिसकी कापी आपके पास है, उसे पढ़ लें। हमने किसी नदी की अनदेखी नहीं की।
प्रश्न- स्वामी जी आप इतने बड़े इंजीनियर हैं। आप इंज्निियरों के भी गुरू रहे हैं। अगर नदियों से बिजली नहीं बनेगी तो बिजली आयेगी कहां से और बिना बिजली के कैसे काम चलेगा?
स्वामीः- मुझे अपने पिछले जीवन की कोई चर्चा नहीं करनी है। आप इसलिए उन सब बातों की बिलकुल चर्चा न करें। आप मुर्गे की गरदन रोज मरोड़ सकते हैं। मुर्गे की गरदन रोज काटी जाती है, लेकिन मोर की गरदन आप नहीं मरोड़ सकते। ये दोनों ही पशु हैं।मोर को मार के देखिये ! आप अपराधी माने जायेंगे। राष्ट्रीय पशु बाघ ह,ै उसका भी संरक्षण हो रहा है तो राष्ट्रीय नदी का क्यों नहीं? हम केवल गंगा जी पर बांधों का विरोध कर रहे हैं। हम केवल भागीरथी जी , अलकनन्दा जी और मन्दाकिनी जी और देवप्रयाग से गंगा सागर तक गंगा जी की अविरलता की बात कर रहे हैं।
प्रश्न-मेरा सीधा सवाल है कि अगर गंगा के पानी से बिजली नहीं बनेगी तो बिजली कहाँ से आयेगी ?
स्वामीः- कहीं से भी आये! गंगा जी की सहायक धारायें हैं। चाहे वो भिलंगना हो या जाडगंगा या फिर रामगंगा, कोसी गण्डक , घाघरा और सोन नदी हो । हम इन नदियों पर बांध का विरोध थोड़े ही कर रहे हैं। देखिए! आप मेरी बात सुनिए! भाइयों के साथ सम्बन्ध केवल मां के माध्यम से होता है। गंगा हमारी मां है और आप सब भारतवासी मेरे भाई हैं। अगर वो सब भाई कपूत बनकर मां को लूटने-खसोटने लगें और कहें कि मैं तो बहुत भूखा हूँ।मां मैं तुम्हारा खून चूस लूँगा। तो मैं कपूत नहीं हूँ तो मैं क्या हूँ ।जब तक मां स्वस्थ न हो हमें मां से कुछ मांगने का अधिकार नहीं है और मां के ऊपर सबसे अधिक अधिकार उस बेटे का है जिसने मां से कम माँगा हो और मां के लिए किया ज्यादा हो और मां की दुर्दशा देखकर वो बजाए मां के स्वस्थ होने की कामना करके अपनी स्थिति की सोचते हैं। एक बेटा है, मां पडी है इतनी बीमार कि मुझे तो नौकरी पर जाना है। मुझे तो बच्चों की फीस का इंतजाम करना हैं। मां की दवा का इंतजाम कहाँ से होगा ? तो जब या तो वो कहें कि हमारी मां अस्वस्थ ही नहीं है तो भी फिर वो कपूत है।वो मां की स्थिति नहीं देख रहे और दूसरी और मां की दुर्दशा देखते हुए उन्हें अपना ही ध्यान आता है। अपने स्वार्थ का अपने परिवार का अपने बच्चों का तो वे कपूत हैं। ऐसे बेटों के लिए मेरे मन में कोई स्नेह नहीं कोई सद्भावना नहीं। भाड़ में जाएं वो।
प्रश्न- स्वामी जी हरिद्वार से नीचे गंगा में प्रदूषण ज्यादा बताया जा रहा है और आप हरिद्वार से ऊपर की चिन्ता कर रहे हैं?
स्वामीः- आपको पहले हमारे कागज देखने चाहिये। हम केवल बांधांे की बात नहीं कर रहे। हमारी जो बात है वो सीधे गंगोत्री से गंगा सागर तक की है। उसमें पहली बात अविरल प्रवाह की है। अविरल प्रवाह में केवल बाँध की बात नहीं आती। नहरों की भी बात आती है। एक ओर उत्तराखंड के लोग अपनी तरह से गंगा जी का शोषण करना चाहते है, तो दूसरी और उत्तरप्रदेश वाले नहरों के माध्यम से शोषण करते है। प्रदूषण की बात तो बहुत बाद में आती है। अगर गंगा जी में समुचित प्रवाह रहे तो गंगा जी बहुत प्रदूषण झेलने के लिए समर्थ हैं। जैसे मां स्वस्थ होती है तो वह बहुत सारी बीमारियाँ झेल पाती है। उसे उसका खून चूस -चूस कर नहरों के द्वारा कमजोर कर दिया। लेकिन यहां सारा का सारा पानी चूसा जा रहा है। अब इसके लिए आपको हमारे कागज पढ़ने चाहिये। मुझे इस स्थिति में बात करने के लिए मजबूर नहीं करना चाहिए। और अगर आप मेरे बारे में कुछ नहीं जानते तो मेरी कोई जिम्मेदारी नहीं है। मैं तपस्या कर रहा हूं और अगर आप मेरी तपस्या के बारे में कुछ नहीं जानते तो कृपया मुझे किसी को बताना नहीं है। मैं कोई आन्दोलन नहीं कर रहा हूँ। मुझे किसी को बताना नहीं है। मैं ये मानता हूँ कि तपस्या के समय जो भी आता है, वो चाहे देवता हो या दानव हो, वो तपस्या में विघ्न डालने के लिए आता है। चाहे वो पत्रकार ही क्यों न हो । वो विघ्न डालने के लिए आता है। जिससे इसकी तपस्या भंग हो निष्फल हो और मैं जान बुझकर ऐसी किसी स्थिति में क्यों पडूं? मुझे किसी से लम्बी बात करने की इच्छा नहीं है। अगर आपको जानना है तो आप कागज पढ़िये। अखबार पढ़िए। जहां से जो पढ़ना हो पढ़िए, जानिये ना जानिये। मुझे न आपकी कोई जरुरत है, और न मैंने आपको बुलाया है।
प्रश्नः- स्वामी जी क्या सरकार को कोई नुमाइन्दा आपसे वार्ता के लिये आया?
स्वामी- नहीं कोई नहीं आया। न मुझे सरकार से कोई अपेक्षा है और न आशा है। और जरूरत भी नहीं है। आपके पास कोई छोटा मोटा प्रश्न हो तो वह करिये लम्बी बात मैं नहीं करूंगा। मुझसे पीछे की कोई बात मत करिये। मुझे सरकार से कोई अपेक्षा नहीं है।
प्रश्न-इसके बाद आपका क्या कार्यक्रम है?
स्वामीः- अभी अगर शरीर चलता है तो फागुन की पूर्णिमा तक मैं यहां रहूंगा। केवल जल ग्रहण कर। और अगर नहीं होता है तो फागुन प्रतिप्रदा से मैं काशी चला जाऊंगा और वहां जल भी त्याग कर प्राण छूटने की प्रतीक्षा करूंगा। आगे प्रभू पर है। गंगा जी को लाने का इतिहास यही रहा है। गंगाजी ऐसे ही ग्लेशियर से पिघल कर नहीं आई। गंगा जी के लिये तीन पीढ़ियों तक मेरे पूर्वजों ने तपस्या की। पहली और दूसरी पीढ़ी की तपस्या से गंगा जी नहीं आई। तीसरी पीढ़ी से जा कर आई। तो हम भी यह मानते हैं कि अकेले एक ही तपस्वी के बलिदान से गंगा जी नहीं बचेगी। इसलिये यह अभियान हमने 5 के संकल्प से प्रारम्भ किया है और इस समय उस लिस्ट में 10 और जुड़ गये हैं। इस समय हमारे पास 15 तपस्वियों की लिस्ट तैयार है। अगर वह स्थिति आती है तो कम से कम 15 लोग तो अपने प्राणोत्सर्ग करने को तैयार हैं। जैसा कि मैं कह रहा था कि गंगा की अविरलता के लिये बाधों का रुकना, नहरों के रुकने के साथ नहरों का नियंत्रण हो। जैसे किसी की जान बचाने के लिये किसी मनुष्य के शरीर से रक्त लेना हो तो एसकी एक सीमा होती है। रक्त की एक यूनिट शरीर में मौजूद कुल रक्त का लगभग 15वां भाग होती है। हम तो यह कहते हैं कि अगर गंगा जी का जल पीने के लिये,सिंचाई के लिये, उद्योगों के लिये लेना हो तो उसकी भी एक सीमा होनी चाहिये। वह सीमा आजकल इनवार्नमेण्टल प्रो के नाम से जानी जाती है। हमारे गुरूजी का कहना है कि वो किसी भी स्थिति में 49 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है। किसी भी स्थान पर नदी के प्राकृतिक प्रवाह का आधा से कम ही जल लो। मेजोरिटी जल गंगा जी का गंगा जी में ही रहना चाहिये।
प्रश्नः- स्वामी जी अविरलता की बात तो समझ में आती है मगर हरिद्वार से नीचे मैदान में गंगा में जो प्रदूषण हो रहा है वह बात गौण क्यों हो गयी है?
स्वामीः- गंगा के प्रवाह के साथ ही प्रदूषण की भी बात है। चाहे औद्योगिक हो या नगरीय प्रदूषण हो वह बिल्कुल भी गंगा जी में नहीं पड़ना चाहिये। गंगाजी को अपनी पदवी के अनुरूप सम्मान मिलना चाहिये। गंगा हमारी संस्कृति की मूल धारा है। हम उनको मां कहते हैं। सभी भारतीय गंगाजी का सम्मान करते हैं। अब तो सरकार ने भी उसे राष्ट्रीय नदी का पद दे दिया है। एक राष्ट्र नदी के रूप में उनका सम्मान होना चाहिये। जैसे राष्ट्र घ्वज का शब्दों या हाथ से अपमान नहीं कर सकते। ध्वज पर गन्दा जल नहीं डाल सकते हैं तो गंगा जी में गन्दा जल कैसे डाल सकते हैं?
प्रश्नः- गंगा की पवित्रता और निर्मलता के लिये गंगा बेसिन अथारिटी बना दी गयी है। इससे आपकी क्या अपेक्षा है?
स्वामीः-गंगा बेसिन अथारिटी के प्रति न तो हमें कोई श्रद्धा है और ना ही उसका हमारी तपस्या से कोई संदर्भ है। बेसिन अथारिटी केवल एक दिखावा है। आप जैसे लोगों को धोखा देने के लिये।
प्रश्नः-भारत सरकार ने गंगा का महत्व समझ कर उसे राष्ट्रीय नदी घोषित कर तो दिया?
स्वामीः- मैं पहले ही कह चुका हूं कि भारत सरकार से हमें कोई अपेक्षा नहीं है।हमें उनसे कोई मतलब नहीं है। वो आप जानो। आप अपने पत्रकारिता के प्रोफेशन के लिये मेरी तपस्या में भंग डाल रहे हैं।