गैरसैण
में ही गैर हो जायेंगे गैरसैण के लोग
-जयसिंह रावत
ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित गैरसैण में कभी सरकार पहुंचेगी भी या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा, मगर उससे पहले वहां जमीनों के सौदागर अवश्य पहुंच गये हैं। मजेदार बात तो यह है कि जमीनों के सौदे की पहल स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कर दी है। उनके मंत्रिमण्डल के सहयोगी डा0 धनसिंह रावत सहित कई सत्ता और साधन सम्पन्न लोगों ने उनका अनुशरण करना शुरू कर दिया है। जबकि 2012 में विजय बहुगुणा के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने इस क्षेत्र में जमीनों की बिक्री पर इसलिये प्रतिबंध लगाया था ताकि बाहरी लोग ग्रामीणों को प्रलोभन देकर या दबाव बनाकर उनकी भावी पीढ़ियों को भूमिहीन न बना लें। त्रिवेन्द्र सरकार ने यह कार्य बहुत नियोजित ढंग से कर डाला। इससे पहले नारायण दत्त तिवारी और फिर भुवनचन्द्र खण्डूड़ी की सरकारों द्वारा ग्रामीणों की जमीनें भूमाफिया से बचाने के लिये बनाये गये भूकानून में छेद कर पहाडियों की जमीनें बाहरी लोगों के लिये परोसी गयी फिर गैरसैण क्षेत्र में लगे प्रतिबंध को हटा दिया गया।
गैरसैण में इस बार आयोजित राज्य स्तरीय स्वतंतत्रता दिवस समारोह में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत का स्वयं को गैरसैण का भूमिधर होने की घोषणा करनी ही थी कि अगले दिन 16 अगस्त को उनके नाम भराड़ीसैण के निकट दूधातोली की ओर हेलीपैड के निकट की जमनसिंह पुत्र पदमसिंह की देवी भण्डार तोक में खसरा नम्बर 43 से लेकर 49 तक की 13.5 नाली जमीन में से 6 नाली और 9 मुट्ठी जमीन की रजिस्ट्री उनके नाम हो गयी। जमनसिंह की शेष 6 नाली 8 मुट्ठी जमीन उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगी डा0 धनसिंह रावत के नाम चढ़ने की प्रकृया जारी है। उसी क्षेत्र में विधानसभा अध्यक्ष प्रेम चन्द अग्रवाल और कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज आदि के लिये भी जमीनें तलाशी जा रही हैं। सतपाल महाराज के लिये पहले ही रसोईगाड़ और सल्याणा बैंड के बीच लगभग 3 नाली जमीन खरीदी जा चुकी है। कल्पना की जा सकती है कि जब राजनेताओं में गैरसैण क्षेत्र में जमीनें हासिल करने की इतनी होड़ लगी हो तो फिर माफियाओं और जमीनों के सौदागरों तथा धन्ना सेठों में कितनी अधिक होड़ लग चुकी होगी।
दरअसल गरीब पहाड़ियों की जमीनें हड़पने की आशंका को देखते हुये ही कांग्रेस के दुबारा सत्ता में आने पर 3 नवम्बर 2012 को गैरसैण में पहली बार आयोजित विजय बहुगुणा कैबिनेट की बैठक में इस क्षेत्र में जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लगाने का निर्णय लिया गया था। उसी दिन गैरसैण में विधानसभा भवन बनाने का निर्णय भी लिया गया था। अगर प्रतिबंध न लगा होता तो अब तक वहां स्थानीय लोगों की जमीनें बिक चुकी होंतीं। क्योंकि पहाड़ का काश्तकार गरीब है और खेती उपजाऊ नहीं रह गयी इसलिये वह पैसों के लालच में आकर अपनी आने वाली पीढ़ियों के हिस्से की जमीन बेचने में संकोच नहीं करता। इसी कमजोरी को भांप कर और जमीनखोरों के प्रभाव में आ कर त्रिवेन्द्र सरकार ने 11 जुलाइ 2019 को गैरसैण क्षेत्र में भूमि की बिक्री पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया था।
नब्बे के दशक में भड़के उत्तराखण्ड आन्दोलन का लक्ष्य केवल अलग राज्य हासिल करना नहीं बल्कि पूर्वोत्तर के पड़ोसी हिमालयवासियों की तरह संविधान के अनुच्छेद 371 की छत्रछाया प्राप्त करना भी था ताकि पहाड़वासियों की संस्कृति के साथ ही उनकी जमीनों का भी संरक्षण हो सके। उस अभूतपूर्व आन्दोलन के बाद उत्तराखण्डवासियों को अलग राज्य तो मिल गया मगर अनुच्छेद 371 ए की तरह विशेष दर्जा नहीं मिला। बाद में जनभावनाओं के दबाव में नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एण्ड लैण्ड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 की तर्ज पर उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2003 में धारा 152 (क), 154 (3), 154 (4) (1) एवं 154 (4) (2) जोड़ कर यह व्यवस्था कर दी थी कि प्रदेश के ग्रामीण क्षत्रों में कोई भी अकृषक या जो मूल अधिनियम की धारा 129 के तहत जमीन का खातेदार न हो वह बिना अनुमति के 500 वर्ग मीटर से अधिक जमीन नहीं खरीद सकता। हालांकि उस समय गठित विजय बहुगुणा समिति भी बाहरी लोगों के दबाव में आ गयी थी, फिर भी उसकी सिफारिश पर बने इस अधूरे कानून से बेतहासा खरीद फरोख्त पर रोक अवश्य लगी थी। बाद में भुवनचन्द्र खण्डूड़ी के नेतृत्व सरकार ने इस भूकानून में कठोरता लाते हुये अकृषकों द्वारा बिना अनुमति के 500 वर्गमीटर तक जमीन खरीदने की छूट को कम कर 250 वर्गमीटर कर दिया। यह मामला कोर्ट में भी गया मगर बाद में सुप्रीम कोर्ट से राज्य सरकार ने अपना कानून बचा लिया था। लेकिन त्रिवेन्द्र सरकार के आते ही उसका पहला वार इसी कानून पर पड़ा और आज औद्योगीकरण के नाम पर पहाड़वासियों की बेशकीमती जमीनें सौदागरों और धन्नासेठों के निगलने के लिये तस्तरी पर सजा दी गयी हैं। यही नहीं भूसौदागरों के दबाव में धारा 143 में संशोधन कर जमीन के भूउपयोग परिवर्तन को आसान कर दिया ताकि धन्नासेठ उद्योग के नाम पर गरीबों की जमीनंे हड़प सकें।
उत्तराखण्ड के ही तराई में थारू-बुक्सा की जमीनें बाहरी लोगों ने हड़प ली हैं और इन जनजातियों के लोग अपनी ही जमीनों पर खेतिहर मजदूर के रूप में काम करने को मजबूर हैं। टिहरी बांध के चारों ओर धन्ना सेठों ने स्थानीय लोगों की पुश्तैनी जमीनें होटल-रिसॉट और आरामगाह बनाने के लिये खरीद ली हैं। जमनसिंह या किसी किसान की जमीन आने वाली पीढ़ियों की धरोहर होती है। इस तरह एक सौदे में कई पीढ़ियों के हित बिक जाते हैं। भूमि वह संसाधन है जिसे खींच तान कर लम्बी या चौड़ी नहीं की जा सकती। इसलिये अब गैरसैण क्षेत्र के लोगों के पावों तले से जमीनें खिसका कर उनकी आने वाली पीढ़ियों को अपने ही पुरखों के गैरसैण में गैर बनाने की होड़ शुरू हो चुकी है। गैरसैंण क्षेत्र में सलियाणा, ग्वाड़, गैरसेंण, धारगैड़, रिखोली, सौनियांण, गांवली और सिलंगी ग्राम पंचायतें शामिल हैं। 2011 की जगणना के अनुसार इन 8 गांवों की आबादी 4,388 है। इनमें से बड़ा गांव गैर है जहां 474 परिवारों की 2012 आबादी है। सबसे कम 37 परिवार धारगड़ में रहते हैं। गैर के बाद सलियाणा बड़ा गांव है, जहां 119 परिवार रहते हैं।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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