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Friday, August 16, 2019

प्रिंटिंग प्रेस गायब फिर भी पत्रकारिता का प्रतीक अब भी ‘‘प्रेस’’

SWADHEENTA ANDOLAN MEN UTTARAKHAND KI PATRKARITA,
 authored by
Jay Singh Rawat and published by National Book Trust of India.















स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता

समाचारों की दुनिया नास्त्रेदमस की कल्पना से भी आगे 
-जयसिंह रावत
Author Jay Singh Rawat
पहले समाचार या विचार अखबारों में पढ़े जाते थे, फिर समाचार आसमान से आकाशवाणी के रूप में लोगों के कानों तक पहुंचने लगे। बाद में टेलिविजन का जमाना आया तो लोग समाचारों और अपनी रुचि के विचारों को सुनने के साथ ही सजीव देखने भी लगे। इन इलैक्ट्रोनिक माध्यमों की बदौलत अशिक्षित लोग भी देश -दुनिया के हाल स्वयं जानने लगे। टेलिविजन का युग आने तक आप इन सभी माध्यमों से अपने घर या दफ्तर में बैठ कर दुनियां के समाचार जान लेते थे। लेकिन अब सारी दुनियां आपकी जेब में गयी है। आप कहीं भी हों, आपके जेब में पड़ा मोबाइल केवल आपको अपने परिजनों और चाहने वालों से सम्पर्क बनाये रखता है, अपितु आपको दुनियां का पल-पल का हाल बता देता है। सूचना प्रोद्यागिकी के इस युग में तो हर आदमी खबरची की भूमिका अदा करने लगा है। क्योंकि आप अपने आसपास जो कुछ भी हो रहा है, उसे सोशल मीडिया के जरिये वायरल कर दुनियां के किसी भी कोने में उस घटनाक्रम का आखोंदेखा हाल पहुंचा रहे हैं। समय का चक्र घूमता रहता है। यही प्रकृति का नियम है। लेकिन वह चक्र इतनी तेजी से घूमेगा, इसकी कल्पना शायद प्रख्यात भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस ने भी नहीं की होगी। ऐसी स्थिति में मीडिया के भावी स्वरूप की भविष्यवाणी करना बेहद कठिन है। अगर इतनी ही तेजी से समय का चक्र घूमता रहा तो हो सकता है कि पढ़ा जाने वाला छपा हुआ अखबार भी टेलीग्राम की तरह कहीं इतिहास बन जाय। वैसे भी अखबार कागज के साथ ही पेपर के रूप में कम्प्यूटर, लैपटाप या मोबाइल फोन पर गये हैं। यह भी जरूरी नहीं कि भविष्य के पुस्तकालयों का स्वरूप -लाइब्रेरी या डिजिटल लाइब्रेरी जैसा ही हो। लेकिन इतिहास जरूर रहेगा। 
सूचना प्रोद्योगिकी के इस उन्नत दौर में दुनियां एक वैश्विक गांव बन गयी है और आप दुनियां के किसी भी कोने का अखबार जब चाहे और जहां चाहे पढ़ सकते हैं, बशर्ते कि आप उस अखबार की भाषा जानते हों। अब तो इलैक्ट्रानिक मीडिया का स्वरूप भी बदल रहा है। बिना टीवी (टेलिविजन) के भी हम कोई टीवी चैनल कम्प्यूटर,, लैपटाप या मोबाइल पर देख रहेे हैं। इन्हीं तेजी से बदल रही परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये मैंने उत्तराखण्ड की पत्रकारिता के अतीत और स्वाधीनता आन्दोलन में इस पहाड़ी भूभाग के पत्रों और पत्रकारों के योगदान की स्मृतियों को अक्षुण बनाये रखने के लिये स्वाधीनता आन्दोलन में अखबारों की भूमिका की जहां तहां बिखरी और दबी हुयी कड़ियों को उकेर कर और उन्हें जोड़ कर उनका ’’स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता’’ नामक पुस्तक के रूप में दस्तावेजीकरण करने का प्रयास किया था। उत्तराखण्ड में मंुशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द), राजा महेन्द्र प्रताप और अमीर चन्द बम्बवाल जैसे महान स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार हुये हैं, जिनके बारे में आज की पीढ़ी को नही ंके बराबर जानकारी है। एम.एन. राय और रास विहारी बोस भी उत्तराखण्ड से ही संबंधित थे। भारत का संविधान भी देहरादून में ही छपा था। भावी पीढ़ी के लिये इन गौरवमयी स्मृतियों को संजोये रखने के लिये ही यह पुस्तक तैयार की गयी है।
हम कोई काम चाहे कितनी ही मेहनत से और कितनी ही सावधानी से क्यों करते हों, उस काम में सुधार और विस्तार की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। वैसे भी मैं एक इतिहासकार नहीं बल्कि विशुद्ध रूप से पत्रकार हूं और किसी भी विषय पर मेरे और एक इतिहासकार के नजरिये में तथा उस विषय को प्रस्तुत करने के तरीके में भी अन्तर होना स्वाभाविक है। लेकिन सत्य को प्रकट करने के मामले में बीस में से उन्नीस होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है। मैंने अपने पेशे के चार दशकों के अनुभवों के आधार पर शोध और अध्ययन के दौरान जो पढ़ा, देखा और खोज में पाया उसे बिना लागलपेट के तथा बिना रागद्वोष या अनुराग-विराग के पुस्तक के रूप में प्रस्तुत कर दिया। विश्वसनीयता को पत्रकारिता का प्राण माना जाता है और इसी विश्वास पर लोग अखबारों में छपी बातों को सत्य मान लेते हैं। पुस्तक लेखन में भी मैंने पत्रकारिता के उसी प्राणतत्व को अपना ईमान मानकर उसका पालन किया है। बहरहाल मेरी अब तक की पांच पुस्तकों में से एक ’’स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता’’ का राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत की कृपा से दूसरा संस्करण आपके हाथ में है। पहले संस्करण में थोड़ा बहुत जो कमी वेशी रह गयी थी उसे मैंने दूर करने का भरसक प्रयास किया है। इससे अधिक खास बात यह है कि इस संस्करण में मैंने नया शोध और काफी कुछ नया संकलन जोड़ कर पुस्तक को और अधिक पाठकोपयोगी और अधिक ज्ञानवर्धक बनाने का प्रयास किया है। मुझे यकीन है कि मेरे इस दूसरे प्रयास में भी अगर कोई कमी रह गयी हो तो उसे भविष्य के शोधकर्ता अवश्य पूर्ण कर लेंगे। यकीनन भावी शोध के लिये यह खिड़की खोलने जैसा प्रयास है। यह संशोधित और सवंर्धित दस्तावेज संग्रहणीय तो है ही साथ ही यह भावी शोधकर्ताओं और खास कर छात्रों के लिये मार्गदर्शक का काम भी करेगा। इस पुस्तक में उत्तराखण्ड की समग्रता पर विशेष ध्यान दिया गया है। वैसे भी उत्तराखण्ड का इतिहास फिलहाल गढ़वाल, कुमाऊं, देहरादून और हरिद्वार के रूप में खण्डित अवस्था में उपलब्ध है। जब आपको एक ग्रन्थ में समूचे उत्तराखण्ड का इतिहास नहीं मिलता है तो फिर पत्रकारिता का इतिहास भी कैसे एकसाथ मिल सकता था? इसी बात को ध्यान में रखते हुये मैंने यह पुस्तक तैयार की। इसमें केवल पहाड़ी उत्तराखण्ड नहीं बल्कि सम्पूर्ण उत्तराखण्ड की पत्रकारिता कके अतीत का वृतान्त दिया गया है। यही नहीं इस पुस्तक में मैंने केवल हिन्दी बल्कि उर्दू, अंग्रेजी और नेपाली पत्रकारिता को भी एक साथ पिरोने का प्रयास किया है। नये संस्करण में मुझे देहरादून और गढ़वाल में स्वाधीनता आन्दोलन पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास इसलिये करना पड़ा क्योंकि स्वाधीनता आन्दोलन में प्रदेश की पत्रकारिता के योगदान को समझने के लिये हमें समग्र उत्तराखण्ड के अतीत पर नजर दौड़ानी होगी। देहरादून उस समय गढ़वाल का हिस्सा नहीं था, इसलिये यह पूर्व में उत्तराखण्ड के इतिहास का हिस्सा बन सका। गढ़वाल में स्वाधीनता आन्दोलन का उल्लेख इसलिये करना पड़ा, क्योंकि उस समय ब्रिटिश गढ़वाल भी कुमाऊं का ही हिस्सा था। इसलिये इतिहासकारों ने गढ़वाल और कुमाऊं को अलग-अलग नजर से देखने के बजाय सम्पूर्ण प्रशासनिक इकाई कुमाऊं कमिश्नरी के रूप में देखा था। कुमाऊं से उनका आशय अलकनन्दा और मन्दाकिनी से लेकर काली और शारदा नदियों के बीच के भूभाग से था। गढ़वाल का आधा हिस्सा टिहरी रियासत का था, इसलिये वहां चला आन्दोलन अंग्रेजशाही के खिलाफ नहीं बल्कि अपनी ही राजशाही के खिलाफ था। टिहरी राज्य के बारे में मैं पृथक से अपनी पुस्तक ‘‘टिहरी राज्य के ऐतिहासिक जन विद्रोह’’ में लिख चुका हूं। हरिद्वार तो गढ़वाल में सन् 2000 में तब जुड़ा जब कि राज्य का गठन हुआ।
नये संस्करण में एक महत्वपूर्ण हिस्सा उत्तराखण्ड के ऐतिहासिक छापेखानों का भी है। सर्वविदित है कि आधुनिक पत्रकारिता का मूल ही अखबारी पत्रकारिता है और अखबारी पत्रकारिता को जन्म देने वाला कोई और नहीं बल्कि छापाखाना या प्रिंटिंग प्रेस ही है। यद्यपि आज पत्रकारिता छापेखानों से कहीं आगे साइवर स्पेस युग में चली गयी है और पुराने प्रिंटिंग प्रेस भी लगभग गायब ही हो गये हैं। फिर भी पत्रकारिता का प्रतीक अब भी ‘‘प्रेस’’ ही है। इसलिये मुझे पिछले संस्करण की इस कमी को दूर करने के लिये उत्तराखण्ड के प्राचीन प्रिंटिंग प्रेसों के बारे में नया शोध करना पड़ा जिसका प्रतिफल इस दस्तावेज के रूप में आपके सामने हैं। चूंकि अखबार प्रेस एक ही सिक्के के दो पहलू होते थे। बिना प्रेस के अखबार छपने की कल्पना नहीं की जा सकती थी। मैंने स्वयं साप्ताहिक अखबार ‘‘उत्तर क्रांति’’ को चलाने के लिये छापाखाना खोला था। लगभग चार दशकों के अन्तराल में मैंने ट्रेडल मशीन और लीथो प्रेस भी देखी तो रोटरी और ऑफसेट मशीनें देखने के बाद अब सब कुछ कम्प्यूटरों पर होते देख रहा हूं। एक जमाना मोनोटाइप कास्टिंग का भी था, जिसमें मोनो आपरेटर अपने कीबोर्ड की मदद से सारी स्क्रिप्ट का टंकण कर पेपर रील की पंचिंग करता था और फिर वह छेदी गयी रील मोनोकास्टिंग मशीन पर चढ़ाई जाती थी जिससे हूबहू टाइप की गयी सामग्री सीसे (लेड) के अक्षरों में ढल कर या कास्ट हो कर बाहर निकल जाती थी। यह व्यवस्था हैंड कम्पोजिंग से उन्नत थी जिससे कम्पोजिंग में काफी समय बचता था। इसमें हर बार नये अक्षरों के लिये पुराने सीसे के अक्षर गलाये जाते थे। लेकिन कम्पोजिंग के बाद की प्रकृया पुरानी ही होती थी पहले हेडिंग फांट बहुत सीमित होते थे। आज कम्प्यूटर पर किसी भी आकार प्रकार का फांट उपलब्ध है। शुरू में हम लोग डेस्क पर अक्षर गिन-गिन कर समाचार के शीर्षक बनाते थे। पुरानी ट्रेडल मशीनों कादाबपांच सौ या छह सौ प्रति घंटा होता था और अब एक घंटे में लाखों प्रतियां छपकर फोल्ड भी हो जाती हैं। यही नहीं बंडलिंग भी मशीन ही करती है। छापेखानों से जिस तरह कम्पोजिटर, मशीनमैन और इंकमैन नाम के प्राणी गायब हो गये उसी तरह पेस्टर नाम का प्राणी भी इतिहास बन गया। गैली, फर्मा, स्टिक और कतीरा आदि सारे इतिहास के गर्त में जा चुके हैं। उस जमाने में अखबार निकालने से अधिक दुश्कर काम प्रेस लगाने का था। जब पहाड़ों में सड़कें होने से मोटर वाहन नहीं चलते थे तो उस दौर में लोग कैसे छापेखानों की भारी भरकम लोहे की मशीनों को ढोकर अल्मोड़ा, पौड़ी और मसूरी ले गये होंगे, इसकी कल्पना की जा सकती है। उस जमाने में प्रेस लगने पर शासन-प्रशासन के कान खड़े हो जाते थे। आशंका यह रहती थी कि कहीं कोई सरकार के खिलाफ बगावती साहित्य तो नहीं छाप रहा ? इसी इतिहास को मैंने इस संस्करण में उकेर कर उसका दस्तावेजीकरण करने का प्रयास किया है। जहां तक मेरी जानकारी है इस विषय को आज तक छुआ तक नहीं गया है। आधुनिक अखबारों के पूर्वजों या अग्रदूतों को जन्म देने के साथ ही स्वाधीनता आन्दोलन में राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों का साहित्य छाप कर आजादी के महायज्ञ में आहुति देने और छपे अक्षरों के माध्यम से समाज को शिक्षित और जागृत करने वाले उत्तराखण्ड के छापेखानों का दस्तावेजीकरण करने का यह मेरा छोटा सा प्रयास है।
और
विभिन्न पुस्तकालयों और अपने संग्रह के अलावा मैंने विगत संस्करण में राज्य और राष्ट्रीय अभिलेखागार के अलावा नयी दिल्ली स्थित नेहरू पुस्तकालय एवं संग्रहालय तथा शुभ चिन्तकों के निजी संग्रहों आदि कई श्रोतों से दस्तावेज जुटाये हैं। मुझे इस बात का भी सन्तोष है कि राज्य सरकार ने इस पुस्तक के पहले संस्करण से प्रेरणा लेकर स्वाधीनता सेनानी पत्रकारों की सुध लेते हुये उनके वंशजों का सम्मनित करने और और पुराने पत्रों को जीवित रखने के उपाय करने की पहल की है। इसी पुस्तक से प्रेरणा लेकर राज्य सरकार ने देहरादून स्थित राज्य सचिवालय के मीडिया सेंटर का नामकरण प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार बदरी दत्त पाण्डे के नाम से कर दिया है। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में उत्तराखण्ड के कुछ हिन्दी-अंग्रेजी के सम्पादकों और प्रकाशकों के नाम भी आज के बहुत ही कम पत्रकारांे ने सुने होंगे। इस संस्करण में हमने आर्चिबाल्ड इवांस, बॉडीकॉट और लिड्डेल जैसे उन ऐतिहासिक सम्पादकों द्वारा अपने हाथ से लिखे गये दस्तावेज खोज कर प्रस्तुत किये हैं।
देहरादून निवासी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह और अमीर चन्द बंबवाल जैसे कुछ सेनानी ऐसे थे जिन्होंने कोई सरकारी सुविधा नहीं ली। धर्मवीर और सुखीवर सिंह जैसे युवा आन्दोलनकारी ऐसे थे जो कि भूमिगत रह कर अंग्रेजों के खिलाफ हाथ से लिखी पत्रिकाएं और देशभक्ति का साहित्य चुपचाप बांटते थे। आजादी के बाद उन क्रांतिकारी युवाओं की खोज खबर किसी ने नहीं ली। मैं उन सबको ढूंढ तो नहीं सकता था मगर उनमें से कुछ को गुमनामी से निकालने का प्रयास मैंने इस संस्करण में अवश्य किया है। इस बार कुछ नये पत्रकार स्वाधीनता सेनानियों को भी इस पुस्तक में शामिल किया गया है। पहले संस्करण में मैंने आजादी के आन्दोलन के दौरान प्रतिबंधित साहित्य की कुछ प्रतियां प्रस्तुत की थीं। इस संस्करण में उस अध्याय को विस्तार देते हुये राम प्रसादबिस्मिलजैसे क्रांतिकारी का साहित्य देहरादून में छपने जैसे नये तथ्य समाहित किये गये हैं। इसमें पत्रकारों के साथ ही उत्तराखण्ड के स्वाधीनता सेनानी साहित्यकारों  के कृतित्व को भी शामिल किया गया है।
मेरे लिये गर्व का विषय है कि राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत (एनबीटीआइ) ने पुस्तक के संशोधित और संवर्धित संस्करण को प्रकाशित करने की सहमति दी है। इस अमूल्य सहयोग के लिये मैं एनबीटीआइ के अध्यक्ष, निदेशक और स्टाफ का आभारी हूं। हिन्दी के सहायक संपादक पंकज चतुर्वेदी का विशेष रूप से कृतज्ञ हूं। हिमालयी सरोकारों और संस्कृति संबंधी पुस्तकों के प्रकाशक विन्सर पब्लिशिंग कंपनी, डिस्पेंसरी रोड, देहरादून के कीर्ति नवानी का भी आभारी हूं। उनकी ही हौसलाफजाई से मेरी पांच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यह संस्करण भी उनकी मदद से ही संभव हो पाया है। इतिहासकार डा0 राकेश नौटियाल के तकनीकी मार्ग दर्शन से मुझे तथ्य जुटाने में मदद मिली है। इस बार भी राज्य अभिलेखागार के निदेशक डा0 लालता प्रसाद और उप निदेशक बी.एन.सिंह के साथ ही सम्पूर्ण स्टाफ का मुझे विशेष सहयोग मिला है। पुस्तक लेखन में सहयोग करने एवं हौसला बढ़ाने वालों की सूची बहुत लम्बी है, इसलिये स्थानाभाव के चलते मैं मन से उन सभी शुभचिन्तकों का आभारी हूं। मैं अपने परिवार का इसलिये आभारी हूं क्योंकि मेरा लेखन प्रायः नौकरी छूटने पर ही शुरू होता है और मेरे परिजन ( उषा, अजय, ज्योति, अंकित और आदित) परिवार के बेरोजगार मुखिया को पढ़ने और लिखने का पूरा मौका देने के साथ ही हर संभव मदद भी करते रहे।
जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
jaysinghrawat@gmail.com




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