बड़ी त्रासदी का संकेत है हिमालय में आ रही बाढ़
हिमाचल
प्रदेश
में
अगस्त
महीने
के
तीसरे
सप्ताह
तक
इस
साल
की
मॉनसून
आपदाओं
में
63 लोगों
की
जानें
चली
गई थीं। - फोटो : अमर उजाला
विभिन्न संस्कृतियों और मान्यताओं वाले मानव समूहों में वर्चस्व को लेकर चले संघर्षों से निजात पाने के लिए जब कुछ मानव समूह हिमालय की ओर आए होंगे तो उन्होंने हिमालय की कंदराओं को सबसे सुरक्षित ठिकाना पाया होगा। इस हिमालय ने न केवल मानव समूहों को आश्रय दिया बल्कि विदेशी आक्रमणकारियों के आगे ढाल बनकर उनकी रक्षा करने के साथ ही उनकी आजीविका के साधन भी उपलब्ध करा, इसलिए कालीदास ने अपने महाकाब्य ‘‘कुमारसंभव’’ में हिमालय को ‘धरती का मानदण्ड’ और ‘दुनिया की छत तथा आश्रय’ बताया था। लेकिन इस हिमालय पर जिस तरह दिन-प्रतिदिन प्राकृतिक आपदाएं बढ़ती जा रही हैं उनसे देखते हुए प्रकृति प्रदत्त यह आश्रय अब सुरक्षित नहीं रह गया है।
बरसात में मौतें ही मौतें
हिमाचल प्रदेश में अगस्त महीने के तीसरे सप्ताह तक इस साल की मॉनसून आपदाओं में 63 लोगों की जानें चली गई थीं। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 20 अगस्त को राज्य विधानसभा में बताया कि इस मॉनसून सीजन में हुई आपदाओं में 25 मौतें तो कुछ ही दिनों के अन्दर हुई हैं। उस तिथि तक प्रदेश को लगभग 625 करोड़ की क्षतियां हो चुकी थीं जिनमें 323 करोड़ की क्षति लोक निर्माण विभाग को और 269 करोड़ की क्षति सिंचाई विभाग को हुई। प्रदेश की 1000 से अधिक सड़कें क्षतिग्रस्त हुई।
यही हाल हिमाचल प्रदेश के जुड़वा राज्य उत्तराखण्ड का भी रहा। उत्तराखण्ड में प्रतिवर्ष औसतन 110 लोग इस तरह की आपदाओं में अपनी जानें गंवा रहे हैं। उत्तराखण्ड में चमोली जिले के फल्दिया आदि गांवों और टिहरी के घनसाली क्षेत्र में अतिवृष्टि सम्बन्धी आपदाओं में 32 लोगों के मारे जाने के बाद उत्तरकाशी के हिमाचल प्रदेश से लगे आराकोट क्षेत्र में जलप्रलय आ गई। वहां के 20 से अधिक लोगों के मारे जाने के साथ ही लगभग 51 गांवों की 8 हजार से अधिक आबादी शेष दुनियां से कट गई जिस कारण तीन दिन तक बचाव और राहत वाले दल बरबाद हो गए गांवों तक नहीं पहुंच पाए। जम्मू-कश्मीर में तवी नदी हर साल बौखला जाती है। असम में आई बाढ़ से इस साल धेमाजी, बारपेटा, मोरीगांव, होजई, जोरहाट, चराइदेव और डिब्रूगढ़ जिलों के कई गांवों की 17,563 हेक्टेयर से अधिक फसल जलमग्न हो गई थी।
बरसात में मौतें ही मौतें
हिमाचल प्रदेश में अगस्त महीने के तीसरे सप्ताह तक इस साल की मॉनसून आपदाओं में 63 लोगों की जानें चली गई थीं। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 20 अगस्त को राज्य विधानसभा में बताया कि इस मॉनसून सीजन में हुई आपदाओं में 25 मौतें तो कुछ ही दिनों के अन्दर हुई हैं। उस तिथि तक प्रदेश को लगभग 625 करोड़ की क्षतियां हो चुकी थीं जिनमें 323 करोड़ की क्षति लोक निर्माण विभाग को और 269 करोड़ की क्षति सिंचाई विभाग को हुई। प्रदेश की 1000 से अधिक सड़कें क्षतिग्रस्त हुई।
यही हाल हिमाचल प्रदेश के जुड़वा राज्य उत्तराखण्ड का भी रहा। उत्तराखण्ड में प्रतिवर्ष औसतन 110 लोग इस तरह की आपदाओं में अपनी जानें गंवा रहे हैं। उत्तराखण्ड में चमोली जिले के फल्दिया आदि गांवों और टिहरी के घनसाली क्षेत्र में अतिवृष्टि सम्बन्धी आपदाओं में 32 लोगों के मारे जाने के बाद उत्तरकाशी के हिमाचल प्रदेश से लगे आराकोट क्षेत्र में जलप्रलय आ गई। वहां के 20 से अधिक लोगों के मारे जाने के साथ ही लगभग 51 गांवों की 8 हजार से अधिक आबादी शेष दुनियां से कट गई जिस कारण तीन दिन तक बचाव और राहत वाले दल बरबाद हो गए गांवों तक नहीं पहुंच पाए। जम्मू-कश्मीर में तवी नदी हर साल बौखला जाती है। असम में आई बाढ़ से इस साल धेमाजी, बारपेटा, मोरीगांव, होजई, जोरहाट, चराइदेव और डिब्रूगढ़ जिलों के कई गांवों की 17,563 हेक्टेयर से अधिक फसल जलमग्न हो गई थी।
सितम्बर
2014 में आई बाढ़
ने
धरती
के
इस
स्वर्ग
को
नर्क
बना
दिया
था। - फोटो : फाइल फोटो
धरती का स्वर्ग बना धरती का नर्क
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया भी है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की फ्रीक्वेंसी में जो तेजी महसूस की जा रही है वह निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त 2010 की रात्रि बादल फटने से आई त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गए थे। इन मृतकों में कुछ विदेशी पर्यटक भी थे। यह इलाका ठण्डा रेगिस्तान माना जाता है। बादल फटने के दौरान वहां एक ही समय में इतनी वर्षा हुई जितनी कि सालभर में होती थी। इसी प्रकार सितम्बर 2014 में आई बाढ़ ने धरती के इस स्वर्ग को नर्क बना दिया था। उस आपदा में लगभग 300 लोग मारे गए और 2.50 लाख घर क्षतिग्रस्त हुए थे। उस समय 5.50 लाख लोग बेघर हो गए थे, जिन्हें काफी समय तक आश्रयों पर रखा गया।
केदारनाथ आपदा के जख्म नहीं भरे
उत्तराखण्ड में 2010 में भी हालात काफी बदतर हो गए थे और दो साल बाद तो केदारनाथ के ऊपर ही बाढ़ आ गई। राज्य आपदा प्रबन्धन केन्द्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2013 की मॉनसून आपदा में उत्तराखण्ड के 4200 गांवों की 5 लाख आबादी प्रभावित हुई है। इनमें से 59 गांव या तो तबाह हो गए या बुरी तरह से प्रभावित हो गए हैं। इस आपदा में शुरुआती दौर में 4,459 लोगों के घायल होने की रिपार्ट आई थी। जबकि मृतकों के बारे में अब तक कयास ही लगे। राज्य सरकार ने शुरू में तीर्थयात्रियों समेत केवल 5466 लोगों को स्थाई रूप से लापता बताया था, मगर राज्य पुलिस द्वारा मानवाधिकार आयोग को सौंपे गए आंकड़ों के अनुसार इस आपदा में पूरे 6182 लोग लापता हुए हैं। इस आपदा में मारे जाने और लापता होने वाले लोगों की सही संख्या का पता नहीं चल सका है। गैर सरकारी अनुमानों में मृतकों की संख्या 15 हजार से अधिक मानी गई।
हिमाचल प्रदेश के 5 जिले सर्वाधिक खतरे में
हिमाचल प्रदेश में भी त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने एवं भूकम्प की दृष्टि से चम्बा, किन्नौर, कुल्लू जिले पूर्ण रूप से तथा कांगड़ा और शिमला जिलों के कुछ हिस्से अत्यधिक संवेदनशील माने गए हैं। इनके अलावा संवेदनशील जिलों में मण्डी, कांगड़ा, ऊना, शिमला और लाहौल स्पीति जिलों को शामिल किया गया है। जबकि हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन और सिरमौर जिलों को कम संवेदनशील की श्रेणी में आपदा प्रबंधन विभाग ने रखा है। भूकम्प की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील जिले कांगड़ा, हमीरपुर और मण्डी माने गए हैं जबकि बाढ़ और भूस्खलन की दृष्टि से चम्बा, कुल्लू, किन्नौर, ऊना का पूर्ण रूप् से और कांगड़ा तथा शिमला जिलों के कुछ क्षेत्रों को अति संवेदनशील माना गया है। कुल्लू घाटी में 12 सितम्बर 1995 को भूस्खलन में 65 लोग जिन्दा दफन हो गए थे। मार्च 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग अपनी जानें गंवा बैठे थे। मार्च 1979 में आए एक अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गए थे।
सतलुज नदी में 1 अगस्त 2000 को आई बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे और 14 पुल बह गए थे। उस आपदा में लगभग 1 हजार करोड़ की क्षति का अनुमान लगाया गया था। उस समय सतलुज में बाढ़ आई तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गई। वर्ष 1995 में आई आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गईं थीं।
धरती का गर्भ भी विचलित
दुनिया की इस सबसे युवा और सबसे ऊंची परतदार कच्ची पर्वत श्रृंखला के ऊपर जिस तरह निरंतर विप्लव हो रहे हैं उसी तरह इसका भूगर्व भी अशांत है। असम में 1897 में 8.7 और 1950 में 8.5 परिमाण के तथा हिमाचल के कांगड़ा में 7.8 परिमाण के भूचाल आ चुके हैं। कांगड़ा के भूकम्प में 20 हजार लोग और 53 हजार पशु मारे गए थे। भूकंप विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्वीय ऊर्जा जमीन के नीचे जमा होती जा रही है। जिस दिन वह ऊर्जा बाहर निकली तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाशकारी साबित होगी।
हिमालय में इस तरह की त्रासदियों का लम्बा इतिहास है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया भी है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की फ्रीक्वेंसी में जो तेजी महसूस की जा रही है वह निश्चित रूप से चिन्ता का विषय है। लेह जिले में 5 एवं 6 अगस्त 2010 की रात्रि बादल फटने से आई त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गए थे। इन मृतकों में कुछ विदेशी पर्यटक भी थे। यह इलाका ठण्डा रेगिस्तान माना जाता है। बादल फटने के दौरान वहां एक ही समय में इतनी वर्षा हुई जितनी कि सालभर में होती थी। इसी प्रकार सितम्बर 2014 में आई बाढ़ ने धरती के इस स्वर्ग को नर्क बना दिया था। उस आपदा में लगभग 300 लोग मारे गए और 2.50 लाख घर क्षतिग्रस्त हुए थे। उस समय 5.50 लाख लोग बेघर हो गए थे, जिन्हें काफी समय तक आश्रयों पर रखा गया।
केदारनाथ आपदा के जख्म नहीं भरे
उत्तराखण्ड में 2010 में भी हालात काफी बदतर हो गए थे और दो साल बाद तो केदारनाथ के ऊपर ही बाढ़ आ गई। राज्य आपदा प्रबन्धन केन्द्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2013 की मॉनसून आपदा में उत्तराखण्ड के 4200 गांवों की 5 लाख आबादी प्रभावित हुई है। इनमें से 59 गांव या तो तबाह हो गए या बुरी तरह से प्रभावित हो गए हैं। इस आपदा में शुरुआती दौर में 4,459 लोगों के घायल होने की रिपार्ट आई थी। जबकि मृतकों के बारे में अब तक कयास ही लगे। राज्य सरकार ने शुरू में तीर्थयात्रियों समेत केवल 5466 लोगों को स्थाई रूप से लापता बताया था, मगर राज्य पुलिस द्वारा मानवाधिकार आयोग को सौंपे गए आंकड़ों के अनुसार इस आपदा में पूरे 6182 लोग लापता हुए हैं। इस आपदा में मारे जाने और लापता होने वाले लोगों की सही संख्या का पता नहीं चल सका है। गैर सरकारी अनुमानों में मृतकों की संख्या 15 हजार से अधिक मानी गई।
हिमाचल प्रदेश के 5 जिले सर्वाधिक खतरे में
हिमाचल प्रदेश में भी त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने एवं भूकम्प की दृष्टि से चम्बा, किन्नौर, कुल्लू जिले पूर्ण रूप से तथा कांगड़ा और शिमला जिलों के कुछ हिस्से अत्यधिक संवेदनशील माने गए हैं। इनके अलावा संवेदनशील जिलों में मण्डी, कांगड़ा, ऊना, शिमला और लाहौल स्पीति जिलों को शामिल किया गया है। जबकि हमीरपुर, बिलासपुर, सोलन और सिरमौर जिलों को कम संवेदनशील की श्रेणी में आपदा प्रबंधन विभाग ने रखा है। भूकम्प की दृष्टि से सर्वाधिक संवेदनशील जिले कांगड़ा, हमीरपुर और मण्डी माने गए हैं जबकि बाढ़ और भूस्खलन की दृष्टि से चम्बा, कुल्लू, किन्नौर, ऊना का पूर्ण रूप् से और कांगड़ा तथा शिमला जिलों के कुछ क्षेत्रों को अति संवेदनशील माना गया है। कुल्लू घाटी में 12 सितम्बर 1995 को भूस्खलन में 65 लोग जिन्दा दफन हो गए थे। मार्च 1978 में लाहौल स्पीति में एवलांच गिरने से 30 लोग अपनी जानें गंवा बैठे थे। मार्च 1979 में आए एक अन्य एवलांच में 237 लोग मारे गए थे।
सतलुज नदी में 1 अगस्त 2000 को आई बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे और 14 पुल बह गए थे। उस आपदा में लगभग 1 हजार करोड़ की क्षति का अनुमान लगाया गया था। उस समय सतलुज में बाढ़ आई तो नदी का जलस्तर सामान्य से 60 फुट तक उठ गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था। इसके एक महीने के अन्दर फिर सतलुज में त्वरित बाढ़ आ गई। वर्ष 1995 में आई आपदाओं में हिमाचल में 114 तथा 1997 की आपदाओं में 223 लोगों की जानें चली गईं थीं।
धरती का गर्भ भी विचलित
दुनिया की इस सबसे युवा और सबसे ऊंची परतदार कच्ची पर्वत श्रृंखला के ऊपर जिस तरह निरंतर विप्लव हो रहे हैं उसी तरह इसका भूगर्व भी अशांत है। असम में 1897 में 8.7 और 1950 में 8.5 परिमाण के तथा हिमाचल के कांगड़ा में 7.8 परिमाण के भूचाल आ चुके हैं। कांगड़ा के भूकम्प में 20 हजार लोग और 53 हजार पशु मारे गए थे। भूकंप विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि पिछली एक सदी में इस क्षेत्र में कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्वीय ऊर्जा जमीन के नीचे जमा होती जा रही है। जिस दिन वह ऊर्जा बाहर निकली तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाशकारी साबित होगी।
हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। - फोटो : फाइल फोटो
नदियों की बौखलाहट बढ़ी
भूगर्भविदों के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है तथा भूकम्पों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों व धरती पर पड़ता रहता है। जिस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इससे थोड़े समय के लिए नदियों में बहाव बढे़गा और लंबे समय में कम होगा। हिमखण्डों से निकलने वाली बहुत सी नदियां बारहमासी नहीं रहेंगी। इस तरह चट्टानों के खिसकने से बनने वाली झीलों की संख्या बढ़ेगी और हिमालय क्षेत्र से आने वाली त्वरित बाढ़ों का खतरा बढ़ जाएगा। हिमालय का बहुत बड़ा हिस्सा भारतीय क्षेत्र से बाहर है, लेकिन इससे पिघलने वाला पानी भारतीय नदियों में आता है। हिमालय से उद्गमित गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु नदियों के बेसिन के अन्तर्गत देश का 43 प्रतिशत क्षेत्र आता है तथा देश की सभी नदियों के जल का 63 प्रतिशत जल इन तीनों नदियों में बहता है और विगत् कुछ समय से इन तीनों नदियों के व्यवहार में परिवर्तन आया है।
आपदाओं के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार
दरअसल, हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की लगभग 2400 किमी लम्बी यह पर्वतमाला को भूकम्प, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरने, बादल फटने एवं हिमखण्ड स्खलन जैसी आपदाओं ने अपना स्थाई घर बना दिया है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा उत्तर पूर्व के शेष हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर पूर्व के इन हिमालयी राज्यों में से किसी एक में शायद ही कोई साल ऐसा गुजरा हो जब वहां वनावरण न घटा हो। विकास के नाम पर प्रकृति से हो रही बेतहासा छेड़छाड़ को भी हिमालय के संकट का कारण माना जा सकता है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।
भूगर्भविदों के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है तथा भूकम्पों से सर्वाधिक प्रभावित है। इसका प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों तथा चट्टानों व धरती पर पड़ता रहता है। जिस कारण इन नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केन्द्र अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखण्ड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इससे थोड़े समय के लिए नदियों में बहाव बढे़गा और लंबे समय में कम होगा। हिमखण्डों से निकलने वाली बहुत सी नदियां बारहमासी नहीं रहेंगी। इस तरह चट्टानों के खिसकने से बनने वाली झीलों की संख्या बढ़ेगी और हिमालय क्षेत्र से आने वाली त्वरित बाढ़ों का खतरा बढ़ जाएगा। हिमालय का बहुत बड़ा हिस्सा भारतीय क्षेत्र से बाहर है, लेकिन इससे पिघलने वाला पानी भारतीय नदियों में आता है। हिमालय से उद्गमित गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु नदियों के बेसिन के अन्तर्गत देश का 43 प्रतिशत क्षेत्र आता है तथा देश की सभी नदियों के जल का 63 प्रतिशत जल इन तीनों नदियों में बहता है और विगत् कुछ समय से इन तीनों नदियों के व्यवहार में परिवर्तन आया है।
आपदाओं के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार
दरअसल, हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण सिन्धु से लेकर ब्रह्मपुत्र तक की लगभग 2400 किमी लम्बी यह पर्वतमाला को भूकम्प, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरने, बादल फटने एवं हिमखण्ड स्खलन जैसी आपदाओं ने अपना स्थाई घर बना दिया है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के अलावा उत्तर पूर्व के शेष हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र निहित है। लेकिन पिछले दो दशकों में उत्तर पूर्व के इन हिमालयी राज्यों में से किसी एक में शायद ही कोई साल ऐसा गुजरा हो जब वहां वनावरण न घटा हो। विकास के नाम पर प्रकृति से हो रही बेतहासा छेड़छाड़ को भी हिमालय के संकट का कारण माना जा सकता है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।