औद्योगीकरण के भूत के आगे पहाड़ी किसान लाचार
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-जयसिंह रावत
त्रिवेन्द्र सरकार के सिर औद्योगीकरण का ऐसा भूत सवार हो गया कि वह पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग और नये राज्य के गठन के पीछे की भावना ही भूल गयी। पहाड़ के लोग लम्बे समय से अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल अलग राज्य की मांग अपने त्वरित विकास के लिये तो कर रही रहे थे लेकिन इसके पीछे उनकी अलग पहचान बनाये रखने और पहाड़ की जमीनों को माफिया और धन्ना सेठों के हाथ जाने से रोकने की भावना भी थी। लेकिन प्रदेश की मौजूदा त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने उद्योगपतियों को लुभाने के लिये उस भूकानून को सूली पर चढ़ा दिया जिसे जनता की भारी मांग पर नारायण दत्त तिवारी सरकार ने बनाया था और बाद में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी सरकार ने उसे जनभावनाओं की कसौटी पर खरा उतारने के लिये और कठोर बना दिया था। निवेश आने से पहले ही निवेश के नशे में चूर त्रिवेन्द्र सरकार यह भी भूल गयी कि इसी उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2008 को पिछली सरकार कानूनी लड़ाई लड़ कर सुप्रीम कोर्ट से बचा कर लायी थी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की उपस्थिति में गत 7 एवं 8 अक्टूबर को देहरादून में आयोजित इन्वेस्टर्स सम्मिट में आये 1.25 लाख करोड़ के निवेश के प्रस्तावों से त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार इतनी गदगद है मानों कि इसी साल पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी लाखों करोड़ का निवेश करने का वायदा करने वाले गिने चुने उद्योगपति सचमुच सवा लाख करोड़ के कल कारखाने त्रिवेन्द्र सरकार की झोली में डाल चुके हों। इसी साल जनवरी में पश्चिम बंगाल में आयोजित इसी तरह की इन्वेस्टर्स सम्मिट में इन्हीं उद्योगपतियों ने 2.28 लाख करोड़ के निवेश के एमओयू पर हस्ताक्षर करने के बाद फरवरी में आयोजित उत्तर प्रदेष के इन्वेस्टर्स सम्मिट में 4.19 लाख करोड़ के निवेश के प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किये थे। इन दो राज्यों में अभी तक तो कोई निवेश आया नहीं और भविष्य का भी कोई पता नहीं बहरहाल उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार ने पहाड़ विरोधी सलाहकारों के बहकावे में आकर उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2008की उन धाराओं को ही हटा दिया जिनसे पहाड़ की जमीनों की अनियंत्रित खरीद फरोख्त पर अंकुश लगाया गया था।
कई दशकों से अपनी अलग पहचान और अपना शासन अलग चाहने वाले पहाड़वासियों की तीन प्रमुख मांगों में पहली मांग उत्तराखण्ड राज्य की और दूसरी मांग पहाड़ की राजधानी पहाड़ में बनाने के साथ ही तीसरी मांग हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एण्ड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 की तर्ज पर बाहरी लोगों द्वारा जमीनों की खरीद फरोख्त रोकने के लिये सख्त भूकानून बनाने की थी। इसके साथ ही पहाड़ की जनता अपनी विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों और सीमावर्ती इस राज्य की सामरिक संवेदनशीलता को देखते हुये उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह संविधान की धारा 371(ए), 371 बी), 371 (सी), 371 (एफ) और 371 (जी) की जैसी संवैधानिक व्यवस्था उत्तराखण्ड में भी करने की मांग उठ रही थी। धारा 371 की मांग करने वालों में भाजपा के तत्कालीन सांसद मनोहरकान्त ध्यानी भी थे, जिन्होंने बाकायदा यह प्रस्ताव राज्यसभा में रखा भी था। इसलिये राज्य बनने के बाद जनता के भारी दबाव के कारण पहले नारायण दत्त तिवारी ने हिमाचल प्रदेश अेनेंसी एण्ड लैण्ड रिफॉर्म एक्ट 172 एक्ट की धारा-118 से मिलता जुलता कानून बनाया और फिर भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने जनता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुये तिवारी के कानून को और सख्त बनाया था। सन् 2012 में जब राज्य विधानसभा का चुनाव हुआ था तो उस समय भाजपा के पास खण्डूड़ी सरकार द्वारा पहाड़ की जमीनों की खरीद फरोख्त पर अंकुश लगाने के लिये बनाया गया उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) विधेयक 2008 सबसे बड़ा चुनावी हथियार था। इस कानून को भुवनचन्द्र खण्डूड़़ी और भाजपा दोनों ने ही अपने राजनीतिक लाभ के लिये खूब भुनाया था। इस कानून में व्यवस्था थी कि 12 सितम्बर, 2003 तक जिन लोगों के पास राज्य में जमीन है, वह 12 एकड़ तक कृषि योग्य जमीन खरीद सकते हैं। लेकिन जिनके पास जमीन नहीं है, वे आवासीय उद्ेश्य के लिये भी इस तारीख के बाद 250 वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन नहीं खरीद सकते हैं। लेकिन अब सरकार ने उद्योग के नाम पर कितनी ही जमीन खरीदने की छूट दे दी है। इसके अलावा धारा 143 के तहत कृषि भूमि का भूउपयोग बदलने की जो बंदिशें थीं उन्हें भी समाप्त करने का निर्णय त्रिवेन्द्र सरकार ने ले लिया है। अब कोई भी धन्नासेठ उद्योग लगाने के नाम पर बहुत ही सीमित मात्रा में उपब्ध कृषि भूमि खरीद कर उसका कुछ भी उपयोग कर सकता है। दरअसल प्रदेश में जमीनों की खरीद फरोख्त पर नियंत्रण के लिये सन् 2003 में नारायण दत्त तिवारी सरकार ने सबसे पहले उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) विधेयक 2003 के जरिये कानून बना दिया था। इसमें जमीन खरीदने की सीमा 500 वर्गमीटर थी जिसे बाद में खण्डूड़ी सरकार ने नाकाफी बता कर उसमें सन् 2008 में संशोधन कर प्रावधानों को और कठोर बना दिया था ताकि हिमाचल प्रदेश की तरह ही उत्तराखण्ड में भी बाहरी लोग आकर भोले-ंउचयभाले काश्तकारों की जमीनें खरीद कर उन्हें भूमिहीन न बना दें। विधेयक से पहले तिवारी सरकार ने 12 सितम्बर 2003 को उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अध्यादेश 2003 प्रख्यापित किया। जिसे बाद में अधिनियम का रूप देने के लिये विधानसभा में पेश किया गया मगर भूमाफिया और ग्रामीणों की जमीनों पर गिद्धदृष्टि जमाये धन्नासेठों को वह बिल रास नहीं आया। बाहरी लोगों के भारी दबाव में तिवारी सरकार ने विजय बहुगुणा के नेतृत्व में एक समिति बना डाली जिसे जनता का पक्ष सुनने के बाद विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करना था। राज्यपाल द्वारा जारी किये गये पहले अध्यादेश में कुल 13 संशोधन करा कर बहुगुणा समिति ने उसकी आत्मा ही मार दी गयी। उसमें गैर कृषक उपयोग वाली भूमि के विक्रय पर भी प्रतिबंध था जबकि इसकी जगह यह व्यवस्था की गयी कि 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के अकृषक भी जमीन खरीद सकता है। तिवारी सरकार द्वारा मूल अधिनियम में धारा 152 (क), 154 (3), 154 (4) (1) एवं 154 (4) (2) जोड़ कर यह बंदिश लगा यह व्यवस्था कर दी थी कि प्रदेश में कोई भी अकृषक या जो मूल अधिनियम की धारा 129 के तहत जमीन का खातेदार न हो वह 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के भी जमीन खरीद सकता है। लेकिन अब तो त्रिवेन्द्र सरकार ने रही सही बंदिशें भी समाप्त कर पहाड़ की जमीनें लूटने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। गौरतलब है कि इस कानून को जब राज्य सरकार की लापरवाही के कारण नैनीताल हाइकोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था तो फिर राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट में जा कर अपना यह कानून बचा कर लाना पड़ा था।
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-जयसिंह रावत
त्रिवेन्द्र सरकार के सिर औद्योगीकरण का ऐसा भूत सवार हो गया कि वह पृथक उत्तराखण्ड राज्य की मांग और नये राज्य के गठन के पीछे की भावना ही भूल गयी। पहाड़ के लोग लम्बे समय से अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल अलग राज्य की मांग अपने त्वरित विकास के लिये तो कर रही रहे थे लेकिन इसके पीछे उनकी अलग पहचान बनाये रखने और पहाड़ की जमीनों को माफिया और धन्ना सेठों के हाथ जाने से रोकने की भावना भी थी। लेकिन प्रदेश की मौजूदा त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार ने उद्योगपतियों को लुभाने के लिये उस भूकानून को सूली पर चढ़ा दिया जिसे जनता की भारी मांग पर नारायण दत्त तिवारी सरकार ने बनाया था और बाद में भुवन चन्द्र खण्डूड़ी सरकार ने उसे जनभावनाओं की कसौटी पर खरा उतारने के लिये और कठोर बना दिया था। निवेश आने से पहले ही निवेश के नशे में चूर त्रिवेन्द्र सरकार यह भी भूल गयी कि इसी उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2008 को पिछली सरकार कानूनी लड़ाई लड़ कर सुप्रीम कोर्ट से बचा कर लायी थी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह की उपस्थिति में गत 7 एवं 8 अक्टूबर को देहरादून में आयोजित इन्वेस्टर्स सम्मिट में आये 1.25 लाख करोड़ के निवेश के प्रस्तावों से त्रिवेन्द्र सिंह रावत सरकार इतनी गदगद है मानों कि इसी साल पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी लाखों करोड़ का निवेश करने का वायदा करने वाले गिने चुने उद्योगपति सचमुच सवा लाख करोड़ के कल कारखाने त्रिवेन्द्र सरकार की झोली में डाल चुके हों। इसी साल जनवरी में पश्चिम बंगाल में आयोजित इसी तरह की इन्वेस्टर्स सम्मिट में इन्हीं उद्योगपतियों ने 2.28 लाख करोड़ के निवेश के एमओयू पर हस्ताक्षर करने के बाद फरवरी में आयोजित उत्तर प्रदेष के इन्वेस्टर्स सम्मिट में 4.19 लाख करोड़ के निवेश के प्रस्तावों पर हस्ताक्षर किये थे। इन दो राज्यों में अभी तक तो कोई निवेश आया नहीं और भविष्य का भी कोई पता नहीं बहरहाल उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार ने पहाड़ विरोधी सलाहकारों के बहकावे में आकर उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अधिनियम 2008की उन धाराओं को ही हटा दिया जिनसे पहाड़ की जमीनों की अनियंत्रित खरीद फरोख्त पर अंकुश लगाया गया था।
कई दशकों से अपनी अलग पहचान और अपना शासन अलग चाहने वाले पहाड़वासियों की तीन प्रमुख मांगों में पहली मांग उत्तराखण्ड राज्य की और दूसरी मांग पहाड़ की राजधानी पहाड़ में बनाने के साथ ही तीसरी मांग हिमाचल प्रदेश टेनेंसी एण्ड लैंड रिफार्म एक्ट 1972 की धारा 118 की तर्ज पर बाहरी लोगों द्वारा जमीनों की खरीद फरोख्त रोकने के लिये सख्त भूकानून बनाने की थी। इसके साथ ही पहाड़ की जनता अपनी विशिष्ट सामाजिक परिस्थितियों और सीमावर्ती इस राज्य की सामरिक संवेदनशीलता को देखते हुये उत्तर पूर्व के राज्यों की तरह संविधान की धारा 371(ए), 371 बी), 371 (सी), 371 (एफ) और 371 (जी) की जैसी संवैधानिक व्यवस्था उत्तराखण्ड में भी करने की मांग उठ रही थी। धारा 371 की मांग करने वालों में भाजपा के तत्कालीन सांसद मनोहरकान्त ध्यानी भी थे, जिन्होंने बाकायदा यह प्रस्ताव राज्यसभा में रखा भी था। इसलिये राज्य बनने के बाद जनता के भारी दबाव के कारण पहले नारायण दत्त तिवारी ने हिमाचल प्रदेश अेनेंसी एण्ड लैण्ड रिफॉर्म एक्ट 172 एक्ट की धारा-118 से मिलता जुलता कानून बनाया और फिर भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने जनता की भावनाओं को ध्यान में रखते हुये तिवारी के कानून को और सख्त बनाया था। सन् 2012 में जब राज्य विधानसभा का चुनाव हुआ था तो उस समय भाजपा के पास खण्डूड़ी सरकार द्वारा पहाड़ की जमीनों की खरीद फरोख्त पर अंकुश लगाने के लिये बनाया गया उत्तराखण्ड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) विधेयक 2008 सबसे बड़ा चुनावी हथियार था। इस कानून को भुवनचन्द्र खण्डूड़़ी और भाजपा दोनों ने ही अपने राजनीतिक लाभ के लिये खूब भुनाया था। इस कानून में व्यवस्था थी कि 12 सितम्बर, 2003 तक जिन लोगों के पास राज्य में जमीन है, वह 12 एकड़ तक कृषि योग्य जमीन खरीद सकते हैं। लेकिन जिनके पास जमीन नहीं है, वे आवासीय उद्ेश्य के लिये भी इस तारीख के बाद 250 वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन नहीं खरीद सकते हैं। लेकिन अब सरकार ने उद्योग के नाम पर कितनी ही जमीन खरीदने की छूट दे दी है। इसके अलावा धारा 143 के तहत कृषि भूमि का भूउपयोग बदलने की जो बंदिशें थीं उन्हें भी समाप्त करने का निर्णय त्रिवेन्द्र सरकार ने ले लिया है। अब कोई भी धन्नासेठ उद्योग लगाने के नाम पर बहुत ही सीमित मात्रा में उपब्ध कृषि भूमि खरीद कर उसका कुछ भी उपयोग कर सकता है। दरअसल प्रदेश में जमीनों की खरीद फरोख्त पर नियंत्रण के लिये सन् 2003 में नारायण दत्त तिवारी सरकार ने सबसे पहले उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) विधेयक 2003 के जरिये कानून बना दिया था। इसमें जमीन खरीदने की सीमा 500 वर्गमीटर थी जिसे बाद में खण्डूड़ी सरकार ने नाकाफी बता कर उसमें सन् 2008 में संशोधन कर प्रावधानों को और कठोर बना दिया था ताकि हिमाचल प्रदेश की तरह ही उत्तराखण्ड में भी बाहरी लोग आकर भोले-ंउचयभाले काश्तकारों की जमीनें खरीद कर उन्हें भूमिहीन न बना दें। विधेयक से पहले तिवारी सरकार ने 12 सितम्बर 2003 को उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अध्यादेश 2003 प्रख्यापित किया। जिसे बाद में अधिनियम का रूप देने के लिये विधानसभा में पेश किया गया मगर भूमाफिया और ग्रामीणों की जमीनों पर गिद्धदृष्टि जमाये धन्नासेठों को वह बिल रास नहीं आया। बाहरी लोगों के भारी दबाव में तिवारी सरकार ने विजय बहुगुणा के नेतृत्व में एक समिति बना डाली जिसे जनता का पक्ष सुनने के बाद विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करना था। राज्यपाल द्वारा जारी किये गये पहले अध्यादेश में कुल 13 संशोधन करा कर बहुगुणा समिति ने उसकी आत्मा ही मार दी गयी। उसमें गैर कृषक उपयोग वाली भूमि के विक्रय पर भी प्रतिबंध था जबकि इसकी जगह यह व्यवस्था की गयी कि 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के अकृषक भी जमीन खरीद सकता है। तिवारी सरकार द्वारा मूल अधिनियम में धारा 152 (क), 154 (3), 154 (4) (1) एवं 154 (4) (2) जोड़ कर यह बंदिश लगा यह व्यवस्था कर दी थी कि प्रदेश में कोई भी अकृषक या जो मूल अधिनियम की धारा 129 के तहत जमीन का खातेदार न हो वह 500 वर्ग मीटर तक बिना अनुमति के भी जमीन खरीद सकता है। लेकिन अब तो त्रिवेन्द्र सरकार ने रही सही बंदिशें भी समाप्त कर पहाड़ की जमीनें लूटने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। गौरतलब है कि इस कानून को जब राज्य सरकार की लापरवाही के कारण नैनीताल हाइकोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था तो फिर राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट में जा कर अपना यह कानून बचा कर लाना पड़ा था।
नारायण दत्त तिवारी ने उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) विधेयक 2003 की भूमिका में कहा था कि उन्हें बड़े पैमाने पर कृषि भूमि की खरीद फरोख्त अकृषि कार्यों और मुनाफाखोरी के लिये किये जाने की शिकायतें मिल रहीं थीं। उनका कहना था कि प्रदेश की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं को देखते हुये असामाजिक तत्वों द्वारा भी कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय नीति का लाभ उठाया जा सकता है। अतः कृषि भूमि के उदार क्रय विक्रय को नियंत्रित करने और पहाड़वासियों के आर्थिक स्थायित्व तथा विकास के लिये सम्भावनाओं का माहौल बनाये जाने हेतु यह कानून लाया जाना जरूरी है। चूंकि मामला बेहद गंभीर और जनभावनाओं से जुड़ा था और उस समय विधानसभा का सत्र भी नहीं चल रहा था। इसलिये इस खरीद फरोख्त पर तत्काल अंकुश के लिये उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अध्यादेश 2003 लाया गया जिसे बाद में संशोधित कर विधानसभा से पारित किया गया। अब त्रिवेन्द्र सरकार ने चन्द उद्योगपतियों को पहाड़ की जमीनें पानी के भाव खरीदने के लिये रास्ता बनाने हेतु मूल कानून की बंदिशें समाप्त करने के लिये उत्तरांचल (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950) (अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001) (संशोधन) अध्यादेश 2018 को मंजूरी दे दी। उत्तराखण्ड में कृषि के लिये केवल 13 प्रतिशत जमीन वर्गीकृत है बाकी में से 71 प्रतिशत भूभाग पर जंगल हैं। यहां 70 प्रतिशत से अधिक जोतें आधा हैक्टेअर से कम हैं और जमीनांे की कमी के चलते एक ही भूखाते के दर्जनों खातेदार हैं। अगर इतनी सीमित जमीन भी पहाड़ के लोगों से छीन ली गयी तो उनकी पीढि़यां ही भूमिहीन हो जायेंगी।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-9412324999
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