क्या नरम वामपंथ की हार चरम वामपंथ की जीत है ?
जय सिंह रावत
सवाल केवल चुनाव हारने
या जीतने तक नहीं है। सवाल दुनिया के कम्युनिस्टों को बुलेट की जगह बैलेट का
रास्ता दिखाने वाले वामपंथ के अवसान का और अन्य कम्युनिस्टों की तरह सशस्त्र
क्रांति के द्वारा बुर्जुवा शासक वर्ग से सत्ता छीन कर सर्वहारा की तानाशाही
स्थापित करने वाली उस विचारधारा के पनपने का है जो कि दुनियां में ही अंतिम सांसें
ले रही है
संसदीय लोकतंत्र में
विश्वास रखने वाले भारतीय वामपंथ का पश्चिम बंगाल के बाद त्रिपुरा में भी लाल किला
ढह जाने के बाद देश की चारों वामपंथी पार्टियों को तो अपने भविष्य के प्रति
चिन्तित और सजग होना ही है, लेकिन कम्युनिस्टों को पराजित कर उनके किले के परखचों
पर अट्टाहस करने वालों और वामपंथ का नामोनिशान मिटाने के जज्बे के साथ त्रिपुरा के
बेलोनिया और सबरूम में ब्लादिमिर लेनिन की प्रतिमाओं को जमींदोज करने वालों के
प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थकों को भी सोचना होगा कि अगर यह वामपंथ सचमुच इतना बुरा
है तो फिर उस चरम वामपंथ के बारे में क्या कहेंगे जिसकी हिंसा में सेकड़ों वीर
जवानों सहित हजारों लोग अब तक मारे जा चुके हैं। अगर शाषित शोसितों की आवाज उठाने
वाला लोकतांत्रिक वामपंथ देश के राजनीतिक नक्शे से मिट गया तो खून खराबे वाला चरम
वामपंथ न केवल मजबूत होगा अपितु चुनाव के जरिये सत्ता में आने वाले वामपंथ को
पथभ्रष्ट और अदूरदर्शी साबित करने में भी सफल हो जायेगा। अतिवादी वामपंथी जिन
कारणों से मुख्य धारा से अलग हुये थे उनमें सबसे प्रमुख कारण कम्युनिस्ट पार्टियों
का क्रांति का मार्ग किनारे कर लोकतांत्रिक मार्ग से सत्ता तक पहुंचना ही मुख्य
था।
अन्तर्राष्ट्रीय
कम्युनिस्ट बिरादरी के समक्ष संसदीय लोकतंत्र में भागीदारी का उदाहरण पेश करने तथा
दुनिया की सबसे दीर्घजीवी लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार चला कर कीर्तिमान स्थापित
करने वाले भारतीय कम्युनिस्ट अब केवल एक राज्य केरल तक ही सिमट कर रह गये हैं। सन्
1957 में इसी केरल ने ईएमएस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में दुनिया की पहली
लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार दी थी। यह अंतिम लाल किला भी कब तक सलामत रहेगा, यह
आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन जिस तरह देश में चरम वामपंथ अपनी जड़ें जमा रहा है
और नरम वामपंथ कमजोर हो रहा है, वह चिन्ता का विषय अवश्य है। डर है कि भारतीय
वामपंथ की मुख्य धारा से भटक कर हथियार उठाने वाले चरमपंथी कहीं स्वयं को देश की
शोषित -शासित जनता के समक्ष उसका असली रहनुमा साबित न कर दे। वैसे भी नरम
वामपंथियों का प्रभाव तो केवल तीन राज्यों में रहा है लेकिन गृह मंत्रालय के
अनुसार चरम वामपंथी नक्सलियों का प्रभाव 10 राज्यों के 103 जिलों में हंै। इनमें
से 30 जिले अति संवेदनशील श्रेणी में रखे गये हैं।
इंस्टीट्यूट फाॅर
कान्फलिक्ट मैनेजमेंट द्वारा जारी आंकणों के अनुसार सन् 2005 से लेकर 2018 तक देश
के 15 राज्यों में माओवादी या चरम वामपंथी हिंसा में 7763 लोग मारे जा चुके हैं।
इनमें 3092 सिविलियन, 1952 सुरक्षा बलों के जवान एवं 2719 माओवादी उग्रवादी शामिल
हैं। माओवादी हिंसा में 739 आन्ध्र्र प्रदेश में, 4 असम, 678 बिहार, 2765
छत्तीसगढ़, 1539 झारखण्ड, 31 कर्नाटक, 3 केरल, 5 मध्य प्रदेश, 498 महाराष्ट्र, 765
उड़ीसा, 1 तमिलनाडू, 22 तेलंगाना, 15 उत्तर पद्रेश एवं 699 लोग पश्चिम बंगाल में
मारे गये। माओवादियों की 13 राज्यों में राज्य कमेटियां स्थापित हैं और इनके अलावा
2 स्पेशल एरिया कमेटियां और 3 स्पेशल जोनल कमेटियां भी कार्यरत् हैं। गृह मंत्रालय
के आकणों के अनुसार 1999 से लेकर 2016 तक माओवादी हिंसा की 26511 वारदातों में 7615
नागरिक, 2585 सुरक्षा बलों के कार्मिक एवं 3019 नक्सली मारे जा चुके हैं।
लोकतंत्र में राजनीतिक
दल चुनाव जीतते और हारते रहते हैं। इस व्यवस्था में किसी भी एक दल या गठबंधन का
स्थाई शासन न तो संभव है और ना ही उचित है। जनता को अपनी पसंद की सरकार के लिये
किसी भी राजनीतिक दल का चयन करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। वामपंथी भी त्रिपुरा
में 25 साल और पश्चिम बंगाल में लगभग 34 साल तक राज करने के बाद चुनाव हार गये तो
लोकतंत्र में यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं है। लेकिन दुनिया में इस अन्तर्राष्ट्रीय
विचारधारा की जो स्थिति है और भारत में जिस तरह राजनीति मजहब, जात-बिरादरी,
क्षेत्र, भाषा और धन बल पर केन्द्रित होती जा रही है और जनवाद कमजोर हो रहा है,
उससे वामपंथ के एक बार फिर उठ खड़े होने की संभावना धंुधली होती जा रही है। यह
भारतीय वामपंथ ही था जिसने पश्चिम बंगाल में 34 साल तक लगातार शासन कर सबसे
दीघार्यु लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट शासन का विश्व रिकार्ड बनाया था। यह माक्र्सवादी
पार्टी ही थी जिसने केन्द्र में दो बार सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की
मगर देश के प्रधानमंत्री पद का प्रस्ताव ठुकरा दिया। फिलहाल भारत के वामपंथ के उस
स्वर्णिम काल के लौटने की संभावना कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही है। लेकिन समाज
में जब तक गैरबराबरी, अन्याय, उत्पीड़न और शोषण रहेगा तब तक पीड़ितों और उपेक्षितों
का गुस्सा किसी न किसी रूप में जरूर प्रकट जरूर होगा।
सवाल केवल चुनाव हारने
या जीतने तक नहीं है। सवाल दुनिया के कम्युनिस्टों को बुलेट की जगह बैलेट का
रास्ता दिखाने वाले वामपंथ के अवसान का और अन्य कम्युनिस्टों की तरह सशस्त्र
क्रांति के द्वारा बुर्जुवा शासक वर्ग से सत्ता छीन कर सर्वहारा की तानाशाही
स्थापित करने वाली उस विचारधारा के पनपने का है जो कि दुनियां में ही अंतिम सांसें
ले रही है। चरमपंथी वामपंथ आज भारत की सत्ता के लिये सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है।
आप बाहरी दुश्मन को सीमा पर खदेड़ सकते हैं और अगर वह अंदर घुस गया तो उसका चुन-चुन
कर सफाया कर सकते हैं, मगर जो शत्रु रक्त के साथ ही शरीर में घुस गया हो उसे मारना
आसान नहीं है। वैसे भी आप वामपंथी को तो मार सकते हैं मगर किसी के दिमाग में घुस
कर उसके वामपंथी विचार को नहीं मार सकते। भारत के नरम और चरम वामपंथ के रास्ते भले
ही अलग-अलग हों मगर दोनों का लक्ष्य एक ही है और वह लक्ष्य शोषित-शासित की सत्ता
स्थापित करना है। चरमपंथी संशस्त्र क्रांति के लिये शोषितों, उपेक्षितों और
आदिवासियों को लामबंद कर रहे हैं। दशकों से जबकि नरमपंथी लक्ष्य हासिल करने के
लिये संसदीय लोकतंत्र के मार्ग पर चल रहे हैं। अगर भारत में लोकतंत्र मार्गी
वामपंथ का सफाया हो गया तो चरमपंथियों को यह साबित करने का मौका मिल जायेगा कि वही
सही थे और चुनाव लड़ने वाले वामपंथी अवसरवादी और रास्ता भटके हुये थे।
कम्युनिस्ट आन्दोलन में
नरम और गरम विचारों का टकराव शुरू से रहा। इसीलिये कम्युनिस्ट पार्टी के टुकड़े
होते रहेे और उन टुकड़ों के भी टुकड़े होते चले गये। आजादी से पहले त्रिपुरा,
तेलंगाना एवं ट्रावनकोर और कोचीन जैसे राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी ने वहां की
राजशाहियों के खिलाफ शोषित-शासितों को लामबंद कर सशस्त्र संघर्ष भी चलाये। बी.टी.
रणदिवे (बीटीआर) के महासचिव काल में हैराबाद के निजाम के खिलाफ भी सशस्त्र संघर्ष
चला। उस समय हैदराबाद का एक हिस्सा कम्युनिस्टों के कब्जे में आ भी गया था। लेकिन
बाद में निजामशाही ने इस विद्रोह को बुरी तरह कुचल दिया था। परिणाम स्वरूप बीटीआर
को पद से हटना पड़ा। कम्युनिस्ट पार्टी का सन् 1964 का विभाजन भी गरम और नरम दल के
वैचारिक टकराव का नतीजा ही था। चीनी आक्रमण के बाद एक गुट राष्ट्रवाद का पक्षधर था
और भारतीय परिस्थितियों के अनुसार आगे बढ़ना चाहता था। लेकिन दूसरा गुट
अन्तर्राष्ट्रीयवाद को महत्व देकर चीन को हमलावर मानने को तैयार नहीं था। गरम दल
ने 1964 में अलग पार्टी कान्फ्रेंस आयोजित कर अपनी अलग ‘‘भारत की कम्युनिस्ट
पार्टी (माक्र्सवादी)’’ बना डाली जबकि राष्ट्रवाद पर जोर देने वाला नरम दल मूल
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआइ) में ही बना रहा। सीपीआइ विचारधारा लोकतांत्रिक
प्रकृया से लक्ष्य प्राप्ति की पक्षधर थी जबकि सीपीआइएम या माक्र्सवादी पार्टी
क्रांति के विकल्प को भी खुला रखने के पक्ष में थी। आगे चल कर सीपीआइ से श्रीपाद
अमृत डांगे ने अलग कम्युनिस्ट पार्टी बना कर उसे कांग्रेस के साथ जोड़ दिया।
हालांकि सीपीआइ भी 1970 से लेकर 77 तक कांग्रेस के सहयोगी के रूप मे ंरही और उसने
आपातकाल का समर्थन भी किया। मगर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) का शुरू
से कांग्रेस विरोधी रुख रहा। यही नहीं हरिकिशन सिंह सुरजीत जैसे माकपाई देश की
लोकतांत्रिक राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे। सन् 1967 में और अधिक
चरमपंथी चारू मजूमदार, कानू सन्याल और जंगल संथाल के नेतृत्व में माक्र्सवादी
पार्टी से भी अलग हो गये और उन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी
(माक्र्सवादी-लेनिवादी) पार्टी बना डाली। चारू मजूमदार नक्सलवाद के संस्थापक होने
के साथ ही वामपन्थ के बहुत बड़े विचारक थे। उनके ”ऐतिहासिक आठ दस्तावेजों।“
को नक्सल आन्दोलन की बाइबिल कहा जा सकता है। सन् 70 के दशक में नक्सलवाद
लगभग बिखर गया था और उसके कम से कम 30 टुकड़े हो गये थे। लेकिन बाद में वे फिर
संगठित होने लगे। कुछ ही वर्ष पहले वे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी-लेनिवादी जनशक्ति) के बैनर तले एकजुट हो
गये। इन उग्र विचारों के संवाहक और पोषक कोई देहाती खेतीहर मजदूर या आदिवासी
नहीं बल्कि उच्च शिक्षित लोग हैं, जिनका मानना है कि सर्वहारा का राज बैलेट से
नहीं बल्कि बुलेट से ही आ सकता है। इस तरह के विचार के श्रोत विश्वविद्यालय,
इन्जिनीयरिंग और मेडिकल कालेजांे तथा अन्य उच्च शिक्षा केन्द्र हैं।
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