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Tuesday, April 10, 2018

उत्तराखंड सूचना एवं संपर्क महानिदेशालय में ऐतिहासिक अख़बारों गैलरी


स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो
-जयसिंह रावत
तोप तलवार और बंदूक जैसे बड़े हथियारों से लड़ी गयी सन् 1857 की पहली लड़ाई विफल हो गयी तो उस दौर के मशहूर शायर सैयद अकबर हुसैन इलाहाबादी को कहना पड़ा कि ‘‘खींचों कमानों को तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’’ भारत में अखबार तो सन् 1870 से निकलने शुरू हो गये थे, मगर तोप-तलवारों से अधिक उनकी ताकत का अहसास स्वतंत्रता के पहले संग्राम के बाद हुआ। भारतीय पत्रकारिता का उदय राष्ट्रीय आन्दोलन की पृष्टभूमि में सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने के लिए ही हुआ। व्यावसायिक उद्देश्यों
से  दूर त्याग, तपस्या और बलिदान की भावना तत्कालीन पत्रकारिता में समाहित थी। उपनिवेशावादी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झण्डा तो 1857 की गदर से ही शुरू हो गया था मगर निर्णायक आन्दोलन सन् 1919-20 से ही शुरू हुआ। हम यह भी कह सकते हैं कि सम्पूर्ण भारत के साथ ही उत्तराखण्ड के गढ़वाल और कुमायूं में भी सन् बीस के दशक से ही राष्ट्रीय आन्दोलन के नये युग का सूत्रपात हुआ। शुरू में आन्दोलन के मुख्य केन्द्र रहे देहरादून और अल्मोड़ा में अखबारों ने आन्दोलन में केवल उत्प्रेरक बल्कि दिग्दर्शक और आग में घी का जैसा काम किया। उस समय इस पर्वतीय भूभाग के ज्यादातर आन्दोलनकारी नेता पत्रकार ही थे।
पंजाब और उत्तर प्रदेश के मध्य में पड़ने के कारण जहां देहरादून में पेशावर और कश्मीर तक के आन्दोलनकारियों का आना जाना होता था वहीं उत्तराखण्ड के रास्ते भी देहरादून और ऋषिकेश से गुजरते थे, इसलिये गढ़वाल और टिहरी रियासत के स्वतंत्रता आन्दोलन का संचालन भी देहरादून से होता था। मसूरी, हरिद्वार और देहरादून जैसे तीन नगरों के चलते पूर्वी उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश तथा तराई के लोगों का आवागमन भी बराबर इस क्षेत्र में होता रहा। देहरादून जेल में जवाहर लाल नेहरू जैसे देश के बड़े-बड़े नेता बन्द रहे। राजा महेन्द्र प्रताप सिंह जैसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के क्रान्तिकारी ने देहरादून को अपना निवास स्थान बनाया था और यहीं से उन्होंने सन् 1913 में  निर्बल सेवकऔर ’’प्रेम’’ नाम के अखबार शुरू किये थे। बाद में वह अफगानिस्तान चले गये जहां उन्होंने आजाद हिन्दुस्तान की निर्वासित सरकार का गठन किया था। प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रास विहारी बोस एक जमाने में देहरादून स्थित वन अनुसंधान संस्थान में एक कर्मचारी के तौर पर काम करते थे और देहरादून में ही निवास करते थे। बाद में उन्होंने जापान जा कर वहां एक अखबार निकाला। प्रसिद्ध मार्क्सवादी विचारक और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के सदस्य मानवेन्द्र नाथ राय ने देहरादून को ही अपना निवास स्थान बनाया। उन्होंने भी देहरादून से दो अखबार निकाले थे।
सन् 1871 में पण्डित बुद्धि बल्लभ पन्त के सम्पादकत्व मेंअल्मोड़ा अखबारका जन्म हो गया। यह उत्तराखण्ड में उदे्श्यपूर्ण पत्रकारिता की शुरुआत थी। पंजीकरण संख्या 10 से शुरू हुयेअल्मोड़ा अखबारकी प्रसार संख्या 150 तक पहुंच गयी थी। बाद मेंसमय विनोदके बन्द होने के कारणअल्मोड़ा अखबारका कुमायूं में एकछत्र प्रसार हो गया। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार सन् 1871 से लेकर 1888 तकअल्मोड़ा अखबारपाक्षिक के रूप में लिथो प्रेस से छपता रहा और फिर ट्रेडिल प्रेस में आकर साप्ताहिक हो गया। बुद्धिबल्लभ के बाद मुन्शी इम्तियाज अली और फिर जीवानन्द जोशी के हाथों मेंअल्मोड़ा अखबारकी जिम्मेदारी आई। इस अखबार ने सदानन्द सनवाल के सम्पादकत्व में काफी नाम कमाया। सन् 1909 से लेकर 1913 तकअल्मोड़ा अखबारके सम्पादन की जिम्मेदारी विष्णु दत्त जोशी के कन्धों पर रही। उसके बाद एक युवा तेज तर्रार सम्पादक बद्रीदत्त पाण्डे ने अल्मोड़ा अखबार की कमान सम्भाली। हुकूमत की ज्यादतियों के चलते वह अखबार 1918 में बंद हो गया। बद्रीदत्त पाण्डे इलहाबाद से स्वाधीनता का जुनून लेकर आये थे। वह वहां कांग्रेस समर्थक अखबारलीडरमें काम करके आये थे। अल्मोड़ा अखबार के बंद होने पर बदरीदत्त पाण्डे ने विजयदशमी के दिन 15 अक्टूबर 1918 से जनता से मिले चन्दे की मदद सेशक्तिअखबार का प्रकाशन शुरू कर दिया जो कि कांग्रेस का मुखपत्र हुआ करता था। बद्रीदत्त पाण्डे के सम्पादकत्व मेंशक्तिब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आग उगलती रही। यह पत्र तमाम झंझावातों और ब्रिटिश शासन के दमन के बावजूद विक्टर मोहन जोशी और मथुरा दत्त जैसे समर्पित देश प्रेमी पत्रकारों की टीम के जज्बों की बदौलत लम्बे समय तक चलता रहा। सन् 1938 में गढ़वाल में स्वतंत्रता संग्राम चलाने के लिये कांग्रेस का एक संगठन बना जिसके अध्यक्ष राम प्रसाद नौटियाल और महामंत्री भक्त दर्शन सिंह रावत बने। इस संगठन ने आन्दोलन चलाने के लिये एक अखबार की आवश्यकता समझी तो लैसडौन से 1939 मेंकर्मभूमिका प्रकाशन शुरू हो गया। कुमायूं मण्डल केकीर्तिकी ही तरहकर्मभूमिभी आजादी के आन्दोलन का सशक्त स्तम्भ बना रहा। इसके पहले सम्पादक भक्त दर्शन और उनके सहायक भैरव दत्त धूलिया थे।गढ़वालीजहां राजशाही समर्थक रहा वहींकर्मभूमिशुरू से ही अंग्रेजी शासन का विरोधी और टिहरी में राजशाही के खिलाफ संघर्ष कर रहे प्रजामण्डल का घोर समर्थक रहा। 1942 में हुलास वर्मा का पाक्षिकस्वराज संदेशऔर आचार्य गोपेश्वर कोठियाल कीरणभेरीशुरू हुयी जो कि जल्दी ही बन्द भी हो गये। हुलास बर्मा से प्रशासन द्वारा कई बार जमानतें मांगी गयी और उन पर जुर्माने भी हुये मगर उनकी लेखनी झुकी नहीं। इसी दौरान देहरादून में कांग्रेसियों ने साइक्लोस्टाइल्ड भूमिगतढिंढोराशुरू किया। ढिंढोरा ने अंग्रेजों को इतना परेशान किया कि इसको बांटने वाले तीन कांग्रेसी गिरफ्तार कर लिये गये। देहरादून से ही सन् 1945 में दीवान सिंह मफतून कारियासत”, ठाकुर चन्दन सिंह का अंग्रेजी पाक्षिकहिमालय टाइम्सशुरू हुआ। आजादी के वर्ष 1947 में देहरादून से भगवती प्रसाद पांथरी और आचार्य गोपेश्वर कोठियाल और तेज राम भट्ट कायुगवाणीशुरू हुआ। सन् 1948 में महान स्वाधीनता सेनानी अमीर चन्द बम्बवाल और यज्ञवल्क्य दत्ता काफ्र्रण्टियर मेलऔर 1949 में सतपाल पांधी का अंग्रेजी साप्ताहिक हिमाचल टाइम्सशुरू हुआ। अमीर चन्द बम्बवाल भी महान स्वाधीनता सेनानी रहे हैं। कुम्भ नगरी हरिद्वार करोड़ों सनातन धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र होने के नाते विश्व में अपना विशेष स्थान तो रखती ही है लेकिन पत्रकारिता के क्षेत्र में भी इस नगर का योगदान कम नहीं है। स्वाधीनता आन्दोलन में भी कलम के धनी हरिद्वार के पत्रकार पीछे नहीं रहे। यहां तक कि साधू सन्तों ने भी मातृभूमि की आजादी के जेल जाने में संकोच नहीं किया। पत्रकारिता के क्षेत्र में स्वामी श्रद्धानन्द ( मुंशी राम) द्वारा स्थापित गुरुकुल का स्वतंत्रता से पूर्व और उसके बाद उल्लेखनीय योगदान रहा है। इसी गुरुकुल सेअलंकार’, ’गुरुकुल समाचार’, ’गुरुकुल पत्रिका’, ’वैदिक पत्रिका’, ’वैदिक पथ’, ’आर्य भट्ट’, औरप्रसादआदि पत्र निकले। वास्तव में गुरुकुल स्वतंत्रता सेनानियों और मूर्धन्य पत्रकारों का पालना रहा। कूर्मांचल केशरी बदरी दत्त पांडे का जन्म भी 15 फरबरी 1882 को हरिद्वार के कनखल में ही हुआ था। गुरुकुल से दीक्षित कई पत्रकारों ने आजादी की लड़ाई को धार दी तो कई अन्य ने देश की हिन्दी पत्रकारिता को जनोन्मुखी दिशा भी दी। ऐस माना जाता है कि मोहन दास कर्मचन्द गांधी को सन् 1915 में सबसे पहले महात्मा मुन्शीराम ने ही गुरुकुल कांगड़ी के एक कार्यक्रम में महात्मा के नाम से संबोधित किया था। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि गांधी जी को महात्मा की उपाधि रवीन्दनाथ टैगोर ने दी थी। लेकिन यह बात निर्विवाद है कि गांधी जी जब सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे तो उन्हें तीन विभूतियों से मिलने की सलाह दी गयी थी जिनमें रवीन्द्र नाथ टैगोर, सुशील कुमार रुद्रा और हरिद्वार के मुन्शीराम शामिल थे। गांधी जी इन तीनों से ही मिले थे। गांधी जी ने ही देहरादून के मिलक रोड पर बाल बनिता आश्रम की आधारशिला रखी थी। (’’स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता’’ पुस्तक से)
जयसिंह रावत
-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव,
शाहनगर, डिफेंस कोलोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल- 9412324999
jaysinghrawat@hotmail.com

उत्तराखण्ड सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग के महानिदेशालय में ऐतिहासिक अखबारों एवं स्वाधीनता सेनानी पत्रकारों पर आधारित गैलरी  में मेरे द्वारा संकलित शोध  सामग्री को भी साभार शामिल किया गया है। गैलरी में मेरे सहयोग का उल्लेख करने पर मैं विभाग का आभारी हूं। शा करता हूं कि गैलरी में कागज की पट्टिका पर मेरा नाम लिखने के बजाय पक्के रंग से किसी पट्टिका पर हमारा उल्लेख किया जाता तो वह ज्यादा दिन तक दीवार पर टिका रहेगा यह शोध सामग्री मैंने अपनी पुस्तक  ‘‘स्वाधीनता आन्दोलन में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता’’ पुस्तक के लिये कई सालों से विभिन्न श्रोतों से एकत्र की थी। पुस्तक का अगला संस्करण  भारत सरकार के नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। दूसरे संस्करण में और अधिक शोधपूर्ण सामग्री दी गयी है। उसमें मैंने प्रदेश के छापेखानों का इतिहास भी जहां तहां से खोज कर और उकेर कर डाल दिया है।

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