हिमालयी झीलों के फटने का खतरा
-जयसिंह रावत
केदारनाथ के ऊपर
चोराबारी ताल, जिसे
अब गांधी सरोवर
के नाम से
भी जाना जाता
है, के फटने
से हुयी अकल्पनीय
तबाही के बाद
ग्लेशियरों और आपदा
तंत्र के विशेषज्ञों
के कान खड़े
हो गये हैं।
गांधी सरोवर के
बाद अब उत्तराखण्ड
की ग्लेशियरों पर
आधारित नदियों के उद्गम
क्षेत्र में स्थित
डोडीताल और सहस्रताल
जैसी विशालकाय झीलों
से महाविनाश का
खतरा नजर आने
लगा है। इसी
तरह की झीलों
में सिखों के
पवित्र तीर्थ हेमकुण्ड साहब
की झील को
भी शामिल किया
जा रहा है
जिस पर अत्यधिक
भीड़ दबाव बढ़ता
जा रहा है।
इतनी ऊंचाई वाले क्षेत्र
में बादल फटने
और मानसून के
सीधे हिमाच्दादित क्षेत्रों
में पहुंचने से
हिमनद विज्ञानियों के
साथ ही आपदा
प्रबन्धन विशेषज्ञों के कान
खड़े हो गये
हैं। उन्हें भय
है कि अगर
इतना छोटा हिमालयी
तालाब इतनी बड़ी
तबाही कर सकता
है तो डोडीताल
और सहस्रताल जैसी
हिमालयी झीलें इससे कहीं
अधिक कहर बरपा
सकती है। इस
क्षेत्र के 917 ग्लेशियर 3,550 वर्ग
किलोमीटर क्षेत्र में फैले
हैं। जिनमें सेकड़ों
की संख्या में
ग्लेशियल लेक हैं।
टिहरी गढ़वाल के
हिमालयी क्षेत्र में सहस्रताल,
यमताल, मासरताल, बासुकी ताल,
मन्सूर ताल, अप्सरा
ताल तथा भिलंगताल
हैं। इनमें सहस्रताल
गढ़वाल क्षेत्र की
सबसे बड़ी हिमालयी
झील है। इसी
तरह खतलिंग ग्लेशियर
से निकलने वाली
भिलंगना नदी के
उद्गम क्षेत्र में
भिलंगताल है जो
कि सीधे तौर
पर भागीरथी की
सहायिका भिलंगना में तबाही
मचा सकती है।
पोड़ी गढ़वाल के
उच्च क्षेत्रों मे
ंदुग्धताल और ताराकुण्ड
स्थित हैं। चमोली
के हिमालयी क्षेत्र
में में विख्यात
रूपकुण्ड और होमकुण्ड
के अलावा लोकपाल
हेमकुण्ड, सतोपन्थ ताल, सुरवदीताल,
बिरही ताल, बेनी
ताल, विष्णुताल, लिंगाताल,
आछरीताल, गुडयिार, गोहरा, आदि मातृका,
नरसिंह, मणिभद्र तथा सिद्धताल
हैं। इन तालों
में से त्रिकाणाकार
सतोपन्थ ताल विशाल
सतोपन्थ ग्लेशियर क्षेत्र में
हैं और यह
अलकनन्दा का श्रोत
ताल भी है।
इस क्षेत्र में
कभी चोराबारी की
पुनरावृत्ति हो गयी
तो स्थित भयावह
हो सकती है।
उत्तरकाशी जिले में
नचिकेता ताल, डोडीताल,
कांचकण्डीताल, बयांताल, केदारताल, भरणसरताल,
रोहीसाणाताल, काणाताल, खिड़ाताल, काकभुसण्डी
ताल, लामाताल, देवसाड़ी
ताल, मासरताल आदि
हैं। षटकोणाकार डोडीताल
उत्तरकाशी की असी
गंगा का श्रोत
है। असी गंगा
ने गत वर्ष
भारी ताबाही मचाई
थी। रुद्रप्रयाग जिले
के हिमालयी तालों
में मुख्य रूप
से देवरिया ताल
और बधाणीताल हैं।
इनके अलावा इस
वर्ष फटने वाला
चोराबारी ताल भी
रुद्रप्रयाग जिले में
ही है।
समुद्र सतह से
10 हजार फुट की
ऊंचाई पर असी
गंगा के उद्गम
वाली डोडीताल झील
की गहराई का
अब तक वैज्ञानिक
पता नहीं लगा
पाए। दयारा गिडारा
के ऊपर डोडीताल
की ही तरह
16 हजार फुट से
अधिक ऊंचाई पर
एक और विशाल
झील है। इन
दोनों झीलों में
ही लाखों घन
मीटर पानी है।
आसपास ही कई
छोटी झीलें भी
हैं। यदि कभी
इनके आसपास बादल
फटा तो पानी
के साथ आने
वाले मलबे से
कई गांव एवं
उत्तरकाशी तबाह हो
सकता है। वर्ष
1978 में भी इसी
तरह बादल फटने
से कनोडिया गाड
में उमड़े मलबे
ने गंगनानी में
भागीरथी का प्रवाह
आठ घंटे तक
रोक दिया था।
यहां बनी झील
टूटने से उत्तरकाशी
को जलप्रलय का
सामना करना पड़ा
था।
दस्तावेजों
के अनुसार भारत
के हिमालयी क्षेत्र
में 1926 में पहली
बार ग्लेशियर झील
फटने से बाढ़
आई थी। जम्मू
कश्मीर में शियोक
ग्लेशियर से आई
इस बाढ़ की
चपेट में आकर
अबुदान गांव सहित
आसपास का 400 किलोमीटर
का इलाका बर्बाद
हो गया था।
हैदराबाद स्थित नेशनल रिमोट
सेंसिंग सेंटर के वैज्ञानिकों
ने पता लगाया
था कि 1981 और
1988 में हिमाचल प्रदेश के
शौन गैरांग ग्लेशियर
से बनी कई
झीलें अचानक खाली
हो गयी थीं।
नेपाल के इंटरनेशनल
सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड
माउंटेन डेवलपमेंट(इसीमोड) द्वारा
समय-समय पर
किये गये कई
अध्ययनों से यह
बात सामने आयी
है कि हिमालय
में बन रही
ग्लेशियर झीलों की संख्या
तेजी से बढ़ी
है। ग्लोबल वॉर्मिंग
से ग्लेशियर के
पिघलने में वृद्धि
हुयी है जिससे
हिमालय के ऊंचे
क्षेत्रों में नयी
झीलों का निर्माण
हो रहा है।
गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के
भूगर्भशास्त्र विभाग के उपाचार्य
डॉ. एम.पी.एस. बिष्ट
के अनुसार, जलवायु
परिवर्तन तापमान में वृद्धि
एवं वनावरण (जंगल)
की कमी से
ज्यादातर झीलों का अस्तित्व
संकट में है।
वैज्ञानिकों का कहना
है कि ग्लेशियरों
के नीचे अवस्थित
झीलों के अस्तित्व
को खतरा पैदा
हो गया है
जिससे व्यापक तबाही
की आशंका पैदा
हो गई है।
राज्य की 42 झीलों
के टोपोशीट के
कंपाइलेशन अध्ययन एवं मौजूदा
आंकड़ों का विश्लेषण
करने पर इन
झीलों का स्थिति
नाजुक पाई गयी
है।
उत्तराखण्ड
में इस तरह
हिमालयी क्षेत्रों में बादल
फटने से झीलों
के बनने और
फिर उन झीलों
के फटने से
भारी तबाही होने
की घटनाओं का
पुराना इतिहास रहा है।
सन् 1868 में बिरही
नदी के अवरुद्ध
होने के बाद
इस झील के
टूटने से 73 लोग
मारे गये थे
उसके बाद इसी
तरह गौणाताल का
निर्माण हुआ और
जब वह टूटा
तो फिर अलकनन्दा
में बाड़ आ
गयी। बिरही झील
बनने के बाद
बादल फटने से
त्वरित बाढ़ और
भूस्खलन की लगभग
30 घटनाओं में सेकड़ों
लोग मारे जा
चुके हैं। 19 सितम्बर
1880 को नैनीताल में शेर
का डांडा से
हुये भूस्खलन में
151 लोग मारे गये
थे। अब भी
नैनीताल झील को
खतरा बताया जा
रहा है।
-जयसिंह
रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून,
उत्तराखण्ड।
Mobile-09412324999
jaysinghrawat@hotmail.com
No comments:
Post a Comment