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Monday, November 9, 2015

UNARMED GANDHI POLICE OF UTTARAKHAND



 उत्तराखंड की हथियार विहीन गांधी पुलिस
- जयसिंह रावत

JAY SINGH  RAWAT AUTHOR AND JOURNALIST
भारत में पटवारी व्यवस्था का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि भूमि प्रबंधन का इतिहास माना जाता है। शेरशाह सूरी से लेकर बादशाह अकबर तक के शासनकाल में भी पटवारियों या लेखपालों का उल्लेख मिलता हैै। चूंकि खेत और खेती ही मानव सभ्यता के विकास और जीवन यापन के मुख्य आधार रहे हैं इसलिये विभिन्न शासन व्यवस्थाओं में शासकों द्वारा राजस्व वसूली का मुख्य लक्ष्य भी जमीन ही रही है। इसलिये शासक जमीन के काश्तकारों से भूकर वसूली के लिये उनके द्वारा आबाद की गयी भूमि के आकार-प्रकार के हिसाब से ही भूमि प्रबंधन की व्यवस्था करते रहे हैं। इस भूमि प्रबंधन के लिये भूमि का रिकार्ड और पैमाइश के लिये पटवारी जैसे ओहदेदार की आवश्यकता शुरू से रही है। लेकिन उत्तराखंड में पटवारी केवल जमीन नापने वाला या जमीनों के रिकार्ड रखने वाला सरकारी कारिंदा नहीं बल्कि शासन प्रशासन का निचले स्तर पर प्रतिनिधि भी होता है और एक पुलिस अधिकारी के रूप में वह कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी का निर्वहन भी करता है। प्रदेश का लगभग 65 प्रतिशत पहाड़ी भूभाग इसी पटवारी या राजस्व पुलिस व्यवस्था के अधीन है। पटवारी और उनके चपरासी बिना बंदूक या पिस्तौल के अपराधियों को पकड़ कर कानून के हवाले करते हैं और मजेदार बात तो यह है कि उनके द्वारा पकड़े गये अपराधी रेगुलर पुलिस द्वारा पकड़े गये अपराधियों की तरह कानूनों के छेदों का लाभ उठा कर बाइज्जत बरी नहीं होते। वैसे तो इनको रेवेन्यू पुलिस कहा जाता है, मगर इनकी स्थिति और जिम्मेदारी को देखेते हुये कुछ लोग इन्हें गांधी पुलिस भी कहते हैं।
उत्तराखंड की राजस्व पुलिस व्यवस्था दुनिया की बेमिसाल व्यवस्था मानी जाती है। केन्द्रीय पुलिस बलों के साथ ही जहां विभिन्न राज्यों की पुलिस कानून व्यवस्था के समक्ष आतंकवाद और अपराधियों के हाइटैक हो जाने जैसी चुनौतियों के चलते अत्याधुनिक हथियार और हाइटेक साजो सामान से लैस हो रही है, वहीं उत्तराखंड की राजस्व पुलिस केवल एक डंडे के सहारे ही कानून व्यवस्था के मोर्चे पर डटी हुयी है। इस व्यवस्था के तहत उत्तराखंड का पटवारी केवल लेखपाल ही नहीं बल्कि एक थानेदार भी होता है जिसे कानून व्यवस्था को बनाये रखने के लिये वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो कि एक थानेदार को प्राप्त होते हैं। राजस्व विभाग का नायब तहसीलदार उन सभी अधिकारों और शक्तियों से लैसे होता है जैसा कि पुलिस का उपाधीक्षक होता है। पहाड़ों में तैनात पटवारी गांव वालों से इतने घुले मिले होते हैं कि कोई अपराध होने पर उनसे बात छिपाना लगभग नामुमकिन होता है। जब अपराधी पकड़ा जाता है तो उसके खिलाफ ऐसे सबूत पेश हो जाते हैं कि अपराधी का बच निकलना भी कठिन हो जाता है। जिस तरह जिला मैजिस्ट्रेट या जिला अधिकारी जिले का सबसे बड़ा हाकिम या प्रशासक होता है उसी तरह पटवारी भी ग्राम स्तर एक पटवार या पटवारी सर्किल का एक हाकिम ही होता है। अगर कोई वीआइपी क्षेत्र में आता है तो वही वहां का प्रोटोकाल अधिकारी भी होता है।
मोटे तौर पर देखा जाय तो उत्तराखंड की कानून व्यवस्था याक्रिमिनल जस्टिस सिस्टमउत्तराखंड पुलिस एक्ट 2007 ( जो कि पुलिस एक्ट 1861 का निरसन कर बना है ) तहत संचालित है। इसके तहत भी मुख्य रूप से उत्तराखंड में दो तरह की कानून व्यवस्थाएं है। इनमें से एक व्यवस्था रेग्युलर पुलिस के तहत है, जिसके अधीन चारधाम यात्रा मार्ग समेत सभी प्रमुख नगर और नगरीय क्षेत्रों के साथ ही नगरों के निकटवर्ती गांव भी हैं। दूसरी व्यवस्थाराजस्व पुलिसकी है, जिसके तहत लगभग संपूर्ण पर्वतीय आंचल का ग्रामीण हिस्सा है। यह क्षेत्र प्रदेश के कुल भूभाग का लगभग 65 प्रतिशत है और इसके तहत लगभग इतनी ही आबादी भी प्रशासित होती है। रेगुलर पुलिस के तहत वर्तमान में 124 थाने तथा 4 रेलवे थाने हैं। जबकि रेवेन्यू पुलिस के तहत 1225 पटवारी चौकियां हैं जो कि ग्रामीण पुलिस स्टेशन के तौर पर कार्य करती हैं। पुलिस विभाग का मुखिया भारतीय पुलिस सेवा का (आइपीएस) अधिकारी, पुलिस महानिदेशक होता है, जबकि रेवेन्यू पुलिस एक तरह से भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) के अधीन ही है। इस सेवा का कोई वरिष्ठतम् अधिकारी मुख्य राजस्व आयुक्त ही राजस्व पुलिस का महानिदेशक होता है। एक तरह से देखा जाय तो प्रदेश की कानून व्यवस्था आइएएस और आइपीएस संवर्गों में बंटी हुयी है। ब्रिटिश शासनकाल में भी पहाड़ी क्षेत्र के कुछ नगरों में रेगुलर पुलिस के कुछ थाने खोल दिये गये थे जिनमें से पहला थाना सन् 1837 में अल्मोड़ा में स्थापित किया गया था। उसके बाद 1843 में रानीखेत में भी एक पुलिस थाना खोल दिया गया।
उत्तराखंड की राजस्व पुलिस व्यवस्था का मुख्य कर्ताधर्ता पटवारी ही होता है, जिसे थानेदार के अधिकार मिले हुये हैं। हालांकि प्रदेश की राजस्व पुलिस व्यवस्था तो एक ही है मगर उसे संचालित करने के लिये तीन तरह के कानून या नियम प्रदेश के पहाड़ी आंचल में प्रचलित हैं। इनमें से एककुमाऊं पुलिसकानून 1916 है जो कि अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़ और पौड़ी के साथ ही नैनीताल जिले की पहाड़ी पट्टियों में लागू है। दूसरा कानूनटिहरी गढ़वाल रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1956” है जो कि टिहरी और उत्तरकाशी जिलों में लागू है और तीसरा कानूनजौनसार-बावर परगना (जिला देहरादून) रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958” है जो कि देहरादून जिले के जनजाति क्षेत्र चकराता तहसील के क्षेत्रांतर्गत लागू है। इन तीन कानूनों में से सबसे पुराना कानून 1916 का कुमाऊं पुलिस कानून है जो कि अंग्रेजों ने कुमाऊं एवं ब्रिटिश गढ़वाल (आज के चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी जिलों समेत) में शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 की धारा 6 के तहत लागू किया था। इसे प्रदेश की राजस्व पुलिस व्यवस्था का मातृ कानून माना जा सकता है। यही कानून बाद में शेष पहाड़ी क्षेत्रों के लिये भी एक मॉडल बना और टिहरी रियासत के भारत संघ में विलय के बाद सन् 1958 में ऐसी ही व्यवस्था टिहरी उत्तरकाशी में और उसके बाद देहरादून की चकराता तहसील में भी लागू कर दी गयी। वैसे मोटे तौर पर राजस्व पुलिस व्यवस्था के ये तीन अलग- अलग कानून हैं, लेकिन व्यवहार में इनका अनुपालन एक ही है।
उत्तराखंड की बेमिसाल पटवारी पुलिस व्यवस्था का श्रेय जी.डब्ल्यू. ट्रेल को ही दिया जा सकता है। दरअसल राजस्व पुलिस और उत्तराखंड के इतिहास को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। सन् 1790 में गोरखों ने चंद शासकों को सत्याच्युत करने और 1804 में गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न शाह को खुड़बुडा के युद्ध में मार डालने के बाद सम्पूर्ण उत्तराखंड अपने अधीन कर लिया था। सन् 1814 में देहरादून के खलंगा दुर्ग से गोरखा सरदार बलभद्र थापा और उसकी बची खुची सेना को मार भागने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुमाऊं तो अपने अधीन ले ही लिया था, लेकिन गोरखों से युद्ध में हुये नुकसान की भरपाई और राज्य वापस दिलाने के नजराने के तौर पर कंपनी ने अलकनंदा के दाये हिस्से वाला गढ़वाल भी सन् 1815 की सिंगौली की संधि के तहत अपने अधीन ले लिया था। उस समय अंग्रेजों की मदद से गद्दी पर बैठने वाले सुदर्शन शाह के पास अंग्रेजों की हर शर्त मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इस हिस्से को अंग्रेज ब्रिटिश गढ़वाल कहते थे। आज के चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी जिलों वाले ( आज के रुद्रप्रयाग जिले में टिहरी का जखोली ब्लाक भी शामिल किया गया है ) इस ब्रिटिश गढ़वाल को भी कुमाऊं कमिश्नरी में शामिल किया गया और कुमाऊं कमिश्नरी को पहला कमिश्नर या आयुक्त 0 गार्डनर को बनाया गया। चूंकि कमिश्नर का मुख्य कार्य राजनीतिक ही होता था, इसलिये उसके पास अन्य कार्यों के लिये इतना समय नहीं होता था। गार्डनर की सहायता के लिये उसके साथ सहायक कमिश्नर के तौर पर जी. डब्ल्यु. ट्रेल को नियुक्त किया गया और उसे पुलिस तथा राजस्व प्रशासन की जिम्मेदारी सौंपी गयी। गार्डनर के बाद 1 अगस्त 1817 को ट्रेल को पदोन्नत कर कुमाऊं का कमिश्नर बना दिया गया था। ट्रेल की पदोन्नति के साथ ही विनियम (रेगुलेशन) संख्या 10 पारित कर हत्या, डकैती, देशद्रोह जैसे जघन्य अपराधों को छोड़ कर बाकी अपराधों का न्यायाधिकार कुमाऊं के अधिकारियों को दे दिया गया। टेª ने जमीनों का लेखा जोखा रखने तथा राजस्व वसूली के लिये सबसे पहले सन् 1819 में पटवारी की नियुक्ति कर दी।
ट्रेल के बाद 1836 से लेकर 1856 तक बेटन ने कुमाऊं कमिश्नरी संभाली। बताया जाता है कि बेटन ने भूमि बंदोबस्त के लिये एक-एक खेत में जा कर भूपैमाइश कराई। कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन गर्वनर जनरल को पत्र लिख कर अनुरोध किया था कि इस पहाड़ी क्षेत्र में अपराध केवल नाममात्र के ही हैं और यहां की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये यहां अल्मोड़ा रानीखेत और नैनीताल जैसे कुछ नगरों को छोड़ कर बाकी पहाड़ी पट्टियों में रेगुलर पुलिस की आवश्यकता नहीं है। चूंकि सन् 1833 तक भारत में ईस्ट इंडिया द्वारा शासित बम्बई मद्रास और कलकत्ता प्रेसिडेंसियों में से कहीं भी संहिताबद्ध काून नहीं थे और सारा शासन विधान प्रशासनिक आदेशों के आधार पर चलता था, इसलिये पहाड़ों में पुलिस व्यवस्था लागू किये जाने के निर्णय से कमिश्नर ट्रेल को अपने मैदानी समकक्षों से कहीं अधिक अधिकार और स्वायत्तता मिल गयी और इस नॉन रेगुलेटेड क्षेत्र में उसने पटवारियों और परंपरागत थोकदार-पदानों के माध्यम से प्रशासन शुरू कर दिया। इसके साथ पहाड़ के पटवारी मैदान के पटवारियों से अधिक अधिकार सम्पन्न होने लगे।
वर्ष 1833 को भारतीय कानूनी व्यवस्था याक्रिमिनल जस्टिस सिस्टमकी दृष्टि से एक मील का पत्थर माना जा सकता है। उससे पहले कम्पनी के शासन वाले भारत में कोई संहिताबद्ध कानून नहीं था और पूरी व्यवस्था शासनादेशों पर चलती थी। इससे पहले मद्रास, कलकत्ता और बंबई प्रेसिडेंसियों में अपने-अपने नियम बनते थे। इस वर्ष एक संहिताबद्ध केन्द्रीय कानून आने के बाद भारतीय दंड संहिता 1860, सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860, पुलिस एक्ट 1861, हिन्दू विधवा पुनर्विवाह एक्ट 1856 और प्रेस एंड बुक रजिस्ट्रेशन एक्ट 1867 जैसे संहिताबद्ध कानून आने लगे। सन् 1898 में कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सीआरपीसी) भी गया। ये सारे कानून 1857 की गदर के बाद ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा भारत का शासन कंपनी से अपने हाथ में लिये जाने के बाद लाये गये थे। हालांकि ब्रिटिश भारत में पुलिस अधिनियम 1861 में लागू हो गया था, लेकिन ब्रिटिश कुमाऊं तक यह 30-8-1892 से राजाज्ञा संख्या 1254@VIII-228-A-81 के तहत विस्तारित किया गया। गौरतलब है कि तब तक कुमाऊं कमिश्नरी के इन पहाड़ी क्षेत्रों में भी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम प्रशासनिक आदेशों के अनुसार चलता था। इसी दौरान सन् 1874 में जब अनुसूचित जिला अधिनियम 1874 (शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट) आया तो फिर यहां रेगुलर पुलिस को लाने के बजाय रेवेन्यू पुलिस को ही पुलिस के अधिकार देने का अवसर मिल गया। इस अधिनियम की धारा 6 के तहत इस तरह के अनुसूचित या शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट में स्थानीय प्रशासन को क्षेत्र की भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुये कानून व्यवस्था का पालन कराने तथा अपराधिक न्यायिक व्यवस्था (क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम) का अनुपालन कराने हेतु अलग से प्राधिकारी नियुक्त करने का अधिकार दिया गया था। सन् 1892 की राजाज्ञा के तहत सन् 1861 के पुलिस एक्ट को लागू करने के लिये शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1974 की धारा 6 का सहारा लेते हुये ब्रिटिश गढ़वाल समेत कुमाऊं कमिश्नरी की पहाड़ी पट्टियों के लियेकुमाऊं पुलिसकानून बनाया गया जिसे अधिसूचना संख्या 494@VIII/-418-16 दिनांक 07-03-1916 को गजट में प्रकाशित की गयी। देखा जाय तो इस अधिसूचना के तहत ही राजस्व पुलिस व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाया गया।
चंद शासित कुमाऊं और पंवार शासित ब्रिटिश गढ़वाल में थाकेदार, पदानों और कमीणों जैसे ग्राम मुखियाओं या सामंतों को प्राचीन काल से भूराजस्व वसूली और राजा के प्रतिनिधि के तौर पर कानून व्यवस्था संभालने की जो शक्तियां हासिल थीं वे ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में ब्रिटिश साम्राज्य के शासन ने भी जारी रखीं थीं। लेकिन अधिसूचना संख्या 494@VIII/-418-16 दिनांक 07-03-1916 के प्रावधानों के तहत कुमाऊं पुलिस व्यवस्था में थोकदार-पदानों जैसे ग्राम मुखियाओं की भूमिका सीमित कर दी गयी और पटवारी की शक्तियां बढ़ा दी गयीं। इस काननू के तहत परंपरागत ग्राम मुखियाओं को अपराधी को पकड़ने का अधिकार तो था लेकिन उन्हें अपराधी को पटवारी को सौंपना होता था। इसी प्रकार भूराजस्व वसूल कर पटवारी के सुपुर्द करना होता था। यह कानून अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, चमोली, पिथौरागढ़, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और नैनीताल जिले की पहाड़ी पट्टियों में लागू रहा जहां रेगुलर पुलिस का कार्यक्षेत्र नहीं रहा। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद इस कानून का उत्तराखंड पुलिस अधिनियम 2007 ने निरसन कर दिया।
सन् 1949 में टिहरी रियासत के भारत संघ में विलय के समय तक वहां पंवार वंश का शासन रहा मगर अपराधिक न्याय व्यवस्था वहां भी ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊं की जैसी ही रही। वहां भी पहाड़ी पट्टियों में पटवारी ही पुलिस की जिम्मेदारियों का निर्वहन करते थे। लेकिन जब रियासत का भारत संघ में विलय हो गया तो कुमाऊं से लेकर सम्पूर्ण गढ़वाल तक समस्त पहाड़ी क्षेत्रों में एक ही जैसी कानून व्यवस्था के लिये समान कानून की जरूरत महसूस की गयी। इस प्रयोजन हेतु टिहरी रियासत वाले टिहरी और उत्तरकाशी जिलों की राजस्व पुलिस को भी वैधानिक मान्यता देने के लियेटिहरी गढ़वाल रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1956” बनाया गया। यह अधिनियम सीधे-सीधे टिहरी-उत्तरकाशी के पटवारी या राजस्वकर्मियों को पुलिस के अधिकार नहीं देता अपितु उसकी धारा 2 में राज्य सरकार को पुलिस अधिकार देने के लिये अधिकृत किया गया था। अन्ततः इस अधिनियम के अनुपालन में  4 मार्च 1958 को राजाज्ञा जारी की गयी जिसमें राजस्वकर्मियों को कुमाऊं पुलिस की तरह अधिकार दे दिये गये।
कुमाऊं और ब्रिटिश गढ़वाल की तरह टिहरी और उत्तरकाशी में भी राजस्व पुलिस को कानूनी मान्यता दिये जाने के बाद समूचे पर्वतीय क्षेत्र में कानून व्यवस्था की एकरूपता के लिये विशिष्ट भौगोलिक और आर्थिक सामाजिक परिस्थितियों वाले देहरादून की जनजातीय तहसील चकराता में पटवारी पुलिस व्यवस्था की जरूरत महसूस की गयी। वहां आजादी के बाद तक 1931 के बंगाल रेगुलेशन XI के तहत जौनसार-बावर में तहसीलदार को पुलिस के अधिकार प्राप्त थे। चूंकि एक तहसीलदार इतने बड़े क्षेत्र की कानून व्यवस्था नहीं संभाल सकता था, इसलिये जौनसार बावर के लिये टिहरी का जैसा अलग से अधिनियम लाना पड़ा, जिसेजौनसार-बावर परगना (जिला देहरादून) रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958” कहा गया। यह उत्तर प्रदेश का अधिनियम संख्या 27 सन् 1958 था। वैसे भी भारत सरकार अधिनियम 1935 के आने के बाद बंगाल रेगुलेशन अस्तित्व विहीन हो गया था। उत्तर प्रदेश पंचायत राज अधिनियम 1947 और उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 के तहत परंपरागत ग्राम मुखियाओं के थोकदार, पदान, सयाणा, कमीण और चौंतरू जैसे परंपरागत पदों की वैधता समाप्त हो गयी थी।
कुछ अपवादस्वरूप छोड़कर राजस्व पुलिस की यह व्यवस्था पहाड़ में काफी सफल मानी जा सकती है। अंग्रेज शासक इसे बेहतर एवं बेहद सस्ती व्यवस्था मानते थे। यही कारण रहा कि स्वतंत्रता के पश्चात सरकार ने हलके-फुल्के बदलावों के अलावा इस व्यवस्था को यथावत रहने दिया। वर्ष 1963 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने .प्र. पटवारी सेवा नियमावली बनाकर विधिवत चयन, पुलिस एवं भू-लेख कार्यों की ट्रेनिंग, पदोन्नति एवं पेंशन आदि की व्यवस्था भी कर डाली। पटवारियों के प्रशिक्षण के लिये अल्मोड़ा में पटवारी प्रशिक्षण संस्थान स्थापित है।
पटवारी को विभिन्न स्थानों पर पटेल, कारनाम अधिकारी, शानबोगरु आदि नामों से जाना जाता है। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर भारत और पड़ोसी देश पाकिस्तान में पटवारी शब्द प्रचलित है। गुजरात-महाराष्ट्र में 1918 तक इन्हें कुलकर्णी कहा जाता था, जिसे खत्म कर तलाटी कहा जाने लगा। तमिलनाडु में पटवारी को कर्णम या अधिकारी कहा जाता है। गांवों में गरीब किसान के लिए पटवारी हीबड़ा साहबहोता है। पंजाब में पटवारी कोपिंड दी मां’ (गांव की मां) भी कहा जाता है। राजस्थान में पहले पटवारियों कोहाकिम साबहु कहा जाता था।
पटवार प्रणाली की शुरूआत सर्वप्रथम शेरशाह सूरी के शासनकाल के दौरान हुई और बाद में अकबर ने इस प्रणाली को बढ़ावा दिया। ब्रितानी शासनकाल के दौरान इसमें मामूली परिवर्तन हुये लेकिन प्रणाली जारी रही। राजा टोडरमल अकबर बादशाह के राजस्व और वित्तमंत्री थे। इन्होंने भूमि-पैमाइश के लिए विश्व की प्रथम मापन-प्रणाली तैयार की थी। उनके द्वारा जमीन संबंधी कार्याे के सम्पादन के लिये पटवारी पद की स्थापना की गयी थी। पटवारी शासन एवम निजी भूमियों के कागजात को सन्धारित करता है। ब्रिटिश राज में इसे सुदृढ़ कर जारी रखा गया। हालांकि तकनीकी युग में अब पटवार व्यवस्था को दुरुस्त किया जा रहा है। भारत सरकार ने 2005 में पटवारी इन्फॉर्मेशन सिस्टम (पीएटीआइएस) नामक सॉफ्टवेयर विकसित किया, ताकि जमीन का कंप्यूटरीकृत रिकॉर्ड रखा जा सके।

- जयसिंह रावत
पत्रकार
-11 फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल-09412324999
jaysinghrawat@gmail.com





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