उत्तराखंड की हथियार विहीन गांधी पुलिस
- जयसिंह
रावत
JAY SINGH RAWAT AUTHOR AND JOURNALIST |
उत्तराखंड
की राजस्व पुलिस
व्यवस्था दुनिया की बेमिसाल
व्यवस्था मानी जाती
है। केन्द्रीय पुलिस
बलों के साथ
ही जहां विभिन्न
राज्यों की पुलिस
कानून व्यवस्था के
समक्ष आतंकवाद और
अपराधियों के हाइटैक
हो जाने जैसी
चुनौतियों के चलते
अत्याधुनिक हथियार और हाइटेक
साजो सामान से
लैस हो रही
है, वहीं उत्तराखंड
की राजस्व पुलिस
केवल एक डंडे
के सहारे ही
कानून व्यवस्था के
मोर्चे पर डटी
हुयी है। इस
व्यवस्था के तहत
उत्तराखंड का पटवारी
केवल लेखपाल ही
नहीं बल्कि एक
थानेदार भी होता
है जिसे कानून
व्यवस्था को बनाये
रखने के लिये
वे सभी अधिकार
प्राप्त हैं जो
कि एक थानेदार
को प्राप्त होते
हैं। राजस्व विभाग
का नायब तहसीलदार
उन सभी अधिकारों
और शक्तियों से
लैसे होता है
जैसा कि पुलिस
का उपाधीक्षक होता
है। पहाड़ों में
तैनात पटवारी गांव
वालों से इतने
घुले मिले होते
हैं कि कोई
अपराध होने पर
उनसे बात छिपाना
लगभग नामुमकिन होता
है। जब अपराधी
पकड़ा जाता है
तो उसके खिलाफ
ऐसे सबूत पेश
हो जाते हैं
कि अपराधी का
बच निकलना भी
कठिन हो जाता
है। जिस तरह
जिला मैजिस्ट्रेट या
जिला अधिकारी जिले
का सबसे बड़ा
हाकिम या प्रशासक
होता है उसी
तरह पटवारी भी
ग्राम स्तर एक
पटवार या पटवारी
सर्किल का एक
हाकिम ही होता
है। अगर कोई
वीआइपी क्षेत्र में आता
है तो वही
वहां का प्रोटोकाल
अधिकारी भी होता
है।
मोटे
तौर पर देखा
जाय तो उत्तराखंड
की कानून व्यवस्था
या ’क्रिमिनल जस्टिस
सिस्टम’ उत्तराखंड पुलिस एक्ट
2007 ( जो कि पुलिस
एक्ट 1861 का निरसन
कर बना है
) तहत संचालित है।
इसके तहत भी
मुख्य रूप से
उत्तराखंड में दो
तरह की कानून
व्यवस्थाएं है। इनमें
से एक व्यवस्था
रेग्युलर पुलिस के तहत
है, जिसके अधीन
चारधाम यात्रा मार्ग समेत
सभी प्रमुख नगर
और नगरीय क्षेत्रों
के साथ ही
नगरों के निकटवर्ती
गांव भी हैं।
दूसरी व्यवस्था ’राजस्व
पुलिस’ की है,
जिसके तहत लगभग
संपूर्ण पर्वतीय आंचल का
ग्रामीण हिस्सा है। यह
क्षेत्र प्रदेश के कुल
भूभाग का लगभग
65 प्रतिशत है और
इसके तहत लगभग
इतनी ही आबादी
भी प्रशासित होती
है। रेगुलर पुलिस
के तहत वर्तमान
में 124 थाने तथा
4 रेलवे थाने हैं।
जबकि रेवेन्यू पुलिस
के तहत 1225 पटवारी
चौकियां हैं जो
कि ग्रामीण पुलिस
स्टेशन के तौर
पर कार्य करती
हैं। पुलिस विभाग
का मुखिया भारतीय
पुलिस सेवा का
(आइपीएस) अधिकारी, पुलिस महानिदेशक
होता है, जबकि
रेवेन्यू पुलिस एक तरह
से भारतीय प्रशासनिक
सेवा (आइएएस) के
अधीन ही है।
इस सेवा का
कोई वरिष्ठतम् अधिकारी
मुख्य राजस्व आयुक्त
ही राजस्व पुलिस
का महानिदेशक होता
है। एक तरह
से देखा जाय
तो प्रदेश की
कानून व्यवस्था आइएएस
और आइपीएस संवर्गों
में बंटी हुयी
है। ब्रिटिश शासनकाल
में भी पहाड़ी
क्षेत्र के कुछ
नगरों में रेगुलर
पुलिस के कुछ
थाने खोल दिये
गये थे जिनमें
से पहला थाना
सन् 1837 में अल्मोड़ा
में स्थापित किया
गया था। उसके
बाद 1843 में रानीखेत
में भी एक
पुलिस थाना खोल
दिया गया।
उत्तराखंड
की राजस्व पुलिस
व्यवस्था का मुख्य
कर्ताधर्ता पटवारी ही होता
है, जिसे थानेदार
के अधिकार मिले
हुये हैं। हालांकि
प्रदेश की राजस्व
पुलिस व्यवस्था तो
एक ही है
मगर उसे संचालित
करने के लिये
तीन तरह के
कानून या नियम
प्रदेश के पहाड़ी
आंचल में प्रचलित
हैं। इनमें से
एक “कुमाऊं पुलिस”
कानून 1916 है जो
कि अल्मोड़ा, बागेश्वर,
चम्पावत, चमोली, रुद्रप्रयाग, पिथौरागढ़
और पौड़ी के
साथ ही नैनीताल
जिले की पहाड़ी
पट्टियों में लागू
है। दूसरा कानून
“टिहरी गढ़वाल रेवेन्यू ऑफिसियल्स
(विशेषाधिकार) अधिनियम 1956” है जो
कि टिहरी और
उत्तरकाशी जिलों में लागू
है और तीसरा
कानून “जौनसार-बावर परगना
(जिला देहरादून) रेवेन्यू
ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम 1958” है जो
कि देहरादून जिले
के जनजाति क्षेत्र
चकराता तहसील के क्षेत्रांतर्गत
लागू है। इन
तीन कानूनों में
से सबसे पुराना
कानून 1916 का कुमाऊं
पुलिस कानून है
जो कि अंग्रेजों
ने कुमाऊं एवं
ब्रिटिश गढ़वाल (आज के
चमोली, रुद्रप्रयाग और पौड़ी
जिलों समेत) में
शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 की
धारा 6 के तहत
लागू किया था।
इसे प्रदेश की
राजस्व पुलिस व्यवस्था का
मातृ कानून माना
जा सकता है।
यही कानून बाद
में शेष पहाड़ी
क्षेत्रों के लिये
भी एक मॉडल
बना और टिहरी
रियासत के भारत
संघ में विलय
के बाद सन्
1958 में ऐसी ही
व्यवस्था टिहरी उत्तरकाशी में
और उसके बाद
देहरादून की चकराता
तहसील में भी
लागू कर दी
गयी। वैसे मोटे
तौर पर राजस्व
पुलिस व्यवस्था के
ये तीन अलग-
अलग कानून हैं,
लेकिन व्यवहार में
इनका अनुपालन एक
ही है।
उत्तराखंड
की बेमिसाल पटवारी
पुलिस व्यवस्था का
श्रेय जी.डब्ल्यू.
ट्रेल को ही
दिया जा सकता
है। दरअसल राजस्व
पुलिस और उत्तराखंड
के इतिहास को
अलग-अलग करके
नहीं देखा जा
सकता। सन् 1790 में
गोरखों ने चंद
शासकों को सत्याच्युत
करने और 1804 में
गढ़वाल नरेश प्रद्युम्न
शाह को खुड़बुडा
के युद्ध में
मार डालने के
बाद सम्पूर्ण उत्तराखंड
अपने अधीन कर
लिया था। सन्
1814 में देहरादून के खलंगा
दुर्ग से गोरखा
सरदार बलभद्र थापा
और उसकी बची
खुची सेना को
मार भागने के
बाद ईस्ट इंडिया
कंपनी ने कुमाऊं
तो अपने अधीन
ले ही लिया
था, लेकिन गोरखों
से युद्ध में
हुये नुकसान की
भरपाई और राज्य
वापस दिलाने के
नजराने के तौर
पर कंपनी ने
अलकनंदा के दाये
हिस्से वाला गढ़वाल
भी सन् 1815 की
सिंगौली की संधि
के तहत अपने
अधीन ले लिया
था। उस समय
अंग्रेजों की मदद
से गद्दी पर
बैठने वाले सुदर्शन
शाह के पास
अंग्रेजों की हर
शर्त मानने के
अलावा कोई विकल्प
नहीं था। इस
हिस्से को अंग्रेज
ब्रिटिश गढ़वाल कहते थे।
आज के चमोली,
रुद्रप्रयाग और पौड़ी
जिलों वाले ( आज
के रुद्रप्रयाग जिले
में टिहरी का
जखोली ब्लाक भी
शामिल किया गया
है ) इस ब्रिटिश
गढ़वाल को भी
कुमाऊं कमिश्नरी में शामिल
किया गया और
कुमाऊं कमिश्नरी को पहला
कमिश्नर या आयुक्त
ई0 गार्डनर को
बनाया गया। चूंकि
कमिश्नर का मुख्य
कार्य राजनीतिक ही
होता था, इसलिये
उसके पास अन्य
कार्यों के लिये
इतना समय नहीं
होता था। गार्डनर
की सहायता के
लिये उसके साथ
सहायक कमिश्नर के
तौर पर जी.
डब्ल्यु. ट्रेल को नियुक्त
किया गया और
उसे पुलिस तथा
राजस्व प्रशासन की जिम्मेदारी
सौंपी गयी। गार्डनर
के बाद 1 अगस्त
1817 को ट्रेल को पदोन्नत
कर कुमाऊं का
कमिश्नर बना दिया
गया था। ट्रेल
की पदोन्नति के
साथ ही विनियम
(रेगुलेशन) संख्या 10 पारित कर
हत्या, डकैती, देशद्रोह जैसे
जघन्य अपराधों को
छोड़ कर बाकी
अपराधों का न्यायाधिकार
कुमाऊं के अधिकारियों
को दे दिया
गया। टेªल
ने जमीनों का
लेखा जोखा रखने
तथा राजस्व वसूली
के लिये सबसे
पहले सन् 1819 में
पटवारी की नियुक्ति
कर दी।
ट्रेल
के बाद 1836 से
लेकर 1856 तक बेटन
ने कुमाऊं कमिश्नरी
संभाली। बताया जाता है
कि बेटन ने
भूमि बंदोबस्त के
लिये एक-एक
खेत में जा
कर भूपैमाइश कराई।
कमिश्नर ट्रेल ने तत्कालीन
गर्वनर जनरल को
पत्र लिख कर
अनुरोध किया था
कि इस पहाड़ी
क्षेत्र में अपराध
केवल नाममात्र के
ही हैं और
यहां की भौगोलिक,
जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को
देखते हुये यहां
अल्मोड़ा रानीखेत और नैनीताल
जैसे कुछ नगरों
को छोड़ कर
बाकी पहाड़ी पट्टियों
में रेगुलर पुलिस
की आवश्यकता नहीं
है। चूंकि सन्
1833 तक भारत में
ईस्ट इंडिया द्वारा
शासित बम्बई मद्रास
और कलकत्ता प्रेसिडेंसियों
में से कहीं
भी संहिताबद्ध काून
नहीं थे और
सारा शासन विधान
प्रशासनिक आदेशों के आधार
पर चलता था,
इसलिये पहाड़ों में पुलिस
व्यवस्था लागू न
किये जाने के
निर्णय से कमिश्नर
ट्रेल को अपने
मैदानी समकक्षों से कहीं
अधिक अधिकार और
स्वायत्तता मिल गयी
और इस नॉन
रेगुलेटेड क्षेत्र में उसने
पटवारियों और परंपरागत
थोकदार-पदानों के माध्यम
से प्रशासन शुरू
कर दिया। इसके
साथ पहाड़ के
पटवारी मैदान के पटवारियों
से अधिक अधिकार
सम्पन्न होने लगे।
वर्ष
1833 को भारतीय कानूनी व्यवस्था
या ’क्रिमिनल जस्टिस
सिस्टम’ की दृष्टि
से एक मील
का पत्थर माना
जा सकता है।
उससे पहले कम्पनी
के शासन वाले
भारत में कोई
संहिताबद्ध कानून नहीं था
और पूरी व्यवस्था
शासनादेशों पर चलती
थी। इससे पहले
मद्रास, कलकत्ता और बंबई
प्रेसिडेंसियों में अपने-अपने नियम
बनते थे। इस
वर्ष एक संहिताबद्ध
केन्द्रीय कानून आने के
बाद भारतीय दंड
संहिता 1860, सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन एक्ट
1860, पुलिस एक्ट 1861, हिन्दू विधवा
पुनर्विवाह एक्ट 1856 और प्रेस
एंड बुक रजिस्ट्रेशन
एक्ट 1867 जैसे संहिताबद्ध
कानून आने लगे।
सन् 1898 में कोड
ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर
(सीआरपीसी) भी आ
गया। ये सारे
कानून 1857 की गदर
के बाद ब्रिटिश
साम्राज्य द्वारा भारत का
शासन कंपनी से
अपने हाथ में
लिये जाने के
बाद लाये गये
थे। हालांकि ब्रिटिश
भारत में पुलिस
अधिनियम 1861 में लागू
हो गया था,
लेकिन ब्रिटिश कुमाऊं
तक यह 30-8-1892 से
राजाज्ञा संख्या 1254@VIII-228-A-81 के तहत
विस्तारित किया गया।
गौरतलब है कि
तब तक कुमाऊं
कमिश्नरी के इन
पहाड़ी क्षेत्रों में
भी क्रिमिनल जस्टिस
सिस्टम प्रशासनिक आदेशों के
अनुसार चलता था।
इसी दौरान सन्
1874 में जब अनुसूचित
जिला अधिनियम 1874 (शेड्यूल्ड
डिस्ट्रिक्ट एक्ट) आया तो
फिर यहां रेगुलर
पुलिस को लाने
के बजाय रेवेन्यू
पुलिस को ही
पुलिस के अधिकार
देने का अवसर
मिल गया। इस
अधिनियम की धारा
6 के तहत इस
तरह के अनुसूचित
या शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट
में स्थानीय प्रशासन
को क्षेत्र की
भौगोलिक, जनसांख्यकीय और सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को
देखते हुये कानून
व्यवस्था का पालन
कराने तथा अपराधिक
न्यायिक व्यवस्था (क्रिमिनल जस्टिस
सिस्टम) का अनुपालन
कराने हेतु अलग
से प्राधिकारी नियुक्त
करने का अधिकार
दिया गया था।
सन् 1892 की राजाज्ञा
के तहत सन्
1861 के पुलिस एक्ट को
लागू करने के
लिये शेड्यूल्ड डिस्ट्रिक्ट
एक्ट 1974 की धारा
6 का सहारा लेते
हुये ब्रिटिश गढ़वाल
समेत कुमाऊं कमिश्नरी
की पहाड़ी पट्टियों
के लिये “कुमाऊं
पुलिस” कानून बनाया गया
जिसे अधिसूचना संख्या
494@VIII/-418-16
दिनांक 07-03-1916 को गजट
में प्रकाशित की
गयी। देखा जाय
तो इस अधिसूचना
के तहत ही
राजस्व पुलिस व्यवस्था को
कानूनी जामा पहनाया
गया।
चंद
शासित कुमाऊं और
पंवार शासित ब्रिटिश
गढ़वाल में थाकेदार,
पदानों और कमीणों
जैसे ग्राम मुखियाओं
या सामंतों को
प्राचीन काल से
भूराजस्व वसूली और राजा
के प्रतिनिधि के
तौर पर कानून
व्यवस्था संभालने की जो
शक्तियां हासिल थीं वे
ईस्ट इंडिया कंपनी
और बाद में
ब्रिटिश साम्राज्य के शासन
ने भी जारी
रखीं थीं। लेकिन
अधिसूचना संख्या 494@VIII/-418-16
दिनांक 07-03-1916 के प्रावधानों
के तहत कुमाऊं
पुलिस व्यवस्था में
थोकदार-पदानों जैसे ग्राम
मुखियाओं की भूमिका
सीमित कर दी
गयी और पटवारी
की शक्तियां बढ़ा
दी गयीं। इस
काननू के तहत
परंपरागत ग्राम मुखियाओं को
अपराधी को पकड़ने
का अधिकार तो
था लेकिन उन्हें
अपराधी को पटवारी
को सौंपना होता
था। इसी प्रकार
भूराजस्व वसूल कर
पटवारी के सुपुर्द
करना होता था।
यह कानून अल्मोड़ा,
बागेश्वर, चम्पावत, चमोली, पिथौरागढ़,
पौड़ी, रुद्रप्रयाग और
नैनीताल जिले की
पहाड़ी पट्टियों में
लागू रहा जहां
रेगुलर पुलिस का कार्यक्षेत्र
नहीं रहा। उत्तराखंड
राज्य बनने के
बाद इस कानून
का उत्तराखंड पुलिस
अधिनियम 2007 ने निरसन
कर दिया।
सन्
1949 में टिहरी रियासत के
भारत संघ में
विलय के समय
तक वहां पंवार
वंश का शासन
रहा मगर अपराधिक
न्याय व्यवस्था वहां
भी ब्रिटिश गढ़वाल
और कुमाऊं की
जैसी ही रही।
वहां भी पहाड़ी
पट्टियों में पटवारी
ही पुलिस की
जिम्मेदारियों का निर्वहन
करते थे। लेकिन
जब रियासत का
भारत संघ में
विलय हो गया
तो कुमाऊं से
लेकर सम्पूर्ण गढ़वाल
तक समस्त पहाड़ी
क्षेत्रों में एक
ही जैसी कानून
व्यवस्था के लिये
समान कानून की
जरूरत महसूस की
गयी। इस प्रयोजन
हेतु टिहरी रियासत
वाले टिहरी और
उत्तरकाशी जिलों की राजस्व
पुलिस को भी
वैधानिक मान्यता देने के
लिये “टिहरी गढ़वाल
रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम
1956” बनाया गया। यह
अधिनियम सीधे-सीधे
टिहरी-उत्तरकाशी के
पटवारी या राजस्वकर्मियों
को पुलिस के
अधिकार नहीं देता
अपितु उसकी धारा
2 में राज्य सरकार
को पुलिस अधिकार
देने के लिये
अधिकृत किया गया
था। अन्ततः इस
अधिनियम के अनुपालन
में 4 मार्च
1958 को राजाज्ञा जारी की
गयी जिसमें राजस्वकर्मियों
को कुमाऊं पुलिस
की तरह अधिकार
दे दिये गये।
कुमाऊं
और ब्रिटिश गढ़वाल
की तरह टिहरी
और उत्तरकाशी में
भी राजस्व पुलिस
को कानूनी मान्यता
दिये जाने के
बाद समूचे पर्वतीय
क्षेत्र में कानून
व्यवस्था की एकरूपता
के लिये विशिष्ट
भौगोलिक और आर्थिक
सामाजिक परिस्थितियों वाले देहरादून
की जनजातीय तहसील
चकराता में पटवारी
पुलिस व्यवस्था की
जरूरत महसूस की
गयी। वहां आजादी
के बाद तक
1931 के बंगाल रेगुलेशन XI के
तहत जौनसार-बावर
में तहसीलदार को
पुलिस के अधिकार
प्राप्त थे। चूंकि
एक तहसीलदार इतने
बड़े क्षेत्र की
कानून व्यवस्था नहीं
संभाल सकता था,
इसलिये जौनसार बावर के
लिये टिहरी का
जैसा अलग से
अधिनियम लाना पड़ा,
जिसे “जौनसार-बावर
परगना (जिला देहरादून)
रेवेन्यू ऑफिसियल्स (विशेषाधिकार) अधिनियम
1958” कहा गया। यह
उत्तर प्रदेश का
अधिनियम संख्या 27 सन् 1958 था।
वैसे भी भारत
सरकार अधिनियम 1935 के
आने के बाद
बंगाल रेगुलेशन अस्तित्व
विहीन हो गया
था। उत्तर प्रदेश
पंचायत राज अधिनियम
1947 और उत्तर प्रदेश जमींदारी
विनाश एवं भूमि
व्यवस्था अधिनियम 1950 के तहत
परंपरागत ग्राम मुखियाओं के
थोकदार, पदान, सयाणा, कमीण
और चौंतरू जैसे
परंपरागत पदों की
वैधता समाप्त हो
गयी थी।
कुछ
अपवादस्वरूप छोड़कर राजस्व पुलिस
की यह व्यवस्था
पहाड़ में काफी
सफल मानी जा
सकती है। अंग्रेज
शासक इसे बेहतर
एवं बेहद सस्ती
व्यवस्था मानते थे। यही
कारण रहा कि
स्वतंत्रता के पश्चात
सरकार ने हलके-फुल्के बदलावों के
अलावा इस व्यवस्था
को यथावत रहने
दिया। वर्ष 1963 में
तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार
ने उ.प्र.
पटवारी सेवा नियमावली
बनाकर विधिवत चयन,
पुलिस एवं भू-लेख कार्यों
की ट्रेनिंग, पदोन्नति
एवं पेंशन आदि
की व्यवस्था भी
कर डाली। पटवारियों
के प्रशिक्षण के
लिये अल्मोड़ा में
पटवारी प्रशिक्षण संस्थान स्थापित
है।
पटवारी
को विभिन्न स्थानों
पर पटेल, कारनाम
अधिकारी, शानबोगरु आदि नामों
से जाना जाता
है। आंध्र प्रदेश,
कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, उत्तर
भारत और पड़ोसी
देश पाकिस्तान में
पटवारी शब्द प्रचलित
है। गुजरात-महाराष्ट्र
में 1918 तक इन्हें
कुलकर्णी कहा जाता
था, जिसे खत्म
कर तलाटी कहा
जाने लगा। तमिलनाडु
में पटवारी को
कर्णम या अधिकारी
कहा जाता है।
गांवों में गरीब
किसान के लिए
पटवारी ही ’बड़ा
साहब’ होता है।
पंजाब में पटवारी
को ’पिंड दी
मां’ (गांव की
मां) भी कहा
जाता है। राजस्थान
में पहले पटवारियों
को ’हाकिम साबहु
कहा जाता था।
पटवार
प्रणाली की शुरूआत
सर्वप्रथम शेरशाह सूरी के
शासनकाल के दौरान
हुई और बाद
में अकबर ने
इस प्रणाली को
बढ़ावा दिया। ब्रितानी
शासनकाल के दौरान
इसमें मामूली परिवर्तन
हुये लेकिन प्रणाली
जारी रही। राजा
टोडरमल अकबर बादशाह
के राजस्व और
वित्तमंत्री थे। इन्होंने
भूमि-पैमाइश के
लिए विश्व की
प्रथम मापन-प्रणाली
तैयार की थी।
उनके द्वारा जमीन
संबंधी कार्याे के सम्पादन
के लिये पटवारी
पद की स्थापना
की गयी थी।
पटवारी शासन एवम
निजी भूमियों के
कागजात को सन्धारित
करता है। ब्रिटिश
राज में इसे
सुदृढ़ कर जारी
रखा गया। हालांकि
तकनीकी युग में
अब पटवार व्यवस्था
को दुरुस्त किया
जा रहा है।
भारत सरकार ने
2005 में पटवारी इन्फॉर्मेशन सिस्टम
(पीएटीआइएस) नामक सॉफ्टवेयर
विकसित किया, ताकि जमीन
का कंप्यूटरीकृत रिकॉर्ड
रखा जा सके।
- जयसिंह
रावत
पत्रकार
ई-11 फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड,
देहरादून।
मोबाइल-09412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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