भारत सरकार को गंगा की तलाश
-जयसिंह रावत


मानसरोवर को गंगा
का श्रोत मानने
के पीछे एक
तर्क यह भी
है कि सनातन
धर्म की मान्यता
के अनुसार गंगा
भगवान शिव शंकर
की जटाओं से
इस धरती पर
उतरी है और
शिव का वास
कैलास पर्वत ही
माना जाता है।
इसी धारणा के
चलते बड़ी संख्या
में हर साल
तीर्थयात्री कैलास मानसरोवर की
यात्रा कर पवित्र
सरोवर में डुबकी
लगाते हैं। इससे
पहले भी एक
बार अखबारों में
छपा था कि
कैलास मानसरोवर के
निकट से ही
एक दरार के
रास्ते मानसरोवर का पानी
गोमुख तक पहुंच
रहा है। लेकिन
अब सवाल उठता
है कि अगर
गोमुख में प्रकट
हो रहा भागीरथी
का पानी दरारों
से होते हुये
आ रहा है
तो गंगोत्री ग्लेशयर
समूह से पिघलने
वाली करोड़ों टन
बर्फ का पानी
कहां जा रहा
है?
भूमिगत जल और
भूगर्वीय गतिविधियों पर अगर
निरंतर शोध और
अनुसंधान चलता है
तो यह केवल
भारत के लिये
ही नहीं अपितु
सम्पूर्ण मानवता के हित
में है। लेकिन
अगर विज्ञान और
विज्ञानियों को गंगा
की खोज में
चट्टानी दरारों में घुसाया
जाता है तो
यह विज्ञान का
दुरुपयोग और अंध
विश्वास को विज्ञान
के सिर पर
बैठाने वाली बात
हो जाती है।
केन्द्रीय जल संसाधन
मंत्री को अगर
संत रविदास की
यह सीख “मन
चंगा तो कठौती
में गंगा”, याद
होती तो उनको
गंगा के उद्गम
की नये सिरे
से खोज की
नहीं सूझती। गंगा
का जो स्वरूप
आज हमारे सामने
है, अगर उसे
ही हम गंगा
मां मान लें
तो अच्छा है,
और ना मानों
तो गंगा भी
बहता पानी है।
अब तक की
सर्वमान्य धारणा यह है
कि गंगा केवल
देवप्रयाग से ही
उद्गमित होती है
और उससे ऊपर
अलकनंदा और भागीरथी
समेत समस्त श्रोत
धाराएं गंगा ही
हैं। अगर गंगा
को स्वच्छ और
पवित्र बनाये रखना है
तो केवल भागीरथी
नहीं बल्कि उससे
कहीं बड़ी नदी
अलकनंदा और उसकी
सहायिकाओं की पवित्रता
पर भी ध्यान
देना होगा। गोमुख
को ही गंगा
का असली उद्गम
मानने और प्रचारित
करने का खामियाजा
गोमुख से लेकर
उत्तरकाशी तक ’इको
सेंसिटिव जोन’ घोषित
किये जाने के
रूप में खामियाजा
भागीरथी घाटी के
लोगों को भुगतना
पड़ रहा है।
अगर अर्द्धसत्य को
प्रचारित न किया
जाता तो वहां
ना तो डा0
गुरुदास अग्रवाल अनशन करते
और उसके बाद
ना ही तथाकथित
पर्यावरणवादियों और अंधविश्वास
के जरिये धार्मिक
दुकानंे चलाने वालों का
ध्यान केवल भागीरथी
पर केन्द्रित होता।
जबकि पर्यावरणीय और
धार्मिक दृष्टि से अलकनंदा
क्षेत्र का महत्व
कहीं अधिक है।
जहां तक आस्था
का सवाल है
तो गंगा की
श्रोत धाराओं को
गंगा से कमतर
नहीं आंका जा
सकता है। अलकनन्दा
और भागीरथी को
भले ही गंगा
न कहा जाता
हो मगर उनमें
मिलने वाले सेकड़ों
गाड-गदेरों और
छोटी नदियों में
से कम से
कम 17 धाराऐं ऐसी
हैं जिनके स्थानीय
नाम के आगे
गंगा भी जुड़ा
है। ये जलधाराऐं
नाम मात्र की
गंगाऐं न हो
कर इनका उल्लेख
पुराणों और अन्य
धर्मग्रन्थों में भी
है। इनमें से
जाड गंगा, असी
गंगा और केदार
गंगा आदि भागीरथी
की सहायिकाऐं हैं।
जबकि भिलंगना में
बाल गंगा और
धरम गंगा विलीन
होती हैं। इसी
तरह गंगा की
मुख्य धारा और
प्रचण्ड अलकनन्दा में बद्रीनाथ
से ऊपर केशव
प्रयाग से लेकर
कर्णप्रयाग तक खीर
गंगा, धौली गंगा,
गणेश गंगा, गिरथी
गंगा, ऋषिगंगा, पाताल
गंगा और बिरही
गंगा विलीन होती
है। कर्ण की
तपस्थली कर्णप्रयाग में अलकनन्दा
से मिलने वाली
पिण्डर में भी
एक गंगा आकर
मिलती है, जिसे
कैल गंगा के
नाम से जाना
जाता है। उससे
पहले सोनला में
तुंगनाथ से निकलने
वाली निगोल गंगा,
जिसे लिंगोमती भी
कहा जाता है,
अलकनन्दा का अंग
वन जाती है।
रुद्रप्रयाग में अलकनन्दा
में विलीन होने
वाली मन्दाकिनी में
भी कम से
कम 4 गंगाऐं आ
कर मिलती हैं
जिनमें बासुकी गंगा, काली
गंगा, मन्धानी गंगा
और मदमहेश्वर गंगा
शामिल हैं।
अलकनंदा और भागीरथी
में से भी
केवल भागीरथी को
ही गंगा मानना
सत्य से मुंह
मोड़ने के समान
है। गंगा की
जलराशि में अलकनंदा
का योगदान 60 प्रतिशत
से अधिक है।
जबकि भागीरथी का
गंगा की जलराशि
में मात्र 40 प्रतिशत
का ही हिस्सा
है। पर्यावरणीय संवेदनशीलता की दृष्टि
से भी अलकनंदा
का जलसंभरण या
कैचमेंट एरिया ज्यादा विशाल
और ज्यादा संवेदनशील
है। अलकनंदा जलागम
क्षेत्र में लगभग
427 छोटे बड़े ग्लेशियर
हैं जिनमें से
मुख्य सतोपंथ है
तथा दूसरा भगीरथखर्क
है। पौराणिक मान्यता
है कि पांडवों
ने सतोपथ से
ही स्वर्गाराहण किया
था। सतोपंथ का
मतलब भी सत्य
का मार्ग या
परम मार्ग होता
है। पांडुपुत्र बदरीनाथ
से पहले अलकनंदा
के किनारे पांडुकेश्वर
में भी रहे
थे। भगीरथ खर्क
के बारे में
यह भी मान्यता
है कि भगीरथ
ने गंगा को
पृथ्वी पर लाने
के लिये इसी
स्थान पर तपस्या
की थी।
धार्मिक दृष्टि से भी
देखा तो अलकनंदा
घाटी का धार्मिक
महत्व भागीरथी घाटी
से कहीं अधिक
है। हिन्दुओं का
सर्वोच्च तीर्थ बद्रीनाथ अलकनन्दा
के किनारे पर
ही है। इसी
तरह इसी नदी
की सहायिका मन्दाकिनी
केदारनाथ क्षेत्र से निकलती
है। यही नहीं
आदि गुरू शंकराचार्य
ने भी अलकनन्दा
के किनारे जोशीमठ
में हिमालयी पीठ
ज्योतिर्पीठ की स्थापना
की थी। उन्होंने
ही बदरीनाथ मंदिर
का पुनरोद्धार किया
था। केदारनाथ में
शंकराचार्य की समाधि
भी है। यह
भी मान्यता है
कि केदारनाथ के पुराने
मंदिर का निर्माण
पांडवों ने ही
किया था। इसी
घाटी में पंच
केदार और पंच
बदरी हैं। इसी
अलकनन्दा के किनारे
पंच प्रयाग स्थित
हैं। लाखों श्राद्धालु
हर साल अलकनंदा
में डुबकी लगा
कर पुण्यलाभ करते
हैं। अगर गोमुख
से निकलने वाली
भागीरथी ही असली
गंगा है तो
फिर क्या पांडव
और आदि गुरू
शंकराचार्य का बदरीनाथ
और सतोपथ तक
अलकनंदा का अनुशरण
करना उनका भटकाव
था?
देवप्रयाग से लेकर
गंगासागर तक लगभग
2500 किमी की यात्रा
तय करने वाली
पतित पावनी गंगा
न केवल उत्तर
भारत के मैदान
के लगभग 45 करोड़
लोगों की जीवन
दायिनी है, अपितु
सभी सनातन धर्मावलंबियों
की आस्था की
प्रतीक भी है।
इसे बिना जानकारी
के अंधविश्वासों की
दरारों में घुसाना
वाजिब नहीं है।
गंगा एक अन्तर्राष्ट्रीय
नदी है जो
कि भारत के
साथ ही बांग्लादेश
में भी पद्मा
के नाम से
प्रवाहित होती हैं।
हरिद्वार से मैदानी
यात्रा शुरू करते
हुए यह गढ़मुक्तेश्वर,
सोरों, फर्रुखाबाद, कन्नौज, बिठूर,
कानपुर होते हुए
इलाहाबाद (प्रयाग) पहुँचती है
जहां उसका मिलन
यमुना से होता
है। काशी (वाराणसी)
में गंगा एक
वक्र लेती है,
और वहां से
उत्तरवाहिनी कहलाती है। यहाँ
से मिर्जापुर, पटना,
भागलपुर होते हुए
पाकुर पहुँचती है।
इस बीच इसमें
सोन, गंडक, घाघरा,
कोसी आदि नदियां
मिल जाती हैं।
भागलपुर में राजमहल
की पहाड़ियों से
यह दक्षिणवर्ती होती
है। पश्चिम बंगाल
के मुर्शिदाबाद जिले
के गिरिया स्थान
के पास गंगा
नदी दो शाखाओं,
भागीरथी और पद्मा
में विभाजित हो
जाती है। भागीरथी
नदी गिरिया से
दक्षिण की ओर
बहने लगती है
जबकि पद्मा नदी
दक्षिण-पूर्व की ओर
बहती है और
फरक्का बैराज से छनते
हुई बंाग्ला देश
में प्रवेश करती
है। मुर्शिदाबाद शहर
से हुगली शहर
तक गंगा का
नाम भागीरथी नदी
तथा हुगली शहर
से मुहाने तक
गंगा का नाम
हुगली नदी हो
जाता है।
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- जयसिंह
रावत
ई-11 फ्रेण्ड्स एन्कलेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल-09412324999
jaysinghrawat@gmail.com
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