गैरसैंण
पर कांग्रेस-भाजपा की नूराकुश्ती
-जयसिंह रावत
उत्तराखंड विधानसभा के गैरसैंण
में आयोजित शीतकालीन
सत्र के दौरान
शुरू से लेकर
अंत तक जिस
तरह नाटकबाजियां चलती
रहीं उससे साफ
हो गया है
कि प्रदेश की
स्थाई राजधानी के
मामले में सत्ताधारी
कांग्रेस और मुख्य
विपक्षी पार्टी भाजपा की
मंशा साफ नहीं
है और दोनों
ही दल गैरसैंण
और देहरादून को
लेकर केवल राजनीतिक
पैंतरेबाजी कर रहे
हैं। इन दो
दलों के अलावा
तीसरी कोई राजनीतिक
शक्ति नहीं जो
कि राजधानी के
जैसे मुद्दे पर
कोई बड़ा फैसला
ले सके या
फैसले के लिये
दबाव बना सके।
हैरानी का विषय
तो यह है
कि जिस कांग्रेस
की सरकार गैरसैण
में विधानसभा आदि
का निर्माण कर
राजधानी का जैसा
ही ढांचा खड़ा
कर रही है
वह भी राजधानी
का नाम लेने
से विदक रही
है।
गैरसैण में 2 नवम्बर से
आयोजित प्रदेश विधानसभा के
सत्र से एक
दिन पहले वहां
प्रदेश कांग्रेस का सम्मेलन
आयोजित किया गया।
स्वयं काग्रेस के
प्रदेश अध्यक्ष ने घोषणा
की थी कि
इस सम्मेलन में
गैरसैण को स्थाई
राजधानी बनाने की मांग
को लेकर प्रस्ताव
पारित कराया जायेगा।
लेकिन जब प्रस्ताव
की बारी आयी
तो कांग्रेसी बगलें
झांकने लगे। इसी
तरह भाजपा को
जब लगा कि
गैरसैण पर कांग्रेस
श्रेय लूटने जा
रही है तो
वह भी अचानक
गैरसैंण समर्थक दिखने लगी।
इस मामले में
आगे आने के
लिये भाजपा ने
गैरसैण में आयोजित
इस सत्र में
चर्चा के लिये
प्रस्ताव भी पेश
कर दिया। मगर
इसका नोटिस कामरोको
प्रस्ताव के जरिये
देकर चर्चा की
गुंजाइश स्वयं ही समाप्त
भी कर दी।
चर्चा होती भी
कैसे? नियम 56 के
तहत भाजपा चर्चा
नहीं चाहती थी
और नियम 310 याने
कि कामरोको प्रस्ताव
सत्ताधारी कांग्रेस को मंजूर
नहीं था। आखिर
वही हुआ जिसका
कि डर था।
सामान्यतः नियम 310 के तहत
विपक्ष को मामला
उठाने की अनुमति
नहीं मिलती है,
क्योंकि इसे सरकार
के खिलाफ माना
जाता है। इसमें
चर्चा के अंत
में मत विभाजन
का भी प्रावधान
होता है। उत्तराखंड
विधानसभा के इतिहास
में केवल दो
बार कामरोको प्रस्ताव
के जरिये सदन
में चर्चा हुयी।
एक बार तो
अध्यक्ष ने तब
चर्चा का अवसर
दिया जबकि तत्कालीन
विपक्षी दल कांग्रेस
के सदस्य पूरे
दिन के लिये
वाकआउट कर गये
थे। अगर भाजपा
को गैरसैण के
बारे में सरकार
की मंशा जाननी
ही थी तो
उसे नियम 56 के
तहत चर्चा से
मंशा जानने में
क्या परेशानी थी।
आखिर भाजपा यही
तो जानना चाह
रही थी कि
गैरसैण के बारे
में सरकार की
मंशा क्या है।
उसके लिये उत्पात
मचाने की क्या
जरूरत थी? सच
यह है कि
अगर चर्चा होती
तो कम से
कम गैरसैण के
बारे में दोनों
ही दलों के
असली चेहरे तो
जनता के सामने
नजर आ ही
जाते।
वास्तव में राजधानी
का माला इतना
आसान नहीं जितना
कि राजनीतिक दल
बता रहे हैं।
यह मामला अगर
इतना आसान होता
तो राज्य के
गठन के समय
ही तत्कालीन बाजपेयी
सरकार किसी भी
स्थान को प्रदेश
की राजधानी घोषित
कर देती। वास्तव
में राजधानी अंगद
के पैर की
तरह जब एक
बार जम जाती
है तो उसे
उठाना लगभग नामुमकिन
हो जाता है।
मोहम्मद तुगलक का जमाना
लद गया, जो
कि कभी दिल्ली
तो कभी तुगलकाबाद
राजधानी ले जाता
था। अब राजधानी
बार-बार इधर
से उधर ले
जाना आसान नहीं
रह गया है।
निकट अतीत में
केवल असम की
राजधानी को शिलॉंग
से गुवाहाटी के
निकट दिसपुर लाया
गया था। उसके
बाद राजधानी का
स्थान बदले जाने
के उदाहरण नहीं
हैं। देहरादून में
नये राजभवन और
मुख्यमंत्री आवास समेत
लगभग सभी प्रमुख
संस्थानों के भवन
बन चुके हैं।
देहरादून शहर में
जगह की तंगी
को देखते हुये
दीक्षित आयोग की
शिफारिश के अनुसार
रायपुर क्षेत्र में राजधानी
के लिये स्थान
का चयन किया
जा चुका है।
ऐसी स्थिति में
गैरसैण को केवल
ग्रीष्मकालीन राजधानी ही बनाया
जा सकता है।
मगर इस सच्चाई
को बयां करने
की स्थिति में
स्वयं हरीश रावत
सरकार भी नहीं
है जो कि
वहां विधानसभा भवन
और सचिवालय समेत
राजधानी के लिये
पूरा ही आवश्यक
ढांचा खड़ा कर
रही है। गैरसैण
को स्थाई या
ग्रीष्मकालीन राजधानी की बात
आती है तो
मुख्यमंत्री हरीश रावत
इतना तो कहते
हैं कि हम
उसी दिशा में
बढ़ रहे हैं
लेकिन वे यह
कहने की हिम्मत
नहीं जुटा पाते
कि वहां केवल
ग्रीष्मकालीन राजधानी ही बन
रही है। अगर
वह केवल ग्रीष्मकालीन
राजधानी नही ंतो
फिर देहरादून के
रायपुर क्षेत्र में विधानसभा
और सचिवालय जैसा
राजधानी का ढांचा
क्यों खड़ा किया
जा रहा है?
गैरसैण को केवल
ग्रीष्मकालीन राजधानी का ही
ताज मिलने का
सच बताने से
कांग्रेस इसलिये कतरा रही
है क्योंकि एक
बहुत बड़ा जनमत
वहां केवल स्थाई
राजधानी ही देखना
चाहता है। वास्तव
में गैरसैंण केवल
पहाड़ के लोगों
की भावनाओं का
प्रतीक नहीं बल्कि
इस पहाड़ी राज्य
की उम्मीदों का
द्योतक भी है।
गैरसैण में पलायन
समेत पहाड़ की
कई समस्याओं का
निदान निहित है।
स्वयं मुख्यमंत्री भी
इसे अत्यंत भावनात्मक
मामला बता चुके
हैं। इसलिये केवल
ग्रीष्मकालीन राजधानी की घोषणा
होती है तो
नये सिरे से
बवाल खड़ा हो
सकता है। वैसे
भी राजधानी के
चयन के लिये
गठित दीक्षित आयोग
ने तो 2 करोड़
रुपये खर्च करने
के बाद जो
रिपोर्ट सरकार को सौंपी
थी उसमें गैरसैण
को सीधे -सीधे
ही रिजेक्ट कर
दिया था। दीक्षित
आयोग ने गैरसैण
के साथ ही
रामनगर तथा आइडीपीएल
ऋषिकेश को द्वितीय
चरण के अध्ययन
के दौरान ही
विचारण से बाहर
कर दिया था
और उसके बाद
आयोग का ध्यान
केवल देहरादून और
काशीपुर पर केन्द्रित
हो गया था।
हालांकि दीक्षित आयोग ने
गैरसैण के विपक्ष
में और देहरादून
के समर्थन में
केवल कुतर्क ही
दिये थे। जैसे
कि उसने गैरसैण
का भूकंपीय जोन
में और देहरादून
को सुरक्षित जोन
में बताने के
साथ ही गैरसैंण
में पेयजल का
संभावित संकट बताया
था। आयोग ने
मानकों की वरीयता
के आधार पर
चमोली के गैरसैंण
को केवल 5 नम्बर
और देहरादून को
18 नंबर दिये थे।
यही नहीं आयोग
ने देहरादून के
नथुवावाला-बालावाला स्थल के
पक्ष में 21 तथ्य
और विपक्ष में
केवल दो तथ्य
बताये थे, जबकि
गैरसैण के पक्ष
में 4 और विपक्ष
में 17 तथ्य गिनाये
गये थे। फिर
भी आयोग ने
जनमत को गैरसैण
के पक्ष में
और देहरादून के
विपक्ष में बताया
था। लेकिन पहाड़ों
से बड़े पैमाने
पर हो रहे
पलायन के कारण
प्रदेश का राजनीतिक
संतुलन जिस तरह
गड़बड़ा़ रहा है
उसे देखते हुये
प्रदेश की सत्ता
के प्रमुख दावेदार
कांग्रेस और भाजपा
भी गैरसैण को
लेकर केवल नूरा
कुश्ती कर रहे
है।
सन् 2002 में जब
उत्तराखंड विधानसभा का पहला
चुनाव हुआ था
तो उस समय
40 सीटें पहाड़ से
और 30 सीटें मैदान
से थीं। इसलिये
सत्ता का संतुलन
पहाड़ के पक्ष
में होने के
कारण पहाड़ी जनभावनाओं
के अनुरूप गैरसैण
को भी देहरादून
से अधिक जनमत
हासिल था। सन्
2006 में हुये परिसीमन
के तहत पहाड़
की 40 सीटों में
से 6 सीटें जनसंख्या
घटने के कारण
घट गयीं और
मैदान की 30 सीटें
बढ़ कर 36 हो
गयीं। जबकि पहाड़
में 9 जिले हैं
और मैदान में
देहरादून समेत केवल
चार ही जिले
हैं। अगर यही
हाल रहा तो
सन् 2026 के परिसीमन
में पहाड़ में
27 और मैदान में
43 सीटें हो जायेंगी।
पहाड़ से वोटर
ही नहीं बल्कि
नेता भी पलायन
कर रहे हैं।
राज्य के तीन
पूर्व मुख्यमंत्री चुनाव
लड़ने मैदान में
आ गये हैं।
गैरसैण या भराड़ीसैंण
का भविष्य चाहे
जो भी हो
मगर वहां एक
नये पहाड़ी नगर
की आधारशिला तो
पड़़ ही गयी
है। अगर वहां
ग्रीष्मकालीन राजधानी भी बनती
है तो भी
वह नवजात शहर
स्वतः ही देहरादून
के बाद सत्ता
का दूसरा केन्द्र
बन जायेगा, जो
कि कुमाऊं मंडल
के काफी करीब
होगा। मुख्यमंत्री रावत
वहां अपना कैंप
आफिस खोलने की
घोषणा भी कर
चुके हैं। इसलिये
वह प्रदेश का
दूसरा महत्वपूर्ण नगर
बनेगा। सत्ता के इस
वैकल्पिक केन्द्र में स्वतः
ही नामी स्कूल
और बड़े अस्पताल
आदि जनसंख्या को
आकर्षित करने वाले
प्रतिष्ठान जुटने लग जायेंगे।
पहाड़ों में शिक्षा
और चिकित्सा के
लिये सबसे अधिक
पलायन हो रहा
है। गैरसैण से
प्रदेश की राजनीतिक
संस्कृति में बदलाव
आयेगा। पहाड़ का
जो धन मैदान
की ओर आ
रहा है वह
वहीं स्थानीय आर्थिकी
का हिस्सा बनेगा।
प्रदेश के हर
कोने से जब
गैरसैण जुड़ेगा तो इन
संपर्क मार्गों पर छोटे-छोटे कस्बे
उगेंगे और उससे
नया अर्थतंत्र विकसित
होगा। मैदान की
मुद्रा पहाड़ पर
चढ़ने लगेगी।
-जयसिंह
रावत
पत्रकार
ई-11 फ्रेंड्स
एन्क्लेव, शाहनगर,
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
jaysinghrawat@hotmail.com
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