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Wednesday, April 21, 2021

अमीरों की विलासिता भी है धरती का संकट

 

पृथ्वी के संकट का असली कारण है अमीरों की विलासिता

-जयसिंह रावत

जलवायु परिवर्तन इस पृथ्वी पर मानव ही नहीं वरन समस्त जीवधारियों के लिए बहुत बड़ा खतरा है और यह धरती की धारक क्षमता में ह्रास का इकलौता कारण है। इस          धारक क्षमता पर सीधा प्रभाव जनसंख्या वृद्धि का पड़ रहा है। प्राकृतिक संपदा विरल होती जा रही है। जलवायु परिवर्तनका प्रभाव वातावरण के साथ-साथ अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। गर्मी एवं वायु प्रदूषण का प्रभाव हमारे जन-जीवन पर पड़ा है। सम्पूर्ण विश्व के सामने बेरोजगारी, खाद्य समस्या, कुपोषण, प्रति व्यक्ति आय, गरीबी, घातक बीमारियां, आवासों की कमी, महंगाई, कृषि विकास में बाधा, बचत एवं पूंजी में कमी, शहरी क्षेत्रों में नागरिक सुविधाओं का ह्रास जैसी अनेक समस्याएं उत्पन्न हो गयी हैं। इन्हीं समस्याओं से निजात पाने के लिये वैज्ञानिकों की विश्व बिरादरी इस धरती की धारक क्षमता पर माथापच्ची कर रही है।

जलवायु परिवर्तन के नतीजे होंगे भयावह

विश्व का पर्यावरण जिस तेज गति से प्रदूषित हो रहा है और ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा के बराबर बढ़ने से विश्वताप जिन आयामों पर पहुंच रहा है वह अत्यन्त भयावह है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही सबसे अधिक गर्म वर्षों के अधिकृत रिकॉर्ड के अनुसार 1995 और 2006 के बीच 12 में से 11 वर्ष पृथ्वी के सबसे अधिक गर्म वर्ष रहे हैं। बढ़ते हुए वैश्विक ताप के कारण ही धु्रवों की बर्फ पिघलती जा रही है, जिससे समुद्रों का जलस्तर बढ़ता जा रहा है।इन्टरगवर्नमेंटल पैनल फोर क्लाइमेट चेंज की एक रिपोर्ट के अनुसार 1990 से 2100 तक पृथ्वी का औसत तापमान 1.1 सेल्सियस से 6.4 सेल्सियस तक बढ़ सकता है। इसका परिणाम होगा जलवायु की वक्रता और ऋतुओं के क्रम की समयबद्धता की अनिश्चितता। कहीं अति वृष्टि होगी, तो कहीं अनावृष्टि होगी। बाढ़, सूखा, बीमारियों आदि से मनुष्य समेत सम्पूर्ण जैव विविधता त्रस्त होगी, नष्ट होगीं अंटार्कटिका में बर्फ की गहरी पट्टियां पतली होती जा रही हैं। विभिन्न जीव-जन्तुओं की लाखों प्रजातियांे के अस्तित्व को अलग-अलग तरीके से खतरे बढ़ते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अगर ग्रीन हाऊस गैसों, विशेषकर कार्बन-डाई-ऑक्साइड और सीएफसीज़ के उत्सर्जन की यही रफ्तार रही तो 21 वीं शताब्दी के अंत तक समुद्री जल स्तर की ऊंचाई 100 सेंटीमीटर तक बढ़ सकती है।

 

समस्याओं की जड़ जनसंख्या वृद्धि

मानवता के सामने कोरोना से लेकर जितनी भी गंभीर समस्याएं आज खड़ी हैं उनके पीछे जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि को जिम्मेदार माना जा रहा है। विश्व की जनसंख्या 7.7 अरब तक पहुंच चुकी है जबकि एक सदी पहले इस धरती पर 2 अरब से कम लोग रहते थे। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2025 तक जनसंख्या का यह आंकड़ा 8 अरब तक और यही रफ्तार रही तो वर्ष 2100 तक दुनिया की जनसंख्या 11 अरब तक पहुंच जायेगी। ऐसी परिस्थितियों में सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर इस धरती के संसाधन इतने लोगों का भरण पोषण कर पायेंगे? अगर लाखों जीव और पादप प्रजातियों में से एक इंसान ने जीवन के लिये जरूरी इतने संासाधनों को हड़प लिया तो बाकी प्रजातियों का अस्तित्व कैसे बचेगा? सच्चाई तो यह है कि संसार की प्रजातियों का अस्तित्व बिना इंसान के सलामत रह जायेगा मगर वनस्पतियों के बिना इंसान का अस्तित्व नहीं बचेगा।

पृथ्वी के संसाधन अनन्त नहीं

पृथ्वी का आकार करोड़ों साल पहले जितना था, उतना ही आज भी हैं लेकिन पृथ्वी पर जीवधारियों के जीने के लिये भोजन, जल और ऊर्जा के जितने संसाधन थे उनमें कमी रही है। हम विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी के सहारे अन्य वस्तुओं के साथ ही कुछ समय के लिये अन्न का उत्पादन बढ़ा सकते हैं। पानी और हवा का इंतजाम भी कर सकते है। लेकिन इसकी भी तो कोई सीमा होगी। अंतरिक्ष अनंत हो सकता है लेकिन धरती अनन्त नहीं है। इसीलिये सवाल उठता रहा है कि आखिर इस धरती पर कितने लोग सामान्य रूप से रह सकते हैं। धरती की धारक क्षमता पर प्लेटो से लेकर कार्ल मार्क्स और थॉमस रॉबर्ट माल्थस तक प्राणि विज्ञानी, अर्थशास्त्री और मानव विज्ञानी अपनी-अपनी विवेचनाएं दे चुके हैं। लेकिन अर्थशास्त्री एवं वैज्ञानिक धरती की धारक क्षमता पर एक राय नहीं रहे। किसी ने यह क्षमता 5 अरब बतायी तो किसी का अनुमान 1 खरब की जनसंख्या तक गया मगर सभी ने अनियंत्रित हो रही जनसंख्या पर चिन्ता अवश्य ही प्रकट की।

प्रकृति स्वयं भी करती है जनसंख्या को कम

धरती के लोगों की आय बढ़ने के साथ ही उनकी विलासिता की आवश्यकताऐं अगर इसी तरह बढ़ती रहीं तो प्राकृतिक संसाधन वर्तमान जनसंख्या के लिये भी पर्याप्त नहीं हो पायेंगे। उन असीमित आवश्यकताओं का संसाधनों पर पड़ रहे दबाव का परिणाम आज ओजोन परत पर छेद, वैश्विक तापमान में वृद्धि, अकाल, बाढ़, सुनामी, भूकंप और नवीनतम् आफत कोविड-19 के रूप में सामने रहा है। शायद इसीलिये प्रख्यात ब्रिटिश अर्थशास्त्री थॉमस माल्थस ने 1798 में अपने बहुचर्चित जनसंख्या के सिद्धान्त ‘‘प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन’’ में कहा था कि जब जनसंख्या और भोजन सहित प्राकृतिक संसाधनों में सन्तुलन गड़बड़ा जाता है तो प्रकृति अपने तरीके से इनके बीच सन्तुलन कायम रखती है। माल्थस ने जनसंख्या नियंत्रण के प्राकृतिक तरीकों में भूख, महामारी, अकाल, बीमारी, प्राकृतिक आपदा और युद्ध जैसी विभीषिकाओं का उल्लेख किया था। ये सभी प्रकार की विभीषिकाएं आज प्रत्यक्ष नजर रही हैं, जिनमें कोरोना भी एक है। माल्थस के अनुसार जनसंख्या वृद्धि ज्यामितीय तरीके जैसे 1,2,4,16,32,64 आदि से होती है जबकि भोजन और अन्य संसाधनों में वृद्धि अंकगणितीय तरीके से होती है, जैसे 1,2,3,4,5,6 आदि।

अमीरों की विलासिता भी है धरती का संकट

जनसंख्या वृद्धि और प्राकृतिक संसाधनों के बारे में महात्मा गांधी की यह टिप्पणी आज ज्यादा प्रासंगिक नजर रही है कि, ‘‘इस धरती पर सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये पर्याप्त संसाधन हैं, मगर सभी के लालच को पूरा करने के लिये नहीं।’’ जनसंख्या और संसाधनों के बीच का अन्तर विश्व में आर्थिक असन्तुलन के कारण बढ़ रहा है। इस असन्तुलन पर गरीबी और अमीरी का सीधा सम्बन्ध इसलिये है कि जो जितना अमीर है उसकी विलासिता की उतनी ही अधिक आवश्यकताएं भी हैं और वे असीमित आवश्यकताएं प्राकृतिक संसाधनों पर सीधा असर डाल रही हैं। मसलन अमेरिका का एक मध्यम वर्गीय नागरिक भी भोजन संसाधन का सामान्य जीवन निर्वाह के स्तर से 3.3 गुना अधिक और स्वच्छ पानी का जीवन निर्वाह स्तर से 250 गुना अधिक उपभोग करता है। विज्ञान और प्रोद्योगिकी का उपयोग विलासिता के साधन जुटाने के लिये हो रहा है। अगर इस धरती पर रहने वाला हर व्यक्ति मिडिल क्लास अमरीकी की तरह साधन सम्पन्न हो जाय तो इस धरती की धारक क्षमता 11 अरब तो क्या, 2 अरब भी नहीं रह जायेगी। जैसा कि गांधी जी का विचार था कि अगर हर एक आदमी केवल सुखी और स्वस्थ जीवन जीने लायक  आवश्यक आवश्यकताओं के अनुरूप संसाधनों का उपभोग करे तो यह धरती कहीं अधिक जनसंख्या का बोझ धारण कर सकती है। आज विकसित पाश्चात्य देश प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक प्रयोग करने के साथ ही प्रदूषणकारी अपशिष्ट का भी सर्वाधिक उत्पादन कर रहे हैं। वे अपने वन आदि संसाधनों हजम कर चुके हैं और चाहते हैं कि गरीब देश वनवासी बने रहें ताकि उनको शुद्ध हवा-पानी मिलता रहे। वैज्ञानिकों के अनुसार 2006 में 32 अरब टन कार्बन ऑक्साइड का उत्पादन हुआ जिसमें अमेरिका का योगदान 25 प्रतिशत था।

सभी जीवधारियों का हिस्सा छीन रहा है मनुष्य

पृथ्वी पर जितने भी प्रकार के प्राणी हैं उनमें आपस में एक गहरा संबंध है तथा उनमें एक प्रकार का संतुलन स्थापित है जो पृथ्वी के अस्तित्व के लिए अति आवश्यक है। नवीनतम् अध्ययनों में धरती पर लगभग 80.7 लाख प्रजातियों के होने का अनुमान है। इनमें लगभग 70 लाख जीव जन्तुओं की प्रजातियां मानी जा रही हैं। मानव इन्हीं प्रजातियों में से एक है जो कि केवल इस धरती की अन्य प्रजातियों का मालिक बना बैठा है अपितु उनके हिस्से के भोजन के श्रोत फोटोसिन्थेटिक आउटपुट के 40 प्रतिशत हिस्से को खुर्दबुर्द कर चुका है। मनुष्य को प्राकृतिक तौर पर शाकाहारी है लेकिन वह शाकाहारी जीवों के हिस्से के भोजन को हड़पने के साथ ही उन जीव जन्तुओं को भी मार कर खा रहा है। इस तरह मनुष्य शाकाहारियों के साथ ही मांसाहारियों का भोजन भी हड़प रहा है। उसका नतीजा यह है कि धरती पर मनुष्य की आबादी भले ही बढ़ रही हो मगर अन्य जीवों की आबादी निरन्तर घट रही है। बहुत बड़ी संख्या में पादप और जीव जन्तुओं की प्रजातियां धरती से गायब हो गयी हैं, जो कि गंभीर चिन्ता का विषय है।

प्रदूषण के कारण ओजोन परत में छिद्र:

जो आशंका 1970 के दषक में ओजोन परत के बारे में वैज्ञानिकों ने व्यक्त की थी, उसकी पुष्टि 1985 के अंटार्कटिका के ऊपरओजोन छिद्रकी खोज से हो गई। इसके फलस्वरूप वैज्ञानिकों, नीति निर्धारकों, स्वयंसेवी संस्थाओं और संयुक्त राष्ट्र में ओजोन परत को बचाने के प्रयास शुरू हुए। 16 सितंबर, 1987 को इस बाबत मोट्रियल प्रोटोकॉल पर कई देशों ने सहमति व्यक्त की जिसमें विषैली गैसों/पदार्थों तथा क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.), हेलोन, कार्बन टेट्रा क्लोराइड (सी.टी.सी.), मिथाइल क्लोरोफॉर्म, मिथाइल ब्रोमाइड तथा हाइड्रोक्लोरो फ्लोरो कार्बन (एच.सी.एफ.सी.) को एक निर्धारित अवधि में कम करने का उद्देश्य रखा गया क्योंकि इनसे ही प्रमुखतः ओजोन परत का क्षरण होता है। भारत ने 1992 में इसका अनुमोदन किया।

पराबैंगनी किरणों का पर्यावरण पर प्रभाव

हमारे वायुमण्डल के ऊपरी भाग में पृथ्वी से लगभग 25 कि.मी. की ऊंचाई पर समताप मण्डल (स्ट्रेटोस्फीयर) में ओजोन गैस की एक परत है। यह ब्रह्माण्ड से आने वाली पैराबैंगनी किरणों तथा अन्य हानिकारक किरणों को अवषोशित कर लेती है जिससे वे पृथ्वी तक नहीं पहंुच पाती और पृथ्वी के जीव-जंतु उसके हानिकारक प्रभाव से बचे रहते हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि ओजोन परत के नष्ट होने से सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों की बढ़ती मात्रा के कारण धरती वीरान और बंजर हो सकती है। तापमान असाधारण रूप से बढ़ सकता है, जिससे बर्फ पिघलने से जल प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है। भावी पीढ़ियों को गंभीर आनुवंशिक क्षति का सामना करना पड़ सकता है। म्यूटेशन जैसी विरल जेनेटिक घटनाएं सामान्य स्वाभाविक बन सकती हैं, जिससे समस्त मनुष्य जाति में विलक्षण, विचित्र, परंतु घातक परिवर्तन हो सकते हैं। इससे पेड़-पौधे भी सर्वथा अप्रभावित नहीं रह पायेंगे। रोग प्रतिरोधी क्षमता के नष्ट हो जाने से 80 प्रतिशत वृक्ष, वनस्पतियां समाप्त हो सकती है। फसल उत्पादन में भी इसका घातक असर पड़े बिना नहीं रह सकेगा। प्रकृति ने पृथ्वी में सभी संसाधन उपलब्ध कराए हैं। गांधी जी के सुझाव के अनुरूप अगर मनुष्य इनका अपनी आवश्यकता के अनुरूप ही प्रयोग करे तो इसका संतुलन नहीं बिगड़ेगा। लेकिन अगर अपनी असीमित क्षुधाओं की पूर्ति हेतु आवश्यकता से अधिक ग्रहण करने का प्रयास करता है तो इसके पर्यावरण में असंतुलन से भयावह परिणाम होंगे।

 

जयसिंह रावत

पत्रकार

-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर

डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।

मोबाइल-09412324999

 


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