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Tuesday, November 17, 2020
बिहार चुनाव: नीतीश जीत कर हारे और तेजस्वी हार कर भी जीत गये
बिहार चुनाव: नीतीश जीत कर हारे और तेजस्वी हार कर भी जीत गये
-जयसिंह रावत
विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के प्रकोप के साये में असाधारण
प्ररिस्थितियों में हुये पहले विधानसभा चुनाव में बिहार की जनता ने राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को पुनः सत्ता सौंपने के साथ ही राज्य का राजनीतिक
वरीयताक्रम ही बदल दिया जिसमें अब भाजपा का दर्जा छोटे भाई की जगह बड़े भाई का और
नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड (जदयू) बड़े भाई से घट कर छोटा भाई हो गया। स्वयं
नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे मगर उधार और अनुकम्पा में मिली सत्ता की
कुर्सी उन्हें चुभती ही रहेगी। यही नहीं बिहार के इन चुनावों ने भले ही जीत का
सेहरा एनडीए को पहनाया हो मगर नीतीश कुमार जीत कर भी हार गये और राष्ट्रीय जनता दल
(राजद) के नेता तेजस्वी यादव हार कर भी जीत गये हैं। राजद के पराजित होने के बावजूद
सबसे बड़े दल का नेता होने के कारण तेजस्वी बिहार के सबसे चहेते नेता बन कर उभरे
हैं। भाजपा के लिये तो यह चुनाव दीपावली का तोहफा जैसा ही है। जिसमें मोदी जी की
महानायक की छवि बरकरार रही जो कि 2021 में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों
में भी काम आयेगी। बिहार चुनाव के रोमांच पर गौर करें तो राजद के तेजस्वी यादव
चुनाव हार कर भी जीत गये हैं। सबसे कम उम्र का यह नौजवान बिहार की राजनीति के फलक
पर नये नेता के रूप में उभर चुका है। सबसे बड़े दल के नेता के रूप में उभरने के साथ
ही उनके पास सबसे बड़ा जनादेश है। उनके पास सबसे अधिक 76 विधायकों का समर्थन होने के
साथ ही सर्वाधिक 23.11 प्रतिशत मत प्रतिशत का जनादेश भी है जबकि भाजपा को 19.32
प्रतिशत और जदयू को 15.42 ही मत प्रतिशत हासिल हुआ है। इस चुनावमें भाजपा का
मतप्रतिशत भी घटा है। तेजस्वी के लिये इस चुनाव में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी साबित
हुयी। अगर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती और कुछ और सीटें हासिल कर पाती तो चुनाव के
नतीजे कुछ और ही होते। वैसे भी देखा जाय तो कांग्रेस ने इस चुनाव को तेजस्वी के
भरोसे छोड़ दिया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने अत्यन्त व्यस्त शेड्यूल में
से 12 चुनाव रैलियों के लिये समय निकाला जबकि सोनिया गांधी बिहार गयी ही नहीं और
राहुल गांधी केवल 8 रैलियां ही कर सके। जबकि तेजस्वी ने अपनी कुल 247 रैलियों में
से 47 रैलियां कांग्रेस प्रत्याशियों और 8 रैलियां वामदलों के प्रत्याशियों के
समर्थन में कीं। जाहिर है कि तेजस्वी इस चुनाव में कांग्रेस का बोझा भी ढो रहे थे।
बिहार चुनाव के इन नतीजों ने नीतीश कुमार को बड़ा भाई से छोटा भाई बना दिया है।
भाजपा ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे में जदयू को अपने से एक अधिक 122 सीटें
देकर उसके बड़े भाई के दर्जे को स्वीकार कर लिया था। इन 122 सीटों में से जदयू केवल
43 सीटें ही जीत पाया। जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़
कर 71 सीटें जीतीं थी। इस प्रकार उसकी 28 सीटें कम हुयीं और मत प्रतिशत भी 1.44
प्रतिशत घट गया। जबकि सहयोगी भाजपा ने नीतीश से 1 कम 121 सीटों में से 73 पर जीत
दर्ज कर अपना 2015 का 53 सीटों का स्कोर भी सुधारा। इस रोमांचक मुकाबले में भाजपा
ही अन्त तक तेजस्वी से भिड़ी रही। इस तरह बिहार की जनता ने भले ही एनडीए को जिता
दिया हो मगर इस जीत में नीतीश कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं। यद्यपि बिहार भाजपा में
मुख्यमंत्री का राजमुकुट नीतीश को सरेण्डर किये जाने पर अन्दरखाने कसमसाहट अवश्य है
और अपनी अनिच्छा बिहार के नेता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रकट भी करते रहे हैं,
मगर मोदी जी सहित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व नीतीश को मुख्यमंत्री बने रहने का वचन
चुनाव से पहले ही दे चुका है, इसलिये नहीं लगता कि भाजपा अपने वादे से मुकर जायेगी।
लेकिन नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की वह कुर्सी सदैव चुभती रहेगी। इसीलिये यह
संभावना भी है कि वह मुख्यमंत्री का पद किसी अन्य को देने का आग्रह कर सकते हैं।
2015 के चुनाव में भी बड़े दल राजद ने अनुकम्पा के तौर पर कम सीटें मिलने पर भी
उन्हें यह कुर्सी सौंपी थी जो उन्हें बार-बार चुभन देती रही और अन्ततः उन्हें राजद
की अनुकम्पा से छुटकारा पाना पड़ा। मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को सौंपे जाने के
पीछे भाजपा की मजबूरी भी है। भाजपा नेता नीतीश कुमार के पलटूराम वाली छवि से अनविझ
नहीं हैं। अगर नीतीश को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता या बाद में हटा दिया जाता है
तो वह तेजस्वी के साथ दुबारा मिल कर आसानी से सरकार बना सकते हैं और राजनीति में
असंभव या स्थाई कुछ भी नहीं होता है। अगले साल अप्रैल या मई में असम, पश्चिम बंगाल,
केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडू की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें से असम में
भाजपा की सरकार चल रही है जिसे विपक्ष से बचाना भाजपा के लिये एक बड़ी चुनौती है,
क्योंकि एनआरसी के बाद वहां हालात बदले हुये हैं। लेकिन इससे भी कहीं बड़ा लक्ष्य
भाजपा के सामने पश्चिम बंगाल का है जिसे ममता बनर्जी से छीनने के लिये भाजपा ने
अपनी पूरी ताकत झौंकी हुयी है। चूंकि पश्चिम बंगाल भौगोलिक रूप से बिहार से जुड़ा
हुआ है इसलिये बिहार के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम का प्रभाव पश्चिम बंगाल पर भी पड़
सकता है। शिवसेना के बाद अकाली दल की किनाराकसी से एनडीए में जो बिखराव शुरू हुआ वह
इन चुनाव नतीजों के बाद रुक जायेगा और बहुत संभव है कि अकाली दल और पासवान की लोजपा
भी वापस एनडीए के फोल्ड में लौट जांय। बिहार चुनाव ने मीडिया और खासकर ओपीनियन पोल
और एक्जिट पोल कराने वालों की पोल भी खुल गयी है। उनकी विश्वसनीयता का भट्टा बैठ
गया है। मतदान से पहले ओपिनियन पोल वाली ज्यादातर ऐजेंसियां एनडीए की एकतरफा जीत की
भविष्यवाणियां कर रहीं थीं तो मतगणना से पहले एक्जिट पोल वाले तेजस्वी की एकतरफा
जीत बता रहे थे। चिन्ता का विषय यह कि इस गोरखधन्धे में कुछ मीडिया ग्रुप भी शामिल
थे जिन्होंने मीडिया की विश्वसनीयता को एक बार फिर कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया।
जयसिंह रावत ई-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
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