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Wednesday, November 11, 2020
बिहार चुनाव: छोटा भाई बड़ा और बड़ा भाई छोटा हो गया
बिहार चुनाव: छोटा भाई बड़ा और बड़ा भाई छोटा हो गया
जयसिंह रावत
Updated Wed, 11 Nov 2020 03:31 PM IST
स्वयं नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे मगर उधार और अनुकम्पा में मिली सत्ता की कुर्सी उन्हें चुभती ही रहेगी - फोटो : अमर उजाला
विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के प्रकोप के साए में असाधारण परिस्थितियों में हुए पहले विधानसभा चुनाव में बिहार की जनता ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को पुनः सत्ता सौंपने के साथ ही राज्य का राजनीतिक वरीयताक्रम ही बदल दिया, जिसमें अब भाजपा का दर्जा छोटे भाई की जगह बड़े भाई का और नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड (जदयू) बड़े भाई से घट कर छोटा भाई हो गया। स्वयं नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे मगर उधार और अनुकम्पा में मिली सत्ता की कुर्सी उन्हें चुभती ही रहेगी। यही नहीं बिहार के इन चुनावों ने भले ही जीत का सेहरा एनडीए को पहनाया हो मगर नीतीश कुमार जीत कर भी हार गए और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव हार कर भी जीत गए हैं। राजद के पराजित होने के बावजूद सबसे बड़े दल का नेता होने के कारण तेजस्वी बिहार के सबसे चहेते नेता बन कर उभरे हैं। भाजपा के लिए तो यह चुनाव दीपावली का तोहफा जैसा ही है, जिसमें मोदी जी की महानायक की छवि बरकरार रही जो कि 2021 में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी काम आएगी।
आइपीएल से अधिक रोमांचक रहा बिहार चुनाव
नवंबर महीने की 10 तारीख को बिहार के 55 मतगणना केंद्रों में चली विधानसभा चुनावों की रोमांचकारी मतगणना ने दुबई में चल रहे आइपीएल के 20-20 मैच के रोमांच को भी फीका कर दिया। कोविड महामारी के चलते ईवीएम मशीनों से मतगणना की व्यवस्था शुरू होने के बाद पहली बार किसी मतगणना में इतना समय लगा। एनडीए और महागठबंधन में कांटे की टक्कर के चलते भी राजनीति का यह मैच इतना रोमांचक रहा कि अंत तक पासा कहीं भी पलट जाने की संभावना बनी रही। बहरहाल चुनाव नतीजे नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए के पक्ष में तो चले गए, मगर वोटों का विष्लेषण करें तो यह जीत नीतीश कुमार के सुशासन को नहीं बल्कि उनकी सरकार पर लगे केंद्र की मोदी सरकार के डबल इंजन की पावर को मिली है। जिसमें मोदी का पराक्रम और भाजपा की रणनीति का मुख्य योगदान रहा।
बड़ा छोटा हुआ और छोटा बड़ा हो गया
बिहार चुनाव के इन नतीजों ने नीतीश कुमार को बड़ा भाई से छोटा भाई बना दिया है। भाजपा ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे में जदयू को अपने से एक अधिक 122 सीटें देकर उसके बड़े भाई के दर्जे को स्वीकार कर लिया था। इन 122 सीटों में से जदयू केवल 43 सीटें ही जीत पाया। जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़ कर 71 सीटें जीती थीं। इस प्रकार उसकी 28 सीटें कम हुईं और मत प्रतिशत भी 1.44 प्रतिशत घट गया। जबकि सहयोगी भाजपा ने नीतीश से 1 कम 121 सीटों में से 73 पर जीत दर्ज कर अपना 2015 का 53 सीटों का स्कोर भी सुधारा। इस रोमांचक मुकाबले में भाजपा ही अंत तक तेजस्वी से भिड़ी रही। इस तरह बिहार की जनता ने भले ही एनडीए को जिता दिया हो मगर इस जीत में नीतीश कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं।
अनुकंपा स्वरूप मिलेगी नीतीश को मुख्यमंत्री की कुर्सी
यद्यपि बिहार भाजपा में मुख्यमंत्री का राजमुकुट नीतीश को सरेंडर किए जाने पर अंदरखाने कसमसाहट अवश्य है और अपनी अनिच्छा बिहार के नेता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रकट भी करते रहे हैं, मगर मोदी जी सहित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व नीतीश को मुख्यमंत्री बने रहने का वचन चुनाव से पहले ही दे चुका है, इसलिए नहीं लगता कि भाजपा अपने वादे से मुकर जाएगी। लेकिन नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की वह कुर्सी सदैव चुभती रहेगी। इसीलिए यह संभावना भी है कि वह मुख्यमंत्री का पद किसी अन्य को देने का आग्रह कर सकते हैं। 2015 के चुनाव में भी बड़े दल राजद ने अनुकंपा के तौर पर कम सीटें मिलने पर भी उन्हें यह कुर्सी सौंपी थी जो उन्हें बार-बार चुभन देती रही और अंतत; उन्हें राजद की अनुकंपा से छुटकारा पाना पड़ा। मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को सौंपे जाने के पीछे भाजपा की मजबूरी भी है।
भाजपा नेता नीतीश कुमार के पलटूराम वाली छवि से अनविझ नहीं हैं। अगर नीतीश को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता या बाद में हटा दिया जाता है तो वह तेजस्वी के साथ दुबारा मिल कर आसानी से सरकार बना सकते हैं और राजनीति में असंभव या स्थाई कुछ भी नहीं होता है।
इस चुनाव में भाजपा का मतप्रतिशत भी घटा है...
तेजस्वी चुनाव हार कर भी जीत गए
बिहार चुनाव के रोमांच पर गौर करें तो राजद के तेजस्वी यादव चुनाव हार कर भी जीत गए हैं। सबसे कम उम्र का यह नौजवान बिहार की राजनीति के फलक पर नए नेता के रूप में उभर चुका है। सबसे बड़े दल के नेता के रूप में उभरने के साथ ही उनके पास सबसे बड़ा जनादेश है। उनके पास सबसे अधिक 76 विधायकों का समर्थन होने के साथ ही सर्वाधिक 23.11 प्रतिशत मत प्रतिशत का जनादेश भी है जबकि भाजपा को 19.32 प्रतिशत और जदयू को 15.42 ही मत प्रतिशत हासिल हुआ है। इस चुनाव में भाजपा का मतप्रतिशत भी घटा है। तेजस्वी के लिए इस चुनाव में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई। अगर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती और कुछ और सीटें हासिल कर पाती तो चुनाव के नतीजे कुछ और ही होते। वैसे भी देखा जाए तो कांग्रेस ने इस चुनाव को तेजस्वी के भरोसे छोड़ दिया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने अत्यंत व्यस्त शेड्यूल में से 12 चुनाव रैलियों के लिए समय निकाला जबकि सोनिया गांधी बिहार गई ही नहीं और राहुल गांधी केवल 8 रैलियां ही कर सके। जबकि तेजस्वी ने अपनी कुल 247 रैलियों में से 47 रैलियां कांग्रेस प्रत्याशियों और 8 रैलियां वामदलों के प्रत्याशियों के समर्थन में कीं। जाहिर है कि तेजस्वी इस चुनाव में कांग्रेस का बोझा भी ढो रहे थे।
अगले साल भाजपा के काम आएंगे ये चुनाव नतीजे
अगले साल अप्रैल या मई में असम, पश्चिम बंगाल, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडू की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें से असम में भाजपा की सरकार चल रही है जिसे विपक्ष से बचाना भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि एनआरसी के बाद वहां हालात बदले हुए हैं। लेकिन इससे भी कहीं बड़ा लक्ष्य भाजपा के सामने पश्चिम बंगाल का है जिसे ममता बनर्जी से छीनने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झौंकी हुई हैं। चूंकि पश्चिम बंगाल भौगोलिक रूप से बिहार से जुड़ा हुआ है इसलिए बिहार के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम का प्रभाव पश्चिम बंगाल पर भी पड़ सकता है। इन विधानसभा चुनावों में बिहार से मिली ऊर्जा भाजपा के काम आएगी जबकि विपक्ष को अपना मनोबल उठाने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।
एनडीए एकजुट रहेगा
बिहार चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया कि अब भी नरेंद्र मोदी की छत्रछाया ही जीत की सबसे बड़ी गारंटी है। इसलिए शिवसेना के बाद अकाली दल की किनाराकसी से एनडीए में जो बिखराव शुरू हुआ वह फिलहाल रुक जाएगा और बहुत संभव है कि अकाली दल और पासवान की लोजपा वापस एनडीए के फोल्ड में लौट जाएं।
ओपिनियन और एक्जिट पोल की पोल खुली
बिहार चुनाव ने मीडिया और खासकर ओपीनियन पोल और एक्जिट पोल कराने वालों की पोल भी खुल गई है। उनकी विश्वसनीयता का भट्टा बैठ गया है। मतदान से पहले ओपिनियन पोल वाली ज्यादातर ऐजेंसियां एनडीए की एकतरफा जीत की भविष्यवाणियां कर रहीं थीं तो मतगणना से पहले एक्जिट पोल वाले तेजस्वी की एकतरफा जीत बता रहे थे। चिंता का विषय यह कि इस गोरखधंधे में कुछ मीडिया ग्रुप भी शामिल थे जिन्होंने मीडिया की विश्वसनीयता को एक बार फिर कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया।
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