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Sunday, November 29, 2020
सूर्यधार झील में डूबी त्रिवेंद्र मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी
सूर्यधार झील में गोते खाने लगीं कई अटकलें
मुख्य मंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत के ड्रीम Þसूर्यधार झील’’ प्रोजेक्ट का रविवार को भव्य उद्घाटन हो गया। मुख्यमंत्री जी के अपने निर्वाचन क्षेत्र में इस प्रोजेक्ट का आर्थिक या पर्यटन सम्बन्धी महत्व चाहे जितना भी हो मगर 50.25 करोउ़ के इस प्रोजेक्ट का भारी राजनीतिक महत्व है। इसीलिये इसे उत्तराखण्ड को त्रिवेन्द्र जी की ओर से महानतम् और ऐतिहासिक सौगात के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। पिछले 14 साल से बन रहे डोबरा चंाठी पुल को भी मीडिया ने त्रिवेन्द्र जी को ही समर्पित कर दिया। मगर हैरानी का विषय यह है कि सूर्यधार के भव्य उद्घाटन समारोह से सिंचाई मंत्री सतपाल महाराज नदारद रहे। जबकि यह उन्हीं के सिंचाई विभाग का प्रोजेक्ट है और महाराज पर्यटन मंत्री होने के नाते भी इस प्रोजेक्ट पर विशेष रुचि दिखा रहे थे और बार-बार प्रोजक्ट साइट पर जा कर कार्य की गुणवत्ता और प्रगति की समीक्षा कर रहे थे। इस समारोह से विभागीय मंत्री के नदारद रहने से सूर्यधार झील की गहराइयों में कई अटकलें गोते खाने लगी हैं। कुछ बुलबुलों की तरह तैर भी रही हैं। झील से बुलबुले की तरह एक स्वाभाविक अटकल यह भी है कि सतपाल महाराज शुरू से मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे हैं और काफी समय से कुर्सी खाली होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। झील में तैर रही एक अटकल का सम्बन्ध सतपाल महाराज की उस घोषणा से जोड़ा जा रहा है जिसमें उन्होंने सूर्यधार प्रोजेक्ट से सम्बन्धित विवादों की जांच की बात कही थी। सूर्यधार झील की लहरें एक बार फिर उस पत्रकार के मन को अशांत करने लगी हैं जो कि काफी समय से त्रिवेन्द्र जी के पीछे हाथ धो कर पड़ा था। बहरहाल आज के उद्घाटन कार्यक्रम से इतना तो लगभग साफ होने लगा है कि त्रिवेन्द्र सरकार में कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है जहां विभागीय मंत्रियों को कानों कान खबर नहीं हो रही है और मुख्यमंत्री उनके विभाग में बड़े-बडे फैसले कर रहे हैं। सामूहिक जिम्मेदारी का सिद्धान्त भी सूर्यधार की झील में डूब गया है। हरक सिंह के बाद सतपाल महाराज और फिर किसकी बारी आयेगी? इसके लिये नयी अटकलों की जमीन भी तैयार हो गयी है। इधर बात यहां तक पहुंचने लगी है कि क्या त्रिवेन्द्र रावत बिना सतपाल महाराज और हरक सिंह आदि के अकेले ही भाजपा की नय्या 2022 के चुनाव में पार लगाने की सोच कर अभियान में जुट गये हैं।
Thursday, November 19, 2020
बद्रीनाथ की ज़मीन उत्तर प्रदेश के हवाले
भू माफियाओं के हाथ की कठपुतली बनी उत्तराखण्ड सरकार- गरिमा महरा दसौनी
उत्तराखण्ड कांगे्रस की नेत्री श्रीमती गरिमा महरा दसौनी ने त्रिवेन्द्र सरकार पर उत्तराखण्ड की भोलीभाली जनता को ठगने का आरोप लगाया है। श्रीमती दसौनी ने कहा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पिछले दिनों बद्रीनाथ केदारनाथ आये थे और इसी दौरान उत्तराखण्ड सरकार ने जनता की आंखों में धूल झोंकते हुए बद्रीनाथ हैलीपैड़ के बगल में 20 नाली भूमि उत्तर प्रदेश के पर्यटन गृह के निर्माण हेतु दे दी। हद तो तब हो गई जब इस पर्यटन गृह के शीलान्यास के दौरान मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि दोनों राज्यों के बीच परिसम्पत्तियों के सारे विवाद निपटा लिये गये हैं। हैरतअंगेज बात यह है कि उस दौरान मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत भी वहाॅ मौजूद थ,े योगी आदित्यनाथ के इतने बड़े झूठ पर भी वह मौन धारण कर आपत्ति तक दर्ज नही करा पाये। जबकि असलियत यह है कि उत्तर प्रदेश का उत्तराखण्ड के सिंचाई विभाग के 13 हजार हेक्टेयर से अधिक भूमि एवं 4 हजार से अधिक भवनों पर कब्जा है। हरिद्वार का कुंभ मेला क्षेत्र जहाॅ कावड़ मेला लगता है वहाॅ की 697.05 हेक्टेयर मेला भूमि पर उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग का कब्जा है जिसे लौटाने पर उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग साफ इंकार कर चुका है। उत्तराखण्ड की आवास-विकास की भूमि को लौटाने के बजाय उत्तर प्रदेश खुद उस भूमि का मालिक बने रहना चाहता है। दसौनी ने कहा कि हरिद्वार का भीमगौड़ा बैराज, बनबसा का लोहिया हेड बैराज, कालागढ़ का रामगंगा बैराज अभी भी उत्तर प्रदेश के कब्जे में है। टिहरी डैम के जिस हिस्से का मालिक उत्तराखण्ड को होने चाहिए था उत्तर प्रदेश अभी भी उसका मालिक बना हुआ है और करीब 1 हजार करोड़ सालाना राजस्व ले रहा है। इतना ही नही 11 विभागों की भूमि, भवन तथा उत्तराखण्ड की सीमा के अन्दर कई अन्य परिसम्पत्तियों पर उत्तर प्रदेश का कब्जा है। इतना ही नही उत्तराखण्ड परिवहन विभाग की 7 सौ करोड़ की देनदारी उत्तर प्रदेश पर है जिस कारण उत्तराखण्ड परिवहन विभाग गर्त में जा चुका है और भारी कर्जे में है। आज अपने कर्मचारियोें की तन्खाह नही दे पा रहा है तथा अपनी सम्पत्तियां बेचने को मजबूर हो रहा है। दसौनी ने उत्तराखण्ड की त्रिवेन्द्र सरकार पर तीखा हमला बोलते हुए कहा कि सरकार के रवैये को देखते हुए लगता है कि उसने उत्तराखण्ड को भू माफियाआंे के तहत गिरवी रखने की कसम खाई है। पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा बाहरी लोगों के जमीन खरीद पर जो रोक लगाई गई थी उस कानून पर ़ित्रवेन्द्र सरकार ने सत्ता पर काबिज होते ही ढिलाई कर दी। सच्चाई यह है कि त्रिवेन्द्र सरकार ने भू कानून में संशोधन करके जमीन की खरीद फरोक्त पर लगी बंदीशें हटाकर पहाडियों की जमीन हडपने की खूली छूट दे दी है। यही नही धारा 143 के तहत कृषि भूमि का भू उपयोग को बदलने की जो बंदिशें थी उन्हें भी समाप्त कर दिया गया है। गैरसैंण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने के साथ ही हैलीपेड़ के नजदीक प्राईम लोकेरूशन पर 6 नाली स्वयं मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र रावत ने और 6 नाली राज्यमंत्री धनसिंह रावत ने खरीद ली। इससे साफ पता चलता है कि त्रिवेन्द्र सरकार का पूरा फोकस विकास पर ना होकर उत्तराखण्ड की भूमि पर है। गरिमा दसौनी ने राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि अपने कार्यकाल में ना सिर्फ उत्तराखण्ड सरकार ने भू माफियाओं को संरक्षण दिया है बल्कि सही मायने में कहा जाय तो सरकार उनके हाथों की कठपुली बन गई है।
Tuesday, November 17, 2020
बिहार चुनाव: नीतीश जीत कर हारे और तेजस्वी हार कर भी जीत गये
बिहार चुनाव: नीतीश जीत कर हारे और तेजस्वी हार कर भी जीत गये
-जयसिंह रावत
विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के प्रकोप के साये में असाधारण
प्ररिस्थितियों में हुये पहले विधानसभा चुनाव में बिहार की जनता ने राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को पुनः सत्ता सौंपने के साथ ही राज्य का राजनीतिक
वरीयताक्रम ही बदल दिया जिसमें अब भाजपा का दर्जा छोटे भाई की जगह बड़े भाई का और
नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड (जदयू) बड़े भाई से घट कर छोटा भाई हो गया। स्वयं
नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे मगर उधार और अनुकम्पा में मिली सत्ता की
कुर्सी उन्हें चुभती ही रहेगी। यही नहीं बिहार के इन चुनावों ने भले ही जीत का
सेहरा एनडीए को पहनाया हो मगर नीतीश कुमार जीत कर भी हार गये और राष्ट्रीय जनता दल
(राजद) के नेता तेजस्वी यादव हार कर भी जीत गये हैं। राजद के पराजित होने के बावजूद
सबसे बड़े दल का नेता होने के कारण तेजस्वी बिहार के सबसे चहेते नेता बन कर उभरे
हैं। भाजपा के लिये तो यह चुनाव दीपावली का तोहफा जैसा ही है। जिसमें मोदी जी की
महानायक की छवि बरकरार रही जो कि 2021 में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों
में भी काम आयेगी। बिहार चुनाव के रोमांच पर गौर करें तो राजद के तेजस्वी यादव
चुनाव हार कर भी जीत गये हैं। सबसे कम उम्र का यह नौजवान बिहार की राजनीति के फलक
पर नये नेता के रूप में उभर चुका है। सबसे बड़े दल के नेता के रूप में उभरने के साथ
ही उनके पास सबसे बड़ा जनादेश है। उनके पास सबसे अधिक 76 विधायकों का समर्थन होने के
साथ ही सर्वाधिक 23.11 प्रतिशत मत प्रतिशत का जनादेश भी है जबकि भाजपा को 19.32
प्रतिशत और जदयू को 15.42 ही मत प्रतिशत हासिल हुआ है। इस चुनावमें भाजपा का
मतप्रतिशत भी घटा है। तेजस्वी के लिये इस चुनाव में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी साबित
हुयी। अगर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती और कुछ और सीटें हासिल कर पाती तो चुनाव के
नतीजे कुछ और ही होते। वैसे भी देखा जाय तो कांग्रेस ने इस चुनाव को तेजस्वी के
भरोसे छोड़ दिया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने अत्यन्त व्यस्त शेड्यूल में
से 12 चुनाव रैलियों के लिये समय निकाला जबकि सोनिया गांधी बिहार गयी ही नहीं और
राहुल गांधी केवल 8 रैलियां ही कर सके। जबकि तेजस्वी ने अपनी कुल 247 रैलियों में
से 47 रैलियां कांग्रेस प्रत्याशियों और 8 रैलियां वामदलों के प्रत्याशियों के
समर्थन में कीं। जाहिर है कि तेजस्वी इस चुनाव में कांग्रेस का बोझा भी ढो रहे थे।
बिहार चुनाव के इन नतीजों ने नीतीश कुमार को बड़ा भाई से छोटा भाई बना दिया है।
भाजपा ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे में जदयू को अपने से एक अधिक 122 सीटें
देकर उसके बड़े भाई के दर्जे को स्वीकार कर लिया था। इन 122 सीटों में से जदयू केवल
43 सीटें ही जीत पाया। जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़
कर 71 सीटें जीतीं थी। इस प्रकार उसकी 28 सीटें कम हुयीं और मत प्रतिशत भी 1.44
प्रतिशत घट गया। जबकि सहयोगी भाजपा ने नीतीश से 1 कम 121 सीटों में से 73 पर जीत
दर्ज कर अपना 2015 का 53 सीटों का स्कोर भी सुधारा। इस रोमांचक मुकाबले में भाजपा
ही अन्त तक तेजस्वी से भिड़ी रही। इस तरह बिहार की जनता ने भले ही एनडीए को जिता
दिया हो मगर इस जीत में नीतीश कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं। यद्यपि बिहार भाजपा में
मुख्यमंत्री का राजमुकुट नीतीश को सरेण्डर किये जाने पर अन्दरखाने कसमसाहट अवश्य है
और अपनी अनिच्छा बिहार के नेता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रकट भी करते रहे हैं,
मगर मोदी जी सहित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व नीतीश को मुख्यमंत्री बने रहने का वचन
चुनाव से पहले ही दे चुका है, इसलिये नहीं लगता कि भाजपा अपने वादे से मुकर जायेगी।
लेकिन नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की वह कुर्सी सदैव चुभती रहेगी। इसीलिये यह
संभावना भी है कि वह मुख्यमंत्री का पद किसी अन्य को देने का आग्रह कर सकते हैं।
2015 के चुनाव में भी बड़े दल राजद ने अनुकम्पा के तौर पर कम सीटें मिलने पर भी
उन्हें यह कुर्सी सौंपी थी जो उन्हें बार-बार चुभन देती रही और अन्ततः उन्हें राजद
की अनुकम्पा से छुटकारा पाना पड़ा। मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को सौंपे जाने के
पीछे भाजपा की मजबूरी भी है। भाजपा नेता नीतीश कुमार के पलटूराम वाली छवि से अनविझ
नहीं हैं। अगर नीतीश को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता या बाद में हटा दिया जाता है
तो वह तेजस्वी के साथ दुबारा मिल कर आसानी से सरकार बना सकते हैं और राजनीति में
असंभव या स्थाई कुछ भी नहीं होता है। अगले साल अप्रैल या मई में असम, पश्चिम बंगाल,
केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडू की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें से असम में
भाजपा की सरकार चल रही है जिसे विपक्ष से बचाना भाजपा के लिये एक बड़ी चुनौती है,
क्योंकि एनआरसी के बाद वहां हालात बदले हुये हैं। लेकिन इससे भी कहीं बड़ा लक्ष्य
भाजपा के सामने पश्चिम बंगाल का है जिसे ममता बनर्जी से छीनने के लिये भाजपा ने
अपनी पूरी ताकत झौंकी हुयी है। चूंकि पश्चिम बंगाल भौगोलिक रूप से बिहार से जुड़ा
हुआ है इसलिये बिहार के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम का प्रभाव पश्चिम बंगाल पर भी पड़
सकता है। शिवसेना के बाद अकाली दल की किनाराकसी से एनडीए में जो बिखराव शुरू हुआ वह
इन चुनाव नतीजों के बाद रुक जायेगा और बहुत संभव है कि अकाली दल और पासवान की लोजपा
भी वापस एनडीए के फोल्ड में लौट जांय। बिहार चुनाव ने मीडिया और खासकर ओपीनियन पोल
और एक्जिट पोल कराने वालों की पोल भी खुल गयी है। उनकी विश्वसनीयता का भट्टा बैठ
गया है। मतदान से पहले ओपिनियन पोल वाली ज्यादातर ऐजेंसियां एनडीए की एकतरफा जीत की
भविष्यवाणियां कर रहीं थीं तो मतगणना से पहले एक्जिट पोल वाले तेजस्वी की एकतरफा
जीत बता रहे थे। चिन्ता का विषय यह कि इस गोरखधन्धे में कुछ मीडिया ग्रुप भी शामिल
थे जिन्होंने मीडिया की विश्वसनीयता को एक बार फिर कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया।
जयसिंह रावत ई-11,फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
Friday, November 13, 2020
Wednesday, November 11, 2020
बिहार चुनाव: छोटा भाई बड़ा और बड़ा भाई छोटा हो गया
बिहार चुनाव: छोटा भाई बड़ा और बड़ा भाई छोटा हो गया
जयसिंह रावत
Updated Wed, 11 Nov 2020 03:31 PM IST
स्वयं नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे मगर उधार और अनुकम्पा में मिली सत्ता की कुर्सी उन्हें चुभती ही रहेगी - फोटो : अमर उजाला
विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के प्रकोप के साए में असाधारण परिस्थितियों में हुए पहले विधानसभा चुनाव में बिहार की जनता ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को पुनः सत्ता सौंपने के साथ ही राज्य का राजनीतिक वरीयताक्रम ही बदल दिया, जिसमें अब भाजपा का दर्जा छोटे भाई की जगह बड़े भाई का और नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड (जदयू) बड़े भाई से घट कर छोटा भाई हो गया। स्वयं नीतीश कुमार भले ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे मगर उधार और अनुकम्पा में मिली सत्ता की कुर्सी उन्हें चुभती ही रहेगी। यही नहीं बिहार के इन चुनावों ने भले ही जीत का सेहरा एनडीए को पहनाया हो मगर नीतीश कुमार जीत कर भी हार गए और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता तेजस्वी यादव हार कर भी जीत गए हैं। राजद के पराजित होने के बावजूद सबसे बड़े दल का नेता होने के कारण तेजस्वी बिहार के सबसे चहेते नेता बन कर उभरे हैं। भाजपा के लिए तो यह चुनाव दीपावली का तोहफा जैसा ही है, जिसमें मोदी जी की महानायक की छवि बरकरार रही जो कि 2021 में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी काम आएगी।
आइपीएल से अधिक रोमांचक रहा बिहार चुनाव
नवंबर महीने की 10 तारीख को बिहार के 55 मतगणना केंद्रों में चली विधानसभा चुनावों की रोमांचकारी मतगणना ने दुबई में चल रहे आइपीएल के 20-20 मैच के रोमांच को भी फीका कर दिया। कोविड महामारी के चलते ईवीएम मशीनों से मतगणना की व्यवस्था शुरू होने के बाद पहली बार किसी मतगणना में इतना समय लगा। एनडीए और महागठबंधन में कांटे की टक्कर के चलते भी राजनीति का यह मैच इतना रोमांचक रहा कि अंत तक पासा कहीं भी पलट जाने की संभावना बनी रही। बहरहाल चुनाव नतीजे नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए के पक्ष में तो चले गए, मगर वोटों का विष्लेषण करें तो यह जीत नीतीश कुमार के सुशासन को नहीं बल्कि उनकी सरकार पर लगे केंद्र की मोदी सरकार के डबल इंजन की पावर को मिली है। जिसमें मोदी का पराक्रम और भाजपा की रणनीति का मुख्य योगदान रहा।
बड़ा छोटा हुआ और छोटा बड़ा हो गया
बिहार चुनाव के इन नतीजों ने नीतीश कुमार को बड़ा भाई से छोटा भाई बना दिया है। भाजपा ने चुनाव से पहले सीटों के बंटवारे में जदयू को अपने से एक अधिक 122 सीटें देकर उसके बड़े भाई के दर्जे को स्वीकार कर लिया था। इन 122 सीटों में से जदयू केवल 43 सीटें ही जीत पाया। जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़ कर 71 सीटें जीती थीं। इस प्रकार उसकी 28 सीटें कम हुईं और मत प्रतिशत भी 1.44 प्रतिशत घट गया। जबकि सहयोगी भाजपा ने नीतीश से 1 कम 121 सीटों में से 73 पर जीत दर्ज कर अपना 2015 का 53 सीटों का स्कोर भी सुधारा। इस रोमांचक मुकाबले में भाजपा ही अंत तक तेजस्वी से भिड़ी रही। इस तरह बिहार की जनता ने भले ही एनडीए को जिता दिया हो मगर इस जीत में नीतीश कहीं भी नजर नहीं आ रहे हैं।
अनुकंपा स्वरूप मिलेगी नीतीश को मुख्यमंत्री की कुर्सी
यद्यपि बिहार भाजपा में मुख्यमंत्री का राजमुकुट नीतीश को सरेंडर किए जाने पर अंदरखाने कसमसाहट अवश्य है और अपनी अनिच्छा बिहार के नेता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रकट भी करते रहे हैं, मगर मोदी जी सहित भाजपा का शीर्ष नेतृत्व नीतीश को मुख्यमंत्री बने रहने का वचन चुनाव से पहले ही दे चुका है, इसलिए नहीं लगता कि भाजपा अपने वादे से मुकर जाएगी। लेकिन नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की वह कुर्सी सदैव चुभती रहेगी। इसीलिए यह संभावना भी है कि वह मुख्यमंत्री का पद किसी अन्य को देने का आग्रह कर सकते हैं। 2015 के चुनाव में भी बड़े दल राजद ने अनुकंपा के तौर पर कम सीटें मिलने पर भी उन्हें यह कुर्सी सौंपी थी जो उन्हें बार-बार चुभन देती रही और अंतत; उन्हें राजद की अनुकंपा से छुटकारा पाना पड़ा। मुख्यमंत्री की कुर्सी नीतीश को सौंपे जाने के पीछे भाजपा की मजबूरी भी है।
भाजपा नेता नीतीश कुमार के पलटूराम वाली छवि से अनविझ नहीं हैं। अगर नीतीश को मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाता या बाद में हटा दिया जाता है तो वह तेजस्वी के साथ दुबारा मिल कर आसानी से सरकार बना सकते हैं और राजनीति में असंभव या स्थाई कुछ भी नहीं होता है।
इस चुनाव में भाजपा का मतप्रतिशत भी घटा है...
तेजस्वी चुनाव हार कर भी जीत गए
बिहार चुनाव के रोमांच पर गौर करें तो राजद के तेजस्वी यादव चुनाव हार कर भी जीत गए हैं। सबसे कम उम्र का यह नौजवान बिहार की राजनीति के फलक पर नए नेता के रूप में उभर चुका है। सबसे बड़े दल के नेता के रूप में उभरने के साथ ही उनके पास सबसे बड़ा जनादेश है। उनके पास सबसे अधिक 76 विधायकों का समर्थन होने के साथ ही सर्वाधिक 23.11 प्रतिशत मत प्रतिशत का जनादेश भी है जबकि भाजपा को 19.32 प्रतिशत और जदयू को 15.42 ही मत प्रतिशत हासिल हुआ है। इस चुनाव में भाजपा का मतप्रतिशत भी घटा है। तेजस्वी के लिए इस चुनाव में कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई। अगर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती और कुछ और सीटें हासिल कर पाती तो चुनाव के नतीजे कुछ और ही होते। वैसे भी देखा जाए तो कांग्रेस ने इस चुनाव को तेजस्वी के भरोसे छोड़ दिया था।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने अत्यंत व्यस्त शेड्यूल में से 12 चुनाव रैलियों के लिए समय निकाला जबकि सोनिया गांधी बिहार गई ही नहीं और राहुल गांधी केवल 8 रैलियां ही कर सके। जबकि तेजस्वी ने अपनी कुल 247 रैलियों में से 47 रैलियां कांग्रेस प्रत्याशियों और 8 रैलियां वामदलों के प्रत्याशियों के समर्थन में कीं। जाहिर है कि तेजस्वी इस चुनाव में कांग्रेस का बोझा भी ढो रहे थे।
अगले साल भाजपा के काम आएंगे ये चुनाव नतीजे
अगले साल अप्रैल या मई में असम, पश्चिम बंगाल, केरल, पुडुचेरी और तमिलनाडू की विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। इनमें से असम में भाजपा की सरकार चल रही है जिसे विपक्ष से बचाना भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि एनआरसी के बाद वहां हालात बदले हुए हैं। लेकिन इससे भी कहीं बड़ा लक्ष्य भाजपा के सामने पश्चिम बंगाल का है जिसे ममता बनर्जी से छीनने के लिए भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झौंकी हुई हैं। चूंकि पश्चिम बंगाल भौगोलिक रूप से बिहार से जुड़ा हुआ है इसलिए बिहार के ताजा राजनीतिक घटनाक्रम का प्रभाव पश्चिम बंगाल पर भी पड़ सकता है। इन विधानसभा चुनावों में बिहार से मिली ऊर्जा भाजपा के काम आएगी जबकि विपक्ष को अपना मनोबल उठाने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।
एनडीए एकजुट रहेगा
बिहार चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया कि अब भी नरेंद्र मोदी की छत्रछाया ही जीत की सबसे बड़ी गारंटी है। इसलिए शिवसेना के बाद अकाली दल की किनाराकसी से एनडीए में जो बिखराव शुरू हुआ वह फिलहाल रुक जाएगा और बहुत संभव है कि अकाली दल और पासवान की लोजपा वापस एनडीए के फोल्ड में लौट जाएं।
ओपिनियन और एक्जिट पोल की पोल खुली
बिहार चुनाव ने मीडिया और खासकर ओपीनियन पोल और एक्जिट पोल कराने वालों की पोल भी खुल गई है। उनकी विश्वसनीयता का भट्टा बैठ गया है। मतदान से पहले ओपिनियन पोल वाली ज्यादातर ऐजेंसियां एनडीए की एकतरफा जीत की भविष्यवाणियां कर रहीं थीं तो मतगणना से पहले एक्जिट पोल वाले तेजस्वी की एकतरफा जीत बता रहे थे। चिंता का विषय यह कि इस गोरखधंधे में कुछ मीडिया ग्रुप भी शामिल थे जिन्होंने मीडिया की विश्वसनीयता को एक बार फिर कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया।
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