बापू की डायरी और गंगा की चिंताः आखिर क्या सोचते थे गांधी भारत की सबसे बड़ी नदी को दूषित होता देख
मोहनदास कर्मचन्द गांधी 1915 में कुम्भ के अवसर पर हरिद्वार पहुंचे तो उन्होंने पतित पावनी गंगा का जो हाल देखा उससे उनको बड़ा कष्ट हुआ। - फोटो : अमर उजाला
गंगा में हजारों करोड़ डुबो कर भी मैल नहीं गया
राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में करोड़ों सनातन धर्मावम्बियों की आस्था की प्रतीक गंगा की सफाई का बीड़ा उठाते हुए 1986 में गंगा एक्शन प्लान शुरू किया जिस पर वर्ष 2014 तक लगभग 4 हजार करोड़ खर्च हुए। गंगा नदी के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक महत्व को देखते हुये 2014 में मैडिसन स्क्वायर गार्डन, न्यूयार्क में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, “अगर हम इसे साफ करने में सक्षम हो गए तो यह देश की 40 फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी। अतः गंगा की सफाई एक आर्थिक एजेंडा भी है”। प्रधानमंत्री मोदी के लिए गंगा की पवित्रता बहाल करना उनका सपना ही नहीं बल्कि संकल्प भी है। इसलिये भारत सरकार ने गंगा नदी के संरक्षण हेतु मई, 2015 में नमामि गंगे कार्यक्रम अनुमोदित किया था, जिसका कुल परिव्यय 20,000 करोड़ रुपए था जिसे बढ़ा कर 22238.49 करोड़ और फिर 25,000 करोड़़ कर दिया गया मगर ज्यों-ज्यों लक्षित समयावधि नजदीक आती है त्यों-त्यों लक्ष्य दूर होता जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 तक गंगा की सफाई का लक्ष्य निधारित किया था जिसे अब 2020 तक बढ़ा दिया गया है। यह लक्ष्य भी इस समयावधि तक भी पकड़ में आता नजर नहीं आ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार नमामि गंगे के कुल बजट में से 5979 करोड़ गत फरवरी तक खर्च हो चुके थे, मगर इसके लिये 5 राज्यों में जिन 261 परियोजनाओं की शुरुआत की गई थी उनमें से केवल 76 ही इस साल फरबरी तक पूरे हो सके थे। तमाम सरकारी एवं गैर सरकारी रिपोर्टें गवाह हैं कि गंगा और उसके तटीय क्षेत्रों का भूजल लगातार जहरीला होता जा रहा है।
राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में करोड़ों सनातन धर्मावम्बियों की आस्था की प्रतीक गंगा की सफाई का बीड़ा उठाते हुए 1986 में गंगा एक्शन प्लान शुरू किया जिस पर वर्ष 2014 तक लगभग 4 हजार करोड़ खर्च हुए। गंगा नदी के सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और आर्थिक महत्व को देखते हुये 2014 में मैडिसन स्क्वायर गार्डन, न्यूयार्क में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, “अगर हम इसे साफ करने में सक्षम हो गए तो यह देश की 40 फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी। अतः गंगा की सफाई एक आर्थिक एजेंडा भी है”। प्रधानमंत्री मोदी के लिए गंगा की पवित्रता बहाल करना उनका सपना ही नहीं बल्कि संकल्प भी है। इसलिये भारत सरकार ने गंगा नदी के संरक्षण हेतु मई, 2015 में नमामि गंगे कार्यक्रम अनुमोदित किया था, जिसका कुल परिव्यय 20,000 करोड़ रुपए था जिसे बढ़ा कर 22238.49 करोड़ और फिर 25,000 करोड़़ कर दिया गया मगर ज्यों-ज्यों लक्षित समयावधि नजदीक आती है त्यों-त्यों लक्ष्य दूर होता जाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 तक गंगा की सफाई का लक्ष्य निधारित किया था जिसे अब 2020 तक बढ़ा दिया गया है। यह लक्ष्य भी इस समयावधि तक भी पकड़ में आता नजर नहीं आ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार नमामि गंगे के कुल बजट में से 5979 करोड़ गत फरवरी तक खर्च हो चुके थे, मगर इसके लिये 5 राज्यों में जिन 261 परियोजनाओं की शुरुआत की गई थी उनमें से केवल 76 ही इस साल फरबरी तक पूरे हो सके थे। तमाम सरकारी एवं गैर सरकारी रिपोर्टें गवाह हैं कि गंगा और उसके तटीय क्षेत्रों का भूजल लगातार जहरीला होता जा रहा है।
5 अप्रैल
1915 को जब
गांधी जी हरिद्वार
पहुंचे तो उस
समय वहां कुम्भ
का मेला चल
रहा था। - फोटो : अमर उजाला
गांधी जी जब हरिद्वार पहुंचे
गांधीजी जब दक्षिण अफ्रीका से 1915 में पुनः भारत लौटे तो उनके परम मित्र चार्ली एंड्रोज, जो कि बाद में उनके शिष्य बन गये, ने उन्हें जिन तीन लोगों से मिलने की सलाह दी थी उनमें से एक गुरुकुल हरिद्वार के महान समाजसेवी मुन्शीराम भी थे। दो अन्य दर्शन योग्य महापुरुषों में रवीन्द्रनाथ टैगोर और शिक्षाविद् सुशील कुमार रुद्रा का नाम बताया गया था। इसी क्रम में वह पहले रबींद्रनाथ टैगोर से मिलने शांति निकेतन, कलकत्ता गये और फिर मुंशीराम से मिलने हरिद्वार चले आये। गांधीजी भले ही पाखण्ड और अन्धविश्वास से कोसों दूर अवश्य थे मगर उनके संस्कारों में एक कट्टर हिन्दू भी अवश्य था। इसलिये गंगा के प्रति अपार श्रद्धा उनको संस्कारों में मिली थी। 5 अप्रैल 1915 को जब वह हरिद्वार पहुंचे तो उस समय वहां कुम्भ का मेला चल रहा था।
भौतिक और नैतिक गंदगी से गांधी जी विचलित हुए
भौतिक और नैतिक गंदगी से गांधी जी विचलित हुए
इस तीर्थनगरी की भव्यता और आध्यात्मिकता से तो गांधी जी अभिभूत हुए ही लेकिन उन्होंने वहां भौतिक गंदगी के अलावा जो नैतिक गंदगी, पाखण्ड और अन्धविश्वास देखा उसका उल्लेख वह अपनी हस्तलिखित डायरी में अपने यात्रा वृतान्त में करना नहीं भूले। जो बातें गांधीजी ने लिखी हैं उन पर जब तक गौर नहीं किया जाता तब तक गंगा की सफाई का सपना पूरा नहीं हो सकता। गांधीजी ने डायरी में लिखा है कि ‘‘ऋषिकेश और लक्ष्मण झूले के प्राकृतिक दृष्य मुझे बहुत पसंद आए। परन्तु दूसरी ओर मनुष्य की कृति को वहां देख चित्त को शांति न हुई। हरिद्वार की तरह ऋषिकेश में भी लोग रास्तों को और गंगा के सुन्दर किनारों को गन्दा कर डालते थे। गंगा के पवित्र पानी को बिगाड़ते हुए उन्हें कुछ संकोच न होता था। दिशा-जंगल जाने वाले आम जगह और रास्तों पर ही बैठ जाते थे, यह देख कर मेरे चित्त को बड़ी चोट पहुंची। सवाल केवल हरिद्वार में गंदगी का नहीं है।
काशी में पाखण्ड और गंदगी ने भी गांधी जी को झकझोरा
काशी में पाखण्ड और गंदगी ने भी गांधी जी को झकझोरा
गोपाल कृष्ण गोखले की देश भ्रमण की सलाह पर गांधी जी 21-22 फरबरी 1902 को कलकत्ता से राजकोट को रवाना हुए तो रास्ते में काशी, आगरा, जयपुर और पालनपुर में भी एक-एक दिन रुके। उन पर काशी की गंदगी और भिक्षुकांओ का अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। यहां के बारे में भी उन्होंने अपने यात्रा विवरण में इस तरह उल्लेख किया था। सुबह मैं काशी उतरा। मैं किसी पण्डे के यहां उतरना चाहता था। कई ब्राह्मणों ने मुझे घेर लिया। उनमें से जो साफ सुथरा दिखाई दिया मैंने उसके घर जाना पसन्द किया। मैं यथा विधि गंगा स्नान करना चाहता था और तब तक निराहार रहना था। पण्डे ने सारी तैयारी कर रखी थी। मैंने पहले ही कह रखा था कि सवा रुपये से अधिक दक्षिणा नहीं दे सकूंगा।
इसलिये उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के बात मान ली। बारह बजे तक पूजा स्नान से निवृत्त हो कर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया। पर वहां पर जो कुछ देखा मन को बड़ा दुख हुआ। मंदिर पर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजे के सामने सड़े हुए फूल पड़े हुए थे और उनमें से दुर्गधं निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्ध श्रद्धालु ने रुपए जड़ रखे थे; रुपए में मैल कचरा घुसा रहता है।" गांधीजी अपनी डायरी में एक जगह आगे लिखते हैं कि, मैं इसके बाद भी एक दो बार काशी विश्वनाथ गया, किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला जैसे के तैसे ही वहां देखे''।
इसलिये उसी योग्य तैयारी करना। पण्डे ने बिना किसी झगड़े के बात मान ली। बारह बजे तक पूजा स्नान से निवृत्त हो कर मैं काशी विश्वनाथ के दर्शन करने गया। पर वहां पर जो कुछ देखा मन को बड़ा दुख हुआ। मंदिर पर पहुंचते ही मैंने देखा कि दरवाजे के सामने सड़े हुए फूल पड़े हुए थे और उनमें से दुर्गधं निकल रही थी। अन्दर बढ़िया संगमरमरी फर्श था। उस पर किसी अन्ध श्रद्धालु ने रुपए जड़ रखे थे; रुपए में मैल कचरा घुसा रहता है।" गांधीजी अपनी डायरी में एक जगह आगे लिखते हैं कि, मैं इसके बाद भी एक दो बार काशी विश्वनाथ गया, किन्तु गन्दगी और हो-हल्ला जैसे के तैसे ही वहां देखे''।
महात्मा गांधी गंगा तट पर लोगों द्वारा मल-मूत्र त्याग से व्यथित थे। - फोटो : अमर उजाला
गांधी जी भौतिक और नैतिक मलिनता से बहुत दुखी हुए
हरिद्वार जैसे धर्मस्थलों पर भौतिक और नैतिक गंदगी के बारे में गांधी जी ने डायरी में लिखा था कि “निसंदेह यह सच है कि हरिद्वार और दूसरे प्रसिद्ध तीर्थस्थान एक समय वस्तुतः पवित्र थे। लेकिन मुझे कबूल करना पड़ता है कि हिन्दू धर्म के प्रति मेरे हृदय में गंभीर श्रद्धा और प्राचीन सभ्यता के लिये स्वाभाविक आदर होते हुये भी हरिद्वार में इच्छा रहने पर भी मनुष्यकृत ऐसी एक भी वस्तु नहीं देख सका, जो मुझे मुग्ध कर सकती। पहली बार जब 1915 में मैं हरद्वार गया था, तब भारत-सेवक संघ समिति के कप्तान पं. हृदयनाथ कुंजरू के अधीन एक स्वयंसेवक बन कर पहुंचा था। इस कारण मैं सहज ही बहुतेरी बातें आखों देख सका था। लेकिन जहां एक ओर गंगा की निर्मल धारा ने और हिमाचल के पवित्र पर्वत-शिखरों ने मुझे मोह लिया, वहां दूसरी ओर मनुष्य की करतूतों को देख मेरे हृदय को सख्त चोट पहुंची और हरद्वार की नैतिक तथा भौतिक मलिनता को देख कर मुझे अत्यंत दुख हुआ।
गंगा तट पर लोगों द्वारा मल-मूत्र त्याग से व्यथित थे गांधी जी
नदी किनारे खुले में शौच पर गांधी जी ने लिखा है कि इस बार की यात्रा में भी मैंने हरद्वार की इस दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं पाया। पहले की भांति आज भी धर्म के नाम पर गंगा की भव्य और निर्मल धार गंदली की जाती है। गंगा तट पर, जहां पर ईश्वर-दर्शन के लिए ध्यान लगा कर बैठना शोभा देता है, पाखाना-पेशाब करते हुए असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं। तमाम धर्म-शास्त्रों में नदियों की धारा, नदी-तट, आम सड़क और यातायात के दूसरे सब मार्गों को गंदा करने की मनाही है। विज्ञान शास्त्र हमें सिखाता है कि मनुष्य के मलमूत्रादि का नियमानुसार उपयोग करने से अच्छी से अच्छी खाद बनती है।
यह तो हुई प्रमाद और अज्ञान के कारण फैलने वाली गंदगी की बात। धर्म के नाम पर जो गंगा-जल बिगाड़ा जाता है, सो तो जुदा ही है। विधिवत् पूजा करने के लिए मैं हरद्वार में एक नियत स्थान पर ले जाया गया। जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गईं। जब मैंने इसका विरोध किया तो उत्तर मिला कि यह तो सनातन् से चली आयी एक प्रथा है। इसके सिवा मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदला पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है, जो कि एक बड़े से बड़ा अपराध है।
गंगा तट पर लोगों द्वारा मल-मूत्र त्याग से व्यथित थे गांधी जी
नदी किनारे खुले में शौच पर गांधी जी ने लिखा है कि इस बार की यात्रा में भी मैंने हरद्वार की इस दशा में कोई ज्यादा सुधार नहीं पाया। पहले की भांति आज भी धर्म के नाम पर गंगा की भव्य और निर्मल धार गंदली की जाती है। गंगा तट पर, जहां पर ईश्वर-दर्शन के लिए ध्यान लगा कर बैठना शोभा देता है, पाखाना-पेशाब करते हुए असंख्य स्त्री-पुरुष अपनी मूढ़ता और आरोग्य के तथा धर्म के नियमों को भंग करते हैं। तमाम धर्म-शास्त्रों में नदियों की धारा, नदी-तट, आम सड़क और यातायात के दूसरे सब मार्गों को गंदा करने की मनाही है। विज्ञान शास्त्र हमें सिखाता है कि मनुष्य के मलमूत्रादि का नियमानुसार उपयोग करने से अच्छी से अच्छी खाद बनती है।
यह तो हुई प्रमाद और अज्ञान के कारण फैलने वाली गंदगी की बात। धर्म के नाम पर जो गंगा-जल बिगाड़ा जाता है, सो तो जुदा ही है। विधिवत् पूजा करने के लिए मैं हरद्वार में एक नियत स्थान पर ले जाया गया। जिस पानी को लाखों लोग पवित्र समझ कर पीते हैं उसमें फूल, सूत, गुलाल, चावल, पंचामृत वगैरा चीजें डाली गईं। जब मैंने इसका विरोध किया तो उत्तर मिला कि यह तो सनातन् से चली आयी एक प्रथा है। इसके सिवा मैंने यह भी सुना कि शहर के गटरों का गंदला पानी भी नदी में ही बहा दिया जाता है, जो कि एक बड़े से बड़ा अपराध है।
गांधी जी जब 1915 के कुम्भ में हरिद्वार पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि वहां 17 लाख श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्र हुई थी।
नमामि गंगे की सफलता के लिये गांधी की सीख जरूरी
गांधी जी जब 1915 के कुम्भ में हरिद्वार पहुंचे तो उन्हें बताया गया कि वहां 17 लाख श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्र हुई थी। लेकिन अब तो करोड़ों लोग चैबीस घण्टों के अन्दर हरिद्वार या इलाहाबाद में स्नान कर रहे हैं। सरकारी आकड़ों के अनुसार 2010 में हरिद्वार के कुंभ मेले में और उसके बाद 2013 में इलाहाबाद के कुंभ मेले में भी मुख्य स्नान के दिन 24 घंटे में एक से डेढ़ करोड़ लोगों द्वारा गंगा और संगम किनारे डुबकी लगाई।
उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद कुंभ में 7 करोड़ तथा उत्तराखण्ड सरकार ने 9 करोड़ लोगों के जमा होने का दावा किया था। हर साल डेढ से दो करोड़ तक कांवड़िये गंगाजल भरने हरिद्वार आते हैं। इनके अलावा सालभर में एक के बाद एक स्नान पवों पर करोड़ों लोग गंगा तटों पर एकत्र होते हैं। अगर गांधीजी इन महाकुम्भों में भी मौजूद रहते तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उनकी डायरी में मां गंगा का क्या चित्रण होता! आज की तारीख में कोई भी प्रशासन एक साथ एक या डेढ करोड़ लोगों के बैठने के लिये हरिद्वार या इलाहाबाद में शौचालय नहीं बना सकता। गंगा की पवित्रता के लिये गांधीजी की चिन्ताओं पर गौर कर गंगा के किनारे भौतिक गंदगी के साथ ही नैतिक गंदगी और अन्धविश्वास की सफाई की जरूरत है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद कुंभ में 7 करोड़ तथा उत्तराखण्ड सरकार ने 9 करोड़ लोगों के जमा होने का दावा किया था। हर साल डेढ से दो करोड़ तक कांवड़िये गंगाजल भरने हरिद्वार आते हैं। इनके अलावा सालभर में एक के बाद एक स्नान पवों पर करोड़ों लोग गंगा तटों पर एकत्र होते हैं। अगर गांधीजी इन महाकुम्भों में भी मौजूद रहते तो आप कल्पना कर सकते हैं कि उनकी डायरी में मां गंगा का क्या चित्रण होता! आज की तारीख में कोई भी प्रशासन एक साथ एक या डेढ करोड़ लोगों के बैठने के लिये हरिद्वार या इलाहाबाद में शौचालय नहीं बना सकता। गंगा की पवित्रता के लिये गांधीजी की चिन्ताओं पर गौर कर गंगा के किनारे भौतिक गंदगी के साथ ही नैतिक गंदगी और अन्धविश्वास की सफाई की जरूरत है।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है।
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