दशकों के जनसंघर्षों के बाद भारतीय गणतंत्र के 27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आने वाला उत्तराखण्ड राज्य अपने जीवनकाल के 18 साल पूरे कर 19वें वर्ष में प्रवेश कर गया। इन 19 वर्षों में राजनीतिक नेताओं के लिये विधायकी की 70 सीटें और मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमण्डल के 12 पदों तथा मंत्रियों के ठाटबाट जैसे सकेड़ों पद श्रृजित हो गये। ऐसे-वैसे भी कैसे-कैसे हो गये। नेतागिरी के पेशे में लगे लोगों की आमदनी दिन दोगुनी और रात चैगुनी हो गयी। मगर जिन लोगों ने इस राज्य की मांग के लिये अपनी जानें कुर्बान कर दीं और जिन महिलाओं ने अपनी आबरू तक लुटवा ली उन्हें अब तक न्याय नहीं मिला। उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान हुये सरकारी दमन को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने राज्य प्रायोजित आतंकवाद बताया था। सीबीआइ ने मुजफ्फरनगर के जैसे काण्डों की जांच कर मामले अदालत में तो डाल दिये मगर एक भी बलात्कारी या हत्यारे को सजा नहीं हुयी। जिन लोगों ने दिल्ली पुलिस को आन्दोलनकारियों के हथियार ले कर दिल्ली आने की झूठी सूचना दी उनके चेहरे आज तक बेनकाब नहीं हो पाये। अगर दिल्ली पुलिस को उत्तराखण्ड के ही कुछ नेताओं द्वारा गुमराह नहीं किया जाता तो बहुत संभव था कि आन्दोलन के दौरान इतना सरकारी दमन नहीं होता।

मुजफ्फरनगर काण्ड कितना विभत्स था इसकी एक बानगी राष्ट्रीय महिला आयोग की रिपोर्ट की इस समरी से मिल जाती हैः-
‘‘कई महिलाओं के साथ उनके बच्चे और युवा लड़कियां भी थीं। ये महिलाऐं रैली में भाग लेने के साथ दिल्ली में लाल किला जैसी दर्शनीय जगहें देखने भी गयीं थी। उन्होंने बताया कि उस रात पुलिसकर्मियों ने गन्ने के खेतों तथा पेड़ों पर पोजिशन ले रखी थी। हमने देहरादून में कुछ महिलाओं की टांगों पर पुलिस के डण्डों के प्रहार से हुये नीले निशान भी देखे। वास्तव में उनमें से एक महिला की जांघ के ज्वाइंट पर गंभीर चोट लगी थी। एक गवाह ने हमें मुजफ्फरनगर में पुलिस द्वारा हाथापाई के दौरान फाड़े गये अपने वस्त्र भी दिखाये। देहरादून में एक महिला ने हमें असाधारण रूप से सूजे हुये अपने स्तन दिखाये जिन पर पुलिसकर्मियों की दरिन्दगी (मोलेस्टेशन) के नीले निशान घटना के एक सप्ताह बाद भी साफ नजर आ रहे थे। उस महिला ने बताया कि एक सप्ताह से इलाज कराने के बाद भी उसकी चोटें अब भी दुख रही हैं। गोपेश्वर में एक महिला ने हमें बताया कि उसने 2 अक्टूबर प्रातः लगभग 9.30 बजे एक महिला को मुजफ्फरनगर अस्पताल में निर्वस्त्र ठिठुरते हुये देखा जो कि अपने हाथों से अपनी लाज ढकने का प्रयास कर रही थी। पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि कुछ महिलाएं उस रात पेटीकोट में ही बदहवास भाग रहीं थीं। अधिकांश महिलाओं ने बताया कि पुलिसकर्मियों ने उनके ब्लाउज के अंदर हाथ डाले, उनसे हाथापाई की, उनके सोने के आभूषण और नकदी छीन ली। संक्षेप में कहा जाय तो उस रात ने पुलिस का सबसे गंदा आचरण देखा। महिलाओं को संभालने के लिये वहां महिला पुलिस तो थी नहीं और पुरुष पुलिसकर्मी बेकाबू हो कर पहिलाओं की लज्जाभंग, लूटपाट, उनसे मारपीट, गाली गलौच और दुष्कर्म पर उतर आये। प्रत्यक्षदर्शियों और सामाजसेवियों ने इस घटना पर दुख प्रकट करते हुये कहा कि यह सब उस दिन हुआ जिस दिन अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी का जन्मदिन था।’’
केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) द्वारा आदालत में दाखिल की गयी दूसरी रिपोर्ट के पृष्ठ 2 और 3 में दिये गये विवरण एवं उत्तर प्रदेश सरकार के एडवोकेट द्वारा हाइकोर्ट में जमा रिपोर्टों के अनुसार 18 अगस्त 1994 से लेकर 9 दिसम्बर 1994 तक गढ़वाल और कुमाऊं में उत्तर प्रदेश सरकार की आरक्षण नीति के खिलाफ एवं पृथक राज्य की मांग को लेकर चले आन्दोलन में बड़ी संख्या में आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया। इस दौरान चमोली, टिहरी गढ़वाल, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, देहरादून, नैनीताल, पिथौरागढ़ एवं पौड़ी गढ़वाल जिलों में कुल 20,522 गिरफ्तारियां की गयीं जिनमें से 19,143 लोगों को उसी दिन रिहा कर दिया गया जबकि 1,379 को जेलों में भेजा गया। इनमें से भी 398 लोगों को पहाड़ों से बहुत दूर बरेली, गोरखपुर, आजमगढ़, फतेहगढ़, मैनपुरी, जालौन, बांदा, गाजीपुर बलिया और उन्नाव की जेलों में भेजा गया।

उत्तराखण्ड पुलिस के मुख्यालय में पुनर्नियुक्ति दी गयी।
खटीमा और मसूरी गोलीकाण्डों के बाद अगर दिल्ली पुलिस को आन्दोलनकारियों के हथियार ले कर दिल्ली रैली में भाग लेने की गलत सूचना नहीं दी जाती तो मुजफ्फरनगर काण्ड नहीं होता। दिल्ली पुलिस को ऐसी खतरनाक सूचना देने वाले का चेहरा आज तक बेनकाब नहीं हो सका। दिल्ली पुलिस के तत्कालीन उपायुक्त दीपचन्द की आन्दोलनकारी नेता दिवाकर भट्ट को 30 सितम्बर 1994 को लिखी गई चिðी का रहस्य आज तक नहीं खुला। इस चिðी में कहा गया था कि गढ़वाल के सांसद मेजर जनरल (सेनि) भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने पूर्व सैनिकों से बावर्दी दिल्ली रैली में भाग लेने की अपील की थी। चिðी में हथियार लेकर आन्दोलनकारियों के पहुंचने की संभावना व्यक्त की गयी थी। लेकिन बाद मंे स्वयं तत्कालीन गृहमंत्री एस बी चह्वाण ने न केवल खण्डूड़ी को क्लीन चिट दे दी बल्कि उन पर गलत आरोप के लिये खेद भी प्रकट किया। इस चिðी से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि दिल्ली पुलिस को मिली गलत सूचना की जानकारी कम से कम दिवाकर भट्ट को तो थी ही लेकिन उन्होंने अगर चिðी के जवाब में सही जानकारी नहीं दी। आन्दोलन के स्वयंभू फील्ड मार्शल दिवाकर भट्ट का मुजफ्फरनगर काण्ड के बाद लम्बे समय तक गायब रहना भी किसी की समझ में नहीं आया। कुमाऊं मण्डल के आन्दोलनकारी रामपुर, मुरादाबाद एवं गाजियाबाद होते हुये बेरोकटोक सकुशल दिल्ली पहुंच गये थे तो फिर गढ़वाल से आने वाले आन्दोलनकारियों को ही क्यों बंदूक की नोकों पर रोका गया और उनका नरसंहार और बलात्कार किया गया, यह रहस्य भी आज तक नहीं खुला।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून
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