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Five out of 8 Ex Chief Ministers of Uttarakhand from left to right Ramesh pPokhariyal Nishan, Vijay Bahuguan, Bhagat Singh Koshyari, Harish Rawat and Bhuvan Chandra Khanduri. |
उत्तराखण्ड राज्य तो मिला मगर न्याय नहीं मिला
-जयसिंह रावत
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Author and Journalist Jay Singh Rawat whose book on this subject is
under publication |
दशकों के जनसंघर्षों
के बाद भारतीय
गणतंत्र के 27वें
राज्य के रूप
में अस्तित्व में
आने वाला उत्तराखण्ड राज्य अपने
जीवनकाल के 18 साल पूरे
कर 19वें वर्ष
में प्रवेश कर
गया। इन 19 वर्षों
में राजनीतिक नेताओं
के लिये विधायकी
की 70 सीटें और
मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमण्डल
के 12 पदों तथा
मंत्रियों के ठाटबाट
जैसे सकेड़ों पद
श्रृजित हो गये।
ऐसे-वैसे भी
कैसे-कैसे हो
गये। नेतागिरी के
पेशे में लगे
लोगों की आमदनी
दिन दोगुनी और
रात चैगुनी हो
गयी। मगर जिन
लोगों ने इस
राज्य की मांग
के लिये अपनी
जानें कुर्बान कर
दीं और जिन
महिलाओं ने अपनी
आबरू तक लुटवा
ली उन्हें अब
तक न्याय नहीं
मिला। उत्तराखण्ड आन्दोलन
के दौरान हुये
सरकारी दमन को
इलाहाबाद हाइकोर्ट ने राज्य
प्रायोजित आतंकवाद बताया था।
सीबीआइ ने मुजफ्फरनगर
के जैसे काण्डों
की जांच कर
मामले अदालत में
तो डाल दिये
मगर एक भी
बलात्कारी या हत्यारे
को सजा नहीं
हुयी। जिन लोगों
ने दिल्ली पुलिस
को आन्दोलनकारियों के
हथियार ले कर
दिल्ली आने की
झूठी सूचना दी
उनके चेहरे आज
तक बेनकाब नहीं
हो पाये। अगर
दिल्ली पुलिस को उत्तराखण्ड
के ही कुछ
नेताओं द्वारा गुमराह नहीं
किया जाता तो
बहुत संभव था
कि आन्दोलन के
दौरान इतना सरकारी
दमन नहीं होता।
सीबीआइ की पहली
रिपोर्ट के पृष्ठ
22 से लेकर 27 तक
में बलात्कार एवं
लज्जाभंग और छेड़छाड़
का विवरण दिया
गया है। इसके
समर्थन में संलग्नक
भी दिये गये
हैं। प्रथम रिपोर्ट
के साथ लगे
संलग्नक 6 भागों में तथा
391 पृष्ठों में हैं।
इसके भाग तीन
में गवाहों के
बयान दर्ज हैं।
रिपोर्ट के अनुसार
2 अक्टूबर 1994 की प्रातः
लगभग 5.30 बजे देहरादून
और आसपास के
इलाकों से आई
53 से अधिक बसें
रामपुर तिराहे पर पहुंची
और उनमें सवार
आन्दोलनकारी पिछली रात्रि से
वहां पर रोके
गये लगभग 2000 रैलीवालों
से आकर मिल
गये। अधिकारियों के
बयानों के अनुसार
इन बसों को
भी तलाशी के
लिये रोक दिया
गया था। पहाड़
से आयी बसों
से यात्रा कर
रहीं 17 आन्दोलनकारी महिलाओं ने
आरोप लगाया कि
उस रात पुलिसकर्मियों
ने लाठी चार्ज
करने के बाद
उनसे छेड़छाड़ की
और बड़ी संख्या
में आन्दोलनकारियों को
गिरफ्तार कर लिया।
लाठीचार्ज के बाद
रैली वाले इधर-उधर तितर
वितर हो गये
थे। कुछ महिलाओं
ने बताया कि
कुछ पुलिसकर्मियों ने
बसों में चढ़
कर महिलाओं से
छेड़छाड़ की। कुछ
ने कहा कि
उनके साथ पुलिसकर्मियों
द्वारा बलात्कार किया गया।
इनमें से 3 महिलाओं
ने कहा कि
उनके साथ बसों
के अन्दर ही
बलात्कार किया गया,
जबकि 4 अन्य का
आरोप था कि
उन्हें बसों से
खींच कर नजदीक
गन्ने के खेतों
में ले जाया
गया और वहां
बलात्कार किया गया।
ये सारी वारदातें
मध्य रात्रि 12 बजे
से लेकर 2 अक्टूवर
सुबह 3 बजे के
बीच हुयीं। महिलाओं
ने पुलिसकर्मियों पर
उनके हाथों की
घड़ियां, गले की
सोने की चेन
और नकदी लूटने
का आरोप भी
लगाया।
मुजफ्फरनगर
काण्ड कितना विभत्स
था इसकी एक
बानगी राष्ट्रीय महिला
आयोग की रिपोर्ट
की इस समरी
से मिल जाती
हैः-
‘‘कई महिलाओं
के साथ उनके
बच्चे और युवा
लड़कियां भी थीं।
ये महिलाऐं रैली
में भाग लेने
के साथ दिल्ली
में लाल किला
जैसी दर्शनीय जगहें
देखने भी गयीं
थी। उन्होंने बताया
कि उस रात
पुलिसकर्मियों ने गन्ने
के खेतों तथा
पेड़ों पर पोजिशन
ले रखी थी।
हमने देहरादून में
कुछ महिलाओं की
टांगों पर पुलिस
के डण्डों के
प्रहार से हुये
नीले निशान भी
देखे। वास्तव में
उनमें से एक
महिला की जांघ
के ज्वाइंट पर
गंभीर चोट लगी
थी। एक गवाह
ने हमें मुजफ्फरनगर
में पुलिस द्वारा
हाथापाई के दौरान
फाड़े गये अपने
वस्त्र भी दिखाये।
देहरादून में एक
महिला ने हमें
असाधारण रूप से
सूजे हुये अपने
स्तन दिखाये जिन
पर पुलिसकर्मियों की
दरिन्दगी (मोलेस्टेशन) के नीले
निशान घटना के
एक सप्ताह बाद
भी साफ नजर
आ रहे थे।
उस महिला ने
बताया कि एक
सप्ताह से इलाज
कराने के बाद
भी उसकी चोटें
अब भी दुख
रही हैं। गोपेश्वर
में एक महिला
ने हमें बताया
कि उसने 2 अक्टूबर
प्रातः लगभग 9.30 बजे एक
महिला को मुजफ्फरनगर
अस्पताल में निर्वस्त्र
ठिठुरते हुये देखा
जो कि अपने
हाथों से अपनी
लाज ढकने का
प्रयास कर रही
थी। पहले ही
उल्लेख किया जा
चुका है कि
कुछ महिलाएं उस
रात पेटीकोट में
ही बदहवास भाग
रहीं थीं। अधिकांश
महिलाओं ने बताया
कि पुलिसकर्मियों ने
उनके ब्लाउज के
अंदर हाथ डाले,
उनसे हाथापाई की,
उनके सोने के
आभूषण और नकदी
छीन ली। संक्षेप
में कहा जाय
तो उस रात
ने पुलिस का
सबसे गंदा आचरण
देखा। महिलाओं को
संभालने के लिये
वहां महिला पुलिस
तो थी नहीं
और पुरुष पुलिसकर्मी
बेकाबू हो कर
पहिलाओं की लज्जाभंग,
लूटपाट, उनसे मारपीट,
गाली गलौच और
दुष्कर्म पर उतर
आये। प्रत्यक्षदर्शियों और
सामाजसेवियों ने इस
घटना पर दुख
प्रकट करते हुये
कहा कि यह
सब उस दिन
हुआ जिस दिन
अहिंसा के प्रतीक
महात्मा गांधी का जन्मदिन
था।’’
सीबीआइ को दिये
गये अधिकारियों के
बयानों के अनुसार
इन बसों को
भी तलाशी के
लिये रोक दिया
गया था और
जब उन्हें तलाशी
देने को कहा
गया तो उन्होंने
इंकार करने के
साथ ही वे
उग्र भी हो
गये। अधिकारियों के
बयानों के अनुसार
इस ग्रुप ने
उग्र रूप धारण
कर पुलिस पर
ईंट और पत्थर
बरसाने शुरू कर
दिये । बार-बार चेतावनी
देने पर भी
जब वे नहीं
माने तो पुलिस
को लाठीचार्ज और
आंसू गैस का
इस्तेमाल करना पड़ा।
जब इसके बाद
भी पथराव और
ईंट बरसाने बंद
नहीं हुये तो
पुलिस को रबर
की गोलियां चलानी
पड़ी। मुजफ्फरनगर जिले
में पहले ही
9 सितम्बर 1994 से लेकर
8 अक्टूबर 1994 तक धारा
144 के तहत निषेधाज्ञा
लागू थी, इसलिये
बिना अनुमति के
5 से अधिक व्यक्तियों
का एक स्थान
पर एकत्र होना
और आग्नेयास्त्र तथा
अन्य हथियार लेकर
चलना प्रतिबंधित था।
जिला प्रशासन के
रिकार्ड के अनुसार
इस घटना में
एक हेड कांस्टेबल
और 5 कांस्टेबलों द्वारा
थ्रीनाॅट थ्री (.303) रायफलों से
24 राउण्ड फायर किये
गये।
लेकिन जांच के
दौरान सीबीआइ को
अपने बयान में
छोटे रैंक के
6 पुलिसकर्मियों ने बताया
कि उन्होंने रैली
वालों पर कोई
फायरिंग नहीं की
मगर उच्च अधिकारियों
ने उन पर
रैली वालों पर
गोलियां चलाने की बात
स्वीकार करने के
लिये दबाव डाला।
इन पुलिस कर्मियों
में हेड कांस्टेबल
नं0-158 सीपी सतीश
चन्द्र, नं0-715 सीपी चमन
त्यागी, एवं कांस्टेबल
महाराज सिंह शामिल
थे। एक कांस्टेबल
नं0-90 एपी सुभाष
चन्द्र ने सीबीआइ
को बताया कि
उसे तो आटोमेटिक
हथियार चलाना भी नहीं
आता है। वह
सीओ मण्डी जगदीश
सिंह के साथ
सिक्यौरिटी ड्यूटी पर था
और डीएसपी जगदीश
सिंह ने ही
उसकी स्टेनगन से
फायरिंग की थी।
फायरिंग में 5 लोग मारे
गये थे और
23 अन्य घायल हो
गये थे। कांस्टेबल
सुभाष चन्द्र ने
आगे बताया कि
मुजफ्फरनगर के एस.पी राजेन्द्र
पाल सिंह ने
एक कांस्टेबल से
रायफल छीन कर
फायरिंग की। उसने
डीएसपी गीता प्रसाद
नैनवाल एवं एडिशनल
एस.पी के
गनर को आटोमेटिक
हथियार से भीड़
पर फायरिंग करते
देखा।
पूछताछ के दौरान
मुजफ्फरनगर पुलिस के रिकार्ड
की जांच के
दौरान मूल अभिलेखों
की सीबीआइ द्वारा
जांच की गयी।
जांच के दौरान
पाया गया कि
जिला पुलिस की
जनरल डायरी इश्यू
रजिस्टर में ओवर
राइटिंग की गयी
थी। पुलिस सटेशनों
को जारी जनरल
डायरी संख्या 7 को
बदल दिया गया
था। मुजफ्फरनगर पुलिस
लाइन की जनरल
डायरी का पेज
संख्या 479571 गायब मिला।
डुप्लीकेट जनरल डायरी
के 200 पृष्ठों में से
केवल 199 पृष्ठ ही डायरी
में पाये गये।
रामपुर तिराहे पर महिला
पुलिस की तैनाती
के सम्बन्ध में
नयी मण्डी थाने
की जनरल डायरी
में ओवर राइटिंग
मिली। 3 अक्टूवर 1994 को जिला
कण्ट्रोल रूम
में दर्ज संदेश
में कहा गया
था कि सभी
जनरल डायरियां एस.पी मुजफ्फरनगर
के गोपन कार्यालय
को तत्काल भेज
दी जांय। जांच
में पुलिस अधीक्षक
राजेन्द्र पाल सिंह
के रीडर सब
इंस्पेक्टर इन्दुभूषण नौटियाल द्वारा
आरोपियों को बचाने
के लिये रिकार्ड
में हेराफेरी किये
जाने की बात
भी सामने आयी।
उच्च न्यायालय के दिनांक
12 जनवरी 1994 के आदेशानुसार
सीबीआइ ने मसूरी
गोलीकाण्ड मामले की जांच
अपने हाथ में
ली। रिपोर्ट के
अनुसार2 सितम्बर की प्रातः
मसूरी के नये
थाना प्रभारी ने
झूलाघर के हाॅल
से 5 आन्दोलनकारियों को
गिरफ्तार कर उन्हें
वहां से हटा
दिया था जिस
कारण आन्दालनकारी भड़क
गये और आन्दोलन
और उग्र हो
गया। इस पर
43 लोगों को गिरफ्तार
किया गया। इसके
विरोध में मसूरी
के महिला, पुरुष
और बच्चे बड़ी
संख्या में झूलाघर
आ पहुंचे और
नारेबाजी करने लगे।
पत्थरबाजी के बाद
वहां तैनात पुलिस
ने भीड़ पर
लाठीचार्ज करने के
साथ ही आंसू
गैस का भी
प्रयोग किया। महिलाओं की
अगुवायी में भीड़
हाॅल के अंदर
घुसी और वहां
कैंप कर रहे
पीएसी के जवानों
का सामान तथा
उनके हथियार एवं
एम्युनिशन बाहर फेंकने
लगे। उस वक्त
पुलिस उपाधीक्षक उमाकांन्त
त्रिपाठी हाॅल में
मौजूद थे। उनके
दाहिने हाथ पर
चोट लगी थी।
इस फायरिंग में
2 महिलाओं समेत 6 लोगों की
मौत हो गयी।
मृतक महिलाओं में
श्रीमती हंसा धनाई
और श्रीमती बेलमती
चैहान शामिल थीं।
उपाधीक्षक उमाकांत त्रिपाठी जो
कि घायलों के
साथ इलाज के
लिये सेंट मैरी
अस्पताल गये थे,
की मौत अस्पताल
के बाहर हो
गयी। जांच के
दौरान यह बात
भी सामने आयी
कि इस कार्यवाही
के दौरान पुलिस
ने आन्दोलनकारियों का
कुछ सामान भी
जब्त कर दिया
था जिसमें एक
दानपात्र भी था
जिसे मसूरी थाने
के मालखाने में
जमा कर दिया
गया। इस घटना
में 48 आन्दोलनकारी गिरफ्तार किये
गये जिन्हें बरेली
जेल भेज दिया
गया। ये आन्दोलनकारी
6-9- 1994 को रिहा किये
गये।
खटीमा काण्ड के बारे
में सीबीआइ रिपोर्ट
में कहा गया
है कि इस
केस में 3 लोगों
के मारे जाने
और 4 के लापता
होने के इस
मामले को सीबीआइ
द्वारा राज्य पुलिस से
जांच के लिये
लिया गया। जिन
3 लोगों के फायरिंग
में मारे जाने
की बात पुलिस
ने स्वीकारी उनके
शव का खटीमा
से 10-15 किमी दूर
मझोला में 4 स्थानीय
गवाहों के समक्ष
अंतिम संस्कार किया
गया। मृतकों के
परिजनों ने दावा
किया कि पीलीभीत
में जहां शवों
के पोस्टमार्टम हुये
वहां पुलिस से
शव मांगे गये
मगर पुलिस ने
उन्हें शव नहीं
दिये। सीबीआइ की
सातवीं रिपोर्ट के पृष्ठ
13 पर उन 4 व्यक्तियों
का उल्लेख है
जिन्हें लापता बताया गया
था। सीबीआइ के
अनुसार-’’ जांच से
सरसरी तौर पर
पता चला है
कि पुलिस फायरिंग
में वे भी
मारे गये और
उनके शवों का
उनके वारिशों को
बताये बिना निस्तारण
कर दिया गया।’’
केन्द्रीय जांच ब्यूरो
(सीबीआइ) द्वारा आदालत में
दाखिल की गयी
दूसरी रिपोर्ट के
पृष्ठ 2 और 3 में
दिये गये विवरण
एवं उत्तर प्रदेश
सरकार के एडवोकेट
द्वारा हाइकोर्ट में जमा
रिपोर्टों के अनुसार
18 अगस्त 1994 से लेकर
9 दिसम्बर 1994 तक गढ़वाल
और कुमाऊं में
उत्तर प्रदेश सरकार
की आरक्षण नीति
के खिलाफ एवं
पृथक राज्य की
मांग को लेकर
चले आन्दोलन में
बड़ी संख्या में
आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार
किया गया। इस
दौरान चमोली, टिहरी
गढ़वाल, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा, देहरादून,
नैनीताल, पिथौरागढ़ एवं पौड़ी
गढ़वाल जिलों में
कुल 20,522 गिरफ्तारियां की गयीं
जिनमें से 19,143 लोगों को
उसी दिन रिहा
कर दिया गया
जबकि 1,379 को जेलों
में भेजा गया।
इनमें से भी
398 लोगों को पहाड़ों
से बहुत दूर
बरेली, गोरखपुर, आजमगढ़, फतेहगढ़,
मैनपुरी, जालौन, बांदा, गाजीपुर
बलिया और उन्नाव
की जेलों में
भेजा गया। हाइकोर्ट
ने पहाड़ के
इन आन्दोलनकारियों को
उनकी गिरफ्तारी के
स्थान से 300 से
लेकर 800 किमी दूर
तक की जेलों
में भेजे जाने
पर राज्य सरकार
की नीयत पर
भी सवाल उठाया।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय
के 12 जनवरी 1995 के
आदेशानुसार सीबीआइ ने विभिन्न
वारदातों में 64 मामलों की
विवेचना की थी
जिसके पश्चात सीबीआइ
ने 43 मामलों में
आरोप पत्र दाखिल
किये इन 43 मामलों
में 3 मामलों में
निर्णय हो चुका
था उनमें किसी
को सजा नहीं
हुयी थी शेष
40 मामले सुनवाई के विभिन्न
चरणों में थे।
इन आरोपियों में
डीएसपी गीता प्रसाद
नैनवाल और सब
इंस्पेक्टर इन्दुभूषण नौटियाल भी
शामिल थे। नैनवाल
पर एसपी राजेन्द्र
पाल सिंह के
साथ ही एक
सिपाही की स्टेनगन
छीन कर आन्दोलनकारियों
पर गोलियां बरसाने
का आरोप था
और नौटियाल पर
अरोपियों को बचाने
के लिये पुलिस
रिकार्ड में हेराफेरी
का आरोप था।
हैरानी का विषय
यह है कि
राज्य गठन के
बाद गीता प्रसाद
नैनवाल रिटायर हो गये
तो पुलिस ट्रेनिंग
के विशेषज्ञ के
तौर पर उत्तराखण्ड
पुलिस के मुख्यालय
में पुनर्नियुक्ति दी
गयी।
खटीमा और मसूरी
गोलीकाण्डों के बाद
अगर दिल्ली पुलिस
को आन्दोलनकारियों के
हथियार ले कर
दिल्ली रैली में
भाग लेने की
गलत सूचना नहीं
दी जाती तो
मुजफ्फरनगर काण्ड नहीं होता।
दिल्ली पुलिस को ऐसी
खतरनाक सूचना देने वाले
का चेहरा आज
तक बेनकाब नहीं
हो सका। दिल्ली
पुलिस के तत्कालीन
उपायुक्त दीपचन्द की आन्दोलनकारी
नेता दिवाकर भट्ट
को 30 सितम्बर 1994 को
लिखी गई चिðी का
रहस्य आज तक
नहीं खुला। इस
चिðी में
कहा गया था
कि गढ़वाल के
सांसद मेजर जनरल
(सेनि) भुवनचन्द्र खण्डूड़ी ने
पूर्व सैनिकों से
बावर्दी दिल्ली रैली में
भाग लेने की
अपील की थी।
चिðी में
हथियार लेकर आन्दोलनकारियों
के पहुंचने की
संभावना व्यक्त की गयी
थी। लेकिन बाद
मंे स्वयं तत्कालीन
गृहमंत्री एस बी
चह्वाण ने न
केवल खण्डूड़ी को
क्लीन चिट दे
दी बल्कि उन
पर गलत आरोप
के लिये खेद
भी प्रकट किया।
इस चिðी
से इतना तो
स्पष्ट हो ही
जाता है कि
दिल्ली पुलिस को मिली
गलत सूचना की
जानकारी कम से
कम दिवाकर भट्ट
को तो थी
ही लेकिन उन्होंने
अगर चिðी
के जवाब में
सही जानकारी नहीं
दी। आन्दोलन के
स्वयंभू फील्ड मार्शल दिवाकर
भट्ट का मुजफ्फरनगर
काण्ड के बाद
लम्बे समय तक
गायब रहना भी
किसी की समझ
में नहीं आया।
कुमाऊं मण्डल के आन्दोलनकारी
रामपुर, मुरादाबाद एवं गाजियाबाद
होते हुये बेरोकटोक
सकुशल दिल्ली पहुंच
गये थे तो
फिर गढ़वाल से
आने वाले आन्दोलनकारियों
को ही क्यों
बंदूक की नोकों
पर रोका गया
और उनका नरसंहार
और बलात्कार किया
गया, यह रहस्य
भी आज तक
नहीं खुला।
जयसिंह रावत
ई-11, फ्रेंड्स एन्कलेव, शाहनगर
डिफेंस कालोनी रोड, देहरादून।
मोबाइल
-9412324999